Thursday, 6 June 2013

भारत रत्न डॉ. पांडुरंग वामन काणे

भारत रत्न विद्वान डॉ. पांडुरंग वामन काणे की जितनी प्रशंसा की जाए, कम होगी। आधुनिक भारत में आप जैसे प्रकाण्ड विद्वान गिने-चुने ही हुए हैं। भारतीय ज्ञान कोश को समृद्ध करने में इनका योगदान अतुलनीय है। पांडुरंग जी के महत्व को समझने के लिए हमें आजादी के पहले के उथल-पुथल भरे व बिखरे हुए अभावग्रस्त भारत को याद कर लेना चाहिए। अनेक गांवों, शहरों, आश्रमों में ज्ञान के स्रोत व ग्रंथ बिखरे हुए थे, कुछ ही पुस्तकालय ऐसे थे, जहां गं्रथों की मौजूदगी ठीकठाक थी। भारतीय धर्मशास्त्र के समग्र अध्ययन में बहुत समस्या होती थी, यह जानना मुश्किल था कि किस धर्मशास्त्र या ग्रंथ की रचना कब हुई, किसने रचना की, क्यों रचना की और उसका प्रभाव क्या था, उसका सामाजिक संदर्भ क्या था, इन तमाम प्रश्नों के उत्तर खोजने की जैसी कोशिश डॉ. पांडुरंग ने की, वैसी कोशिश भारतीय ज्ञान जगत में दुर्लभ है। महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में ७ मई १८८० को जन्मे पांडुरंग जी ने भी नहीं सोचा था कि वे भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास लिख डालेंगे। वे तो एक दूसरे ग्रंथ व्यवहारमयूख की रचना में लगे थे और उस ग्रंथ को रचने के उपरांत उनके मन में यह ध्यान आया कि पुस्तक का एक प्राक्कथन या परिचय लिखा जाए, ताकि पाठकों को धर्मशास्त्र के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी हो जाए। धर्मशास्त्र की संक्षिप्त जानकारी देने के प्रयास में पांडुरंग जी एक ग्रंथ से दूसरे ग्रंथ, एक खोज से दूसरी खोज, एक सूचना से दूसरी सूचना तक बढ़ते चले गए, पृष्ठ दर पृष्ठ लिखते चले गए। एक नया विशाल ग्रंथ तैयार होने लगा। भारतीय ज्ञान के इतिहास में एक बड़ा काम हुआ। जब धर्मशास्त्र का इतिहास का पहला खंड १९३० में प्रकाशित हुआ, केवल भारतीय ज्ञान की दुनिया में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया भर में ज्ञान की नई हलचल मच गई। उनके ऐतिहासिक लेखन को हाथों हाथ लिया गया। धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रंथ के प्राक्क्थन में पांडुरंग जी ने स्वयं लिखा है, 'व्यवहारमयूख के संस्करण के लिए सामग्री संकलित करते समय मेरे ध्यान में आया कि जिस प्रकार मैंने साहित्यदर्पण के संस्करण में प्राक्कथन के रूप में अलंकार साहित्य का इतिहास, नामक एक प्रकरण लिखा है, उसी पद्धति पर व्यवहारमयूख में भी एक प्रकरण संलग्न कर दूं, जो निश्चय ही धर्मशास्त्र के भारतीय छात्रों के लिए पूर्ण लाभप्रद होगा। इस दृष्टि से जैसे-जैसे धर्मशास्त्र का अध्ययन करता गया, मुझे ऐसा दीख पड़ा कि सामग्री अत्यंत विस्तृत एवं विशिष्ट है, उसे एक संक्षिप्त परिचय में आबद्ध करने से उसका उचित निरूपण न हो सकेगा। साथ ही उसकी प्रचुरता के समुचित परिज्ञान, सामाजिक मान्यताओं के अध्ययन, तुलनात्मक विधि शास्त्र तथा अन्य विविध शास्त्रों के लिए उसकी जो महत्ता है, उसका भी अपेक्षित प्रतिपादन न हो सकेगा। निदान, मैंने यह निश्चय किया कि स्वतंत्र रूप से धर्मशास्त्र का एक इतिहास ही लिपिबद्ध करूं।Ó आज धर्मशास्त्र का इतिहास एक ऐसी अनमोल थाती है कि जिसमें वैदिक काल से आधुनिक काल तक के न केवल धर्म ग्रंथ बल्कि तमाम विधि-विधान, सामाजिक रीति रिवाज का भी पर्याप्त विवरण है। पांडुरंग जी ने वही किया, जो एक विद्वान को करना चाहिए। जो सीखा है, जो पढ़ा है, जो अनुभव किया है, उसे दूसरों तक पहुंचाने का काम विद्वान करते हैं। वे एक युग से दूसरे युग के बीच अपने ज्ञान से सेतु का निर्माण करते हैं। वे बीती हुई पीढिय़ों का ज्ञान वर्तमान और भविष्य की पीढिय़ों तक पहुंचाने के लिए ज्ञान ग्रंथ के सेतु निर्मित करते हैं। पांडुरंग जी के बारे में निस्संदेह यह कहना चाहिए कि ज्ञान का जैसा भव्य व विशाल पुल या सेतु उन्होंने बनाया, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। आज का दौर ऐसा दौर है, जहां विद्वान अपने ज्ञान को बांटने से हिचकने लगे हैं, लेकिन पांडुरंग जी उस ऋषि परंपरा के विद्वान थे, जिन्होंने खुले मन से अपने ज्ञान के भंडार को पूरी दुनिया के लिए लुटाया। उन्होंने पहले धर्मशास्त्र का इतिहास अंग्रेजी में लिखा और उसके बाद संस्कृत व मराठी में। धर्मशास्त्र के इतिहास के एक के बाद एक पांच खंड प्रकाशित हुए, १९६२ में पांचवां खंड आया। यह काम इतना अद्भुत, उपयोगी और अतुलनीय था कि भारत सरकार भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकी। वर्ष १९६३ में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया गया। बेहिचक यह कहना चाहिए कि पांडुरंग जी आज तक अकेले ऐसे भारत रत्न हैं, जो भारतीय शास्त्र व संस्कृत को समर्पित रहे। आज कई मोर्चों पर जब संस्कृत को लगातार उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है, तब पांडुरंग रंग जी को याद करना और याद रखना बहुत जरूरी है। १९३० में जब वे पचास वर्ष की आयु के थे, तब धर्मशास्त्र का इतिहास का पहला खंड आया था और जब अंतिम खंड आया, तब वे ८२ वर्ष केे। एक तरह से उन्होंने पूरा जीवन धर्मशास्त्र को समर्पित कर दिया। लगभग ६५०० पृष्ठों के इस ऐतिहासिक ग्रंथ के अलावा भी उनके अनेक गं्रथ प्रकाशित हुए। उन्हें केन्द्र सरकार ने राज्यसभा का सदस्य भी मनोनीत किया था। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा भी अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए। उनके नाम पर आज अनेक संस्थाएं काम कर रही हैं। उन्हें महामहोउपाध्याय होने का सम्मान मिला था, वे महान गुरुओं के बीच भी महान गुरु थे। उनकी पुस्तकों के बिना आज कोई भी पुस्तकालय पूरा नहीं हो सकता। आज उनके नाम से पुरस्कार बंटते हैं। उनके द्वारा रचा गया ज्ञान कोश अंग्रेजी, संस्कृत और मराठी भाषा में १५,००० से ज्यादा पृष्ठों पर उपलब्ध है। १९७२ में उन्होंने शरीर त्याग दिया, लेकिन जो अनमोल ज्ञान वे अपने पीछे छोड़ गए हैं, उसका महत्व कभी खत्म नहीं हो सकता। पांडुरंग जी और उनके योगदान आज भी प्रासंगिक हैं। भारतीय विद्वानों की दुनिया उन्हें भुला नहीं सकती, जब भी भारतीय संस्कृति को लेकर कोई विवाद उठता है, तो पांडुरंग जी की रचनाओं से निकालकर उद्धरण दिए जाते हैं। आज चारों तरफ आंदोलनों की गूंज है, एक तरफ भ्रष्टाचार जारी है, तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन। इस स्थिति की कल्पना शायद पांडुरंग जी ने पहले ही कर ली थी, उन्होंने कहा था, भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है, क्योंकि लोगों को अधिकार तो दिए गए हैं, लेकिन जिम्मेदारी नहीं दी गई। आज कौन उनकी इस बात से इनकार करेगा? भारत में लोगों को हर संभव अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन लोग जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हैं, जिसकी वजह से समाज व देश में अनेक चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। आज भारत रत्न डॉ. पांडुरंग वामन काणे को याद करना तभी सार्थक होगा, जब हम भारत और भारतीयता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे। तभी हम अपने अधिकारों का सदुपयोग कर पाएंगे और यही पांडुरंग जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। धन्यवाद, जयहिन्द, जय भारत। (मेरे द्वारा लिखित इस वार्ता का प्रसारण मेरी ही आवाज में रेडियो स्टेशन जयपुर से पिछले वर्ष हुआ था।)

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