Friday 26 September, 2008

वाह रे मेहमाननवाजी

क्रिकेट की दुनिया बड़ी अजीब है, मेहमानों की अगर ढंग से सेवा करो, सहूलियतें दो, तो खुद मेजबानों में असंतोष फैल जाता है और इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता। जयपुर में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम डेरा डाले हुए है और सवाई मानसिंह स्टेडियम में उसको इतनी ज्यादा सुविधाएं मिली हुई हैं कि भारत से ऑस्ट्रेलिया तक चर्चा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने जहां राजस्थान क्रिकेट संघ की आलोचना की है, वहीं ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड हमारे आरसीए का तहेदिल से शुक्रगुजार है। इस घटना के दो पक्ष हैं, पहला पक्ष, किसी प्रतिद्वंद्वी टीम को इतनी खेल सुविधाएं देना अपनी हार का इंतजाम करना है, दूसरा पक्ष, भारत में क्रिकेट की दुनिया में प्रतिद्वंद्वी को बेहतर सुविधा देकर एक अच्छे दौर की शुरुआत की जा रही है।
सब जानते हैं, भारतीय टीम जब ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाती है, तो उसे एक-एक सुविधा के लिए जूझना पड़ता है। practice के लिए ऐसी पिच दी जाती है, जो वास्तविक मैचों वाली पिचों से अलग होती है। लेकिन ऑस्ट्रेलियाई मेहमान टीम को जयपुर में दस तरह की पिचें मुहैया कराई गई हैं। रिकी पोंटिंग को spin का खास अयास करवाया जा रहा है। भारतीय गेंदबाजों की एक टोली ऑस्टे्रलियाई बल्लेबाजों को यहां के माहौल के अनुरूप ढालने में जुटी है। वैसे भी मेहमान टीम निर्धारित आगमन से सप्ताह भर पहले आई है और भारत के विवादास्पद और विफल कोच रह चुके ग्रेग चैपल के नेतृत्व में ऑस्ट्रेलियाइयों को अयास करवाया जा रहा है।
ग्रेग खांटी ऑस्ट्रेलियाई हैं और हमारे आरसीए में सलाहकार होने के साथ ही क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में सम्मानित स्तंभ हैं। ग्रेग न तो भारतीय टीम में कोई कमाल दिखा पाए थे और न राजस्थान में कोई कमाल दिखा पाए हैं। अव्वल तो जब उन्हें भारतीय कोच के पद से हटना पड़ा था, तब उन्होंने भारतीयों को भला-बुरा कहा था, लेकिन तब भी राजस्थान में आरसीए ने उनको `पधारो म्हारे देस´ का मधुर आमंत्रण दिया। भारतीय टीम से भगाए गए, तो शायद भारी पैसों के लिए अपमान का घूंट पीकर राजस्थानी टीम से जुड़ गए, लेकिन उन्होंने राजस्थान को दिया क्या? आज वे ऑस्ट्रेलियाई टीम को भारत में ऐतिहासिक जीत दिलवाने के प्रयास में लगे हैं, तो अफसोस उनका साथ देने वालों की कमी नहीं है।
कोई शक नहीं, भारत की मेहमाननवाजी की कोई तुलना नहीं है, हम आदिकाल से भले-बुरे हर तरह के अतिथियों की राह में बिछते आए हैं। इस बार कंगारुओं का आतिथ्य सत्कार ऐसा हुआ है कि ऑस्ट्रेलियाई बोर्ड को आगे आकर बोलना पड़ा है, `अब जब भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया आएगी, तब हम भी उन्हें उसी तरह की सुविधाएं देंगे।´ कदापि विश्वास नहीं किया जा सकता कि ऑस्टे्रलियाई बोर्ड हमारी भलमनसाहत देखकर खुद भी हमारे लिए बड़े दिल वाला हो जाएगा। आधुनिक क्रिकेट में पूरी धूर्तता के साथ अंडरआर्म गेंदबाजी करवाने वाले चैपल और अंपायरों को आउट या नॉट आउट का इशारे करवाने वाले बदजुबान रिकी पोंटिंग तो भारत में मिली सुविधाओं का आभार तक नहीं मानेंगे। क्रिकेट को युद्ध समझने वाले कंगारू रणनीतिकार तो मन ही मन प्रसन्न होंगे कि भारतीय क्रिकेट ढांचे में चैपल की घुसपैठ का अच्छा फायदा उठाया गया। ऑस्ट्रेलियाई बोर्ड अब शायद क्रिकेट खेलने वाले देशों में एक-एक चैपलों की घुसपैठ कराने की रणनीति पर विचार करेगा। अफसोस, आरसीए उस टीम की सेवा में लगा है, जो भारत में कप बटोरने के इरादे से आई है, वे जीतेंगे, फोटो खिंचवाएंगे और सामने अगर बीसीसीआई अध्यक्ष शरद पवार भी आ गए, तो धक्का दे देंगे और माफी तक नहीं मांगेंगे।

Thursday 25 September, 2008

मेरा आयोग तेरा आयोग

गोधरा कांड के बारे में अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति जी.टी. नानावटी आयोग की रिपोर्ट न केवल चौंकाती है, बल्कि कई सवाल भी खड़े करती है। आम भारतीय के नजरिये से देखिए, तो सितंबर 2004 में केन्द्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर यू.सी. बनर्जी आयोग गठित हुआ था और उसने अपनी जांच के बाद नवंबर 2005 में बताया था कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के बॉगी नंबर एस-6 का जलना एक हादसा था, इसमें किसी की साजिश नहीं थी। बनर्जी आयोग की रिपोर्ट साल भर में तैयार हो गई थी, लेकिन नानावटी आयोग ने छह साल तक जांच करने के बाद अपनी पहली रिपोर्ट दे दी है। एक आम भारतीय की नजर में बनर्जी आयोग भी सरकार द्वारा गठित था, नानावटी आयोग भी सरकार ने गठित किया और दोनों की रिपोटोüZ के नतीजे एक दूसरे के बिल्कुल खिलाफ आए हैं। अब जनता किस पर विश्वास करे? बनर्जी साहब सच बोल गए या नानावटी साहब सच बोल रहे हैं? दो-दो आयोगों की दो-दो रिपोटोüZ के बाद गोधरा कांड का सच कहीं भ्रम में खो चुका है। 27 फरवरी 2002 की रात गोधरा में 58 हिन्दू जलकर मरे थे, जिसमें 25 औरतें और 15 बच्चे शामिल थे। बनर्जी साहब ने कहा, ये लोग हादसे के शिकार हुए थे, जबकि नानावटी साहब नाम लेकर बता रहे हैं कि किन लोगों ने साजिश करके एस-6 बॉगी को आग के हवाले किया था।
बनर्जी आयोग की रिपोर्ट लालू तब लेकर सबके सामने आए थे, जब बिहार, हरियाणा, झारखंड इत्यादि राज्यों में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी थी। लेकिन लालू बनर्जी आयोग के दम पर बिहार में अपनी सत्ता नहीं बचा पाए। उधर, नरेन्द्र मोदी भी नानावटी आयोग की पहली रिपोर्ट गुजरात विधानसभा में लेकर तब आए हैं, जब कुछ राज्यों में चुनाव का माहौल गरमा रहा है। बताया जा रहा है, दिसंबर में अंतिम रिपोर्ट आएगी, तो क्या उसमें गुजरात सरकार को दंगों के सिलसिले में भी क्लीन चिट दी जाएगी? सच यह कि हमारी सरकारें राजनीति द्वारा संचालित होती हैं। चाहे सिख विरोधी दंगा हो या बाबरी विध्वंस या गुजरात दंगा, किसी भी दंगे का पूरा सच सामने नहीं आता। सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की, कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी अपने दामन को पाक साबित करने की साजिश आयोगों की आड़ में करते नजर आते हैं। स्पष्ट नहीं होता, कौन आईना दिखा रहा है और कौन धूल झोंक रहा है। गोधरा कांड पर ही जो भ्रम तैयार हुआ है, उसके कारण दो आयोगों की रिपोर्ट के बावजूद तीसरे आयोग की जरूरत महसूस हो रही है, लेकिन हम आश्वस्त नहीं हो सकते कि वह तीसरा आयोग हमें पूरा सच दिखाएगा। हमारी व्यवस्था में तेरा आयोग मेरा आयोग का खेल सतत है। गोधरा कांड की जांच में भी हम तीन आयोग देख चुके हैं, सबसे पहले शाह आयोग बना था, लेकिन भाजपा से करीबी की वजह से अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति के.जी. शाह को जांच का काम छोड़ना पड़ा था।
यह आयोगबाजी क्या किसी राजनीतिक चालबाजी से कम है?

Wednesday 17 September, 2008

थोड़े तार्किक हो जायें

अगर किसी को धर्म परिवर्तन करने से रोकना सांप्रदायिकता है, तो किसी का धर्म परिवर्तन कराना भी सांप्रदायिकता है।

उड़ीसा, कर्णाटक , गुजरात और केरल में धर्मान्तरण के मुद्दे का भड़कना जितना निंदनीय, उतना ही शर्मनाक है। सांप्रदायिकता की आग ऐसी लगी है कि शांत होने का नाम नहीं ले रही। उड़ीसा में अब तक 26 लोग मारे जा चुके हैं। उड़ीसा का हाल यह कि राज्य पुलिस और अद्धसैनिक बलों की 35 कंपनियों के बावजूद हालात बेकाबू हैं, रह-रहकर हिंसा भड़क रही है। राज्य सरकार ने और चालीस कंपनियों की मांग की है, तो आप अंदाजा लगा लीजिए कि उड़ीसा में हालात कैसे होंगे। उड़ीसा में सांप्रदायिक हिंसा की वजह से 20,000 लोग 14 राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। उड़ीसा में 23 अगस्त को लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके चार शिष्यों की हत्या हुई थी। लक्ष्मणानंद ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण का विरोध करते थे, अत: स्वाभाविक ही लोगों का शक ईसाई मिशनरियों पर गया, लेकिन वास्तव में इस विवाद को बलपूर्वक संभालने की कोशिश हुई है।
पहली बात, सांप्रदायिकता किसी एक राजनीतिक दल की समस्या नहीं है, यह राज्य और देश की समस्या है। सांप्रदायिक हिंसा पर राजनीति से कोई मदद नहीं मिलेगी। कर्णाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने कहा, `ईसाई मिशनरी बलपूर्वक धर्मान्तरण न करें,´ तो पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने आरोप लगाया, `भाजपा कर्णाटक को दक्षिण का गुजरात बनाना चाहती है।´ ऐसी बयानबाजी से जनता भ्रमित होती है और सच्ची बातें दब जाती है। कोई हिन्दू के साथ खड़ा है, तो कोई ईसाई के साथ, लेकिन सचाई के साथ कोई नहीं है।
दूसरी बात, पुलिस के भरोसे सांप्रदायिकता का सामना नहीं किया जा सकता, इसके लिए राजनीतिक और सामाजिक प्रयास करने होंगे। सांप्रदायिक हिंसा का सामना पुलिसिया हिंसा के दम पर ज्यादा समय तक नहीं किया जा सकता। राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को आगे आना चाहिए
तीसरी बात, धर्मान्तरण व्यक्तिगत मसला होना चाहिए। अगर कोई संगठन या कोई समूह धर्मान्तरण या धर्मान्तरण के खिलाफ जुटा है, तो उसे बाज आना चाहिए। आधुनिक दुनिया में धर्मान्तरण के सोचे-समझे सांगठनिक प्रयास असभ्यता की निशानी हैं, इसका विरोध राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी किया था। आदिवासी इलाकों में मिशनरियों की सक्रियता सदा से विवादित रही है।
अगर किसी को धर्म परिवर्तन करने से रोकना सांप्रदायिकता है, तो किसी का धर्म परिवर्तन कराना भी सांप्रदायिकता है। धर्म के प्रचार में लगे लोगों को हम धर्मनिरपेक्ष कैसे मान सकते हैं? संयम की जरूरत जितनी इधर है, उतनी ही उधर भी है, हर धर्म यही बोलता है, लेकिन कुछ लोग हैं, जो धर्म की बात नहीं मानते, खून-खराबा करते हैं।

हिन्दी की हुकूमत

हिन्दी की दुर्दशा पर रोने-पीटने की पुरानी परंपरा रही है, जबकि पिछले पंद्रह-बीस सालों में हिन्दी की प्रगति अचंभित करती है। सत्ता, सरकार की भाषा भले अंग्रेजी हो, लेकिन समाज में हिन्दी का ऐसा धूम-धड़ाका है कि झूठा गर्व पालने वाली भाषा की बोलती बंद है जिस भाषा को उसका यथोचित नहीं दिया गया, जिसके खिलाफ दंगे हुए, जिसको सरकार ने स्वयं हाशिये पर धकेला, जिसको भारतीय-हिंगलिश बाबुओं ने दोयम दर्जे का माना, जिसे पिछड़ेपन की निशानी माना गया, आज उस भाषा के जलवे देखकर किसी को भी हैरत हो सकती है। देश की आजादी के बाद हम 41 प्रतिशत संकोची हिन्दीभाषी भारतीय अपनी भाषा के गौरव के लिए नहीं लड़ पाए थे, क्योंकि हममें शालीनता कूट-कूटकर भरी थी, हमारी रगों में क्षेत्रवादी विष नहीं था, हम देश और उसकी अखंडता के बारे में सोच रहे थे, लेकिन हमारी वही शालीनता आज खूब रंग ला रही है। पनवाड़ी की दुकान से संसद तक, बोलचाल से मीडिया तक और भाषणों से लेकर फिल्मों तक हिन्दी का लोहा मानने वाले कम नहीं हैं। अफसोस, फिर भी हिन्दी का रोना रोया जाता है। हिन्दी खत्म हो रही है, हिन्दी मर रही है, यहां तक कि हिन्दी के दम पर रोटियां तोड़ने वाले भी सिसकते मिल जाते हैं कि आने वाले सालों में हिन्दी का कोई नामेलवा न होगा। वास्तव में ऐसे लोगों को हिन्दी की ताकत का अंदाजा नहीं है। विरोधी रावणों के दरबार में 45 प्रतिशत भारतीयों की भाषा हिन्दी अंगद की तरह पांव जमाए खड़ी है, अब किसी माई के लाल में दम नहीं है कि हिन्दी के पांव हिला दे।


अखबार से आगाज


अंग्रेजी अखबार बाजार को बरगलाने के लिए लाख हल्ला मचाएं, लेकिन सच्चाई यह कि देश के सात सर्वाधिक बिकने वाले अखबारों में से पांच हिन्दी के हैं और अंग्रेजी अखबारों का नंबर दसवें से शुरू होता है। देश के `टॉप टू´ अखबार हिन्दी के ही हैं। जहां हिन्दी के अखबार लगातार बढ़त पर हैं, वहीं अंग्रेजी अखबारों की प्रसार संख्या कम से कम हिन्दी पट्टी में लगातार घट रही है। दिल्ली में तो अंग्रेजी अखबार अपने चरम पर पहुंचकर हांफ रहे हैं, पाठकों का टोटा है, जबकि हिन्दी पाठकों की संख्या इतनी है कि न केवल हिन्दी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ी है, बल्कि नए हिन्दी अखबार भी बड़े उत्साह के साथ शुरू किए जा रहे हैं। अकेले दिल्ली में हिन्दी अखबारों को 400 करोड़ रुपये से ज्यादा का सालाना विज्ञापन मिल रहा है।


टीवी पर डंका


जहां हिन्दी के 25 से ज्यादा राष्ट्रीय न्यूज चैनल हैं, वहीं अंग्रेजी का आंकड़ा दस से पार नहीं पहुंच पा रहा है। दूसरी भारतीय भाषाओं की चैनल संख्या में पांच-छह की संख्या पार नहीं कर पाई है। हिन्दी फिल्में दिखाने वाले चैनल 12 हैं और अंग्रेजी फिल्मों वाले चैनल महज आठ। जहां 13 हिन्दी संगीत चैनल हैं, वहीं भारत भर में मात्र एक अंग्रेजी संगीत चैनल सांस ले रहा है। जहां हिन्दी के 14 मनोरंजन चैनल हैं, वहीं अंग्रेजी के मात्र 7 हैं। तो बताइए, हिन्दी किससे कमतर है? हिन्दी की बढ़त पर गुमान क्यों नहीं होना चाहिए? हिन्दी की अगर दुर्दशा हो रही है, तो इतने हिन्दी चैनल क्यों खुल रहे हैं? हम यह भी बता दें कि ज्यादातर हिन्दी चैनल विदेशी कंपनियों के हाथ में हैं। किसी दौर में हम हिन्दी वालों पर आरोप लगता था कि हम अपनी भाषा को देश पर लाद रहे हैं, लेकिन अब विरोधी आंख खोलकर देख लें, हिन्दी वालों ने हिन्दी को किसी पर लादा नहीं है, बल्कि दूसरी भाषाओं के लोग हिन्दी के मार्फत अपना व्यापार फैलाना चाहते हैं, हिन्दी के दम पर ऐश करना चाहते हैं। हिन्दी पट्टी में टीवी पर जो विज्ञापन प्रसारित होते हैं, उनमें से 98 प्रतिशत विज्ञापन हिन्दी में हैं। हिन्दी घर बैठे विज्ञापन पा रही है, जबकि अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं चैनलों को विज्ञापन के लिए नाको चने चबाने पड़ रहे हैं।


सिनेमाई जलवा


देश में मनोरंजन के क्षेत्र में महानायक का दर्जा हिन्दी के सितारे अमिताभ बच्चन को ही हासिल है। दक्षिण के महानायक रजनीकांत भी अमिताभ का लोहा मानते हैं। पूरा भारतीय सिनेमा जगत लगभग 8000 करोड़ रुपये का है, जिसमें हिन्दी फिल्मों की भागीदार चालीस प्रतिशत से ज्यादा है। वर्ष 2010 तक हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का आकार 700 करोड़ रुपये के पार चला जाएगा। हिन्दी फिल्में न केवल दुनिया भर में देखी जाती हैं, बल्कि हिन्दी के फिल्म कलाकार दुनिया के पचास से ज्यादा देशों में पॉपुलर हैं। हिन्दी में अंग्रेजी फिल्मों की डबिंग का सिलसिला तेज हो गया है, डबिंग इंडस्ट्री प्रतिवर्ष 25 से 30 प्रतिशत की गति से विकसित हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी हिन्दी सिनेमा जगत में निवेश कर रही हैं। हिन्दी सिनेमा अपनी पूरी विशेषता के साथ विश्व में अलग पहचान बना चुका है और साथ ही इसने हिन्दी के प्रसार में भी बड़ा योगदान दिया है। विदेश में लोग हिन्दी फिल्में देखकर, हिन्दी गाने सुनकर हिन्दी सीख रहे हैं।


तो रोना क्यों?


कहना न होगा, हिन्दी को शासकीय स्तर पर समर्थन नहीं मिल रहा है। हिन्दी वालों का रवैया पेशेवर नहीं है। वे हिन्दी की ताकत समझ नहीं पा रहे हैं। विदेशी कंपनियां हिन्दी की ताकत को समझ चुकी हैं, जबकि हमारी अपनी कंपनियां अभी भी अंग्रेजीदां हैं। इसके अलावा हम 45 करोड़ हिन्दी वाले पांच करोड़ अंग्रेजी वालों से डरते भी हैं। यह डर केवल अज्ञानता की वजह से है, वरना हिन्दी उस मुकाम पर पहुंच चुकी है, जहां उसकी हुकूमत की शुरुआत हो सकती है।

Wednesday 10 September, 2008

हिन्दी ने फिर सौरी कहा



मराठी आज बहुत खुश होगी, क्योंकि हिन्दी ने फिर माफ़ी मांग ली है, महाराष्ट्र के नव निर्माण में लगे लोगों का सीना चौडा हो गया होगा, मुंबई-महाराष्ट्र में फिर एक बार क्षेत्रवादी जहर उफान पर है और इसके लिए मूल रूप से जया बच्चन दोषी हैं, जिन्होंने अपने बेटे अभिषेक बच्चन की भूमिका वाली भावी फिल्म की संगीत रिलीज पार्टी में फिर हिन्दी और उत्तर भारतीयों का झंडा बुलंद कर दिया। उन्होंने कहा, `महाराष्ट्र के लोग माफ करें, वे उत्तर प्रदेश की हैं और हिन्दी में बोलेंगी।´ क्या संगीत रिलीज के अवसर पर यह बोलना जरूरी था? एक फिल्म की पार्टी में आखिर जय यूपी या जय महाराष्ट्र का नारा क्यों लगना चाहिए? जया इस टिप्पणी से बच सकती थीं। एक संभावना है, वे जोश में मन की बात बोल गई होंगी, उन्होंने सोचा नहीं होगा कि उनके व्यक्तिगत बयान का सार्वजनिक असर क्या होगा? इसे सुपर हीरो की भूमिका में उतर रहे बेटे की फिल्म के प्रति उमड़ा एक मां का प्रेम कहें या फिर फिल्म को विवाद के सहारे चर्चित कराने की सोची-समझी मुहिम? उन्होंने जो कहा है, वह निंदनीय है।


यह बताते चलें, अमिताभ से विवाह होने मात्र से जया उत्तर प्रदेश की कहलाने को बेताब हैं जबकि वे बंगलाभाषी हैं और मध्य प्रदेश मे रही हैं, उन्होंने उत्तर प्रदेश में रहना कभी पसंद नहीं किया, असली ससुराल भी वे कभी नहीं जाती हैं, उत्तर प्रदेश उनके लिए मात्र राजनीत का अखाडा है, हिन्दी फिल्मों का एक मुख्य ब्यापार केन्द्र। लेकिन उनके कथित उत्तर प्रदेश प्रेमी बयान के जवाब में महाराष्ट्र नवनिर्माण पर जो असर पड़ा है, उसे समझना बेहद मुश्किल है। क्या ऐसे बयानों से महाराष्ट्र को भय लगता है? क्या कट्टर मराठी नेता राजभाषा हिन्दी से अचानक डरने लगे हैं? क्या महाराष्ट्र या मुंबई की तरक्की में हिन्दी का हाथ नहीं रहा है? क्या यूपी और बिहार के लोगों ने वहां खून-पसीना नहीं बहाया है? हिन्दी के अनादर से मुंबई, महाराष्ट्र या मराठी भाषा का कदापि भला नहीं होगा। वास्तव में जो लोग हिन्दी का विरोध कर रहे हैं, वे मुंबई के भरोसे पलने वाले करोड़ों रुपहले सपनों का कत्ल कर रहे हैं। हिन्दी के विरोध से सपनों का शहर ध्वस्त हो रहा है। न जाने कैसे बॉलीवुड की रचना कुछ लोग करना चाहते हैं? क्या हॉलीवुड में अंग्रेजी का विरोध हो सकता है?


दूसरी ओर, शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे भी क्षेत्रवाद की सेवा में फिर कलम चलाया है, उन्होंने शाहरुख खान के दिल्लीवाला होने के गुमान पर आपत्ति की है। उन्होंने कहा है, आप दिल्ली वाले हो, तो दिल्ली जाओ, मुंबई में क्या कर रहे हो? आश्चर्य होता है, देश के एक वयोवृद्ध नेता के मुख से ऐसी हल्की टिप्पणी कैसे आ जाती है? उनका काम देश को मजबूत करना होना चाहिए, लेकिन वे युवाओं को न जाने क्या संदेश देना चाहते हैं? बाला साहेब जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने मुंबई और महाराष्ट्र के हित चिंतन तक ही खुद को समेटकर न केवल पत्रकारिता, बल्कि राजनीति के साथ भी न्याय नहीं किया है। काश, क्षेत्रवाद और भाषा के भंवर से ऊपर उठकर उनकी ऊर्जा पूरे राष्ट्र को मजबूत करने में लगती, तो कितना अच्छा होता।

Tuesday 9 September, 2008

याद हंसाती है

जाति के जर्रे : छह

छहभूख और गरीबी के बावजूद 75 साल लांघ चुके जवाहिर राम जिंदा हैं, सफेद मूंछ, सफेद बाल और कुटिल मुस्कान बिखेरता चेहरा। उन्हें गांव भर के बूढ़ों से मजाक करने का हक हासिल है। न केवल अपने हमउम्र बूढ़ों, बल्कि अपने से भी वरिष्ठ बूढ़ों को भी जवाहिर छेड़ देते हैं और गांव में बूढ़े भी ऐसे-ऐसे हैं कि पलट कर जवाब ऐसा देते हैं कि जवाहिर की आत्मा चिढ़कर मस्त हो जाती है। सुनने वाले भी मस्त हो जाते हैं। अक्सर मनोरंजन के लिए ही जवाहिर चुहलबाजियां किया करते हैं, इससे बोझिल माहौल भी हल्का हो जाता है। गांव से लगभग 1200 किलोमीटर दूर मुझे जब कुछ मजाक वाले वृतांत याद आते हैं, तो मन खिल जाता है।

हमारे यहां जब कोई यज्ञ या उत्सव होता है, तो कटहल की सब्जी भी बनती है। एक साथ करीब दस-बारह बड़े-बड़े कटहल छीलने का काम होता है। हलवाई हाथ खड़े कर देते थे, तो पाड़े लोहार को बुलाना पड़ता। पाड़े लोहार जब आते, तो आधा घंटे में दस-बारह कटहल छीलकर रख देते। शरीर से भारीभरकम पाडे़ लोहार जब लकड़ी छीलने वाले औजार से कटहल छील रहे होते, तो जवाहिर छेड़ते, `क्या लोहार मास्टर, घास छील रहे हो?´ जवाब मिलता, `आओ, तुम भी छीलवा लो।´

`लोहार से हजाम कब बन गए?´

यह सुनकर पाड़े लोहार दांत पीसते, गालियां देते। गुस्से में हांफने लगते। जोर का ठहाका लगता। हलवाई भी काम छोड़कर कान इधर ही लगा देते। जवाहिर की चुहलबाजी आगे बढ़ती, `खिसिया मत, नाई-हजाम नहीं बनना है, तो हलवाई बन जाओ? कटहल अच्छा छील रहे हो।´

पाडे़ जी के कुछ बोलने से पहले रामप्रवेश हलवाई बोल पड़ता, `सेना में कटहल छीलने वालों की नौकरी निकली है, पाड़े बाबा, बहाल हो जाइए।´

`ससुर के नाती, जाओ अपनी सास को बहाल करवाओ। कमीन...सेना में कटहल छीलने की नौकरी दोगे, हमको बोका समझे हो।´लोगों की जोरदार हंसी के बीच पाड़े लोहार कुछ देर बुदबुदाते। तभी वहां से हमारे बाबूजी गुजरते और सभी अपने-अपने काम में लग जाते। पाड़े लोहार निश्चिंत कटहल छीलने लगते।

बाद में जब वे बूढे़ हो गए, तो बहुत धीरे-धीरे चलकर हमारे घर तक आते थे और धीरे-धीरे कटहल छीलते थे। जवाहिर अपनी आदत से बाज नहीं आते और छेड़ देते, `पाड़े जी, कल तक तो छील ही लोगे।´

जवाब मिलता, `भूख लगी है, तो कच्चे खा लो।´

`कच्चे कटहल खाने की तुम्हारी आदत गई नहीं है?´

`तुम्हारी ही मां से सीखा था।´

`छूछे कटहल लेकर क्यों बैठो हो, नमक-मिर्च मंगवा दें।´

जवाहिर के शब्द वाण से पाड़े लोहार एकदम कुपित हो जाते, बुढ़ापे को झाड़ने की कोशिश करते हुए फुफकराते, `मंगवा ले, मंगवा ले, तुझमें लगाने के काम आएगी।´दोनों की चुहलबाजी सुनकर सभी मस्त हो जाते। काम का तनाव झटके में दूर हो जाता। पहली बार कोई सुने तो यही मानेगा कि जवाहिर और पाड़े लोहार में नहीं पटती है, लेकिन बता दें, दोनों में खूब अपनापा है। कटहल छीलने के बाद पाड़े लोहार पसीना पोछते हुए जवाहिर को बड़े अधिकार भाव से बोलते, `थोड़ी खैनी खिलाओ।´जवाहिर मुस्कराने लगते, `भूखे हो, अच्छा बैठो। खिलाता हूं।´ जवाहिर खोजते हुए हमारे पिताजी के पास पहुंचते और बोलते, `ऐ महाराज, जरा चुनौटी दीजिए न।´

हमारे पिताजी खैनी खाते हैं और जब घर में कोई पर्व-त्योहार हो, तो खूब सारी खैनी रखते भी हैं। गांव में खैनी का शौक फरमाने वालों की संख्या कम नहीं है। हम भाइयों को आज भी कोई नशा नहीं है, लेकिन पिताजी और खैनी का साथ पुराना है। तो जवाहिर के मांगने पर पिताजी चुनौटी थमाते। जवाहिर थोड़ी-सी खैनी और चूना लेकर, ताल पीटने लगते। कथित चमार जाति के एक व्यक्ति की हथेली पर पिटी और मसली गई खैनी के तीन भाग हो जाते, एक चुटकी ब्रह्मण पिता के मुंह में, तो एक पाड़े लोहार और आखिरी चुटकी जवाहिर के मुंह में। खैनी के साथ दोनों में घरेलू बातें होती थीं और शाम को भोज पर मिलने का वादा।