जाति के जर्रे : छह
छहभूख और गरीबी के बावजूद 75 साल लांघ चुके जवाहिर राम जिंदा हैं, सफेद मूंछ, सफेद बाल और कुटिल मुस्कान बिखेरता चेहरा। उन्हें गांव भर के बूढ़ों से मजाक करने का हक हासिल है। न केवल अपने हमउम्र बूढ़ों, बल्कि अपने से भी वरिष्ठ बूढ़ों को भी जवाहिर छेड़ देते हैं और गांव में बूढ़े भी ऐसे-ऐसे हैं कि पलट कर जवाब ऐसा देते हैं कि जवाहिर की आत्मा चिढ़कर मस्त हो जाती है। सुनने वाले भी मस्त हो जाते हैं। अक्सर मनोरंजन के लिए ही जवाहिर चुहलबाजियां किया करते हैं, इससे बोझिल माहौल भी हल्का हो जाता है। गांव से लगभग 1200 किलोमीटर दूर मुझे जब कुछ मजाक वाले वृतांत याद आते हैं, तो मन खिल जाता है।
हमारे यहां जब कोई यज्ञ या उत्सव होता है, तो कटहल की सब्जी भी बनती है। एक साथ करीब दस-बारह बड़े-बड़े कटहल छीलने का काम होता है। हलवाई हाथ खड़े कर देते थे, तो पाड़े लोहार को बुलाना पड़ता। पाड़े लोहार जब आते, तो आधा घंटे में दस-बारह कटहल छीलकर रख देते। शरीर से भारीभरकम पाडे़ लोहार जब लकड़ी छीलने वाले औजार से कटहल छील रहे होते, तो जवाहिर छेड़ते, `क्या लोहार मास्टर, घास छील रहे हो?´ जवाब मिलता, `आओ, तुम भी छीलवा लो।´
`लोहार से हजाम कब बन गए?´
यह सुनकर पाड़े लोहार दांत पीसते, गालियां देते। गुस्से में हांफने लगते। जोर का ठहाका लगता। हलवाई भी काम छोड़कर कान इधर ही लगा देते। जवाहिर की चुहलबाजी आगे बढ़ती, `खिसिया मत, नाई-हजाम नहीं बनना है, तो हलवाई बन जाओ? कटहल अच्छा छील रहे हो।´
पाडे़ जी के कुछ बोलने से पहले रामप्रवेश हलवाई बोल पड़ता, `सेना में कटहल छीलने वालों की नौकरी निकली है, पाड़े बाबा, बहाल हो जाइए।´
`ससुर के नाती, जाओ अपनी सास को बहाल करवाओ। कमीन...सेना में कटहल छीलने की नौकरी दोगे, हमको बोका समझे हो।´लोगों की जोरदार हंसी के बीच पाड़े लोहार कुछ देर बुदबुदाते। तभी वहां से हमारे बाबूजी गुजरते और सभी अपने-अपने काम में लग जाते। पाड़े लोहार निश्चिंत कटहल छीलने लगते।
बाद में जब वे बूढे़ हो गए, तो बहुत धीरे-धीरे चलकर हमारे घर तक आते थे और धीरे-धीरे कटहल छीलते थे। जवाहिर अपनी आदत से बाज नहीं आते और छेड़ देते, `पाड़े जी, कल तक तो छील ही लोगे।´
जवाब मिलता, `भूख लगी है, तो कच्चे खा लो।´
`कच्चे कटहल खाने की तुम्हारी आदत गई नहीं है?´
`तुम्हारी ही मां से सीखा था।´
`छूछे कटहल लेकर क्यों बैठो हो, नमक-मिर्च मंगवा दें।´
जवाहिर के शब्द वाण से पाड़े लोहार एकदम कुपित हो जाते, बुढ़ापे को झाड़ने की कोशिश करते हुए फुफकराते, `मंगवा ले, मंगवा ले, तुझमें लगाने के काम आएगी।´दोनों की चुहलबाजी सुनकर सभी मस्त हो जाते। काम का तनाव झटके में दूर हो जाता। पहली बार कोई सुने तो यही मानेगा कि जवाहिर और पाड़े लोहार में नहीं पटती है, लेकिन बता दें, दोनों में खूब अपनापा है। कटहल छीलने के बाद पाड़े लोहार पसीना पोछते हुए जवाहिर को बड़े अधिकार भाव से बोलते, `थोड़ी खैनी खिलाओ।´जवाहिर मुस्कराने लगते, `भूखे हो, अच्छा बैठो। खिलाता हूं।´ जवाहिर खोजते हुए हमारे पिताजी के पास पहुंचते और बोलते, `ऐ महाराज, जरा चुनौटी दीजिए न।´
हमारे पिताजी खैनी खाते हैं और जब घर में कोई पर्व-त्योहार हो, तो खूब सारी खैनी रखते भी हैं। गांव में खैनी का शौक फरमाने वालों की संख्या कम नहीं है। हम भाइयों को आज भी कोई नशा नहीं है, लेकिन पिताजी और खैनी का साथ पुराना है। तो जवाहिर के मांगने पर पिताजी चुनौटी थमाते। जवाहिर थोड़ी-सी खैनी और चूना लेकर, ताल पीटने लगते। कथित चमार जाति के एक व्यक्ति की हथेली पर पिटी और मसली गई खैनी के तीन भाग हो जाते, एक चुटकी ब्रह्मण पिता के मुंह में, तो एक पाड़े लोहार और आखिरी चुटकी जवाहिर के मुंह में। खैनी के साथ दोनों में घरेलू बातें होती थीं और शाम को भोज पर मिलने का वादा।
1 comment:
एकदम से बचपन की बाते याद आ गईं!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- बूंद बूंद से घट भरे. आज आपकी एक छोटी सी टिप्पणी, एक छोटा सा प्रोत्साहन, कल हिन्दीजगत को एक बडा सागर बना सकता है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!
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