जहां रूठ गया पानी
जहां उखड़ गए पेड़ों के पांव,
जहां चंद बूंदों की भीख को
रोते सूख गए पौधे।
वहां जम गया
रम गया
अकेला खेजड़ी।
खेजड़ी में देखता है मरुथल
कि कैसे होते हैं पेड़।
कितनी मीठी होती है छांव,
ठन्डे पत्ते और नर्म स्पर्श
और उनसे फूटती हवा।
क्या होता है,
जलते-तपते में वीरान में जीना।
कसम रेत की,
पांव जमाकर खेजड़ी
डालता है मरुथल के पांवों में बेडिय़ां।
और देता है गवाही
रेत के सीने में भी होती है थोड़ी मिट्टी
जैसे रूखे शरीर में दिल
थोड़ा-सा बचा हुआ।
शायद उसी के लिए,
उसी थोड़े की पूर्णता के लिए
जिन्दा है खेजड़ी।
बनी-बंधी आस
थोड़ी-थोड़ी नरमी,
जरा-जरा प्यार
छोटे-छोटे पत्ते,
छोटी-छोटी छांव से धनी खेजड़ी।
दूसरी जगह बड़ा होने से
बहुत बड़ी बात है
मरुथल में थोड़ा होना।
कुछ दूर साथ चलता है बबूल,
छोटे भाई की तरह।
कुछ आगे हारकर
ठिठक जाता है,
और देखता है
बड़े भाई को जाते
बहुत आगे
रेत के टीले दर टीले।
कभी बड़ी दया उमड़ती खेजड़ी पर,
क्या मृगमरीचिका का षड्यंत्र उसे फंसा लाया?
सीधा-सादा खेजड़ी
आगे बढ़ता चला गया।
बहुत शातिर दूसरे पेड़
पीछे रह गए
बहुत पानी में
और भोला खेजड़ी
रह गया हानि में।
गिनती की बूंदों के आते
लहलहा जाता।
बड़ा रसिया खेजड़ी।
हर आषाढ़ रचाता शादी।
तब देखो तो उसे जरा
उसके खुरदुरे तनों-अंगों पर
हर ऊपरी सिरों-छोरों पर,
पत्तों की घनी-हरी ओढऩी।
जैसे अधेड़ बींद पर
नशे-सी छाई
नई नवेली बींदणी।
(मरुभूमि में जहाँ कोई पेड़ नहीं उगता वहां उगता है खेजड़ी, यह कविता पिछले साल जयपुर से सीकर जाते समय लिखी थी , मौसम यही था, बहुत रुला कर देर से आया था मानसून, और जब कुछ ही बूंदें बरसी थीं, लहलहा उठे थे खेजड़ी के पेड़ )
3 comments:
बहुत खूब, कभी फुरसत हो तो रेगिस्तान के दूसरे अहम पाये-ऊंट पर भी लिखें।
अरविंद सेन
dhanyawaad sen ji jaroor likhunga
gyanesh ji mnnae tharo khejdi khoob bhaayo!
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