Sunday 24 July, 2011

पिता के लिए


पिता
के
बहुत मुश्किल है
पिता को पिता लौटाना
लेकिन मुमकिन है
पिता को पुत्र लौटाना
वही सही
लौटा रहा हूं
कुछ लौटाने की कामना में
मुझे ही मिल जा रहा है
बहुत कुछ
शायद नामुमकिन है
पिता को कुछ भी लौटाना


गाढ़े दर्द भरी आंखों से
इशारा करते हैं पिता
जरा उठाओ तो
और पिता को उठाते
मैं खुद उठता हूं,
अपनी असामाजिकता के रद्दीखाने से
अकूत धूल झाडक़र
लंबी बेशर्म नींद तोड़
वो मुझे उठना सिखाते हैं
जागना, सहेजना
अनायास
बिना बोले पिता का मौन गुरुकुल
पीढिय़ों का उजास समेटकर
मेरी झोली में डालता है।
हाथ थामकर चलते हैं पिता
कुछ डगमग मैं होता हूं
मौन पूर्वज प्यार से चीख पड़ते हैं
पिता बिन कहे उलाहते हैं
अब तो चलना सीख लो।
बूढ़ा हो गया
चलाते-चलाते।



पिता की देह में कांपती हैं कमजोरियां,
मां को चुनौती देती हुई
पांच कौर पर मुंह फेर लेते हैं पिता
सातवें कौर की उम्मीद लिए बैठी रहती मैं मां।
मनुहारती है मां
बस एक और कौर दूर है मजबूती
छठा कौर किसी तरह निगलकर
मुंह सिल लेते हैं पिता
सातवां रह जाता है
मां की उंगलियों में
और आठवां थाली में।

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