Friday 25 January, 2019

अब आओ... तो न जाओ

कांग्रेस की नई महासचिव प्रियंका गांधी का राजनीति में आना तभी सार्थक होगा, जब वह चुनाव के बाद भी राजनीति में डटी रहेंगी। किसी के वस्त्र चयन पर चुप ही रहना सभ्यता है, लेकिन जब राजनीति में कोई साड़ी पहनकर आए और पैंट पहनकर लौटता दिखे, तो दुख होता है। देश ने पहले ऐसा देखा है। राजनीति में पहनावा अब बदलना चाहिए, लेकिन अभी लोगों का जो मिजाज है, उसमें साड़ी से वोट बढ़ते हैं और पैंट से घट जाते हैं, ऐसा खुद नेता मानते हैं। 
तो जैसे भी आओ... आओ और अब न जाओ। लोगों के साथ रुको, उनकी समस्याओं के साथ ठहरो, वंचितों के साथ खड़े होकर शोषकों को ललकारो, लेकिन लगातार, तभी हालात बदलेंगे। 
बेशक, राहुल गांधी को तो हमेशा जरूरत रही है और कांग्रेस के अंदर भी पुकार उठती रही है। इसमें कोई बुरी बात नहीं, किसी भी पार्टी को चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि कांग्रेस आंदोलन से खड़ी होने वाली पार्टी है। केवल चुनाव के समय इसे अगर खड़ा किया जाएगा, तो फिर सिमटती चली जाएगी। तो पहला आश्वासन प्रियंका गांधी को यही देना होगा कि मैं आपके साथ हूं और इस बार नहीं जाऊंगी। लोगों ने आपको आते-जाते इतनी बार देखा है कि उन्हें आश्वस्त करने में ही आपकी सबसे बड़ी सफलता है। 
अब रही बात पूर्वी उत्तर प्रदेश या 33 सीटों की जिम्मेदारी की। पता नहीं, राहुल गांधी कैसे गिन रहे हैं। यह ठीक है कि इस तरह से सीट जितवाने की राजनीतिक जिम्मेदारी या ठेकेदारी विधानसभा चुनावों में कुछ सफल रही, लेकिन प्रियंका गांधी को ऐसी किसी सीमा में नहीं बांधना चाहिए था। बहन की सीमा बांधकर राहुल गांधी ने पहला संकेत ही यह दे दिया कि बहन के पास राजनीति या चुनाव के लिए ज्यादा समय नहीं है। अभी समय है, कांग्रेस सुधार कर ले, तो फायदा ही है।
दूसरी बात, क्या पूर्वी उत्तर प्रदेश की 33 सीटों पर अकेले कांग्रेस ही चुनाव लड़ेगी? राहुल गांधी तो अभी भी बसपा और सपा के साथ गठबंधन के पक्ष में दिखते हैं। गठबंधन हुआ, तो ये सभी 33 सीटें क्या कांग्रेस को मिलेंगी? गठबंधन हुआ, तो 33 में से 10 सीटें भी कांग्रेस को लडऩे के लिए मिल जाएं, तो बड़ी बात है। 
यही सही है कि कांग्रेस को प्रधानमंत्री देने वाला यह क्षेत्र पार्टी के लिए गढ़ जैसी अहमियत रखता है और इस गढ़ पर फिर कब्जे की जिम्मेदारी राहुल गांधी ने बहन को सौंपी है। संकेत यह भी है कि यह गढ़ जीत लेंगे, तो देश जीत लेंगे। प्रियंका पर भारी जिम्मेदारी है, उन्हें यहां मोदी और योगी, दोनों को हराना होगा, बाकी देश जीतने राहुल गांधी निकल जाएंगे, लेकिन जीतेंगे कैसे? क्या आगे की लड़ाई आसान है? क्या नरेन्द्र मोदी की टीम समर्पण कर देगी? कतई नहीं, फिल्म अभी बाकी है।  
एक विवरण सुनिए - विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा के एक मंत्री जी एक जगह मिले, जोर देकर पूछा कि भाजपा कैसे जीतेगी।  मैंने संकोच के साथ कहा, आप लोग देखिए कि आपने किस किसको नाराज कर रखा है? 
ठीक इसी तरह से कांग्रेस के एक महासचिव मिल गए। इधर-उधर की जरूरी बातें हुईं, फिर जोर देकर पूछ बैठे कि कांग्रेस का बेड़ा कैसे पार होगा। मैंने फिर बहुत संकोच के साथ कहा, छोटी बातों से क्या होगा, आप देखिए कि आपके पास ऐसा क्या है जनता को देने के लिए, जो भाजपा सरकार नहीं दे पाई है।  
वास्तव में लोग या मतदाता अब बहुत मतलबी हो गए हैं, इसमें कोई शक नहीं। नेताओं ने अपनी बातों और व्यवहार से जो समाज बनाया है, वो समाज सुनना चाहता है कि किस नेता-पार्टी के पास उसे देने के लिए ज्यादा अच्छा उपहार या पैकेज है। ऐसा वादा करो, बड़ा ही सही, जो जनता को ज्यादा फायदेमंद नजर आए। अब तक केवल नेता ही अपना आर्थिक फायदा देखा करते थे, लेकिन अब मतदाता भी सीधे अपना आर्थिक फायदा देखने लगा है। मतदाताओं को कोरे भाषण नहीं चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अगर किसानों को सीधे धन देने वाली कोई योजना ला सकते हैं, यदि युवाओं को हजार या दो हजार बेरोजगारी भत्ता दे सकते हैं, तो चुनावी संग्राम उनके हाथ में है।  
अभी कांग्रेस के पास क्या है? क्या वह भाजपा के सपनों से बड़े सपने मतदाताओं को दिखा सकती है? गौर कीजिएगा, देश बदल चुका है, हर किसी को तथ्य, तर्क और पैकेज चाहिए, ये देने के मामले में जो बेहतर होगा, वह वोट जुटा लेगा। 
लेन-देन की हलचल की शुरुआत पूर्वी उत्तर प्रदेश की 33 सीटों से हो चुकी है, लेकिन वहां भी प्रियंका गांधी को सोचना होगा कि उनके पास ‘ऑफर’ करने के लिए ऐसा क्या है, जो अब तक किसी ने ‘ऑफर’ नहीं किया। इसी ‘ऑफर’ में उनकी सफलता छिपी है।