Wednesday, 17 December 2008

हुजूर, होश में आइए





अब यह बात बिल्कुल साफ हो गई है कि दहशतगर्दी के खिलाफ जंग में पाकिस्तान ने जो कदम पिछले दिनों बढ़ाए थे, उन्हें उसने पीछे खींच लिया है। महज भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की नजरों में धूल झोंकने का काम किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंध का पाकिस्तानी हुक्मरान ने मजाक उड़ाया है और उनका दोगलापन सरेआम हो गया है। अब अगर भारत पाकिस्तान पर हमला कर दे, तो पाकिस्तान को बचाने के लिए कोई भी राष्ट्र खुले तौर पर सामने नहीं आएगा, लेकिन हमारे यहां बयानों में एका नहीं है। विदेश मंत्री चीखते हैं, `पाकिस्तान ठोस कदम उठाए,´ तो रक्षा मंत्री का बयान आता है, `भारत जंग नहीं करेगा।´ इन कोरी बयानबाजियों से पाकिस्तान मुतमईन हो गया है कि भारत हमला नहीं करेगा, इसलिए उसने पकड़े गए तमाम दहशतगर्द सरगनाओं को बिरयानी खिलाकर घर छुड़वा दिया है! जरदारी भी सुबूतों की ढेर पर बैठकर बेहद बेशर्मी से सुबूत मांग रहे हैं, मिलकर जांच जैसी फिजूल की बातों में दुनिया का वक्त खराब कर रहे हैं। जरदारी चैन से बैठना चाहते हैं, लेकिन हमें चैन से नहीं बैठना चाहिए। मखौल बना दिए गए संयुक्त् राष्ट्र के फरमान को अपना हथियार बना लेना चाहिए। दुनिया के बड़े-बड़े सियासतदां पाकिस्तान को नसीहतें दे रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान फिक्रमंद नहीं है। जरदारी को अपने मुल्क की ताकत का गुरूर नहीं करना चाहिए, मुशर्रफ़ को भी यह गुरूर था और वे कारगिल में मुंह के बल ढेर हुए थे। वक्त रहते जरदारी को हकीकतों पर गौर फरमाना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि दहशतगर्दों को अपने पहलू में महफूज रखने की मुहिम में मुल्क बरबाद हो जाए।

Tuesday, 9 December 2008

पत्रकारों का पार्टी प्रेम


मैंने खबरों के साथ-साथ विचारों की भी पत्रकारिता खूब की है, अत: तमाम पार्टियों के विचारों से मैं करीबी से रू-ब-रू हुआ हूं। सपा, बसपा हो या भाजपा या कांग्रेस या वामपंथी दल मैं किसी भी पार्टी पर घंटों बोल सकता हूं और सामने वाला मुझे बड़ी आसानी से बासपाई, भाजपाई या कांग्रेसी या कम्युनिस्ट समझ सकता है, लेकिन वह मुझे किसी एक खाने में नहीं पाएगा। वैसे मुझे ज्यादातर लोग वामपंथी समझते हैं, लेकिन शायद वे वामपंथ को नहीं जानते। अगर गरीबों, शोषितों के बारे में बात करना, साम्प्रदायिकता को ग़लत ठहराना ,सरकार की कमियों पर उंगली रखना, भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करना वामपंथी होना है, तो हूं मैं वामपंथी। लेकिन पत्रकार होने के लिए मेरा भाजपाई या वामपंथी होना क्यों जरूरी है? देश के बड़े-बड़े पत्रकारों को भी जब मैं पार्टियों के प्रेम में पगा देखता हूं, तो मुझे बहुत दुख होता है। मैं जिन्हें आदर्श मानता था, उन्हें भी मैंने पार्टी-पार्टी चिल्लाते देखा है। धिक्कार है। दुख होता है, कई बार तो पार्टी प्रेम का फैसला अखबार प्रबंधन ही कर लेता है, यह स्थिति ज्यादा खतरनाक है। ये फैसले बहुत दुखद हैं कि फलां नेता के खिलाफ कुछ नहीं लिखना है या फलां नेता के पक्ष में कलम तोड़ देनी है। ऐसा नहीं है कि किसी खास मौके पर, किसी खास नीति या कारनामे की वजह से मुझे किसी पार्टी से कभी प्रेम नहीं हुआ हो, लेकिन उस प्रेम को कभी मैंने हावी नहीं होने दिया। मेरी पत्रकारिता कांग्रेस या भाजपा की पत्रकारिता नहीं, बल्कि भलाई-बुराई पर आधारित पत्रकारिता है।


दरअसल आप जब पत्रकारिता को एक मामूली धंधा समझ लेते हैं, तब आप अपने लाभ के लिए किसी पार्टी से दिल लगा बैठते हैं। आपकी पार्टी जब चुनाव हार जाती है, तो आपको दुख होता है, अपने विगत के कार्य पर पछतावा होता है। जब आपकी पार्टी चुनाव जीत जाती है, तो आप न्यूज रूम में खुलेआम घोषणा करते हैं, `अब अपनी सरकार बनेगी।´ कई पार्टी प्रेम वाले पत्रकार तो एकाध चुनाव में झटके खाने के बाद संभल जाते हैं, लेकिन कई पत्रकार ऐसे भी होते हैं, जो हर पांच साल पर झटके खाते हैं, लेकिन नहीं सुधरते। जब कांग्रेस की सरकार रहेगी, तो कांग्रेस के पीछे दीवाने हुए घूमेंगे और जब भाजपा की सरकार आएगी, तो कमल को सींचने लगेंगे। पत्रकारिता बिना पानी के सूख रही हो, तो सूख जाए, पार्टी प्रेम का पौधा नहीं सूखना चाहिए। किसी पार्टी से लगाव वालों को आखिर पत्रकारिता में क्यों रहना चाहिए? साथ ही यह जरूर सोचना चाहिए कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं या कोई मौकापरस्त धंधा?

राजस्थान मे हावी हुआ हाथ


राजस्थान के नतीजों ने असंख्य लोगों को अचंभित किया है, लेकिन ये नतीजे कदापि अप्रत्याशित नहीं हैं। राजस्थान के लोग स्वभाव से परिवर्तन पसंद रहे हैं, अत: भाजपा की वापसी आसान नहीं थी। जहां तक अच्छा काम करने की बात है, तो अशोक गहलोत की सरकार ने भी अच्छे काम किए थे, लेकिन वह तो और बुरी तरह हारी थी। इस बार तो भाजपा ने हारते हुए भी अपनी नाक को संभाल लिया। भाजपा 75 सीटों के साथ मजबूत विपक्ष की भूमिका अदा करेगी, जो कांग्रेस विपक्ष में रहते नहीं कर पाई थी। बहरहाल, यह सवाल आने वाले दिनों में बार-बार पूछा जाएगा, भाजपा क्यों हारी? पहली बात, भाजपा का अति-आत्मविश्वास उसे ले डूबा। भाजपा इसी वजह से कांग्रेस पर `बिना दूल्हे की बारात´ जैसी हल्की टिप्पणी कर पा रही थी। आठ दिसंबर को जब मतगणना हुई, तो बिना दूल्हे की यह बारात 96 सीटों के आंकड़े तक पहुंच गई। सत्ता के मंडप तक पहुंचने के लिए मात्र पांच कदम और बढ़ाने हैं। थोड़े से प्रयास से पांच क्या, पंद्रह कदम बढ़ाने वाले भी मिल जाएंगे। दूसरी बात, सत्ता और जनता के बीच एक दूरी विगत दो वर्षों में पनप रही थी, जिस पर भाजपा के नेतृत्व ने गौर नहीं किया। बड़े-बड़े आंदोलन हुए, गोलियां चलीं, विस्फोट हुए। सक्षम भाजपा सरकार बेहतर कर सकती थी, लेकिन वह नहीं कर पाई। और तो और, जयपुर में जब दूषित जल की वजह से लोग काल के गाल में समा रहे थे, तब जिम्मेदारी स्वीकार करने की बजाय तत्कालीन जलदाय मंत्री सांवरलाल जाट ने कहा था, `जो आया है, वो जाएगा।´ तो देख लीजिए, न सांवरलाल जीतकर आ सके, न उनकी सरकार लौटने का दमखम दिखा पाई। पिछले साल भर से मिल रहे संकेत स्पष्ट थे, लेकिन इस वजह को भी भाजपा की हार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। तीसरी बात, दरअसल राजस्थान में भाजपा ने खुद अपना खेल बिगाड़ा। न केवल प्रत्याशियों की सूचियां देर से आई, बल्कि लुभावना घोषणा पत्र भी काफी लेटलतीफी के साथ पेश किया गया। गुर्जर आंदोलन के समय भी सुस्ती का परिचय दिया गया था। चौथी बात, सहयोग-समर्पण से सेनाएं मजबूत और एकजुट होती हैं, जबकि मूंछों की लड़ाई से पराजय के मार्ग खुलते हैं। विगत दिनों से भाजपा की पराजय के मार्ग लगातार खुल रहे थे, जिन्हें बंद करने को कई नेताओं ने अपनी शान के खिलाफ समझा। नतीजा सामने है। बाजी कांग्रेस के हाथ में है। अब उम्मीद कीजिए, कम से कम जद्दोजहद के बाद राजस्थान को अपना भावी मुख्यमंत्री नसीब हो जाएगा।

जो रचेगा वही बचेगा

अगर पांच राज्यों में हुए चुनावों का टोटल स्कोर देखा जाए, तो कांग्रेस के खाते में तीन राज्य और भाजपा के खाते में दो राज्य आए हैं। कांग्रेस के खाते में दो नए राज्य आए हैं, जबकि भाजपा ने अपने खाते से एक राज्य गंवा दिया। तो स्कोर 3 बनाम 2 रहा ]

मिजोरम और राजस्थान को छोड़ दीजिये , मध्यप्रदेश, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में लोगों ने सत्ता के पक्ष में मतदान किया है, अर्थात तीनों ही राज्यों में लोग अपनी सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं। सर्वाधिक 230 विधानसभा सीटों वाले मध्य प्रदेश में भाजपा की वापसी से कांग्रेस को बेहद निराशा का सामना करना पड़ा। सीटों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन उनसे आंसू नहीं पोछे जा सकते। सुरेश पचौरी को महीनों पहले चुनावी गुनताड़े में झोंकने का प्रयोग नाकाम रहा है। पचौरी ने फिर साबित किया कि वे जमीनी आधार वाले नेता नहीं हैं। जमीनी आधार वाले दिfग्वजय सिंह चुनाव न लड़ने की कसम खाए बैठे हैं, ऐसे में मध्य प्रदेश में चुनाव हारने के लिए हम अर्जुन सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को काफी हद तक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है, तो प्रदेश की जनता ने शिवराज सिंह चौहान पर विश्वास किया है। उमा भारती की स्वतंत्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा की फिर एक बार हत्या हो गई। वे खुद अपने घोषित गढ़ में चुनाव हारकर अपने राजनीतिक करियर पर दाग लगा बैठी हैं।

उधर, छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी का सत्ता से वनवास-काल भी लंबा खिंच गया है। अतीत में की गई बड़ी राजनीतिक गलतियां कैसे पीछा करती हैं, अजीत जोगी उसके एक उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ी लोग भूले नहीं हैं कि जोगी ने सीधे-सादे राज्य में विधायक खरीदने की गुस्ताखी करके राज्य के नाम को बदनाम किया था। सत्ता में वापसी के करने वाले मुख्यमंत्री रमण सिंह बधाई के पात्र हैं। वे एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें कोई घमंड नहीं है। घमंडहीन नेताओं की पंक्ति में कांग्रेस नेता व दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी आती हैं, तभी उन्होंने युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। अति विशाल और जटिल क्षेत्र दिल्ली को संभालना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन शीला दीक्षित ने इस काम को बहुत आसान बना दिया है। दिल्ली की हार आडवाणी के लिए सबक है। वर्ष 2007 में एमसीडी चुनावों में भाजपा की जीत का नशा काफुर हो चुका है। विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री पद के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने ही पसंद किया था, अत: आने वाले दिनों में उन्हें अपनी पसंदों पर बार-बार पुनर्विचार करना होगा। मिजोरम के नतीजे लगभग तय थे, कांग्रेस को अपनी अच्छी तैयारी का फायदा मिलना ही था। कुल मिलाकर, इन चुनावी नतीजों ने भारतीय राजनीति में एक बात को बिल्कुल स्पष्ट रूप से स्थापित कर दिया है कि राजनीतिक दलों को युवाओं को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी पड़ेगी। भारत 2050 तक युवाओं का देश रहेगा। आज का युवा भावुक नहीं है, वह चालू टाइप के नारों-झूठे वादों, जाति, संप्रदाय में नहीं उलझने वाला। वह राजनेताओं को मुद्दों और शांति-विकास की ठोस कसौटियों पर तौलता है। जिन पार्टियों में प्रभावी बुजुर्गों की तादाद ज्यादा है, उन्हें सचेत हो जाना चाहिए।

Sunday, 30 November 2008

मुंबई से सबक लेते चलिए


यह आतंकी हमला वर्षों तक भुलाया न जा सकेगा। बहुतों ने इस हमले को उचित ही युद्ध करार दिया। इस हमले में सरकार का व्यवहार भी बदला हुआ दिख रहा है। कुछ बातें हैं, जिन पर गौर फरमाना चाहिए। पहली बात, हमला होते ही सरकार ने तय कर लिया, बंधकों को छुड़ाने के लिए आतंकियों से कोई बातचीत नहीं होगी, एक-एक आतंकी को ठिकाने लगाया जाएगा, यह बहुत प्रशंसनीय फैसला है। दूसरी बात, सरकार के नुमाइंदे परदे के पीछे हैं और सुरक्षा बलों, एनएसजी कमांडो को कारवाई करते हुए पूरा देश देख रहा है। ज्यादातर लोग नेताओं की बयानबाजी नहीं सुनना चाहते। मुख्य रूप से देश आतंक के खिलाफ निर्णायक युद्ध देखना चाहता है, जोकि मुंबई में तब तक जारी रहेगा, जब तक कि एक-एक आतंकी न मार दिया जाए। तीसरी बात, भारत दुनिया के अन्य देशों से अलग है, उसने इस बात को फिर साबित किया है। कोई दूसरा देश होता, तो बिना देरी किए आतंकियों के साथ-साथ बंधकों को भी मार गिराया जाता, लेकिन भारत में सुरक्षा बल ज्यादा से ज्यादा बंधकों की जिंदगी बचाने में लगे हैं। आतंकी तो अपनी किस्मत में एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते हुए कुत्तों की मौत लिखवा कर आए हैं। भारतीय सुरक्षा बलों की तारीफ करनी होगी। किसी को बिना सोचे-समझे मारना बहुत आसान होता है। यह काम कायर ही किया करते हैं। एक बम लगाओ, उड़ा दो, या फिर रूस की तरह जहरीली गैस का इस्तेमाल करो, लेकिन किसी जिंदगी को बचाना ज्यादा मानवीय और बड़ा काम है। अभियान में होने वाली देरी हमारी कमजोरी नहीं, बल्कि भलमनसाहत है। चौथी बात, शुरुआती सुबूत पाकिस्तान की ओर इशारा कर रहे हैं और भारत सरकार हरकत में आई है। आईएसआई के प्रमुख को भारत बुलाए जाने की खबर है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कुछ नई रंगत में नजर आ रहे हैं। कोई शक नहीं, पाकिस्तान आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ को रोकने के लिए कुछ भी खास नहीं कर रहा है। जरूरत एक बार फिर जोर लगाने की है। राजग सरकार ने संसद पर आतंकी हमले के समय जोर लगाया था, तो कुछ अंतर दिखा था, अब यूपीए सरकार को भी जोर लगाना चाहिए। पाकिस्तान को वादा निभाने के लिए मजबूर करना चाहिए और अगर वह खुद अपने यहां मौजूद आतंकी आकाओं और आतंकियों को ठिकाने नहीं लगा सकता, तो भारत को इसके लिए स्वयं पहल करनी चाहिए। पांचवी बात, सुबूतों को छिपाना नहीं चाहिए। आतंकवादियों और उनके आकाओं के साथ जब तक हम सीधे नजरें नहीं मिलाएंगे, तब तक वे हमें कमजोर समझते रहेंगे। पाकिस्तानी सूत्रों के शामिल होने के बारे में सारे सुबूत पाकिस्तान और दुनिया के सामने बुलंद आवाज में रखने का समय आ गया है। पाकिस्तान के खिलाफ कोरी बयानबाजी करने वाले अपनी राजनीति को तो चमका लेंगे, लेकिन वास्तव में वे देश को धोखा देंगे। छठवी बात, आतंकवाद व संगठित अपराध के खिलाफ एक विशेष फेडरल एजेंसी तो बननी ही चाहिए, राज्य सरकारों को भी इसका मतलब और मकसद समझना चाहिए। लेकिन उससे भी जरूरी है, सुरक्षा बलों और पुलिस में भ्रष्टाचार को रोकना। भ्रष्ट व्यवस्था ने ही हमारे देश में दहशतगर्दों को पनपने के लिए खाद-पानी मुहैया कराया है। भ्रष्टाचार अब अंतरराष्ट्रीय परिघटना नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय अपराध है। सातवी बात, केवल आर्थिक भ्रष्टाचार ही नहीं, बल्कि धार्मिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार भी रुकना चाहिए। मुंबई विस्फोटों का एक अच्छा तात्कालिक परिणाम यह दिख रहा है कि हाल के दिनों में जो लोग आतंकवादियों का धर्म पूछने लगे थे, वे भी चीख रहे हैं कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता।
---28 नवंबर को लिखा गए संपादकीय के अंश---

यह हमला सरकारों को जगाएगा?


हम जिससे गुजरे, वह कोई मामूली आतंकी कारवाई नहीं, बल्कि हमारे देश पर हमला था। लगता है, आतंकियों ने आम भारतीयों की बजाय संपन्न वर्ग को निशाना बनाने की साजिश पर काम शुरू कर दिया है। अब निशाना सीधे निर्णायक वर्ग पर है, उस वर्ग पर है, जो व्यवसाय से जुड़े अहम फैसले लेता है। जो मुंबई लोकल ट्रेनों में धमाकों से नहीं रुकी थी, उसे वीआईपी जगहों पर हमले करके रोकने का दु:साहस आतंकियों ने दिखाया। अब वक्त प्रहार का है और यह बात सरेआम हो गई है कि हमारी सरकारें प्रहार के मूड में नहीं हैं। शिथिलता की बीमारी ने सरकारों को ठस बना रखा है, सरकारों को कुछ सूझ नहीं रहा। बड़े-बड़े सूरमा जासूस, अफसर, नेता भी हाथ-पांव फुलाए-बेतरह घबराए बैठे हैं। भ्रष्ट सरकारों की जितनी निंदा की जाए कम है। राजनीतिक पार्टियों की जितनी निंदा की जाए कम है। किसी ने भी ईमानदारी से आतंकवाद के खिलाफ जंग का इरादा पेश नहीं किया है, तभी तो एक के बाद एक हमारे शहर निशाने पर लिए जा रहे हैं। आतंकवाद का पानी सिर के ऊपर से बहने जा रहा है। अब काली कमाई का पाप-कर्म छोड़कर कुछ कदम उठाने ही होंगे। पहला कदम, मंत्री हो या संत्री, ढीले लोगों को आतंकवाद के खिलाफ जंग में शामिल नहीं करना चाहिए। ये लोग जंग में जंग लगाने का काम करते हैं। तेरा कानून-मेरा कानून का हल्ला मचाते हैं, तेरा मजहब-मेरा मजहब का खेल खेलते हैं, तेरा वोट बैंक-मेरा वोट बैंक के नारे लगाते हैं। अब ऐसे नेताओं को शर्म आनी चाहिए। देश को आतंकवाद के खिलाफ धूर्तता भरे बयान नहीं, ईमानदारी की ललकार चाहिए। अफसोस, सरकार में एक भी ऐसा मंत्री नहीं है, जो आतंकवादियों को खुली आवाज में ललकार सके। नरमी, मीठी बोली और शालीनता किस काम की, जब अपने ही लोगों का खून बह रहा हो। अब नेताओं को मुंबई के दौरे का दौरा पड़ गया है, वे जांच के काम में परोक्ष रूप से बाधा पहुंचा रहे हैं। नेताओं को गौर करना चाहिए, लोग भरे बैठे हैं। समय रहते सरकारें खुद को सुधार लें, क्योंकि टिकेगा वही, जिसमें मुकाबले का माद्दा होगा।

----27 नवंबर को लिखा गया संपादकीय--------

याद रहेंगे वीपी


भारतीय आधुनिक समाज और राजनीति का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का उल्लेख अनिवार्यत: करना पड़ेगा। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, कैंसर जैसी बीमारी से लंबे समय तक जूझने के बाद 27 नवंबर को नई दिल्ली के अपोलो अस्पताल में उनका निधन हो गया। एक वर्ष से कुछ कम समय तक प्रधानमंत्री रहने के बाद 10 नवंबर 1990 को जब वे पद से हटे, तभी से वे राजनीति में धीरे-धीरे हाशिये पर जाते गए और चुनावी राजनीति से संन्यास भी ले लिया। दरअसल, उनकी बीमारी ने उनका साथ नहीं दिया, वरना वे भारतीय राजनीति की ज्यादा समय तक सेवा कर पाते। वैसे भी भारतीय राजनेताओं के लिए 77 साल की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती है। बीमारी 2003 में कुछ नियंत्रण में आई, तो वे कुछ सक्रिय हुए, 2005 में जनमोर्चा को फिर खड़ा किया, लेकिन उनके शरीर में दम इतना नहीं था कि जनमोर्चा मजबूत हो पाता। आज राजनेताओं की पूरी बिरादरी जिस आरक्षण को सीने से लगाए बैठी है, वह आरक्षण वीपी का अद्वुत योगदान है। वीपी ने वह मजबूत मंच बनाया था, जिस पर आज लालू, मुलायम, मायावती जैसे नेता ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और भाजपा भी खड़ी है। वे एकमात्र प्रधानमंत्री थे, जिन्हें दलितों का मसीहा कहा गया। उनके `मंडल´ का असर न केवल भारतीय समाज, बल्कि भारतीय चिंतन, संस्कृति और साहित्य पर भी पड़ा। हम कैसे भुला दें कि समाज का एक बड़ा दबा-कुचला तबका उनकी वजह से सिर उठाकर चल सका। वे कवि और चित्रकार भी थे, तभी वे कुछ नया कर पाए, देश को अलग दिशा दे पाए। हालांकि उनके आलोचकों की संख्या भी कम नहीं है। उन्हें देश को आरक्षण की खाई में ढकेलने वाला नेता भी कहा जाता है। समस्या यह है कि प्रधानमंत्री के रूप में वीपी को सेवा का मौका ज्यादा न मिल सका। वीपी की नाकामी के पीछे उनके बाद प्रधानमंत्री हुए चंद्रशेखर की महत्वाकांक्षा का भी योगदान माना जाता है, आडवाणी के कमंडल आंदोलन ने भी वीपी के जादू को कम किया। दरअसल, वीपी के बाद जिन लोगों ने आरक्षण के मजबूत झंडे को उठाया, वे नैतिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। कहना न होगा, जब उत्तराधिकारी अच्छे नहीं निकलते, तो बुजुगो को बदनामी झेलनी पड़ती है। वीपी का वही हाल हुआ, जो 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण का हुआ था। न जेपी का कोई गुण उनके कथित उत्तराधिकारियों में आया, न वीपी का कोई गुण उनके कथित उत्तराधिकारियों को भाया। तो जीते-जी भुला दिए गए बड़े भारतीय नेताओं में वीपी का भी नाम हमेशा लिया जाएगा। आज की राजनीति में बड़े उद्योगपतियों से जूझने का माद्दा किसी नेता में नहीं है, लेकिन वीपी ने राजीव गांधी की सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए टैक्स चोरी और अन्य गलत तरीका इस्तेमाल करने वाले बड़े उद्योगपतियों के खिलाफ कदम उठाए थे। हम कह सकते हैं, वे समाजवादी विचार वाले देश के आखिरी प्रधानमंत्री थे। कुछ खट्टी यादें भी हैं, जो उनका पीछा नहीं छोड़ती हैं। अव्वल तो वे अपने आसपास अच्छे लोगों को जुटा न सके, जिसकी वजह से उनका काम आगे नहीं बढ़ पाया। दूसरी बात, प्रधानमंत्री रहते कश्मीर में इतने तेजी से कदम उठाए कि नीतियां परस्पर उलझ गई। तीसरी बात, बोफोर्स खुलासे में उनका योगदान था, लेकिन बाद में वे अपने ही आरोपों से मुकर गए। चौथी बात, उन पर आरोप लगता है, प्रधानमंत्री बनने के लिए भाजपा से समर्थन लेकर उन्होंने भगवा पार्टी को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में सम्मान दिलाया। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे हमेशा याद आएंगे।

Tuesday, 21 October 2008

रोटियां और पराठे

वाह!
फूल रही हैं रोटियां
इस बार मान गई हैं,
खुशी में हो रही हैं गोल-गोल।

ओह!
पर हो गई एक गड़बड़
रोटियों से यारी पर
खफा हैं परांठे,
टेढ़े-तिरछे।
बनाए नहीं मानते,
बार-बार बिगड़ जाते,
चकले पर उलट जाते,
बेलन से झगड़ जाते,
पकने से द्रोह करते,
जैसे सीधे बाप के बिगड़ैल बेटे।

पर खुश हैं रोटियां
जैसे अच्छी मां,
प्यारी पत्नी और दुलारी बेटियां।

इन दिनों घट गई रसोई से दूरियां
रोटियों के प्रेम में तल रहा हूं पूरियां।

--दो--

भोलीभाली रोटियां
चालाक परांठे,
रोटियां तालमेल
परांठे घालमेल,
रोटियां सहारा
परांठे साजिश,
रोटियां जरूरत
परांठे ऐय्याशी,
रोटियां हकीकत
परांठे तमाशा।

--तीन--

कहते हैं, पहले नहीं थे परांठे
बस रोटियां थीं
जब तेल आया,
हुआ भ्रष्टाचार
सादगी पर प्रहार,
तो बने परांठे,
जैसे भ्रष्ट, कमजोर नेता,
थोड़े राजा, ज्यादा अभिनेता।
पालक, मूली हो या आलू
हो गया गठजोड़ चालू।
अच्छा लगा, लच्छा लगा,
चल गए परांठे,
जैसे चल गए नेता।

नेता और परांठे
दोनों देखते तेल की धार।
तेल में सिमटा सारा सार।
पर जब नाराज होंगे
पेटों के ज्वालामुखी,
भाग जाएंगे नेता और परांठे,
बस, अकेले काम आएंगी रोटियां।

Monday, 20 October 2008

चावल का चक्कर

जाति .... : भाग नौ

उस वर्ष धान बहुत कम हुआ था, लेकिन तब मैं पैदा नहीं हुआ था। मुझसे बड़े वाले भाई साहब का दुनिया में पदार्पण होने वाला था। पिता जी परिवार लेकर राउरकेला से शीतलपुर आए हुए थे। इस छोटे परिवार का मतलब, माता, पिता, मेरे दो बड़े भाई, जो तब तीन और एक साल के हुआ करते थे।

उन्हीं दिनों बांग्लादेश की आजादी के लिए संघर्ष तेज होने लगा था। बड़ी तादाद में बांग्लादेशी भारत आ रहे थे, मेरे गांव की ओर तो नहीं, लेकिन मेरे शहर राउरकेला में पलायन का प्रभाव दिखने लगा था। इंदिरा गांधी ने कुछ ही महीने पहले गरीबी हटाओ का नारा दिया था, लेकिन ये वही वर्ष थे, जब बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्य पिछड़ने लगे थे। महाराष्ट्र, पंजाब और दक्षिण के राज्यों में तरक्की तेज होने लगी थी। बिहार विकास की सीढियों पर लुढ़क रहा था। यह वह दौर था, जब बिहार अपने पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के दौर में अर्जित दिशा और दशा को गंवाना शुरू कर चुका था।

खैर, उस साल हमारे खेतों में धान नहीं के बराबर हुआ था, जो चावल उपलब्ध था, वह मां को अच्छा नहीं लगता था और बार-बार रोटियों से पाला पड़ता। मुझसे बड़े वाले भाई साहब पेट में थे, शायद चावल के शौकीन, धमाल मचा देते होंगे। मां की इस तकलीफ से बुआ लालदेई अनभिज्ञ नहीं थीं। दादी तो थी नहीं, वैसे मेरे किसी भाई को दादी या दादा की गोद में खेलने का सौभाग्य हासिल नहीं हुआ। मेरे बड़े पिताजी अर्थात बाबूजी की भार्या अर्थात मेरी बड़ी मम्मी भी नहीं थी, लेकिन एक बूçढ़या अम्मा और एक बड़ी अम्मा थीं। बड़ी अम्मा घर की मालकिन थीं। दुर्भाग्य से घर में बेवाओं का जमावड़ा था, उनमें यदा-कदा विवाद भी होता क्योंकि वे सब अपने-अपने दुख से परेशान थीं। लेकिन मां को मैंने आज तक कभी कलह में नहीं देखा है। तब मां गांव में घूंघट भी काढ़ती थीं, दुलहिन बोली जाती थीं। अच्छे चावल खाने की इच्छा बोलें, तो किससे बोलें। पिता को बोलना बेकार था, वे आज भी कहते हैं, `जो है, क्या वह कम है?´ लेकिन मां का मन न मानता, काश, कहीं से अच्छे चावल का इंतजाम किया जाता। चावल खरीदने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, बदनामी होती। इतने खेत हैं, फिर भी चावल खरीदते हैं। गांवों में बनियों की दूकानों से ही तमाम घरों के रसोईघरों की कमियां दुनिया में फैलती हैं, वैसे भी तब गांव के बाजार पर गिनती की तीन-चार दूकानें हुआ करती थीं और सभी पहचान के बनिये थे। तो चावल खरीदने का विचार दमदार नहीं था। चुपचाप रहने वाली मां ने किसी से नहीं कहा, हालात से समझौते के लिए मन को तैयार कर लिया। फिर भी मन न मानता, शायद गर्भ में पल रहे भाई साहब को चावल बिना चैन नहीं था। जो चावल उपलब्ध था, वह न देखने में ठीक, न खाने में और न सूंघने में।

वैसे भी जिन महिलाओं के पैर भारी होते हैं, वे सूंघ-सूंघकर खाती हैं, बल्कि सूंघती ज्यादा हैं और खाती कम हैं। अगर एक बार किसी चीज की गंध से घृणा हो गई, तो फिर वह चीज पास नहीं दिखनी चाहिए।

लेकिन भाई साहब के हिस्से में ढेर सारा अच्छा चावल लिखा था और है। अगर ऊपर से देने वाला तैनात हो, तो लेने वाला तो मात्र दर्शक है। उन्हीं दिनों हमारे एक सामा बाबा था। बर्नपुर कारखाने से रिटायर होकर लौटे थे। घर के बंटवारे में वे पहले ही अलग हो गए थे। अकेले थे, शादी नहीं हुई थी। बासठ-तीरसठ की उम्र में ही काफी बूढ़े लगने लगे थे। बीमार रहते थे। अपना घर तो बनाया नहीं। जवानी कारखाने और बर्नपुर में झोंक दी, रिटायर होकर लौट आए गांव। यहां-वहां किसी-किसी के यहां रहते थे। गांवों के अनेक लोगों ने उन्हें प्यार दिखाकर खूब लूटा था। उनका पैसा किसी के पास, बर्तन-सामान किसी और के पास, तो अनाज किसी और के खलिहान में होता था। गांव में पॉपुलर थे, क्योंकि उनमें लोगों की मदद करने का माद्दा था। सामा बाबा को मेरे पिता और बाबूजी से काफी लगाव था, जो दुनिया से धोखा खाते हुए निरंतर बढ़ता जा रहा था। पिता और बाबूजी ही थे, जो बिना स्वार्थ के अपने सामा चाचा की सेवा करते थे। वे कई-कई दिनों पर हमारे घर आते थे, लेकिन घर की महिलाएं भी उनकी सेवा करने, उन्हें भोजन करवाने को तत्पर रहती थीं। पिताजी परिवार के साथ गांव आए हैं, इसकी सूचना सामा बाबा को लग चुकी थी। एक दिन सुबह मिलने के लिए हमारे घर आए। वे सीधे आवाज देते हुए आंगन में चले आए। दीन-हीन, दुबले, मटमैली होती धोती, पुराना पड़ता कुर्ता, चारों ओर से तेजी से घेरता बुढ़ापा। उन्हें आंगन में देख सहर्ष हलचल हुई। बुआ, मां सबने आगे बढ़कर उनके चरण छुए। बैठने के लिए खाट गिरा दी, चादर बिछ गई। पीने को पानी आ गया। सामा बाबा सबसे हालचाल पूछने लगे। सबने गौर किया, उनकी रूखी त्वचा पर छोटे-छोटे चकते बन गए थे। वे किसी अनाथ बूढे़ से लग रहे थे। घर की सभी महिलाओं को उन पर दया आई, तो मां बैठ गई चचिया सुसर की सेवा करने। बूçढ़या अम्मा, बड़ी अम्मा, बुआ, घर के काम करने वाली काकी, सभी से वे बात करते रहे। हमने तो सामा बाबा को नहीं देखा, लेकिन सुनते हैं, गजब के मिलनसार और दिल के बड़े मीठे आदमी थे। खड़ा और साफ-सुथरा बोलते थे, दिखावे से कोसों दूर। कुछ देर बाद उनके हाथ-पैर की त्वचा के चकते दूर हो गए, रूखापन गायब हो गया, उनकी आत्मा प्रसन्न हो गई। वे कुछ भावुक भी हुए होंगे, उन्हें अपना-सा अहसास हुआ होगा। बातों-बातों में बुआ ने मां की स्थिति और चावल की कमी के बारे में उन्हें बता दिया था। बाबा ने चावल की कमी पर कुछ नहीं कहा। खाट पर कुछ देर सुस्ताने के बाद चुपचाप आंगन से बाहर आ गए। पिता, बाबूजी और बच्चों के बारे में पूछा और नारा की ओर बढ़ चले। नारे से होते हुए नौतन बाजार की ओर जाती सड़क के पश्चिम में नारे वाले खेत में बाबूजी, पिता काम में जुटे थे। मेरे दोनों छोटे-छोटे बड़े भाई भी खेत में मिटटी-मिटटी खेल रहे थे। सामा बाबा तेजी से खेत में उतरे, सभी ने बढ़कर उनका अभिवादन किया। आदेश पर मेरे बड़े भाइयों ने भी उनके चरण छुए। उन्हें देखकर बाबा का मन खिल उठा। उन्हें पुचकारते रहे, दूसरे ही पल मन में चावल की बात उभर आई, वे थोड़े गुस्से में बाबूजी की ओर मुखातिब हुए, `मास्टर, घर में चावल का अभाव हो गया है और मुझे पता नहीं है? मुझे पराया समझे हो?´बाबूजी चुपचाप सुन रहे थे। उनमें वैसे भी पहाड़-सा संयम रहा है। `हम और तुम मिट्टी में पैदा हुए, मिट्टी में मर जाएंगे। तरह-तरह के अभाव देखे, लेकिन अब यहां से हमारी पीढ़ी बदल रही है। देखो, इन बच्चों के सुंदर-साफ चेहरे देखो, ये मिट्टी के लिए नहीं बने हैं। ये गांव में नहीं रुकने वाले। ये हमारी मेहनत के हीरे-मोती हैं, इन्हें कोई अभाव नहीं होना चाहिए। कुछ दिन के लिए गांव आए हैं और हमारे रहते, इन्हें अभाव हो?´

बाबूजी चुप रहे, पिताजी काम में लगे रहे। भाई साहबों का खेल जारी रहा, बाबा पुलिया पार करते हुए नौतन बाजार चले गए। कुछ देर बाद नौतन बाजार की ओर से एक मजदूर हमारे घर की ओर आता दिखा। कंधे पर भरा-भारी बोरा था, वह पुलिया पार करके हमारे दरवाजे पर पहुंचा। कंधे से बोरे को उतारकर बोला, `सामा बाबा, अपने खलिहान से धान भिजवाए हैं? बोले हैं, घटे, तो संकोच करने की जरूरत नहीं है।´ बुआ ने आगे बढ़कर बोरे में बनी एक छेद से थोड़ा-सा धान निकला, चावल के कुछ दाने निकाले , हथेली पर लिया, सूंघा और खुश होकर कहा, `ए दुलहिन, ये चावल बहुत अच्छा है।´

Saturday, 18 October 2008

स-स्वाद यादें

(एक मित्र के लिए )
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यादों का भी स्वाद
दिल में आबाद
कुछ मीठी और ढेर सारी खट्टी
बेकार, बेमजा यादें
पीछा नहीं छोड़तीं
रहरहकर जीवन की जीभ पर
दौड़ती बिना ब्रेक
हंसती, दुखी देख।

मन करता है बुलाऊं
जो छोड़ गए ढेर सारा खट्टापन जिंदगी में मेरे
रस में गिरा गए
कुछ ऐसा, जो घुल न सका
निर्मम हठी ढेले-सा
उजड़े हुए मेले-सा
कुछ लगा है मेरे दिल में।

वर्षों से अधपकी कढ़ाई चढ़ी जलेबियां,
आंच मांगते समोसे,
तलने के इंतजार में पूरियां,
बासी होने पर अड़ी तरकारी
झूलने को लालायित झूले,
खेले जाने के इंतजार में बैलून,
अकेलेपन के राग में बांसूरी
मेले के माइक में अटका कोई विरह गीत
किसी मित्र का छूटा हुआ हाथ
जगह-जगह टूटे ठेले
तोल-मोल के झमेले,
कादो-कीचड़ कौन हेले,
यादों में उजड़े पड़े मेले में
छूटा बहुत कुछ बदसूरत।

कटारी-सा काटता कसैलापन
कभी टनों मिर्चियों का तीखापन
दौड़ता रगों में
चिढ़ता रतजगों में।

बार-बार, हर बार मजबूरन
चखा, तो जाना
स-स्वाद होती हैं यादें।

लबालब भरा दिल
लेकिन मुंह में नहीं आती
वरना थूककर चल देते हम
मुंह में रह जाता मीठा
और धूल चाटता
कसैला, खट्टा और तीखा।

Wednesday, 8 October 2008

उनकी पुरानी बदमाशी

जाति के जर्रे : भाग आठ
तो नारा क्षेत्र की अहिमयत पूरे इलाके में है। जब ज्यादा बारिश होती है, तो पुलिया तक पानी चढ़ जाता है, सड़क पर से पानी बहने लगता है। लाठी के सहारे लोग जमीन खोजते हुए नारा पार करते हैं।
लेकिन उस साल बारिश शुरू ही हुई थी, मोहन और जवाहिर के पिताजी धूनीराम बीमार थे। जब बूंदाबांदी ठीक-ठाक होती दिखी, तो धूनीराम ने अपनी पत्नी को बुलाया और कहा, `मैं तो नहीं जा पाऊंगा। जाओ, बाबाजी लोग को बोलो, धान रोपाई का समय आ गया है। चंवर में पहले धान रोपा जाएगा, तो ठीक रहेगा।´ धूनीराम की पत्नी बारिश में पन्नी से खुद को ढके हुए हमारे घर तक आई थी और बाबूजी से कहा था, `चलिए बोआई करवाइए।´ बाबूजी भी तैयार बैठे थे, स्कूल में शायद छुट्टी का दिन होगा या फिर बारिश के कारण छुट्टी घोषित हो गई होगी। तो वे चल पड़े चंवर। खेत पर पहुंचे, तो वहां पहले से बोआई करने के लिए धूनीराम के परिवार के लोग व अन्य खेतिहर मजदूर जुटे थे, मोहन और जवाहिर भी मां और बीमार पिता के आदेश सुनकर चंवर में पहुंच गए थे। रुक-रुककर झीमी-झीमी बारिश हो रही थी, बोआई के लिए बिल्कुल सटीक समय था। धान के पौधे लेकर सबसे पहले धूनी की पत्नी पानी भरे खेतों में उतरी, तो पैर खेत में बिल्कुल नहीं गड़े। कुछ और चली, तो आगे भी खेत में पैर नहीं धंस रहे थे। चिंतित हो गई, भोजपुरी में चिल्लाई, `आहे राम, खेत में बोआई कइसे होई?´ बाबूजी मुस्कराए कि धूनी की पत्नी शायद मजाक कर रही है, लेकिन धूनी की पत्नी ने फिर ठेठ भोजुपरी में कहा, `ऐ बबुआ, बोआई कइसे होई?´
बाबूजी ने पूछा, `क्या बात है? क्यों नहीं होगी बोआई?´तब धूनी की पत्नी बोली, `मेड़ पर से उतर कर थोड़ा खेत में आइए और देखिए।´बाबूजी थोड़ा चिंतित हुए और मेड़ पर से उतर कर खेत में आए। यह क्या? खेत तो जुता ही नहीं था। बेहिसाब अचरज हुआ। थोड़ा और चले, फिर वही बात, खेत जुता ही नहीं था और ऊपर-ऊपर पानी जमा था। बोआई मुश्किल थी। उन्हें समझते देर नहीं लगी। उन्होंने गुस्से के साथ मोहन और जवाहिर की ओर देखा, जो जानबूझकर अनजान बनते हुए किसी और दिशा में देख रहे थे।धूनी की पत्नी ने भोजपुरी में कहा, `खेत त जोताइले नइखे, बोआई का हुई? रउआ, खेत न जोतवैनी हं?´ गुस्साए बाबूजी ने कहा, `अपने बेटों से पूछो, जो इस खेत को जोतने का पैसा मुझसे दो बार ले चुके हैं। पांच-छह दिन बैल खोलकर ले गए थे कि बारिश आने वाली है, चंवर में खेत जोतना है, लेकिन देख लो कैसी जोताई हुई है।´
धूनी की पत्नी ने बेटों से चिल्लाकर पूछा, `खेत की जुताई क्यों नहीं हुई?´
कोई जवाब न मिला। खेत पर बोआई के लिए आए अन्य मजदूर भी पूछने लगे, मोहन और जवाहिर की बोलती बंद थी। क्या जवाब देते? बाबूजी के बैल लेकर उन्होंने दूसरों के खेतों में जुताई की थी, कमाई की थी। दोनों ही तरफ से पैसे वसूले थे। दिमाग पर लोभ का परदा पड़ा था, उन्हें अंदाजा न था कि बारिश इतनी जल्दी आ जाएगी और उनमें बाबूजी के प्रति कोई डर भी नहीं था। वे जानते थे, बाबूजी थोड़ा-बहुत नाराज होने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकेंगे। मोहन और जवाहिर की चुप्पी में उनकी मां को जवाब मिल चुका था, वह गुस्से से कांप रही थी, `बाबूजी के बैल भी लिए, पैसे भी लिए, लेकिन दूसरों का खेत जोता और बाबूजी का खेत यों ही पड़ा रह गया। राक्षसों, तुम लोगों ने ऐसा क्यों किया? भले आदमी को ही ठगोगे? दूसरा कोई न मिला?´मोहन और जवाहिर चुप थे, मन ही मन पछता रहे थे। उनकी मां का गुस्सा चरम पर था, वह बेटों पर बुरी तरह कुपित थी, रहा न गया, लगी श्राप देने, `जिससे सबसे ज्यादा अन्न और धन मिलता है, उसी को तुम लोगों ने धोखा दिया है, जाओ, तुम लोग हमेशा अभाव में ही रहोगे, क्योंकि तुम लोगों के मन में बेईमानी है। तुम लोगों को अन्न-धन के लिए तरसना पड़ेगा।´
बाबूजी बिना कुछ बोले निराश होकर चंवर से भीगते हुए लौट आए थे। उन लोगों ने धोखा दिया था, जिन पर सर्वाधिक भरोसा था। बाबूजी को ऐसा लगा था, मानो वे सेना विहीन हो गए हों। उस साल चंवर में धान की काफी कम उपज हुई थी, लेकिन उस साल बहुत दिनों तक मोहन और जवाहिर नजर नहीं आए थे और उनके पिता धूनीराम दुख के कारण ज्यादा बीमार रहने लगे थे। बाद में धूनीराम के यहां जब अन्न का ज्यादा अभाव हो गया, तब भारी अपराध बोध के साथ उन्हें बाबूजी के पास आना ही पड़ा था। यहां न आते, तो कहां जाते? मां का श्राप जो मिला था, अन्न और धन के लिए तरस रहे थे। भूखे बच्चों का रोना बर्दास्त नहीं होता था, बीवियों ने ताना मारकर बेहाल कर रखा था। पहले मोहन भाई आए थे, बिना कुछ बोले हमारे यहां साफ-सफाई में लग गए थे। बाबूजी ने काम करते देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं, स्कूल चले गए। शाम के समय बड़ी अम्मा ने सबसे छिपाकर मोहन को सेर भर गेहूं दिया और बाबूजी ने हथेली पर पांच रुपये मजदूरी के रखे, तो मोहन भाई की आंखों से पछतावे के आंसू बह निकले।

हमारे गांव का नारा


जाति के जर्रे : भाग सात

मेरे नारा का नाता कतई राजनीति से नहीं है। मेरे नारा का मतलब है नाला। भोजपुरी में नाला को नारा ही बोला जाता है, जो ध्वनि के लिहाज से नाला की तुलना में ज्यादा बेहतर सुनाई पड़ता है। यह नारा मेरे लिए शुरू से रहस्य और रोमांच का विषय रहा है। हम नारा पार करके ही अपने घर पहुंचते हैं , हम अपने खेतों की ओर जाते हैं , तो नारा पार करना पड़ता है । हमारे आम के बगीचे भी नारा के उस पार पड़ते हैं। मोहन और जवाहिर राम के घर भी नारा पार ही स्थित हैं। लेकिन माफी कीजिएगा, नारा का मतलब यह नहीं है कि उसमें गांव का बदबूदार पानी बहता हो। लगभग दो सौ मीटर चौड़ा यह नारा अब सूख चुका है, किसी जमाने में यहां दरिया हुआ करता था। बताते हैं, कमर तक पानी बहा करता था। शायद यह नारा गंडक और सरयू नदी के बीच बहता होगा। यह दशकों तक एकमा और मांझी थाना की सीमा रेखा रहा है, लेकिन अब एक नया थाना बन गया है दाऊदपुर। इसमे पानी भले न रहा हो, लेकिन नारा की निशानियां अभी भी बरकरार हैं। मैंने जहां तक चलकर देखा है, नारा करीब तीन से चार किलोमीटर लंबा है। थोड़ी-सी बारिश होते ही नारा पानी से भर जाता है और गवाही देता है कि मैं कभी जिंदा था, बहता था। नारा के उत्तर में नौतन बाजार गांव है और दक्षिण में शीतलपुर बाजार। नारा के ऊपर एक पक्की सड़क है, जो शायद राज्यमार्ग है, एकमा और मांझी को जोड़ता है। पक्की सड़क से लगभग तीन सौ मीटर पश्चिम में कच्ची सड़क है, जो नौतन बाजार और शीतलपुर बाजार को जोड़ती है। इस कच्ची सड़क से आप नौतन बाजार से जब शीतलपुर की ओर आते हैं, तो पहला मकान हमारा ही पड़ता है। इस कच्ची सड़क पर एक पुलिया भी है, क्योंकि नारा के एक हिस्से में गहरे गड्ढे हैं। एक दूसरे से जुड़े इन गड्ढों का भी अपना इतिहास है। जब गांवों में मिट्टी के घर बना करते थे, तब नौतन बाजार के लोग अपने ओर के नारा की मिट्टी काट-काट कर ले जाते थे। नारा की मिट्टी काफी मजबूत है, सिमेंट के रंग की, सिमेंट जैसी। मिट्टी काटते-काटते जब गड्ढे गहरे हो गए होंगे, तो इस जगह पर एक गांव से दूसरे गांव जाना मुश्किल हो गया होगा। तब शायद नारा से ही और मिट्टी काटकर नारा और उसमें पैदा हुए गड्ढों पर बांध जैसा बनाया गया होगा और बांध पर सड़क बनाई गई होगी। बांध के नीचे से पानी आर-पार हो जाए, इसके लिए पुलिया बनाई गई होगी, जो आज भी है।

यह पुलिया अंग्रेजों के समय ही बनाई गई थी। आज भी पुलिया ऊपर-ऊपर भले टूट जाती है, लेकिन उसका ढांचा मजबूत है। हर तीन-चार साल बाद पुलिया पर ऊपर से चढ़ाया गया ज्यादा बालू और कम सिमेंट का लेप उधड़ जाता है, तो पुराने जमाने की तगड़ी ईंटें झांकने लगती हैं। ईंटों को झांकते देख हमारे बाबूजी और अन्य बुजुर्गों को शर्म आने लगती है। वे पंचायतों पर दबाव बनाते हैं, कई गांवों के लोगों का दबाव पड़ता है, तब जाकर पुलिया की मरम्मत होती है, लेकिन बस तीन-चार साल के लिए।

हमारे नारा पर बनी यह पुलिया ही नहीं, बल्कि बिहार में असंख्य पुल हैं, तो अंग्रेजों की ईमानदारी की मिसाल हैं। केवल सड़क वाले पुल ही नहीं, कई रेल पुल भी हैं, जो अंग्रेजों के समय के हैं, आदर्श हैं। वरना पटना में गंगा नदी पर बने विशाल गांधी सेतु को बने तीस साल भी तो नहीं हुए, लेकिन हालत जर्जर है। मरम्मत जारी रहती है, खत्म होने का नाम नहीं लेती।

खैर नारे के गहरे हिस्सों पर बनी पुलिया हमारे घर से मात्र डेढ़ सौ मीटर उत्तर में स्थित है। अगर आप पुलिया पर साइकिल को बिना पैडल मारे लुढ़कने दें, तो साइकिल हमारे घर के सामने आकर रुकेगी। यह पुलिया मेरे लिए आज भी कौतूहल का विषय है। जब हम छोटे थे, तो पुलिया और घर के बीच रोज दस बार अप-डाउन किया करते थे। मेरे पिता और बाबूजी ने भी खूब अप-डाउन किया होगा। मेरे भाइयों ने भी खूब अप-डाउन किया है और अब मेरे छोटे-बड़े तमाम भतीजे भी बड़े मजे से अप डाउन करते हैं। गांव के दूसरे बच्चे भी आते हैं अप-डाउन के लिए। यह अप-डाउन एडवेंचरस स्पोट्र्स की तरह है। चुनौतीपूर्ण है बच्चों के लिए विशेष रूप से, इसलिए उन्हें आनंद भी आता है।

पुलिया लगभग आठ फीट चौड़ी है, उससे जब शीतलपुर या हमारे घर की ओर उतरते हैं, तो दोनों ओर बीस-बीस फीट गहरे गड्ढे हैं, जो लगभग तीस फीट तक साथ-साथ चलते हैं। उसके बाद ही हमारे घर की ओर थोड़ी समतल भूमि शुरू होती है। इन गड्ढों को किसी से बैर नहीं है। इन्हीं भोजपुरी में गड़हा कहा जाता है। उच्चारण से ही जाहिर है, गड्ढा की तुलना में गड़हा शब्द में ज्यादा आकर्षण है। हां, पुलिया पर से साइकिल लुढ़काते हुए अगर संभलकर न चला जाए, तो लुढ़कते हुए गड्ढों में जाना पड़ता है। फिर अपने आप धूल झाड़ते हुए गड्ढे से निकलना पड़ता है या फिर कोई न कोई मददगार मिल ही जाता है। बारिश के महीने में लगभग डेढ़ महीने पूरे नारा में पानी जमा रहता है और नारा में जब पानी सूख जाता है, तब भी नारे में स्थित इन गड्ढों में लगभग तीन-चार महीने तक पानी बचा रहता है। पानी भर जाए, तो ये गड्ढे इतनी मछलियां देते हैं कि आस-पास के दस-दस गांवों के शौकीनों की आत्मा तृप्त हो जाती है।

नारा वाले गड्ढे शुरू से ही मेरे लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। आज भी जब गांव जाता हूं, मौसम चाहे कोई हो, मौका पाते ही पहले गड्ढों में झांक आता हूं कि पानी है या सूख गया। मेरे पिताजी और बाबूजी भी शायद ऐसा ही करते होंगे। मेरे भाई भी गांव जाते हैं, तो उन्हें मैं गड्ढों का मुआयना करते देख ही लेता हूं और मेरे छोटे-बड़े तमाम भतीजे तो बेशक गड्ढों का मुआयना करते होंगे।

कई बार मैं नारे और गड्ढों को लेकर भावुक या नोस्टेलजिक हो जाता हूं। सोचता हूं, अगर जल स्रोतों को ठीक से सहेजा जाए, तो यह नारा भी बह चलेगा, लेकिन मेरा अनुमान है कि जब गंडक या सरयू पर बांध नहीं बने थे, तब उनका पानी इस नारे में आता होगा। आज मजबूत बांध बन गए हैं, तो नारों में पानी कम ही आता है। उत्तर बिहार का एक बड़ा इलाका गंडक और सरयू पर बने बांधों के कारण बाढ़ से बचा रहता है, मधेपुरा, सुपौल जैसी तबाही नहीं होती है, लेकिन बांधों का एक खामियाजा यह हुआ है कि हमारे इलाके में पानी की कमी हो गई है। हालांकि अब एक नहर इधर चार-पांच साल से बह रही है, लेकिन उससे दो बातें जुड़ी हैं, अव्वल तो इस नहर के बनने में लगभग तीस साल का समय बरबाद हुआ है और दूसरी बात, यह नहर जल-कुप्रबंधन का शिकार है। जरूरत के समय पानी नहीं होता और पानी जब आता है, तो खड़ी फसल सड़ा जाता है। मेरा खयाल है, अगर नारा में बहता दरिया आज जीवित होता, तो इलाके में नहर की जरूरत ही नहीं पड़ती। इलाके के लोग न दरिया को भूले हैं और न नारा विस्मृत हो रहा है। आज भी कोई भी इस नारे में घर नहीं बनाता है। क्या पता कब नारा जाग जाए और बह चले?

Tuesday, 7 October 2008

पापी पार्टियों की परिपाटी




धिक्कार है ऐसे मां-बाप पर, जो अपने बच्चों को शुरू में तो दूध पिलाते हैं और बाद में नशा पीने के लिए छोड़ देते हैं। मुंबई में रेव पार्टी मनाते हुए लगभग ढाई सौ युवाओं का पकड़ा जाना न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक है। देर रात हुई पार्टी में सारे लड़के नहीं थे, वहां 65 लड़कियां भी कंधे से कंधा मिलाकर नए जमाने के नए पतन की परिपाटी को आगे बढ़ा रही थीं। इस पार्टी के लिए जिम्मेदार लोगों को अगर माफ किया गया, बिना सजा दिए छोड़ा गया, तो रेव पाटिüयों का चलन हमारे समाज में तेजी से बढ़ेगा। इसके अलावा जो युवा पार्टी में शामिल हुए थे, उन्हें भी बेदाग नहीं जाने देना चाहिए, ताकि बाकी युवाओं को नसीहत मिले कि ऐसी पार्टियों का क्या हश्र होता है। रेव पार्टियाँ कोई आम पार्टियाँ नहीं होतीं, उनमें खुलकर नशेबाजी होती है। नशेबाजी में भी शराब नहीं, बल्कि सीधे ड्रग्स का इस्तेमाल होता है। तड़क भड़क वाली रोशनी जरूरी नहीं है क्योंकि समुद्र के किनारे या जंगल या और कहीं भी यह हो सकती है. हाँ इनमें खास तरह का तरंगित संगीत भी होता है, संगीत में शब्द कम होते हैं और एक ही तरह के शब्दों का दोहराओ होता है कान को झनझना देने वाले बीट्स होते हैं कुल मिलकर संगीत ऐसा होता है की नशा बढ़ जाए। लेकिन संगीत सहायक का काम करता है, मुख्य काम तो ड्रग्स करते हैं। आम तौर पर रेव पार्टी में ड्रग्स के शौकीन ही जाते हैं। ये पार्टियाँ खचाखच भरी होती हैं, जितनी ज्यादा भीड़ उतना ही लाउड इलैक्ट्रिक संगीत और उतना ही ज्यादा नशे का सामान। पश्चिमी देशों में आयोजित होने वाली ऐसी पाटियों में तो पांच-पांच हजार की भीड़ जुटती है, जो एक साथ नशे के अंधेरे गड्ढे में उतरती है। ऐसे अंधेरे गड्ढों से चंद युवा ही वापसी कर पाते हैं, ज्यादातर युवा तो अपनी जिंदगी का बहुमूल्य समय हमेशा के लिए ड्रग्स के नाम कर देते हैं।


रेव कहिए या एसिड हाउस पार्टी कहिए या वाइल्ड बोहमियन पार्टी, पश्चिम के खाए-पीए-अघाए समाज को 1950 के दशक में ऐसी पार्टियों का रोग लगा था। पूंजीवाद और `इजी मनी´ की गंदी कोख से रेव पार्टियों का जन्म हुआ था। पूंजी के प्रभाव में अमेरिका के हु ूस्टन शहर और ग्रेट ब्रिटेन के लंदन में अकूत अमीरी में पले उदास युवाओं ने रेव पार्टियों में जीवन की तलाश शुरू की थी, वह जीवन तो आज भी हाथ नहीं आया, लेकिन बेहूदी खोज आज भी जारी है। भारत में भी अमीरी की मलाई जम रही है, तो रेव और जंगल पार्टियाँ यहां भी न केवल बड़े शहरों, बल्कि छोटे शहरों में भी होने लगी हैं। अमीरी का यह घिनौना रूप न केवल अभद्र डिजाइनर डे्रसेज, बल्कि डिजाइनर ड्रग्स से तैयार होने लगा है। हमारी सरकारें आंखें मूंदकर बैठी हैं, शासन-प्रशासन चला रहे लोग भी कहीं न कहीं इन पार्टियों में भागीदारी करते पाए जा रहे हैं। यह देश रेव पार्टियों को कदापि बर्दास्त नहीं कर सकता। जहां 25 प्रतिशत लोगों को एक-दो रुपये की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है, वहां चंद लोग रेव पार्टियों में हजारों रुपये उड़ा रहे हैं। ऐसी पार्टियाँ न केवल नशा देंगी, बल्कि इनसे तमाम तरह के अपराध भी बढ़ेंगे। अगर हम रेव पार्टियाँ होने देंगे, तो यकीन मानिए, कल ये पार्टियाँ हमारा सुख-चैन लूट लेंगी।

Friday, 26 September 2008

वाह रे मेहमाननवाजी

क्रिकेट की दुनिया बड़ी अजीब है, मेहमानों की अगर ढंग से सेवा करो, सहूलियतें दो, तो खुद मेजबानों में असंतोष फैल जाता है और इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता। जयपुर में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम डेरा डाले हुए है और सवाई मानसिंह स्टेडियम में उसको इतनी ज्यादा सुविधाएं मिली हुई हैं कि भारत से ऑस्ट्रेलिया तक चर्चा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने जहां राजस्थान क्रिकेट संघ की आलोचना की है, वहीं ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड हमारे आरसीए का तहेदिल से शुक्रगुजार है। इस घटना के दो पक्ष हैं, पहला पक्ष, किसी प्रतिद्वंद्वी टीम को इतनी खेल सुविधाएं देना अपनी हार का इंतजाम करना है, दूसरा पक्ष, भारत में क्रिकेट की दुनिया में प्रतिद्वंद्वी को बेहतर सुविधा देकर एक अच्छे दौर की शुरुआत की जा रही है।
सब जानते हैं, भारतीय टीम जब ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाती है, तो उसे एक-एक सुविधा के लिए जूझना पड़ता है। practice के लिए ऐसी पिच दी जाती है, जो वास्तविक मैचों वाली पिचों से अलग होती है। लेकिन ऑस्ट्रेलियाई मेहमान टीम को जयपुर में दस तरह की पिचें मुहैया कराई गई हैं। रिकी पोंटिंग को spin का खास अयास करवाया जा रहा है। भारतीय गेंदबाजों की एक टोली ऑस्टे्रलियाई बल्लेबाजों को यहां के माहौल के अनुरूप ढालने में जुटी है। वैसे भी मेहमान टीम निर्धारित आगमन से सप्ताह भर पहले आई है और भारत के विवादास्पद और विफल कोच रह चुके ग्रेग चैपल के नेतृत्व में ऑस्ट्रेलियाइयों को अयास करवाया जा रहा है।
ग्रेग खांटी ऑस्ट्रेलियाई हैं और हमारे आरसीए में सलाहकार होने के साथ ही क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में सम्मानित स्तंभ हैं। ग्रेग न तो भारतीय टीम में कोई कमाल दिखा पाए थे और न राजस्थान में कोई कमाल दिखा पाए हैं। अव्वल तो जब उन्हें भारतीय कोच के पद से हटना पड़ा था, तब उन्होंने भारतीयों को भला-बुरा कहा था, लेकिन तब भी राजस्थान में आरसीए ने उनको `पधारो म्हारे देस´ का मधुर आमंत्रण दिया। भारतीय टीम से भगाए गए, तो शायद भारी पैसों के लिए अपमान का घूंट पीकर राजस्थानी टीम से जुड़ गए, लेकिन उन्होंने राजस्थान को दिया क्या? आज वे ऑस्ट्रेलियाई टीम को भारत में ऐतिहासिक जीत दिलवाने के प्रयास में लगे हैं, तो अफसोस उनका साथ देने वालों की कमी नहीं है।
कोई शक नहीं, भारत की मेहमाननवाजी की कोई तुलना नहीं है, हम आदिकाल से भले-बुरे हर तरह के अतिथियों की राह में बिछते आए हैं। इस बार कंगारुओं का आतिथ्य सत्कार ऐसा हुआ है कि ऑस्ट्रेलियाई बोर्ड को आगे आकर बोलना पड़ा है, `अब जब भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया आएगी, तब हम भी उन्हें उसी तरह की सुविधाएं देंगे।´ कदापि विश्वास नहीं किया जा सकता कि ऑस्टे्रलियाई बोर्ड हमारी भलमनसाहत देखकर खुद भी हमारे लिए बड़े दिल वाला हो जाएगा। आधुनिक क्रिकेट में पूरी धूर्तता के साथ अंडरआर्म गेंदबाजी करवाने वाले चैपल और अंपायरों को आउट या नॉट आउट का इशारे करवाने वाले बदजुबान रिकी पोंटिंग तो भारत में मिली सुविधाओं का आभार तक नहीं मानेंगे। क्रिकेट को युद्ध समझने वाले कंगारू रणनीतिकार तो मन ही मन प्रसन्न होंगे कि भारतीय क्रिकेट ढांचे में चैपल की घुसपैठ का अच्छा फायदा उठाया गया। ऑस्ट्रेलियाई बोर्ड अब शायद क्रिकेट खेलने वाले देशों में एक-एक चैपलों की घुसपैठ कराने की रणनीति पर विचार करेगा। अफसोस, आरसीए उस टीम की सेवा में लगा है, जो भारत में कप बटोरने के इरादे से आई है, वे जीतेंगे, फोटो खिंचवाएंगे और सामने अगर बीसीसीआई अध्यक्ष शरद पवार भी आ गए, तो धक्का दे देंगे और माफी तक नहीं मांगेंगे।

Thursday, 25 September 2008

मेरा आयोग तेरा आयोग

गोधरा कांड के बारे में अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति जी.टी. नानावटी आयोग की रिपोर्ट न केवल चौंकाती है, बल्कि कई सवाल भी खड़े करती है। आम भारतीय के नजरिये से देखिए, तो सितंबर 2004 में केन्द्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर यू.सी. बनर्जी आयोग गठित हुआ था और उसने अपनी जांच के बाद नवंबर 2005 में बताया था कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के बॉगी नंबर एस-6 का जलना एक हादसा था, इसमें किसी की साजिश नहीं थी। बनर्जी आयोग की रिपोर्ट साल भर में तैयार हो गई थी, लेकिन नानावटी आयोग ने छह साल तक जांच करने के बाद अपनी पहली रिपोर्ट दे दी है। एक आम भारतीय की नजर में बनर्जी आयोग भी सरकार द्वारा गठित था, नानावटी आयोग भी सरकार ने गठित किया और दोनों की रिपोटोüZ के नतीजे एक दूसरे के बिल्कुल खिलाफ आए हैं। अब जनता किस पर विश्वास करे? बनर्जी साहब सच बोल गए या नानावटी साहब सच बोल रहे हैं? दो-दो आयोगों की दो-दो रिपोटोüZ के बाद गोधरा कांड का सच कहीं भ्रम में खो चुका है। 27 फरवरी 2002 की रात गोधरा में 58 हिन्दू जलकर मरे थे, जिसमें 25 औरतें और 15 बच्चे शामिल थे। बनर्जी साहब ने कहा, ये लोग हादसे के शिकार हुए थे, जबकि नानावटी साहब नाम लेकर बता रहे हैं कि किन लोगों ने साजिश करके एस-6 बॉगी को आग के हवाले किया था।
बनर्जी आयोग की रिपोर्ट लालू तब लेकर सबके सामने आए थे, जब बिहार, हरियाणा, झारखंड इत्यादि राज्यों में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी थी। लेकिन लालू बनर्जी आयोग के दम पर बिहार में अपनी सत्ता नहीं बचा पाए। उधर, नरेन्द्र मोदी भी नानावटी आयोग की पहली रिपोर्ट गुजरात विधानसभा में लेकर तब आए हैं, जब कुछ राज्यों में चुनाव का माहौल गरमा रहा है। बताया जा रहा है, दिसंबर में अंतिम रिपोर्ट आएगी, तो क्या उसमें गुजरात सरकार को दंगों के सिलसिले में भी क्लीन चिट दी जाएगी? सच यह कि हमारी सरकारें राजनीति द्वारा संचालित होती हैं। चाहे सिख विरोधी दंगा हो या बाबरी विध्वंस या गुजरात दंगा, किसी भी दंगे का पूरा सच सामने नहीं आता। सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की, कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी अपने दामन को पाक साबित करने की साजिश आयोगों की आड़ में करते नजर आते हैं। स्पष्ट नहीं होता, कौन आईना दिखा रहा है और कौन धूल झोंक रहा है। गोधरा कांड पर ही जो भ्रम तैयार हुआ है, उसके कारण दो आयोगों की रिपोर्ट के बावजूद तीसरे आयोग की जरूरत महसूस हो रही है, लेकिन हम आश्वस्त नहीं हो सकते कि वह तीसरा आयोग हमें पूरा सच दिखाएगा। हमारी व्यवस्था में तेरा आयोग मेरा आयोग का खेल सतत है। गोधरा कांड की जांच में भी हम तीन आयोग देख चुके हैं, सबसे पहले शाह आयोग बना था, लेकिन भाजपा से करीबी की वजह से अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति के.जी. शाह को जांच का काम छोड़ना पड़ा था।
यह आयोगबाजी क्या किसी राजनीतिक चालबाजी से कम है?

Wednesday, 17 September 2008

थोड़े तार्किक हो जायें

अगर किसी को धर्म परिवर्तन करने से रोकना सांप्रदायिकता है, तो किसी का धर्म परिवर्तन कराना भी सांप्रदायिकता है।

उड़ीसा, कर्णाटक , गुजरात और केरल में धर्मान्तरण के मुद्दे का भड़कना जितना निंदनीय, उतना ही शर्मनाक है। सांप्रदायिकता की आग ऐसी लगी है कि शांत होने का नाम नहीं ले रही। उड़ीसा में अब तक 26 लोग मारे जा चुके हैं। उड़ीसा का हाल यह कि राज्य पुलिस और अद्धसैनिक बलों की 35 कंपनियों के बावजूद हालात बेकाबू हैं, रह-रहकर हिंसा भड़क रही है। राज्य सरकार ने और चालीस कंपनियों की मांग की है, तो आप अंदाजा लगा लीजिए कि उड़ीसा में हालात कैसे होंगे। उड़ीसा में सांप्रदायिक हिंसा की वजह से 20,000 लोग 14 राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। उड़ीसा में 23 अगस्त को लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके चार शिष्यों की हत्या हुई थी। लक्ष्मणानंद ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण का विरोध करते थे, अत: स्वाभाविक ही लोगों का शक ईसाई मिशनरियों पर गया, लेकिन वास्तव में इस विवाद को बलपूर्वक संभालने की कोशिश हुई है।
पहली बात, सांप्रदायिकता किसी एक राजनीतिक दल की समस्या नहीं है, यह राज्य और देश की समस्या है। सांप्रदायिक हिंसा पर राजनीति से कोई मदद नहीं मिलेगी। कर्णाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने कहा, `ईसाई मिशनरी बलपूर्वक धर्मान्तरण न करें,´ तो पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने आरोप लगाया, `भाजपा कर्णाटक को दक्षिण का गुजरात बनाना चाहती है।´ ऐसी बयानबाजी से जनता भ्रमित होती है और सच्ची बातें दब जाती है। कोई हिन्दू के साथ खड़ा है, तो कोई ईसाई के साथ, लेकिन सचाई के साथ कोई नहीं है।
दूसरी बात, पुलिस के भरोसे सांप्रदायिकता का सामना नहीं किया जा सकता, इसके लिए राजनीतिक और सामाजिक प्रयास करने होंगे। सांप्रदायिक हिंसा का सामना पुलिसिया हिंसा के दम पर ज्यादा समय तक नहीं किया जा सकता। राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को आगे आना चाहिए
तीसरी बात, धर्मान्तरण व्यक्तिगत मसला होना चाहिए। अगर कोई संगठन या कोई समूह धर्मान्तरण या धर्मान्तरण के खिलाफ जुटा है, तो उसे बाज आना चाहिए। आधुनिक दुनिया में धर्मान्तरण के सोचे-समझे सांगठनिक प्रयास असभ्यता की निशानी हैं, इसका विरोध राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी किया था। आदिवासी इलाकों में मिशनरियों की सक्रियता सदा से विवादित रही है।
अगर किसी को धर्म परिवर्तन करने से रोकना सांप्रदायिकता है, तो किसी का धर्म परिवर्तन कराना भी सांप्रदायिकता है। धर्म के प्रचार में लगे लोगों को हम धर्मनिरपेक्ष कैसे मान सकते हैं? संयम की जरूरत जितनी इधर है, उतनी ही उधर भी है, हर धर्म यही बोलता है, लेकिन कुछ लोग हैं, जो धर्म की बात नहीं मानते, खून-खराबा करते हैं।

हिन्दी की हुकूमत

हिन्दी की दुर्दशा पर रोने-पीटने की पुरानी परंपरा रही है, जबकि पिछले पंद्रह-बीस सालों में हिन्दी की प्रगति अचंभित करती है। सत्ता, सरकार की भाषा भले अंग्रेजी हो, लेकिन समाज में हिन्दी का ऐसा धूम-धड़ाका है कि झूठा गर्व पालने वाली भाषा की बोलती बंद है जिस भाषा को उसका यथोचित नहीं दिया गया, जिसके खिलाफ दंगे हुए, जिसको सरकार ने स्वयं हाशिये पर धकेला, जिसको भारतीय-हिंगलिश बाबुओं ने दोयम दर्जे का माना, जिसे पिछड़ेपन की निशानी माना गया, आज उस भाषा के जलवे देखकर किसी को भी हैरत हो सकती है। देश की आजादी के बाद हम 41 प्रतिशत संकोची हिन्दीभाषी भारतीय अपनी भाषा के गौरव के लिए नहीं लड़ पाए थे, क्योंकि हममें शालीनता कूट-कूटकर भरी थी, हमारी रगों में क्षेत्रवादी विष नहीं था, हम देश और उसकी अखंडता के बारे में सोच रहे थे, लेकिन हमारी वही शालीनता आज खूब रंग ला रही है। पनवाड़ी की दुकान से संसद तक, बोलचाल से मीडिया तक और भाषणों से लेकर फिल्मों तक हिन्दी का लोहा मानने वाले कम नहीं हैं। अफसोस, फिर भी हिन्दी का रोना रोया जाता है। हिन्दी खत्म हो रही है, हिन्दी मर रही है, यहां तक कि हिन्दी के दम पर रोटियां तोड़ने वाले भी सिसकते मिल जाते हैं कि आने वाले सालों में हिन्दी का कोई नामेलवा न होगा। वास्तव में ऐसे लोगों को हिन्दी की ताकत का अंदाजा नहीं है। विरोधी रावणों के दरबार में 45 प्रतिशत भारतीयों की भाषा हिन्दी अंगद की तरह पांव जमाए खड़ी है, अब किसी माई के लाल में दम नहीं है कि हिन्दी के पांव हिला दे।


अखबार से आगाज


अंग्रेजी अखबार बाजार को बरगलाने के लिए लाख हल्ला मचाएं, लेकिन सच्चाई यह कि देश के सात सर्वाधिक बिकने वाले अखबारों में से पांच हिन्दी के हैं और अंग्रेजी अखबारों का नंबर दसवें से शुरू होता है। देश के `टॉप टू´ अखबार हिन्दी के ही हैं। जहां हिन्दी के अखबार लगातार बढ़त पर हैं, वहीं अंग्रेजी अखबारों की प्रसार संख्या कम से कम हिन्दी पट्टी में लगातार घट रही है। दिल्ली में तो अंग्रेजी अखबार अपने चरम पर पहुंचकर हांफ रहे हैं, पाठकों का टोटा है, जबकि हिन्दी पाठकों की संख्या इतनी है कि न केवल हिन्दी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ी है, बल्कि नए हिन्दी अखबार भी बड़े उत्साह के साथ शुरू किए जा रहे हैं। अकेले दिल्ली में हिन्दी अखबारों को 400 करोड़ रुपये से ज्यादा का सालाना विज्ञापन मिल रहा है।


टीवी पर डंका


जहां हिन्दी के 25 से ज्यादा राष्ट्रीय न्यूज चैनल हैं, वहीं अंग्रेजी का आंकड़ा दस से पार नहीं पहुंच पा रहा है। दूसरी भारतीय भाषाओं की चैनल संख्या में पांच-छह की संख्या पार नहीं कर पाई है। हिन्दी फिल्में दिखाने वाले चैनल 12 हैं और अंग्रेजी फिल्मों वाले चैनल महज आठ। जहां 13 हिन्दी संगीत चैनल हैं, वहीं भारत भर में मात्र एक अंग्रेजी संगीत चैनल सांस ले रहा है। जहां हिन्दी के 14 मनोरंजन चैनल हैं, वहीं अंग्रेजी के मात्र 7 हैं। तो बताइए, हिन्दी किससे कमतर है? हिन्दी की बढ़त पर गुमान क्यों नहीं होना चाहिए? हिन्दी की अगर दुर्दशा हो रही है, तो इतने हिन्दी चैनल क्यों खुल रहे हैं? हम यह भी बता दें कि ज्यादातर हिन्दी चैनल विदेशी कंपनियों के हाथ में हैं। किसी दौर में हम हिन्दी वालों पर आरोप लगता था कि हम अपनी भाषा को देश पर लाद रहे हैं, लेकिन अब विरोधी आंख खोलकर देख लें, हिन्दी वालों ने हिन्दी को किसी पर लादा नहीं है, बल्कि दूसरी भाषाओं के लोग हिन्दी के मार्फत अपना व्यापार फैलाना चाहते हैं, हिन्दी के दम पर ऐश करना चाहते हैं। हिन्दी पट्टी में टीवी पर जो विज्ञापन प्रसारित होते हैं, उनमें से 98 प्रतिशत विज्ञापन हिन्दी में हैं। हिन्दी घर बैठे विज्ञापन पा रही है, जबकि अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं चैनलों को विज्ञापन के लिए नाको चने चबाने पड़ रहे हैं।


सिनेमाई जलवा


देश में मनोरंजन के क्षेत्र में महानायक का दर्जा हिन्दी के सितारे अमिताभ बच्चन को ही हासिल है। दक्षिण के महानायक रजनीकांत भी अमिताभ का लोहा मानते हैं। पूरा भारतीय सिनेमा जगत लगभग 8000 करोड़ रुपये का है, जिसमें हिन्दी फिल्मों की भागीदार चालीस प्रतिशत से ज्यादा है। वर्ष 2010 तक हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का आकार 700 करोड़ रुपये के पार चला जाएगा। हिन्दी फिल्में न केवल दुनिया भर में देखी जाती हैं, बल्कि हिन्दी के फिल्म कलाकार दुनिया के पचास से ज्यादा देशों में पॉपुलर हैं। हिन्दी में अंग्रेजी फिल्मों की डबिंग का सिलसिला तेज हो गया है, डबिंग इंडस्ट्री प्रतिवर्ष 25 से 30 प्रतिशत की गति से विकसित हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी हिन्दी सिनेमा जगत में निवेश कर रही हैं। हिन्दी सिनेमा अपनी पूरी विशेषता के साथ विश्व में अलग पहचान बना चुका है और साथ ही इसने हिन्दी के प्रसार में भी बड़ा योगदान दिया है। विदेश में लोग हिन्दी फिल्में देखकर, हिन्दी गाने सुनकर हिन्दी सीख रहे हैं।


तो रोना क्यों?


कहना न होगा, हिन्दी को शासकीय स्तर पर समर्थन नहीं मिल रहा है। हिन्दी वालों का रवैया पेशेवर नहीं है। वे हिन्दी की ताकत समझ नहीं पा रहे हैं। विदेशी कंपनियां हिन्दी की ताकत को समझ चुकी हैं, जबकि हमारी अपनी कंपनियां अभी भी अंग्रेजीदां हैं। इसके अलावा हम 45 करोड़ हिन्दी वाले पांच करोड़ अंग्रेजी वालों से डरते भी हैं। यह डर केवल अज्ञानता की वजह से है, वरना हिन्दी उस मुकाम पर पहुंच चुकी है, जहां उसकी हुकूमत की शुरुआत हो सकती है।

Wednesday, 10 September 2008

हिन्दी ने फिर सौरी कहा



मराठी आज बहुत खुश होगी, क्योंकि हिन्दी ने फिर माफ़ी मांग ली है, महाराष्ट्र के नव निर्माण में लगे लोगों का सीना चौडा हो गया होगा, मुंबई-महाराष्ट्र में फिर एक बार क्षेत्रवादी जहर उफान पर है और इसके लिए मूल रूप से जया बच्चन दोषी हैं, जिन्होंने अपने बेटे अभिषेक बच्चन की भूमिका वाली भावी फिल्म की संगीत रिलीज पार्टी में फिर हिन्दी और उत्तर भारतीयों का झंडा बुलंद कर दिया। उन्होंने कहा, `महाराष्ट्र के लोग माफ करें, वे उत्तर प्रदेश की हैं और हिन्दी में बोलेंगी।´ क्या संगीत रिलीज के अवसर पर यह बोलना जरूरी था? एक फिल्म की पार्टी में आखिर जय यूपी या जय महाराष्ट्र का नारा क्यों लगना चाहिए? जया इस टिप्पणी से बच सकती थीं। एक संभावना है, वे जोश में मन की बात बोल गई होंगी, उन्होंने सोचा नहीं होगा कि उनके व्यक्तिगत बयान का सार्वजनिक असर क्या होगा? इसे सुपर हीरो की भूमिका में उतर रहे बेटे की फिल्म के प्रति उमड़ा एक मां का प्रेम कहें या फिर फिल्म को विवाद के सहारे चर्चित कराने की सोची-समझी मुहिम? उन्होंने जो कहा है, वह निंदनीय है।


यह बताते चलें, अमिताभ से विवाह होने मात्र से जया उत्तर प्रदेश की कहलाने को बेताब हैं जबकि वे बंगलाभाषी हैं और मध्य प्रदेश मे रही हैं, उन्होंने उत्तर प्रदेश में रहना कभी पसंद नहीं किया, असली ससुराल भी वे कभी नहीं जाती हैं, उत्तर प्रदेश उनके लिए मात्र राजनीत का अखाडा है, हिन्दी फिल्मों का एक मुख्य ब्यापार केन्द्र। लेकिन उनके कथित उत्तर प्रदेश प्रेमी बयान के जवाब में महाराष्ट्र नवनिर्माण पर जो असर पड़ा है, उसे समझना बेहद मुश्किल है। क्या ऐसे बयानों से महाराष्ट्र को भय लगता है? क्या कट्टर मराठी नेता राजभाषा हिन्दी से अचानक डरने लगे हैं? क्या महाराष्ट्र या मुंबई की तरक्की में हिन्दी का हाथ नहीं रहा है? क्या यूपी और बिहार के लोगों ने वहां खून-पसीना नहीं बहाया है? हिन्दी के अनादर से मुंबई, महाराष्ट्र या मराठी भाषा का कदापि भला नहीं होगा। वास्तव में जो लोग हिन्दी का विरोध कर रहे हैं, वे मुंबई के भरोसे पलने वाले करोड़ों रुपहले सपनों का कत्ल कर रहे हैं। हिन्दी के विरोध से सपनों का शहर ध्वस्त हो रहा है। न जाने कैसे बॉलीवुड की रचना कुछ लोग करना चाहते हैं? क्या हॉलीवुड में अंग्रेजी का विरोध हो सकता है?


दूसरी ओर, शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे भी क्षेत्रवाद की सेवा में फिर कलम चलाया है, उन्होंने शाहरुख खान के दिल्लीवाला होने के गुमान पर आपत्ति की है। उन्होंने कहा है, आप दिल्ली वाले हो, तो दिल्ली जाओ, मुंबई में क्या कर रहे हो? आश्चर्य होता है, देश के एक वयोवृद्ध नेता के मुख से ऐसी हल्की टिप्पणी कैसे आ जाती है? उनका काम देश को मजबूत करना होना चाहिए, लेकिन वे युवाओं को न जाने क्या संदेश देना चाहते हैं? बाला साहेब जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने मुंबई और महाराष्ट्र के हित चिंतन तक ही खुद को समेटकर न केवल पत्रकारिता, बल्कि राजनीति के साथ भी न्याय नहीं किया है। काश, क्षेत्रवाद और भाषा के भंवर से ऊपर उठकर उनकी ऊर्जा पूरे राष्ट्र को मजबूत करने में लगती, तो कितना अच्छा होता।

Tuesday, 9 September 2008

याद हंसाती है

जाति के जर्रे : छह

छहभूख और गरीबी के बावजूद 75 साल लांघ चुके जवाहिर राम जिंदा हैं, सफेद मूंछ, सफेद बाल और कुटिल मुस्कान बिखेरता चेहरा। उन्हें गांव भर के बूढ़ों से मजाक करने का हक हासिल है। न केवल अपने हमउम्र बूढ़ों, बल्कि अपने से भी वरिष्ठ बूढ़ों को भी जवाहिर छेड़ देते हैं और गांव में बूढ़े भी ऐसे-ऐसे हैं कि पलट कर जवाब ऐसा देते हैं कि जवाहिर की आत्मा चिढ़कर मस्त हो जाती है। सुनने वाले भी मस्त हो जाते हैं। अक्सर मनोरंजन के लिए ही जवाहिर चुहलबाजियां किया करते हैं, इससे बोझिल माहौल भी हल्का हो जाता है। गांव से लगभग 1200 किलोमीटर दूर मुझे जब कुछ मजाक वाले वृतांत याद आते हैं, तो मन खिल जाता है।

हमारे यहां जब कोई यज्ञ या उत्सव होता है, तो कटहल की सब्जी भी बनती है। एक साथ करीब दस-बारह बड़े-बड़े कटहल छीलने का काम होता है। हलवाई हाथ खड़े कर देते थे, तो पाड़े लोहार को बुलाना पड़ता। पाड़े लोहार जब आते, तो आधा घंटे में दस-बारह कटहल छीलकर रख देते। शरीर से भारीभरकम पाडे़ लोहार जब लकड़ी छीलने वाले औजार से कटहल छील रहे होते, तो जवाहिर छेड़ते, `क्या लोहार मास्टर, घास छील रहे हो?´ जवाब मिलता, `आओ, तुम भी छीलवा लो।´

`लोहार से हजाम कब बन गए?´

यह सुनकर पाड़े लोहार दांत पीसते, गालियां देते। गुस्से में हांफने लगते। जोर का ठहाका लगता। हलवाई भी काम छोड़कर कान इधर ही लगा देते। जवाहिर की चुहलबाजी आगे बढ़ती, `खिसिया मत, नाई-हजाम नहीं बनना है, तो हलवाई बन जाओ? कटहल अच्छा छील रहे हो।´

पाडे़ जी के कुछ बोलने से पहले रामप्रवेश हलवाई बोल पड़ता, `सेना में कटहल छीलने वालों की नौकरी निकली है, पाड़े बाबा, बहाल हो जाइए।´

`ससुर के नाती, जाओ अपनी सास को बहाल करवाओ। कमीन...सेना में कटहल छीलने की नौकरी दोगे, हमको बोका समझे हो।´लोगों की जोरदार हंसी के बीच पाड़े लोहार कुछ देर बुदबुदाते। तभी वहां से हमारे बाबूजी गुजरते और सभी अपने-अपने काम में लग जाते। पाड़े लोहार निश्चिंत कटहल छीलने लगते।

बाद में जब वे बूढे़ हो गए, तो बहुत धीरे-धीरे चलकर हमारे घर तक आते थे और धीरे-धीरे कटहल छीलते थे। जवाहिर अपनी आदत से बाज नहीं आते और छेड़ देते, `पाड़े जी, कल तक तो छील ही लोगे।´

जवाब मिलता, `भूख लगी है, तो कच्चे खा लो।´

`कच्चे कटहल खाने की तुम्हारी आदत गई नहीं है?´

`तुम्हारी ही मां से सीखा था।´

`छूछे कटहल लेकर क्यों बैठो हो, नमक-मिर्च मंगवा दें।´

जवाहिर के शब्द वाण से पाड़े लोहार एकदम कुपित हो जाते, बुढ़ापे को झाड़ने की कोशिश करते हुए फुफकराते, `मंगवा ले, मंगवा ले, तुझमें लगाने के काम आएगी।´दोनों की चुहलबाजी सुनकर सभी मस्त हो जाते। काम का तनाव झटके में दूर हो जाता। पहली बार कोई सुने तो यही मानेगा कि जवाहिर और पाड़े लोहार में नहीं पटती है, लेकिन बता दें, दोनों में खूब अपनापा है। कटहल छीलने के बाद पाड़े लोहार पसीना पोछते हुए जवाहिर को बड़े अधिकार भाव से बोलते, `थोड़ी खैनी खिलाओ।´जवाहिर मुस्कराने लगते, `भूखे हो, अच्छा बैठो। खिलाता हूं।´ जवाहिर खोजते हुए हमारे पिताजी के पास पहुंचते और बोलते, `ऐ महाराज, जरा चुनौटी दीजिए न।´

हमारे पिताजी खैनी खाते हैं और जब घर में कोई पर्व-त्योहार हो, तो खूब सारी खैनी रखते भी हैं। गांव में खैनी का शौक फरमाने वालों की संख्या कम नहीं है। हम भाइयों को आज भी कोई नशा नहीं है, लेकिन पिताजी और खैनी का साथ पुराना है। तो जवाहिर के मांगने पर पिताजी चुनौटी थमाते। जवाहिर थोड़ी-सी खैनी और चूना लेकर, ताल पीटने लगते। कथित चमार जाति के एक व्यक्ति की हथेली पर पिटी और मसली गई खैनी के तीन भाग हो जाते, एक चुटकी ब्रह्मण पिता के मुंह में, तो एक पाड़े लोहार और आखिरी चुटकी जवाहिर के मुंह में। खैनी के साथ दोनों में घरेलू बातें होती थीं और शाम को भोज पर मिलने का वादा।

Sunday, 31 August 2008

क्यों सैर करें खामोश रहें?



देश में पांच सौ से ज्यादा ऐसे संगठन हैं, जो या तो हिंसक हैं या फिर अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा का सहारा ले सकते हैं। ऐसे संगठनों में युवाओं को आगे रखा जाता है और घाघ लोग परदे के पीछे रहकर मजा लेते हैं। उन्हें युवाओं का जीवन संवारने की कोई चिंता नहीं होती। उनके लिए तो गरीब, मध्यवर्गीय युवा महज हथियार हैं, जिनके इस्तेमाल से खूब ताकत, पैसा और रसूख पैदा किया जा सकता है। भारतीय युवाओं को गौर करना चाहिए, ज्यादातर डॉन, माफिया, आतंकी सरगना विदेश में आरामदेह जगहों पर रहते हुए भारत में युवाओं को हिंसा की आग में झोंकना चाहते हैं। भारत में बढ़ती युवा आबादी देश को वर्ष 2050 तक तरक्की के शिखर पर ले जा सकती है, लेकिन अगर युवा भटके, तो देश ठहर जाएगा और जवानी हमारे हाथ से निकल जाएगी, अत: यह संभलने का वक्त है


`गर्म आंसू और ठंडी आहें मन में क्या-क्या मौसम है,´ लेकिन सत्ता में बैठे बादशाह हमसे यही चाहेंगे कि `इस बगिया में भेद न खोलो, सैर करो, खामोश रहो।´ लेकिन खामोश रहने वालों को देश माफ नहीं करेगा। यह ऐसा समय है, जब युवाओं को भटकने से बचाकर देश को भटकने से बचाना होगा, वरना चंद भटके हुए युवा देश को गमों में डुबो देंगे। सिमी में भी युवा हैं, बजरंग दल और खालिस्तान, उल्फा, लश्कर, पीपुल्स वार गु्रप, सबमें युवा हैं, क्योंकि उनके बिना काम नहीं चल सकता, लेकिन इन युवाओं के मन में देश की छवि इतनी अलग-अलग बना दी गई है कि उन सबका सामूहिक देश नजरअंदाज हो गया है। निष्पक्ष, संतुलित सोच के विद्वान दुर्लभ होते जा रहे हैं। पत्रकारिता में ही बड़े-बड़े नाम हैं, जिनकी एकमुखी विचारधारा को समझना कठिन नहीं है। अगर कोई वामपंथी कलमकार है, तो वह अद्धसत्य दिखाते हुए दक्षिणपंथियों को धूल चटाने में जुटा है, वह अपने पापों पर बात करना नहीं चाहता। अगर कोई भगवा समर्थक है, तो वह बजरंगियों का पुरजोर बचाव करता है और वामपंथियों, कांग्रेसियों की निंदा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। विचारधारा के इस दोगलेपन ने देश को बड़ी क्षति पहुंचाई है। समाज वास्तविकता जानने से वंचित है, जिसकी वजह से जगह-जगह समस्याएं पैदा हो रही हैं। कुछ ऐसे कथित समाजवादी चिंतक, लेखक, विश्लेषक भी हैं, जो चुनाव दर चुनाव अमीर होते जाते हैं। पत्रकारों की जमात में भी घोर हिन्दू और घोर मुस्लिम मिल जाते हैं। बुद्धिजीवियों में एक जमात वह भी है, जो मौकापरस्त और लिजलिजी है, जो विचारों की जलेबी बनाने का काम करती है। ज्यादातर बुद्धिजीवी, होते कुछ हैं, दिखते कुछ हैं, लिखते कुछ हैं, करते कुछ हैं। कुछ तो सुरापान उपरांत राष्ट्र चिंतन करते हैं। सरकार भी लोगों को भ्रमित करती है। एक तरफ, सरकार सिमी पर प्रतिबंध लगवाती है और दूसरी ओर, उसके मंत्री रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव सिमी को प्रतिबंध मुक्त करने की बात करते हैं। पासवान तो वाजपेयी सरकार के समय भी मंत्री रहे थे, तब उन्होंने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्यों नहीं की थी? लादेन के हमशक्ल के साथ उन्होंने प्रचार किया था, लेकिन उन्हें शर्म नहीं आती। जाहिर है, ऐसे नेता मुस्लिमों को बरगलाते हैं। ये ऐसे नेता हैं, जिन्होंने मुस्लिमों के विकास के लिए एक ढेला भी नहीं सरकाया है, लेकिन उन्हें बरगलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। जब देश का एक मंत्री लादेन को रोल मॉडल मानेगा, तो नागौरी जैसे लोगों को भारतीय होने पर शर्म भी महसूस होगी, वे छोटे-मोटे लादेन बन जाने की कोशिश करेंगे और कीमत चुकाएगा देश। देश में मुस्लिमों को अविश्वसनीय बनाने में जितना योगदान आतंकी संगठनों का है, उससे ज्यादा योगदान पासवान जैसे नेताओं का है। इन्होंने मिलकर देश में ऐसा असुरक्षा का माहौल बनाया है कि शबाना आजमी को मुंबई में घर खरीदने में परेशानी होती है और कश्मीर में कोई हिन्दू घर खरीदने की हिम्मत नहीं करता। हम ऐसे हालात में नियमों की अनदेखी और वोट की राजनीति की वजह से पहुंचे हैं। नियमों, कानूनों का कड़ाई से पालन करके सऊदी अरब व अमेरिका जैसे देश खुशहाल हो जाते हैं और नियमों-कानूनों से खिलवाड़ करके पाकिस्तान व भारत जैसे देश बदहाल रहते हैं। किसी भी व्यक्ति, समाज या देश की स्थायी सफलता नियमों-कानूनों के पालन पर ही निर्भर है। दुर्भाग्य से हममें से ज्यादातर लोग छोटे-छोटे नियमों का भी पालन करने को तैयार नहीं हैं, तो बताइए, क्या हमारा समाज असुरक्षित नहीं होगा? हमें सुधार करना ही होगा, वरना हमारी युवा आबादी वरदान बनने की बजाय अभिशाप बन जाएगी।


-----युवा सत्य------


- भारत में 70 प्रतिशत लोग 35 से कम उम्र के हैं


- 2250 लाख भारतीय 10 से 19 वर्ष के हैं-


- 71।3 प्रतिशत भारतीय 15 से 24 उम्र के-


- भारत की औसत उम्र करीब 27 साल है-


- चीन की औसत आयु 33 साल है


-भारत वर्ष 2050 तक जवानों का देश कहलाएगा


- करीब 18 प्रतिशत युवा देश से बाहर जाना चाहते हैं


Tuesday, 26 August 2008

खेल के लिए

हमारे देश के खेल में पिछड़ने के कई मूलभूत कारण हैं, लेकिन कुछ आधुनिक कारण भी हैं, जिनके बारे में हम भारतीय बहुत कम जानते हैं, कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर हमे खूब काम करना होगा, जैसे
एक्ससाइज फीजियोलॉजी
खिलाडि़यों को ऐसे व्यायाम और उपाय सुझाने संबंधी विज्ञान जिससे उनकी प्रदर्शन क्षमता में अधितकम विकास होता है। व्यायाम हर खेल के हिसाब से बदलता है। हर खेल की अपनी एक खास फीजियोलॉजी होती है। हमारे ज्यादातर खिलाडि़यों को फीजियोलॉजी का जरूरी ज्ञान नहीं है।
स्पोट्र्स न्यूटि्रशन
खेल व खिलाड़ी के आकार-प्रकार के हिसाब से भोजन तय होता है। कई खेल हैं, जिनमें प्रदर्शन सुधारने के साथ ही अपना वजन भी नियंत्रित रखना होता है। खिलाडि़यों को उचित पोषण देने का काम स्पोट्र्स न्यूटि्रशन के तहत आता है। भारत अभी इस मामले में शुरुआती स्तर पर है।
एंथ्रोपोमेट्री
एंथ्रोपोमेट्री में मानव के आकार या शारीरिक ढांचे का अध्ययन किया जाता है और अधिकतम या बेहतर प्रदर्शन के लिए आवश्यक सुधार किया जाता है। यथोचित पोषण, जीवन शैली और अन्य साधनों के दम पर शरीर के जरूरी हिस्सों को पुष्ट करने के उपाय आजमाए जाते हैं।
स्पोर्ट्स बायोकेमिस्ट्री
अभ्यास या व्यायाम के दौरान खिलाडि़यों के शरीर में निश्चित रूप से बायोकैमिकल या जैव-रसायन संबंधी बदलाव देखे जाते हैं और इन बदलावों को समझने, सुधारने या खेल अनुकूल बनाने का विज्ञान स्पोर्ट्स बायोकेमिस्ट्री कहलाता है। भारत में यह विज्ञान भी शैशव अवस्था में है।
स्पोर्ट्स मेडिसिन
खिलाडि़यों को विशेष प्रकार की दवाइयों की जरूरत होती है। सामान्य शब्दों में कहें, तो उन्हें ऐसी दवाओं की जरूरत पड़ती है, जिसमें दारू की मात्रा न हो। उन्हें दवा चाहिए, दारू नहीं, वरना वे डोपिंग के दोषी बन जाते हैं। भारत में स्पोर्ट्स मेडिसिन पॉपुलर नहीं हो सका है।

अब झुके तो टूट जाएंगे

नुक्लेअर सप्लायर ग्रुप -एनएसजी- के 45 सदस्य देशों में से 20 देश भारत को परमाणु व्यापार की मंजूरी तो देना चाहते हैं, लेकिन शर्तों के साथ। एक पक्ष यह है कि भारत अमेरिका असैन्य परमाणु करार पर ऐतराज करने वाले देश परमाणु अप्रसार के तगड़े पक्षधर रहे हैं और दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर देश भारत को उभरती ताकत के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनके मन में भारत की वह छवि अंकित है, जो दुनिया में पाकिस्तान और चीन जैसे देशों की कृपा से बनी है।

एनएसजी के 20 करार विरोधी देशों को तीन बिंदुओं पर ऐतराज है। पहली बात, वे चाहते हैं, भारत सीटीबीटी और एनपीटी पर हस्ताक्षर करे। दूसरी बात, वे करार मसौदे में हाइड एक्ट का स्पष्ट उल्लेख करना चाहते हैं। तीसरी बात, वे परमाणु संवर्धन और पुनर्सस्करण तकनीक भारत को देने के खिलाफ हैं। कुल मिलाकर, वे लिखित आश्वासन चाहते हैं कि भारत न तो परमाणु परीक्षण करेगा, न परमाणु हथियार बनाएगा, न परमाणु सामग्री का व्यापार करेगा।

वियेना में पहले दौर की वार्ता से निराश सरकार बोल तो यही रही है कि वह नई शर्ते स्वीकार नहीं करेगी, लेकिन भारतीय विदेश सचिव शिवशंकर मेनन का न्यूयॉर्क जाना और वहां अमेरिकी उपविदेश मंत्री विलियम बन्र्स के साथ मसौदे की पुनर्रचना का प्रस्ताव चिंतित करता है। पहली नजर में यही लगता है कि सरकार मसौदे की पुनर्रचना के पक्ष में है और वह केवल इतना चाहती है कि मसौदे में कोई आदेशात्मक शर्त शामिल न की जाए। असली खतरा यही है। न केवल मसौदे की भाषा बदल सकती है, बल्कि उसमें चुपचाप कुछ शर्तें भी शामिल की जा सकती हैं। अगर केवल हाइड एक्ट को ही मसौदे में शामिल कर लिया गया, तो एनएसजी में आपत्ति करने वाले देशों की जीत हो जाएगी और साथ ही, करार को अमेरिकी कांग्रेस में पारित करवाना भी जॉर्ज बुश के लिए आसान हो जाएगा, लेकिन यह भारत के लिए एक बड़ी हार होगी। जिस परमाणु करार को हम अच्छा मान रहे हैं, वह हमारे लिए बुरा हो जाएगा। भारत सवा अरब लोगों का महान देश है। वह आस्ट्रिया , न्यूजीलैंड, आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देशों जैसा नहीं है। भारत की चुनौतियां ऐसे दस देशों की चुनौतियों से भी ज्यादा हैं। हम अपनी गिनती दुनिया के 45 देशों में नहीं, बल्कि खास 6-8 देशों में करवाना चाहते हैं। भारत सरकार अगर नई शर्तें स्वीकार करेगी, तो यह भारत के उज्ज्वल सपनों के साथ समझौता होगा। परमाणु करार के मसले पर अगर हम और झुकेंगे, तो टूट जाएंगे।

Tuesday, 19 August 2008

एक स्वर्ण पदक की कीमत



ओलंपिक स्वर्ण का भावनात्मक मूल्य अतुलनीय है, लेकिन किसी के भी हृदय में यह सवाल पैदा हो सकता है कि एक स्वर्ण पदक की लागत कितनी होती है। तो बता देन कि पदक का वजन औसतन 250 ग्राम होता है। लेकिन सोने का पदक पूरे सोने का नहीं होता है, उसपर मात्र आधा तोला यानी छह ग्राम सोने की परत होती है और अंदर पदक चांदी का होता है। अर्थात सोने के पदक में 244 ग्राम चांदी होती है। आज के बाज़ार मूल्य के हिसाब से एक स्वर्ण पदक के निर्माण में 12,000 रुपये का खर्च आता है। पदक की लागत सोने और चांदी की कीमत के हिसाब से बदलती रहती है, लेकिन अगर कोई स्वर्ण पदक विजेता अपना पदक बेचना या नीलाम करना चाहे, तो वह 30 लाख रुपये भी ज्यादा कमा सकता है।


पोलैंड कि एक पदक विजेता तैराक ने एक अस्पताल में बच्चों की मदद के लिए अपना पदक करीब ३३ लाख रूपये में नीलाम किया था, इस महिला तैराक ने अथेन्स ओलम्पिक २००४ में स्वर्ण पदक जीता था

जो थे तगड़े दावेदार

मिल्खा का मलाल
पाकिस्तान के लायलपुर में 8 अक्टूबर 1935 को जन्मे फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह भारत के उन गिने चुने एथलीटों में रहे, जिन पर दुनिया की निगाह टिकी थी। मिल्खा रोम में 1960 में आयोजित ओलंपिक में बस एक सेकंड से कांस्य पदक जीतने से चूक गए थे। 400 मीटर की फाइनल दौड़ में वे सबसे आगे दौड़ रहे थे, साफ लग रहा था, वह जीत जाएंगे, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि वह बहुत ज्यादा तेज दौड़ रहे हैं, उन्होंने एक-दो पल के लिए थोड़ा धीरे दौड़ने और बाद के लिए ऊर्जा बचाने की भूल की थी, बस उतने में ही पदक उनके हाथों से फिसल गया। बाद में उन्होंने पूरा जोर लगा दिया, लेकिन स्वर्ण पदक की बात तो दूर, वे कांस्य पदक से भी मात्र एक सेकंड से चूक गए। कांस्य जीतने वाले दक्षिण अफ्रीकी एथलीट मेल स्पेंस ने दौड़ 45।5 सेकंड में पूरी की थी और मिल्खा 45।6 सेकंड का समय निकाल पाए थे। मिल्खा को वह कमाल किए 48 साल हो गए, लेकिन आज तक उन जैसा कोई पुरुष एथलीट भारत में नहीं उभरा। मिल्खा उस जमाने के एथलीट थे, जब खिलाडि़यों को रोजगार सुरक्षा भी नसीब नहीं थी। मिल्खा के पदक न जीत पाने का मलाल आज भी बहुतों को है। मिल्खा आज भी अपने स्वतंत्र विचारों के लिए जाने जाते हैं। उनके पुत्र विश्व प्रसिद्ध गोल्फर हैं। ----

महाराजा निशानेबाज
इक्कीस अप्रैल 1924 को जन्मे बीकानेर के 23वें महाराजा कणीü सिंह अपने समय में बहुत अच्छे निशानेबाज थे। उड़ती हुई चीजों को निशाना बनाने में वे माहिर थे। वे इंटरनेशनल स्कीट शूटर चैंपियन भी रहे थे। उन्होंने पांच बार ओलंपिक में हिस्सा लिया था और उन्हें पदक का प्रबल दावेदार माना जाता था। रोम से लेकर मास्को तक वे ओलंपिक में भारत की ओर से भाग लेने गए थे। महाराजा कणीü सिंह 17 साल तक क्ले पिजन ट्रैप एंड स्कीट निशानेबाजी की राष्ट्रीय स्पर्धा में विजयी रहे थे। वे देश के पहले ऐसे शूटर थे, जिन्हें 1961-62 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे 1952 से 1977 तक सांसद भी रहे थे। निशानेबाजी एक ऐसी स्पर्धा है, जिसमें केवल आपकी योग्यता ही आपको पदक नहीं दिलाती, इसके लिए आपका भाग्य भी प्रबल होना चाहिए। 4 सितंबर 1988 में उनका निधन हो गया, लेकिन आज भी उन्हें एक दिग्गज निशानेबाज की रूप में याद किया जाता है। वे राजस्थान के गौरव और आदर्श निशानेबाज माने जाते हैं।----

टोक्यो, मोंत्रिअल में मात
छह जून 1939 को अमृतसर जिले के नांग्ली गांव में जन्मे गुरबचन सिंह रंधावा 1964 टोक्यो ओलंपिक में 110 मीटर बाधा दौड़ में पदक के दावेदार माने जा रहे थे, लेकिन उन्हें पांचवें स्थान से ही संतोष करना पड़ा। वे अपने समय में देश के सबसे नामी एथलीट थे।बड़नगर राजस्थान में 14 नवंबर 1948 को जन्मे धावक श्रीराम सिंह ने 1976 मांटि्रयल ओलंपिक में पदक जीतने का विश्वास पैदा किया था। वह फाइनल में 400 मीटर दौड़ में आधी दौड़ तक सबसे आगे थे, लेकिन बाद में धीमे पड़ते हुए सातवें स्थान पर रहे थे। दौड़ जीतने वाले क्यूबा के धावक ने अपनी जीत का श्रेय श्रीराम सिंह को दिया था। सेना में काम करने वाले श्रीराम सिंह आगे चलकर बहुत अच्छे प्रशिक्षक साबित हुए। ठीक इसी तरह इसी ओलंपिक में मैराथन धावक शिवनाथ सिंह भी तगड़े दावेदार थे, लेकिन उन्हें ग्यारहवें स्थान से संतोष करना पड़ा। मांटि्रयल मांटि्रयल से भारतीय ओलंपिक दल खाली हाथ लौटा था। भारत में और लगभग छह ऐसे खिलाड़ी हुए, जिन्होंने ओलंपिक में पदक जीत का विश्वास पैदा किया, लेकिन वक्त उनके साथ नहीं था।---

आशा भरी उषा
उड़न परी और पय्योली एक्सप्रेस के नाम से मशहूर पिलावुल्लकंडी थेक्केपरंबिल उषा यानी पी। टी। उषा का जन्म 27 जून 1964 को केरल में हुआ। वह कोझकोड जिले के पय्योली गांव में जन्मीं और एक समय पूरे एशिया में उनके उड़ते कदमों की तूती बोलती थी। 1984 में लॉस एंजेलिस में आयोजित ओलंपिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में उषा को पदक का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, लेकिन वह भी मिल्खा सिंह की तरह बहुत मामूली अंतर से चूक गई। एक सेकंड के मात्र सौवें हिस्से से वह पिछड़ गई थीं, वरना उनके हाथ कांस्य पदक तो जरूर लगता। पदक न जीत पाने पर उषा के साथ-साथ पूरा देश निराश हुआ था। बताया जाता है, उषा दौड़ने में तो किसी से कम नहीं थीं, लेकिन दौड़ के समापन करते हुए वे कुछ पिछड़ जाती थीं। उषा ही नहीं, बल्कि देश को भी उस हार का आज भी मलाल है। वह पहली भारतीय महिला हैं, जिन्होंने ओलंपिक में किसी स्पर्धा के फाइनल में जगह बनाई थी। उन्होंने अपने जीवन में 100 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय पदक जीते। उनके बाद भारत आज तक ओलंपिक में दौड़ से जुड़ी किसी स्पर्धा में उम्मीद नहीं जगा पाया है।

अभिनव से पहले ओलंपिक में भारतीय पदक विजेता



अखाडे से आगाज : खाशाबा दादासाहेब जाधव


अगर हम ओलंपिक में भारतीयों के पदक जीतने की बात करें, तो 15 जनवरी 1926 को जन्मे खाशाबा दादासाहेब जाधव अर्थात के डी जाधव ने एकल स्पर्धा में पहली बार भारत को पदक दिलाया था। जब देश आजाद हुआ था, तब उन्होंने लंदन ओलंपिक में भाग लिया था, फ्लाइवेट केटगरी के तहत मुकाबलों में वे छठे स्थान पर रहे थे। पांच साल बाद हेलसिंकी ओलंपिक 1952 में जाधव बहुत आशा के साथ गए थे। उनकी प्रतिभा शुरुआती मुकाबलों में ही साबित हो गई थी। चूंकि इस बार उनका वजन कुछ बढ़ गया था, इसलिए उन्हें बेंटमवेट केटगरी की कुश्ती में भाग लेने दिया गया। सेमीफाइनल में उन्हें न जाने क्या हो गया, वे कुछ कमजोर पड़ते दिखे, लेकिन उन्होंने अपने अगले मुकाबले में वापसी करते हुए कांस्य पदक जीत ही लिया। यह भारत के लिए हॉकी से अलग एक बहुत बड़ी शुरुआत थी, लेकिन देश ने जाधव को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। वे पुलिस की नौकरी करते रहे और अंतत: 14 अगस्त 1884 को सड़क दुर्घटना के कारण उनका निधन हो गया। बड़ी उपलçब्ध के बावजूद जाधव का जीवन गरीबी में बीता। जाधव की जिस तरह उपेक्षा हुई, उससे साफ हो गया कि नवजात भारत सरकार आगे भी खेलों के प्रति लापरवाह रहने वाली है। आज खेल संगठन भी जाधव को ढंग से याद नहीं करते। कथित गामा पहलवान, दारा सिंह और ग्रेट खली जैसे जो पहलवान ओलंपिक में देश का सम्मान रत्ती भर भी नहीं बढ़ा पाए, उन्हें भी जाधव से ज्यादा धन-सम्मान नसीब हुआ। जाधव के बाद भारत के पास आज भी कोई पहलवान नहीं है, जो ओलंपिक में पदक की दावेदारी कर सकता हो।


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एक अंग्रेज भारतीय : नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिचर्ड


कोलकाता में 23 जून 1877 को जन्मे नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिचर्ड ने वर्ष 1900 में पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों में भारत की ओर से हिस्सा लिया था और 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण और 200 मीटर बाधा दौड़ में रजत जीता था। नॉर्मन प्रिचर्ड 1905 में इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में भी मन नहीं लगा, तो हॉलीवुड चले गए और उन्होंने वहां न केवल नाटकों बल्कि कुछ मूक फिल्मों में नॉर्मन ट्रेवर के नाम से अभिनय भी किया। 31 अक्टूबर 1929 में लॉस एंजेल्स में उनका निधन हो गया। नॉर्मन भारत की ओर से पदक जीतने वाले न केवल पहले एथलीट थे, बल्कि वे ओलंपिक पदक जीतने वाले पहले एशियाई भी थे। हालांकि उनकी नागरिकता पर भी कम विवाद नहीं है। भारत से उन्हें विधिवत ओलंपिक में भाग लेने के लिए नहीं भेजा गया था, वे स्वयं भाग लेने गए थे। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक फेडरेशन के अनुसार प्रिचर्ड भारत की ओर से नहीं, बल्कि ग्रेट ब्रिटेन की ओर से खेले थे। खेल इतिहासकार दावा करते हैं कि जब वे ब्रिटिश खेलों में भाग लेने स्वदेश गए थे, तभी उन्हें ग्रेट ब्रिटेन की ओर से ओलंपिक में खेलने के लिए अधिकृत कर दिया गया था। बहरहाल, इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी अभी भी प्रिचर्ड को भारत के हिस्से में मानती है, क्योंकि प्रिचर्ड ने ओलंपिक में भारत की ओर से अपना नाम लिखवाया था।


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सूखे में एक बूंद : लियेंडर पेस


सतरह जून 1973 को जन्मे लियेंडर पेस ने वर्ष 1996 में अटलांटा में लॉन टेनिस स्पर्धा में कांस्य पदक जीतकर एकल स्पर्धा में पदकों के सूखे को कुछ दूर किया। 1997 में देश के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से पुरस्कृत पेस वल्र्ड जूनियर चैंपियन रह चुके थे, अत: ओलंपिक में स्वाभाविक ही उनसे काफी उम्मीदें थीं, जिन्हें कांस्य जीतकर पेस ने पूरा किया। पेस इतने जबरदस्त फॉर्म में चल रहे थे कि अगर वे स्वर्ण जीत जाते, तो भी किसी को आश्चर्य नहीं होता। ओलंपिक में कई पेशेवर लॉन टेनिस खिलाडि़यों ने हिस्सा नहीं लिया था। अब तक युगल स्पर्धाओं में सात ग्रेंड स्लैम खिताब जीत चुके पेस अपने उस प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाए। खैर, ओलंपिक में एकल स्पर्धा में भारत को पदक दिलवाने वाले वे दूसरे भारतीय हैं। उन्होंने जो भी किया है, अपने दम पर किया है। उनकी तरक्की में सरकार की भूमिका न के बराबर है।


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बढ़ा देश का वजन : मल्लेश्वरी


एक जून 1975 को श्रीकाकुलम आंध्रप्रदेश में जन्मी भारोत्तलक कर्णम मल्लेश्वरी ओलंपिक में पदक पाने वाली पहली और अकेली भारतीय महिला हैं। न उनके पहले किसी भारतीय महिला ने ओलंपिक में पदक जीता और न उनके बाद। वर्ष 1996 में सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित कर्णम मल्लेश्वरी को वर्ष 2000 में सिडनी ओलंपिक के लिए भारतीय दल में शामिल करने को लेकर विवाद हुआ था, जब कुंजरानी देवी की बजाय मल्लेश्वरी को वरीयता दी गई थी, मल्लेश्वरी के लिए यह महत्वपूर्ण मौका था, उन्होंने आलोचनाओं की चुनौती को स्वीकार किया और पदक जीतने के लिए जी-जान लगा दिया। जब 69 किलोग्राम वर्ग में उन्हें कांस्य पदक मिला, तो देश में खुशी की लहर दौड़ गई। देश की लड़कियों और महिलाओं के लिए भी यह गर्व की बात है कि वे पुरुषों से ज्यादा पीछे नहीं हैं। वे कहती हैं, `लोग मुझसे पूछते रहते हैं, भारत ज्यादा पदक क्यों नहीं जीतता है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर इस बारे में बात करना आसान है, लेकिन पदक जीतना आसान नहीं है।´


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लग ही गया निशाना : राज्यवर्धन सिंह राठौर


उन्तीस जनवरी 1970 को जैसलमेर (राजस्थान) में जन्मे राज्यवर्धन सिंह राठौर ने ओलंपिक में वह कर दिखाया, जो अपने राज्य राजस्थान के बीकानेर महाराज कणी सिंह नहीं कर पाए थे। भारतीय सेना में कार्यरत ले.क. राज्यवर्धन सिंह राठौर ने डबल ट्रैप निशानेबाजी में कई कमाल किए हैं, लेकिन सबसे बड़ा कमाल था, एथेंस ओलंपिक में रजत पदक जीतना। एकल स्पद्धाü में पहली बार एक भारतीय ने रजक पदक जीता। एथेंस में क्लालिफिकेशन राउंड में राठौर पांचवे स्थान पर थे, लेकिन फाइनल में उन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया और दूसरे स्थान पर रहे। यह भारत के लिए अचानक आई बड़ी सफलता थी। पूरे देश ने राठौर का लोहा माना। बीजिंग में भी उनसे स्वाभाविक ही उम्मीद बंधी थी, लेकिन उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और वे 15वें स्थान पर रहे। फिर भी राठौर को इस बात का श्रेय जाएगा कि उन्होंने भारतीय निशानेबाजों का सम्मान बढ़ाया। उनसे पहले भारत में एक से बढ़कर एक निशानेबाज हुए थे, लेकिन किसी ने देश को ओलंपिक में पदक नहीं दिलाया था।

Monday, 11 August 2008

सबको सोना मुबारक हो


देश ओलंपिक में जीते गए स्वर्ण की अभिनव आभा से चमक रहा है। चमक इतनी तीव्र है कि आंखें चौंधिया रही हैं। जो आज तक न हो सका था, वह हो गया। अभिनव बिंद्रा ने 10 मीटर एयर रायफल शूटिंग में वह पदक जीता है, जिसका इंतजार करते न केवल देशवासियों की पलकें थक गई थीं, बल्कि असंख्य देशवासियों ने स्वर्ण का इंतजार करना भी छोड़ दिया था। तो लीजिए, हाजिर है देश की झोली में एक नायाब स्वर्ण पदक, जिसने भारतीय खेल इतिहास में अपना अलग अध्याय बना लिया है। बेशक, देश की आजादी के बाद खेलों की दुनिया में यह भारत की सबसे बड़ी सफलता मानी जाएगी। अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित भारत के खेल रत्न 25 वर्षीय अभिनव बिंद्रा लगभग सवा अरब देशवासियों की चोटिल उम्मीदों पर भी खरे उतरे हैं, उन्होंने निराशा को न केवल दूर किया है, बल्कि उम्मीदों को नई जमीन दी है। यह मानना चाहिए कि पिछले ओलंपिक में राज्यवद्धन सिंह राठौर ने रजत पदक जीतकर संकेत दे दिया था कि भारत के निशानेबाज स्वर्ण की दहलीज तक पहुंच गए हैं। पिछली बार हम रजत जीते और अब स्वर्ण हमारे साथ है, दरअसल खेल विरोधी किसी देश में सफलता की लड़ी ऐसे ही तैयार होती है। अभिनव अपनी योग्यता तो वर्ष 2000 में ही साबित कर चुके थे, लेकिन इस बार वक्त उन पर मेहरबान था, साथ ही, पूरे देश की आकांक्षा उनके साथ थी। यादगार कमाल हो गया। अभिनव की पहली प्रतिक्रिया थी, `आज मेरा दिन था।´

अभिनव की टिप्पणी में हम जोड़ सकते हैं, यह भारत का दिन था। अभिनव एक सहज खिलाड़ी हैं, बड़बोले तो बिल्कुल नहीं। शायद इसीलिए उनसे उम्मीद लगाने वालों की संख्या ज्यादा नहीं थी, लेकिन शायद इसीलिए अभिनव पर किसी तरह का दबाव नहीं था। निशानेबाजी एक मुश्किल खेल है। जिसमें बाल की खाल बराबर गलती भी आपको पदक की दौड़ में पछाड़ सकती है। गगन नारंग 600 में से 595 अंक लेने के बावजूद फायनल राउंड के योग्य नहीं बन पाए, जबकि 600 में 596 अंक लेकर अभिनव ने फायनल राउंड में भाग लेने की योग्यता हासिल की और योग्यता हासिल करने वालों में चौथे स्थान पर थे, सोचिए कि स्पद्धियों में कितना मामूली अंतर था। फाइनल में आखिरी शॉट बाकी था। अभिनव दूसरे स्थान पर थे। फिनलैंड के हेनरी पहले स्थान पर, लेकिन जहां आखिरी शॉट में अभिनव सबसे अव्वल रहे, वहीं हेनरी का आखिरी शॉट बिगड़ गया और वे कांस्य पदक पर आ गए। अभिनव का स्कोर 700.5, रजत विजेता चीन के जे किनान का स्कोर 699.7, कांस्य विजेता फिनलैंड के हेनरी का स्कोर 699.4 रहा। क्यों है न बाल की खाल बराबर अंतर? और इसीलिए खुशी जरूरत से ज्यादा है। अभिनव के पिता सातवें आसमान पर हैं, उन्होंने अपने बेटे के लिए उद्घोष किया, `सिंह इज किंग।´ अभिनव बिंद्रा अब देश के सबसे अमीर खिलाडि़यों में शुमार हो जाएंगे, क्योंकि अभी तक वे केवल रत्न थे, लेकिन अब रत्नेश हो गए हैं। वे युवा हैं, उनकी आंखों में भारत के भविष्य की चमक है। उम्मीदों से लबरेज होकर कहना चाहिए, यह भारत की शुरुआत है। शुरुआत मिल्खा सिंह के समय हो सकती थी, पी.टी. उषा के समय हो सकती थी, लेकिन अभिनव के समय हुई है। लोग 28 साल बाद स्वर्ण पाने की बात कर रहे हैं, लेकिन लगभग 112 सालों से हम ओलंपिक में भाग ले रहे थे, एकल स्वर्ण एक नहीं आया था। अब गर्व से दर्ज कीजिए, 11 अगस्त 2008 को हमारी आजादी के 61वें जश्न से महज चार दिन पहले देश ओलंपिक की स्वर्णिम अभिनव आभा से आल्हादित हुआ था। स्वागतम्, सु-स्वागतम्...

Tuesday, 5 August 2008

भीड़ की भक्ति से भड़के भगवान?

हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध धर्मस्थल नैना देवी मंदिर के बाहर रविवार ३ अगस्त को मची भीषण भगदड़ में लगभग डेढ़ सौ लोगों की मौत भक्ति की बढ़ती भेड़चाल को मुंह चिढ़ा रही है। दुर्घटना दुखद और शर्मनाक है। जरूरत से ज्यादा भीड़ बनाकर किसी मंदिर या धर्मस्थल पर भक्ति के लिए जुटना अब हमारी आदत में शुमार हो चुका है। प्रशासन और सरकारों को तो जितना कोसिए कम है। जैसे ही अत्यधिक भीड़ जुटती है, इंतजामों का रायता फैल जाता है। सबकुछ भगवान भरोसे होता है। भीड़ वाली जगहों के लिए विशेष नीति या इंतजाम की जरूरत है, लेकिन धर्म-धर्म चीखने वाली भाजपा की सरकारों ने भी कभी इस दिशा में प्रयास नहीं किया है।


माफ कीजिएगा यह भक्ति नहीं है? भक्ति एक शांत और एकल भावना है, यह भीड़ में संभव नहीं हो सकती। भीड़ का व्याकरण असभ्यता और अभद्रता का व्याकरण है। अभी आप किसी भी धर्मस्थल पर चले जाए, श्रावण का महीना चल रहा है, हरिद्वार से लेकर रामेश्वरम तक सभी धर्मस्थल ठसाठस मिलेंगे? कथित भक्ति की रेलमपेल मची है। भीड़ बनकर देह से देह रगड़ते हुए पूजा में न जाने कितना रस मिलता है? ऐसी पूजा से न जाने कितना फल मिलता है? भगदड़ की घटनाओं के बहाने कोई भी नास्तिक भीड़ वाली भक्ति पर सवालिया निशान लगा सकता है और लगाना भी चाहिए। छोटे-छोटे बच्चों को टांगे हुए लोग मंदिरों में आखिर क्यों धक्के खाने पहुंच जाते हैं? भगवान कोई वीआईपी अफसर या मंत्री नहीं हैं कि सप्ताह में एकाध दफा दर्शन दें, वे तो सदा और सर्वत्र उपलब्ध हैं, क्या उन्हें घर बैठे याद नहीं किया जा सकता? प्रसिद्ध धर्मस्थलों के दर्शन आराम से बिना भीड़ लगाए भी संभव है। दरअसल, भीड़ की भक्ति को बाजार ने बढ़ावा दिया है।


आप किसी भी धर्मस्थल पर चले जाइए, वहां विराजमान धंधेबाज आपको ठगने के लिए अजगर की तरह चीभ लपलपाते दिखेंगे? वाराणसी के घाट से लेकर ख्वाजा के दरबार अजमेर तक आप भक्ति करने जाते हैं और वहां के पंडे, खादिम आपका मूड खराब करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। आपका ध्यान दर्शन पर होता है और पंडों का ध्यान आपकी जेब पर। आप धर्मस्थलों पर बार-बार ठगे जाते हैं। यही नहीं, धर्मस्थलों के आसपास मिलावटी सामान या प्रसाद खूब मिलता है और कीमत भी नाजायज वसूली जाती है। धर्मस्थलों के आसपास पाप और ठगी का ऐसा जाल बुन चुका है कि जिसमें सीधे-सादे श्रद्धालु फंसी मछली की तरह तड़पते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं पाते। क्या ऐसी जगहों पर भगवान वाकई रहते होंगे? क्या भगवान को ठगों और अपवित्र दुष्ट लोगों के बीच रहना अच्छा लगता होगा? भीड़, दिखावा, भेड़चाल, झूठ, ठगी, अभद्रता और गंदे मिलावटी प्रसादों-भोगों से भड़क कर भगवान न जाने कितने कथित विख्यात धर्मस्थलों को छोड़ चुके होंगे।


कहा जाता है, सब भगवान की मर्जी है, क्या भगदड़ भी भगवान की मर्जी है? क्या जहाँ पाप होता है वहां विनाश होता है?

Saturday, 2 August 2008

आज कुछ उदास लाल सलाम


कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत का हमारी दुनिया से विदा होना न केवल भारतीय वामपंथ, बल्कि वैश्विक वामपंथी विचारधारा के लिए एक बड़ी क्षति है। एक विरल वामपंथी के रूप में पगघारी सरदार कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत भारतीय वाम का सच्चा चेहरा थे। एक ऐसा भारतीय, जो राष्ट्रवाद की आंच में तपने के बाद वाम धरा पर चट्टानी मजबूती के साथ स्थापित हुआ था। भारतीय परिवेश में वामपंथी होना कितना कठिन है, यह बात सुरजीत बहुत अच्छी तरह जानते थे। सच्चा वामपंथ अवसरवाद के अवसर नहीं देता, वह तो संपूर्ण संमर्पण मांगता है और कॉमरेड सुरजीत वाम विचारधारा की कसौटी पर सोलह आना खरे उतरे। सुरजीत के कॉमरेड होने की बात करने से पहले उनके सच्चे राष्ट्रवादी होने की बात करना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि अपने देश पर चीन ने जब 1962 में हमला किया था, तब विचारधारा के स्तर पर चीन के समर्थन में नजर आने वाले कॉमरेड सुरजीत की राष्ट्र निष्ठा पर सवाल उठाए गए थे और वामधारा की समझ के अभाव में हमेशा उठाए जाते रहेंगे। अंग्रेजों के समय किशोर सुरजीत सबसे पहले भगत सिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर नौजवान भारत सभा में शामिल हो गए थे। इतना ही नहीं, युवा वय में होशियारपुर कोर्ट पर भारतीय ध्वज को फहराने के जुनून में उन्होंने पुलिस फायरिंग को भी अनदेखा कर दिया था और कोर्ट में अपना नाम `लंदन तोड़ सिंह´ बताया था। कॉमरेड सुरजीत का इतिहास लिखते हुए `लंदन तोड़ सिंह´ को नजरअंदाज करना अक्षम्य अपराध होगा। जो `लंदन तोड़ सिंह´ को नहीं जानता, वह कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत को कैसे समझ सकता है? कॉमरेड सुरजीत को सामने रखकर आप बेहिचक बोल सकते हैं, आजादी की लड़ाई में वामपंथियों ने भी भाग लिया था। कॉमरेड सुरजीत की भावधारा का निर्माण पढ़े-लिखे सोवियत संघ-मुखी बुद्धिजीवियों की बैठकों में गरमागरम बहस करते हुए नहीं हुआ था। वे केवल किताब पढ़कर कॉमरेड नहीं हो गए थे, वे पंजाब में किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ते हुए कॉमरेड हुए थे। हां उनसे गलती हुई, उन्होंने भारत की आजादी को एक झटके में स्वीकार नहीं किया। हालांकि इसके पीछे भी एक दमदार वजह है। एक नेता के रूप में उनकी निगाह महज गरीबों और शोषितों पर टिकी थी, वे रोटी का स्वप्न देख रहे थे, आजाद देश की सत्ता में भागीदारी का स्वप्न नहीं देख पा रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंने अन्य अनेक वामपंथियों की तरह भारत की आजादी को झूठी आजादी ठहराया था। ईमानदारी से देखिए, तो आज भी भारत में गरीबों और शोषितों का एक विशाल हुजूम है, जो आजादी के ककहरे से महरूम हैं। वे विरल वामपंथी थे। सिख थे, तो अंत तक सिख रहे, खालिस्तान आंदोलन का विरोध किया। स्टालिन को आदर्श मानते थे, लेकिन बैलेट बॉक्स की राजनीति से कभी परहेज नहीं किया। वे चुनाव लड़ने वाले वामपंथी नहीं थे, वे तो 1980 का दशक आते-आते वाम विचारधारा को दिल्ली में आधार देने वाले राजनीतिज्ञ में तब्दील हो चुके थे। दिल्ली जैसी खतरनाक सत्ता-प्रेमी जगह पर वामपंथी होना वाकई मुश्किल काम है, लेकिन वहां उन्होंने एक संयोजक, समन्वयक बनकर सांप्रदायिकता से लोहा लिया। माकपा महासचिव नंबूदरीपाद के समय वामपंथी कुछ समय के लिए भाजपा के साथ दिखे थे, लेकिन कॉमरेड सुरजीत के महासचिव रहते कभी ऐसा नहीं हुआ। भाजपा को सत्ता से अलग रखने के लिए उन्होंने अनेक मोर्चों , समीकरणों की रचना की। अफसोस अब जब कोई तीसरा मोर्चा बनेगा, तो छोटे-छोटे दलों के नेताओं को साथ लेकर एक साथ हाथ ऊपर उठाए हुए कॉमरेड सुरजीत नजर नहीं आएंगे। पता नहीं, उनके बिना इस देश में कोई तीसरा मोर्चा बन भी पाएगा या नहीं। केवल वामधारा ने ही नहीं, भारतीय राजनीति ने अपना एक महत्वपूर्ण महारथी गंवा दिया है। वाकई, आज उदास है लाल सलाम।

Tuesday, 29 July 2008

जाति के जर्रे : पांच

--विवेक हर लेती है गरीबी--
तो जवाहिर राम की आंखों में आंसू छलकने को बेताब थे। वह हमेशा की तरह बाबूजी से आंखें चुरा रहा था। घुटनों तक धोती, घनी मूंछें, छरहरा बदन। सिमट कर घुटनों पर हाथ और हाथ पर मुंह टिकाए बैठा था। बाबूजी सामने खाट पर थे, पूछा, `काहे मुंह लटकाए हो?´ `मोहन भाई दुनिया छोड़ गइलन।´बाबूजी घर के सामने पड़ने वाले नारा वाले खेतों के उस पार स्थित घनी बंसवारी को देखने लगे। मोहन भाई की यादों में उनकी नजरें ठहर गईं। एक साथ कई स्वर, कई घटनाएं, कई संवाद उभर आए। जवाहिर की आंखें बह चली थीं और बाबूजी याद कर रहे थे।

--- मोहन भाई बैलों को हल के लिए तैयार कर रहे हैं। बाबूजी भी खेत जाने के लिए तैयार हैं, `मोहन, आज चंवरा वाला खेत जुत जाना है। बारिश कभी भी शुरू हो जाएगी।´मोहन जोर की आवाज लगाता है, `जी मालिक।´और बैल चंवर की ओर बढ़ चलते हैं, उन्हें रास्ता पता है, बस खोलने और हल की रस्सी गले में बंधने की देर होती है। वे जान जाते हैं आज काम पर जाना है और मोहन भाई के कंठ से जब `चल, चलके´ आवाज निकलती है, तो बैलों का जोड़ा अपने गले में बंधी घंटियां बजाता चल पड़ता है।

हमारे चंवर वाले खेत घर से करीब चार किलोमीटर दूर पड़ते हैं। चंवर राजपूतों के गांव माने में पड़ता है। उसके पहले बिरती वाले खेत पड़ते हैं, जो नौतन गांव के तहत आते हैं और उसके पहले नहर के पास वाले और उसके बाद नौतन बाज़ार और नारा वाले खेतों की बारी आती है। घर के आसपास भी पर्याप्त जमीन है।जहां तक मेरी बात है, गांव में हमारी कितनी जमीन है, यह आज भी मैं नहीं जानता। कहां-कहां खेत हैं, यह भी मैं नहीं जानता। बस एक अंदाजा है, जिन-जिन खेतों में बचपन में गए हुए हैं, उन खेतों की याद है। विशेष रूप से जिन खेतों में हेंगाई के समय बास की पट्टी पर मोहन भाई ने बैठाया था, वे खेत अच्छी तरह याद हैं। खेत की जुताई यानी खोदाई के बाद हेंगी से खेत को समतल किया जाता है। बैलों के जोड़े के पीछे हल की जगह बांसों को जोड़कर बनाई गई पट्टी बांधी जाती है और बैलों का हांकने वाला हरवाह उस बांस की पट्टी पर चढ़ जाता है, बच्चे भी रस्सी पकड़कर मजे से हेंगी पर बैठ जाते हैं। हेंगी का कुछ भार हो जाता है, बैल चल पड़ते हैं और उबड़-खाबड़ जुते हुए खेत समतल होने लगते हैं। बचपन में हम चारों भाइयों को हेंगी पर बैठने में बड़ा मजा आता था। इतना मजा आता था कि पास वाले खेत में ही दो भाई बैल की भूमिका में होते, तो दो भाई पीढे़ से बनी हेंगी पर बैठकर आनंद लेते। सबसे बड़े भाई दिलीप उपाध्याय हम चार छोटे भाइयों को खेत में खेलते देख गदगद रहते थे और उससे भी ज्यादा गदगद बाबूजी होते थे कि शहरी बच्चे खेत में खेलकर मजबूत हो रहे हैं।

खैर, बाबूजी और मोहन भाई चंवर पहुंचते हैं। वहां पहुंचकर मोहन को खूब जोर की भूख लगती है। वह बाबूजी से बोलता है, ` पेट खाली है, घर जाएंगे, तो खाना भिजवा दीजिएगा।´ बाबूजी खेत बताकर वापस चले आते हैं। उन्हें स्कूल भी जाना है। घर आते हैं, खाना बांधने का आदेश देते हैं। नहा-धोकर स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। स्कूल जाने से पहले मोहन भाई के पास खाना भी पहुंचाना है। बुआ पोटली बांध लाती हैं, पोटली में दस रोटियों के बराबर चार मोटी रोटियां हैं और बैंगन की सब्जी, मिर्च, नमक, प्याज। बाबूजी फिर चंवर के लिए चल पड़ते हैं। नारा वाले खेतों को पार करते हैं, नहर के पास वाले खेतों के करीब पहुंचते हैं, तो देखते हैं। अपने ही एक बिरादर उपाध्याय के खेत में मोहन की पत्नी अपने एक पुत्र के साथ काम में लगी है। बाबूजी सोचते हैं, मोहन को खाना देने चंवर तक जाऊंगा, तो स्कूल के लिए देर हो जाएगी, क्यों न मोहन की पत्नी को ही खाना पहुंचाने की जिम्मेदारी दे दूं, यह बेटे को भेजकर खाना पहुंचा देगी। बाबूजी ने ऐसा ही किया, मोहन की पत्नी ने बड़ी ललचाई निगाह से पोटली अपने पास रख ली और आश्वस्त कर दिया कि पोटली मोहन तक पहुंच जाएगी। बाबूजी स्कूल चले गए। दिन भर खूब कड़ी धूप रही थी, पसीने से परेशान जब बाबूजी शाम को स्कूल से घर पहुंचे, तो आश्वस्त थे कि चंवर वाला बड़ा खेत जुत गया होगा, बारिश कभी भी शुरू होने वाली है। मोहन की मेहनत से काम समय से हो गया। तभी बाबूजी के लिए पानी लेकर आई बुआ बताती है, `मोहन तो न जाने क्यों सुबह दस बजे ही बैल दरवाजे पर बांध गया।´ बाबूजी चौंक पड़े। पानी पीना थम गया। यानी चंवर वाले खेत नहीं जुत सके। यह तो बदमाशी है। खाना भी भिजवाया, तब भी मोहन ने दस बजे ही लाकर बैल दरवाजे पर बांध दिए और अपने घर लौट गया। आखिर क्या बात हुई? बाबूजी यही सोचते हुए फिर झटपट तैयार हुए और मोहन के टोले की ओर चले पड़े, जो कि करीब डेढ़ किलोमीटर दूर पड़ता था। मोहन घर के सामने ही खाट पर चित पड़ा था। बाबूजी को आता देखकर उठ बैठा। बाबूजी ने दूर से ही पूछा, `मोहन, खेत क्यों नहीं जुता? एकदम नाजायज बात है।´मोहन ने रोष के साथ कहा, `खाना नहीं भिजवाए, तो भूखे पेट हल कैसे चलाता?´ बाबूजी दंग रह गए। मामला समझ में आ गया। बोले, `अपनी मेहरारू से पूछो? क्या मैंने उसे खाना तुम्हारे पास पहुंचाने के लिए नहीं दिया था?´मेहरारू सब सुन रही थी, झोंपड़ी के अंदर ही कसमसा रही थी। मोहन ने आवाज देकर उसे बाहर बुलाया, वह बेवक्त बुलाने का बहाना करती मोहन पर नाराज होती हुई बेमन से बाहर आई। मोहन के एक बार पूछने पर उसने कोई जवाब नहीं दिया, जब मोहन ने डपट कर पूछा, तब उसने आंचल में मुंह छिपाए हुए कहा, `बड़ी भूख लगी थी, हम मां-बेटे ही खा गए, तुम्हारे लिए बचा नहीं।´बाबूजी आगबबूला हुए, `काम दूसरे के खेत में किया और खाना हमारे यहां का खा गई। मेरा खेत यों ही पड़ा रह गया, मेरे बैल गए और घूमकर आ गए, बताओ यह भी कोई बात हुई? सरासर नाजायज? बताओ, मैंने क्या गलत किया?´मोहन भी शर्मिंदा हुआ, बीवी को पीटने को तैयार हो गया, लेकिन वह चुपचाप वहां से खिसक गई। बाबूजी बहुत दुखी मन से घर लौट आए। मोहन एकाध दिन शर्म के कारण नजर नहीं आया। बताते हैं, उसकी बीवी बड़ी चंट थी, शायद अभी भी जिंदा है। उसे बड़ी भूख लगती थी। वह किसी के भी खेत में नजर चुराकर घुस जाया करती थी, सब्जियां कच्ची ही भकोस लिया करती थी। उसे लाज-लेहाज जरा न था। मोहन भी बेचारा क्या करता? समझा- बुझाकर हार चुका था।


बहरहाल, बाबूजी यादों में खोए थे। जवाहिर ने लंबी चुप्पी तोड़ते हुए बताया, `घर में एक भी दाना नहीं है, भाई का श्राद्ध न जाने कैसे होगा?´बाबूजी मानों यादों से जागे, हरकत में आए, `चिंता मत करो, श्राद्ध ढंग से होगा। जाओ घर से मलकिनी से बोलो, बीस किलो आटा, बीस किलो चावल ले लो, कुछ रुपये भी मैं दिए देता हूं। श्राद्ध ठीक से करो। मोहन अपने ही घर का आदमी था। बहुत किया उसने।´ जवाहिर फूट-फूटकर रोने लगा, तो कुछ बच्चे भी वहां जुट गए। बाबूजी ने पूछा, `रोओ मत, बहुत काम है, जाकर निपटाओ।´जवाहिर ने रोते हुए ही कहा, `मालिक, मोहन पर इतनी दया? आप नहीं जानते, हम लोग आपको कितना नुकसान पहुंचाए हैं। खेतों पर हमने क्या-क्या किया है, यह अगर आप जान जाएंगे, तो आपको बहुत दुख होगा। हम लोग दया के लायक नहीं हैं, मालिक।´ बाबूजी बोले, `मैं जानता हूं, याद मत करो, ये सब बेकार बात है।´जवाहिर ने रोते हुए जमीन में नजर गड़ाए हुए कहा, `मालिक, आपकी जगह कोई दूसरा होता, तो हमें बहुत पीटता, लेकिन आपने कभी कुछ नहीं कहा और आप हमारे बारे में इतना सोच रहे हैं। हम लोग कैसा सोचते थे और आप कैसा सोचते हैं? वाह रे मालिक, जाति तो जाति ही होती है न? बड़ा तो बड़ा ही होता है। आपको जान गए, किरिया (कसम) खाते हैं, आगे से हमेशा आपका भला सोंचेंगे। मेरा दोषी भाई भी आपको अजीज है, उसके लिए इतना दे रहे हैं? धन्य है।´ बाबूजी ने कहा, `चुप रहो । नीच-ऊंच मत करो। गलती तुम्हारे या तुम्हारे भाई की नहीं थी। दरअसल भूख और गरीबी अच्छे-अच्छों का विवेक हर लेती है। विवेक न हो, तो आदमी गलतियां करता चला जाता है। तुम लोगों के साथ भी ऐसा ही होता है।´

उसी क्षण जवाहिर की दुनिया बदल गई। उसकी दुनिया हमारे घर के लिए स्वार्थ से परे बस रही थी। जवाहिर आज भी है, हमारी सेवा के लिए समर्पित, अपनों से भी ज्यादा अपनों की तरह। सहज सम्मानित। मोहन भाई चले गए, काश, वे भी जवाहिर की तरह सम्मान से जी पाते, तो कितना अच्छा होता। क्रमश:

Sunday, 27 July 2008

बेखौफ सफर पर दहशतगर्द

....हैदराबाद, जयपुर, बेंगलुरू के बाद अब अहमदाबाद में वो बेखौफ अपनी हैवानियत को अंजाम दे गया, आखिर क्यों उसकी गर्दन हमारी पकड़ से दूर है?


बेंगलुरू में शुक्रवार को आठ बम विस्फोट हुए थे और अब शनिवार को अहमदाबाद में 17 बम धमाके हुए हैं। लगातार दो दिन आतंकियों ने भारत में धमाके किए हैं, तो लगता है, हैवान आतंकियों को कोहराम मचाने की जल्दी है। पहली नजर में यह पुलिस और उसके खुफिया तंत्र की विफलता है और कुछ व्यापकता में जाएं, तो यह हम सबकी विफलता है। उस तबके की विफलता है, जो अपनी खुशियों में खोया हुआ है। जो होटलों में ऐय्याशी के प्रति चिंतित है, जिसने देश के बारे में सोचना छोड़ दिया है। हर विस्फोट हमें थोड़ी देर के लिए जगाता है और हम फिर कुंभकर्ण की तरह सो जाते हैं, जबकि हमें अपने नेताओं की नाक में दम कर देना चाहिए। ये नेता ऐसी-ऐसी कारगुजारियों-कारस्तानियों में जुटे हैं कि किसी भी भले आदमी का सिर शर्म से झुक सकता है। जो राजनेता समाज को सुरक्षा नहीं दे सकता, उसे नेतागिरी छोड़ देनी चाहिए। देश में आतंकवाद के खिलाफ व्यापक बहस होनी चाहिए। हमें विचार करना चाहिए कि आतंकवाद का सामना कैसे-कैसे किया जा सकता है। इसके लिए अगर संसद का विशेष सत्र भी बुला लिया जाए, तो इससे बेहतर और कुछ नहीं होगा।---

शर्म करो सरकार

जो एटमिक डील को साकार करने में दिन रात एक किए हुए हैं, लेकिन उन्हें आतंकियों को नेस्तनाबूत करने की कोई फिक्र नहीं है। उन्होंने कानून तक लचीले बना रखे हैं। आतंकवाद के खिलाफ हमारी केन्द्र सरकार का प्रदर्शन तो शर्मनाक है। जिस आतंकी को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुना दी, उसके प्रति जिस सरकार में हमदर्दी है, वह भला आतंकवाद का खात्मा कैसे करेगी? एक सरकार आतंकियों को कांधार छोड़ आती है, तो दूसरी सरकार आतंकियों को चिकन-बिरयानी खिलाती है, तो भला इस देश में आतंकी नहीं पलेंगे, तो कौन पलेगा? टाडा और पोटा जैसे कानून रद्द कर दिए गए, जो मूल समस्या थी, उसका समाधान नहीं किया गया। गड़बड़ी कानून में नहीं, हमारे तंत्र में है, जो कानून का ढंग से पालन करवाने मे नाकाम रहता है। तंत्र वह है, जो राजनेताओं की जी-हुजूरी में दिन रात एक किए हुए है। अपनी-अपनी पसंद के अफसर बिठाए जाते हैं, अपनी-अपनी पसंद की अदालतें तक बिठाई जाती हैं, तो भला कौन रोकेगा आतंकवाद को? शर्म आनी चाहिए सत्ता में बैठे लोगों को। केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटील का आतंकवाद और नक्सलवाद के प्रति रवैया बेहद लचर रहा है। उन्हें यह ध्यान दिलाते देर नहीं लगती है कि ये विस्फोट राज्य सरकार के सिरदर्द हैं। हमारे केन्द्र सरकार के कर्णधारों के कंठ से एक दुरुस्त ललकार तक नहीं निकल सकती। आवाज ऐसी निकलती है कि एक चूहा तक नहीं बिदकता। सरकार वह होती है, जिसकी दहाड़ से दुष्ट अपराधी कांपते हैं, लेकिन जिस सरकार में कोई दहाड़ने वाला न हो, उसका क्या होगा? सरकार में तो लालू प्रसाद यादव जैसे मसखरे शामिल हैं, जो जनता का झूठा मनोरंजन करते फिरते हैं। दागियों से प्यार करने वाली सरकार, दागियों के वोट पर विश्वास मत जीतने वाली सरकार की जितनी आलोचना की जाए कम है? --

अमेरिका से डील पर गुस्सा?

केन्द्र सरकार को अमर सिंह जैसे उत्सव प्रेमियों के साथ मौज मनाना छोड़कर अमेरिका से दोस्ती की कीमत अदा करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। अमेरिका से दोस्ती करने वाला कोई देश दुनिया में सुरक्षित नहीं रहा है। इस्राइल का उदाहरण सबके सामने है, लेकिन इस्राइल आतंकी हमलों को झेलने के लिए हरदम तैयार रहता है। हमें भी तैयार रहना होगा। अमीरी और बुलंदी कीमत मांगती है। देश विकास कर रहा है, तो सुरक्षा के मद में खर्च बढ़ाना ही होगा। सुरक्षा ढांचे को फिर खड़ा करने की जरूरत है। अमेरिका से दोस्ती करनी है, तो अमेरिका जैसा ताकतवर बनना होगा। भारत कहीं से कमजोर नहीं है, जरूरत बस जागने की है। ध्यान रहे, इक्कीसवीं सदी में उन्नीसवीं सदी की पुलिस बार-बार मुंह की खाने को मजबूर है। सरकारों की जो व्यस्तता तबादलों और अन्य फालतू के कामों में दिखती है, वह आतंकवाद के खिलाफ क्यों नहीं दिखती? हमारी राजनीति में एक तबका है, जो गलत लोगों और बांग्लादेशियों को बसाने का काम करता है। अवैध बस्तियों के लिए जिम्मेदार दलालों के राजनीतिक पाटिüयों से गहरे संबंध होते हैं। बस्तियां ढहाई जाती हैं, अवैध लोग खदेड़े जाते हैं, लेकिन अवैधता को अंजाम देने वाले राजनीतिक तंत्र और उसके छुटभैय्ये गुर्गों का बाल भी बांका नहीं होता। आतंकियों की स्लीपींग सेल हर शहर में मौजूद है, तो उसके पीछे हमारी सरकारों की कोताही और लापरवाही ही है। जयपुर, बेंगलुरू और अहमदाबाद में भी बिना स्थानीय मदद के आतंकियों ने विस्फोटों को अंजाम नहीं दिया होगा। हर सरकार के पीछे जो स्याह गलियारा है, उसी से आतंकियों को खाद-पानी मिलता है। सरकारों को अपने स्याह गलियारों और गलत धंधों पर पूरी तरह से अंकुश लगाना होगा, तभी हम आतंक से लड़ पाएंगे।