Wednesday 13 June, 2018

हमको क्षमा करो भगवान!


विगत जुलाई के महीने में उस दिन शाम पुरी जगन्नाथ धाम के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती जी जगन्नाथ मंदिर प्रबंधन से जुड़े दो पदाधिकारियों से बात कर रहे थे और उन्होंने अपने स्वभाव के अनुरूप ही दोटूक कहा - मंदिर लुटेरों का अड्डा बन गया है, वहां धर्म के अनुरूप आचरण नहीं हो रहा है।
दोनों पदाधिकारी स्तब्ध और बेचैन थे कि सुधार के लिए कुछ किया जाए। शंकराचार्य ने दोटूक कथन जारी रखा, सुधार हो, परन्तु आप लोग पहले मन बना लीजिए। वैसे भी मंदिर के मामलों में मेरी कौन सुन रहा है? 
पुरी का यही सच है कि पुरी के मंदिर प्रबंधन के कार्य से शंकराचार्य को पूरी तरह से दूर कर दिया गया है। पुरी में धर्म का जो सबसे आधिकारिक पद है, धर्म की जो सबसे ऊंची ध्वजा है, वही उपेक्षित है, तो फिर मंदिर प्रबंधन किस तरह से जगन्नाथ मंदिर का संचालन कर रहा होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। मंदिर में तो दक्षिणा उगाही में दक्ष लोग ही अपना राजपाट चला रहे हैं और उन्होंने पुरी के धार्मिक राजा गजपति जी को नाम के लिए आगे कर रखा है। गजपति की मजबूरी है कि उन्हें जो राजा मानेगा, उनके साथ ही वे रहेंगे। शंकराचार्य के संरक्षण में चलने में समस्या यह है कि रीति-नीति सबकुछ धर्म के अनुरूप करना पड़ेगा। दक्षिणा उगाही में नहीं, बल्कि पूजा-कर्म में दक्ष बनना पड़ेगा। धर्म के नाम पर दुकानें चलाने में आसानी हो, इसीलिए शंकराचार्य जी को मंदिर प्रबंधन ने भुला दिया है।  
एक बात यह भी गौर करने की है कि निश्चलानंद जी को शंकराचार्य की गद्दी पर बैठे २६ वर्ष होने जा रहे हैं। वे ओडिय़ा समझ लेते हैं, लेकिन हिन्दी और संस्कृत में ही बोलते हैं। खांटी ओडिया बोलने वाले पंडों से दूरी की एक वजह यह भी है। एक बात यह भी है कि लंबे समय तक पुरी शंकराचार्य को देश और धर्म की ङ्क्षचता के लिए जाना गया है, देश उन्हें सुनता है, किन्तु पुरी के पंडे उन्हें नहीं पूछते। शंकराचार्य के सेवकों में भोजपुरीभाषी ही ज्यादा दिखते हैं। पुरी मंदिर और शंकराचार्य के गोवर्धन मठ के बीच की दूरी डेढ़ किलोमीटर भी नहीं है, परन्तु मंदिर के मुकाबले यहां २ प्रतिशत लोग भी नहीं आते। गोवर्धन मठ पूरी तरह से धार्मिक रीति, नीति, परंपरा, पवित्रता, स्वच्छता, शास्त्र, शिक्षा, वेद पाठ के साथ विराजमान है, किन्तु जगन्नाथ पुरी के मंदिर को देखकर दुख होता है। मंदिर प्रबंधन और पंडों के दुव्र्यवहार की चर्चा तो देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच गई है। दर्शन करने वालों को यहां श्रद्धालु नहीं, बल्कि धन पशु मानकर हांका-लूटा जाता है। मंदिर में धक्का-मुक्की, डांट फटकार, लड़ाई, झगड़ा बहुत आम बात है। श्रद्धा से खिलवाड़ इस कदर है कि आप विशाल मंदिर में कहीं भी हाथ जोडक़र दो मिनट खड़े नहीं हो सकते। आपको कोई न कोई दक्षिणा-लोभी आवाज देने लगेगा। आप ध्यान नहीं देंगे, तो श्राप देने की मुद्रा में आने में समय नहीं लगाएगा। आप जिस पंडे के चंगुल में फंस जाएंगे, वह पंडा आपको बार-बार सावधान करेगा कि इधर-उधर मत देखना-यहां बहुत लूट होती है। यहां पंडे तभी एकजुट होते हैं, जब उनके व्यवसाय पर आंच आती है, वरना वे अपनी कमाई बढ़ाने की लालच में दूसरे सभी पंडों को फर्जी बताने से भी नहीं चूकते। आपने मंदिर परिसर में एक पंडा कर लिया है, तो फिर आप उस पंडे के गुलाम हैं। वो जहां बोले, वहां पैसे रखिए। 
प्रसाद के काउंटर पर आपकी पर्ची कटेगी। पर्ची पांच हजार रुपए से ८०० रुपए तक होगी। पंडा चाहेगा कि आप अधिकतम की पर्ची कटवाएं, ताकि उतना ही ज्यादा उसका कमीशन हो जाए। आपको जो रसीद मिलेगी, उसे पंडा रख लेगा। कमीशन वह आपके सामने नहीं लेगा। वह पहले आपको भीड़ के साथ दर्शन करवाएगा। आप ठसाठस भीड़ में रहते हुए किसी तरह करीब ५० मीटर दूर से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रह देख सकेंगे। भगवान के दर्शन के लिए जो अवसर, भाव, जगह चाहिए, वह आपको कतई नसीब नहीं होगी। इस दौरान आपके सामने आरती की थालियां लेकर कम से कम ६-७ पंडे खड़े रहेंगे, जो आपके दर्शन में हर संभव बाधा पहुंचाएंगे। किसी तरह आप विग्रह की एक झलक देखेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। फिर दक्षिणा का पंडा-दौर शुरू होगा। यदि महाप्रसाद का समय हो गया होगा या यदि आप महाप्रसाद की मांग करेंगे, तो पंडा आपको महाप्रसाद उपलब्ध कराएगा। महाप्रसाद का समय नहीं हुआ हो, तो फिर भले ही आपने पांच हजार की पर्ची कटवाई है, आपको थोड़ा-सा सूखा भोग उपलब्ध करा दिया जाएगा। वह भोग भले ही कहीं बाहर से खरीदा गया हो, लेकिन बताया यही जाएगा कि मंदिर के गर्भगृह में चढ़ा भोग है। आप पूरा मंदिर घूमना-ठीक से दर्शन करना चाहेंगे, किन्तु पंडा जल्दी से जल्दी आपसे दक्षिणा वसूल कर छुटकारा पाना चाहेगा, ताकि किसी ताजा जजमान को पकड़ सके।
कलयुग में पाप तय है, किन्तु भगवान के घर में यदि इतना पाप है, तो यही कहना चाहिए कि वाकई भगवान जगन्नाथ की कृपा से ही सबकुछ चल रहा है। आप मंदिर का रसोई मंडप देख लीजिए, जहां स्वच्छ भारत भगवान भरोसे ही है। मुंह बिना ढके रसोई पकने लगी है। जमीन पर रखकर सामग्री तैयार की जा रही है। गंगा और यमुना नाम के दो कूपों से मंदिर की जलापूर्ति होती है, उनका हाल भी बुरा है। पानी की आपूर्ति में जंग लगे टीन का भी इस्तेमाल होने लगा है। भगवान और भगवान के लाखों भक्तों के लिए यहां भोग-प्रसाद बनता है, किन्तु पवित्रता का स्तर वह नहीं है, जो होना चाहिए। भक्ति और श्रद्धा के अनुरूप सुधार की तत्काल आवश्यकता है। 
लक्ष्मी जी की इस रसोई में ११५ से ज्यादा व्यंजन पकते हैं। दोपहर और शाम, दोनों समय भगवान को ५६ भोग लगाए जाते हैं, यहां शुद्धता और पवित्रता की जांच सबसे आवश्यक है। भगवान दयासिन्धु हैं, वे मौन रहेंगे! भगवान ने विदुर के घर प्रेम से दिया गया केले का छिलका भी बड़े प्रेम से भोग लगाया था, भगवान ने द्रौपदी के खाली बर्तन का एक सूखा दाना भी स्वीकार किया था, भगवान तो सुदामा के एक मु_ी सूखे चिवड़े से भी तृत्प हो गए थे। बेशक, भगवान मनुष्यों की तरह भोजन नहीं करते, वे तो हर चढ़ाई गई वस्तु को केवल स्वीकार करते हैं। उनका स्वीकार संसार के लिए है, किन्तु वह पवित्र और शुद्ध तो हो, उस भाव से पूर्ण तो हो, जिस भाव से शबरी ने भगवान को बेर चढ़ाए थे। 
कहां गए पंडों के वो पूर्वज, जो घर से नहा-खाकर भोग बनाने मंदिर आते थे? पवित्र मन से मुंह पर कपड़ा बांध कर एक-एक दाने और एक-एक बूंद जल को पूरी शुद्धता के साथ भगवान के लिए पकाते थे? अब तो हाल यह है कि भोग चढ़ाने ले जाते पंडों के मुंह पर भी कोई आवरण नहीं रहता। स्पष्ट है कि सब भगवान भरोसे है।

अन्य मंदिरों का हाल
सबसे पहले मौसी मां गुंदेचा देवी के मंदिर की बात। भगवान रथयात्रा करके यहां विराजते हैं। यह मंदिर धर्म का मीनाबाजार जैसा हो गया है, मंदिर के अंदर ही रस्सी-कपड़े इत्यादि बांधकर पांच फीट चौड़ा गलियारा बना दिया गया है, कुछ स्थायी विग्रह हैं, तो अनेक अस्थाई विग्रह हैं, हर जगह एक-एक या दो-दो पंडे हैं, जिनका लक्ष्य केवल दक्षिणा है। इस गलियारे में आप पीछे नहीं लौट सकते, आपको इस नाटकीय हो चुके गलियारे से अपनी श्रद्धा को बचाते हुए आगे बढऩा ही होगा। आप जेब हल्की करेंगे, वरना छद्म ऋषियों के श्राप बंटोर लाएंगे! हालांकि झूठे और भाव से हीन कथित पंडों के निरर्थक श्राप या आशीर्वाद का कोई अर्थ नहीं, किन्तु जिस भाव से आप मंदिर आए हैं, वह भाव तो आपका मंदिर में ही किसी दान पात्र में ढह जाएगा। 
कुछ मंदिर तो ऐसे हैं, जहां आपको घेर कर लूटा जाएगा और आप भागने में ही भलाई समझेंगे। हो सकता है, आप पछताएं कि आप यहां क्यों आए? बहस करेंगे, तो आपके आसपास लुटेरों की भीड़ बढ़ती जाएगी। तो सुधार की जरूरत केवल जगन्नाथ मंदिर के प्रबंधन में ही नहीं, बल्कि जगन्नाथ पुरी के तमाम मंदिरों का हाल एक बार देख लेना चाहिए। ऐसे प्रबंधनों की जरूरत नहीं है, जो श्रद्धा भाव की हत्या में लगे हैं, जो धर्म की हास्यास्पद दुकानें लगाए बैठे हैं। 
यह भी आवश्यक है कि मंदिर प्रबंधन भगवान के परम भक्त चैतन्य महाप्रभु को भी याद करे, पंडों-पुजारियों के दुव्र्यवहार की वजह से ही चैतन्य महाप्रभु संसार से विदा हुए थे। पंडों में तब भी सुधार हुआ था। अब कमियां बढ़ गई हैं, तो फिर सुधार अपरिहार्य हो गया है। चैतन्य महाप्रभु की शानदार प्रतिमा पुरी में स्वर्गद्वार तिराहे पर खड़ी पूरे जगत को जगन्नाथ पुरी आमंत्रित कर रही है। क्या पुरी फिर सुधार के लिए तैयार है?
चैतन्य महाप्रभु , स्वर्गद्वार, पुरी
सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद ओडिसा सरकार नींद से जागी है, तो उसे तमाम वो सुधार करने चाहिए, जो धर्म और पुरी शंकराचार्य के अनुरूप हों। स्वामी निश्चलानंद जी केवल पुरी शंकराचार्य ही नहीं हैं, वे उदारमन के लोकतांत्रिक विद्वान हैं, उनके ज्ञान का लाभ पुरी और ओडिसा को अवश्य मिलना चाहिए। 

मात्र परंपरा के नाम पर मंदिर में बदलाव को नहीं रोका जा सकता। सब जानते हैं कि करीब ८०० वर्ष पुराने मंदिर को बचाने के लिए जीर्णोद्धार का कार्य लगभग लगातार चलता रहता है, मंदिर को खड़ा रखने में सैकड़ों टन इस्पात का इस्तेमाल हो चुका है। मंदिर को बचाए रखने में कहीं भी परंपरा आड़े नहीं आ रही है, तो मंदिर की कमियों को दूर करने में कौन-सी परंपरा रोड़ा बन रही है? मंदिर के ढांचे को बचाने के लिए इस्पात की जरूरत है, तो मंदिर में धर्म को बचाने के लिए सच्चे भक्ति भाव की जरूरत है। 
भगवान और उनके भाव को समझना चाहिए। जिन लोगों ने भगवान के रत्न भंडार की चाबी चुरा ली है, जो लोग दो दशक से भी ज्यादा समय से चाबी चोरी पर चुप्पी साधे बैठे हैं, जो लोग पाप करके भयभीत नहीं हैं, जिनका भगवान पर विश्वास नहीं है, कृपया... कृपया... उनकी जगह मंदिर में नहीं होनी चाहिए। 
ओडिया भजन सम्राट भिखारी बल का एक प्रसिद्ध गीत है - 
जगन्नाथ कले जे अनाथ हे
आऊ के हरीब दु:ख
(जगन्नाथ ने यदि आपको अनाथ कर दिया, तो आपके दु:ख कौन हरेगा)