Tuesday 28 September, 2010

आज का समय और समय का धर्म

(सूरत में १९ सितम्बर को अच्छी बारिश से लबालब ताप्ती तट पर संत सान्निध्य में दिया गया भाषण)
समय की जब चर्चा छिड़ती है, तो मुझे बचपन याद आता है। एक पुरानी पहेली याद आती है, तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर, पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर। जरा सोचिए, इस पहेली में अगर ‘तीतर’ के स्थान पर ‘समय’ को रख दिया जाए, तो क्या होगा? तो पहेली कुछ यों बनेगी :- समय के दो आगे समय, समय के दो पीछे समय, आगे समय पीछे समय, बोलो कितने समय? मेरे जैसे पत्रकार साधारण जन यही उत्तर देंगे कि तीन समय। अर्थात अतीत-जो बीत गया। वर्तमान, जो बीत रहा है, और भविष्य जो बीतेगा, किन्तु विद्वान आगे और पीछे वाले समय के चक्कर में नहीं पड़ेंगे, वे मात्र इतना कहेंगे कि मात्र एक समय। न आगे समय न पीछे समय न बीच में समय, मात्र एक समय। ‘तीतर’ के स्थान पर ‘समय’ को रखते ही पहेली का उत्तर बदल जाएगा। उत्तर ‘तीन’ से ‘एक’ हो जाएगा।
परन्तु समय को एक माना जाए, तो कठिनाई है। लिखाई-पढ़ाई, पत्रकारिता समय को एक मानकर नहीं चल सकती, गृहस्थ जीवन समय को एक मानकर नहीं चल सकता, विश्व की बड़ी व छोटी तमाम तरह की अर्थव्यवस्थाएं समय को एक मानकर नहीं चल सकतीं। समय को एक मान लिया जाए, तो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का तो पूरा महानगर ही ढह जाएगा। हमारे सेठ-साहूकार समय को एक नहीं मान सकते। एक मान लिया, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। सारा ‘अकाउंट’ चौपट हो जाएगा। भौतिकता की कसौटी पर समय का यदि महत्व दर्ज किया जाए, तो समय बड़ा महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। लगेगा कि समय से ज्यादा तो कुछ और महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकता। लगेगा कि समय बड़ा बलवान है। ऐसे बलवान समय को ज्ञान और विज्ञान ने पकडऩे के बड़े प्रयास किए हैं, लेकिन समय की कोई एक पकड़ या समय की कोई एक कसौटी बनाना कठिन ही नहीं, असंभव है।
आज दुनिया में चौबीस तरह की प्रमुख व मान्य घडिय़ा हैं, इसे ‘टाइम जोन’ भी कहते हैं, अर्थात चौबीस तरह के समय आंकने के पैमाने हैं। एक ही समय में किसी घड़ी में पांच बज रहा है, तो किसी में छह, तो किसी में सात। समय एक ही है, लेकिन घडिय़ां अलग-अलग बताती हैं। अब कोई सोचे कि पांच बज रहा है, यह सच है या जो छह बज रहा है, वह सही है या जो सात बज रहा है, वह सटीक है। वास्तव में सच यह है कि समय का सच संभवत: समय भी नहीं जानता। पांच बज रहा है, यह यहां का सच है और आठ बज रहा है, वह कहीं और का सच होगा। हमारे भारत में तो हर जगह घड़ी एक-सी रहती है, लेकिन अमरीका में देखिए, लॉस एंजेलिस में १० बज रहा होता है, तो शिकागो में १२ और वॉशिगटन में १३ । जब सूरत में शाम के चार बजेंगे, तब शिकागो में घड़ी सुबह के साढ़े पांच बजा रही होगी। साढ़े ग्यारह घंटे का फर्क है। गजब हो गया, अब बताइए कौन-सा समय सही है? अत: समय को यथावत स्वीकार करने में ही भलाई है, परन्तु वह एक नहीं है, यह बात पूर्ण सत्य है। समय को पकडऩे के प्रयास जारी हैं। समय ऐसा है कि घड़ी गड़बड़ा जाती है, घड़ी को कभी एकाध पल के लिए रोकना पड़ता है, तो कभी एकाध पल आगे करना पड़ता है। फिर भी समय की ताल से ताल मिलाना दुष्कर है।
मुझे यह लगता है, समय को पकडऩे की चेष्टा वास्तव में ईश्वर को पाने की चेष्टा के समान है। संभवत: इसीलिए ईश्वर को प्राप्त कर लेने वालों के बारे में कहा जाता है कि वे समय बंधन से मुक्त हो गए। भौतिक दृष्टि से आप घड़ी देखकर यह टिप्पणी कर सकते हैं कि बुरा समय चल रहा है या अच्छा समय चल रहा है, इसे गलत भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से आज के समय को थामना कठिन है। भविष्यवाणी करने वाले अतीत और भविष्य बता देते हैं, कई बार भविष्यवाणी सिद्ध भी हो जाती है, लेकिन सौ प्रतिशत सही भविष्यवाणी असंभव है। आज का जो समय है, उसमें यदि कोई सौ प्रतिशत सही भविष्यवाणी करने लगे, तो लोग उसे ईश्वर घोषित करने में देर नहीं लगाएंगे। ग्रंथ पढि़ए, देवताओं के राजा इंद्र भी कई बार हैरान-परेशान दिखते हैं कि असुर जाति कहर ढा रही है, अब क्या होगा? प्रश्न उठाया जा सकता है कि अगर ब्रह्मा जी सबकुछ जानते थे, यदि विष्णु जी व महेश जी सबकुछ जानते थे, तो फिर उनके राजा इंद्र को हैरान-परेशान होने की क्या आवश्यकता थी। मेरी समस्या यह बात जानकर बहुत बढ़ जाती है कि देवताओं के राजा भी समय को पकडऩे में विफल थे। देवताओं के बीच सबसे ज्यादा गलतियां शायद उन्होंने ही की होंगी और सबसे ज्यादा निंदा भी शायद उन्हीं की हुई। आज भी होती है, इंद्र के मंदिर खोजे से नहीं मिलते। उन्हें सुख-दुख में कोई भूलकर भी याद नहीं करता। हां, बारिश न हो, तो इंद्र देवता को सभी याद करते हैं, भारत सरकार भी याद करती है। इंद्र की स्थिति संकेत करती है, समय नियंत्रण में भले न रहे, आचरण अवश्य नियंत्रण में रहना चाहिए। आचरण अगर अनुकूल न रहा, तो आप मनुष्यों में राजा की तो बात छोडि़ए, यदि आप देवताओं के भी राजा होंगे, तो आपको सम्मान प्राप्त नहीं होगा, आप हैरान-परेशान रहेंगे। आप पूज्य नहीं होंगे।
जब मुझे ज्ञात हुआ कि मुझे समय पर बोलना है, तो मैंने यह जानने की कोशिश की भगवान राम ने समय के बारे में क्या कुछ कहा है। काल के स्वरूप की क्या विवेचना उन्होंने की है। योगवाशिष्ठ के सर्ग २३-२५ में राम जी कह रहे हैं, ‘जैसे बडवाग्नि उमड़े हुए समुद्र को सोखती है, उसी प्रकार यह सर्वभक्षी काल भी उत्पन्न हुए जगत को अपना ग्रास बना लेता है। भयंकर कालरूपी महेश्वर इस सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच को निगल जाने के लिए सदा उद्यत रहते हैं, क्योंकि सारी वस्तुएं उनके लिए सामान्यरूप से ग्रास बना लेने के योग्य हैं। युग, वर्ष और कल्प के रूप में काल ही प्रकट है। इसका वास्तविक रूप कोई देख नहीं सकता। वह सब संसार को अपने वश में करके बैठा है।’ काल लीला से चकित राम जी आगे कहते हैं, ‘संसार में अब तक ऐसी कोई वस्तु नहीं हुई, जिसे काल उदरस्थ न कर ले। इस काल का विचार सदा सबको निगल जाने का ही रहता है। यह एक को निलगता हुआ भी दूसरे को चबा जाता है। अब तक असंख्य लोग इसकी उदर-दरी में प्रवेश कर चुके हैं, तो भी यह महाखाऊ काल तृप्त नहीं होता।’ राम जी यह भी कहते हैं, ‘काल न कहीं आता है, न जाता है, न अस्त होता है और न इसका उदय होता है।’ हमारे देश में दर्शन शास्त्र के एक प्रकाण्ड विद्वान हुए हैं : अन्नम भट्ट। (मंच पर विराजमान पूज्य श्री रामनरेशाचार्य जी भी इस दौर में दर्शन के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हैं।) अन्नम भट्ट ने कहा था, कालो नित्य: अर्थात काल नित्य है, उसका क्षरण नहीं होता। (कालो नित्य: का प्रसंग मैंने सूरत में ही प्रिय-सखा शास्त्री कोसलेन्द्रदास के सुझाव पर अपने भाषण में समाहित किया। उनको धन्यवाद।)
बहरहाल, राम जी समय को बहुत अच्छी तरह से समझ रहे थे। उनके जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आए, लेकिन उन्होंने सदा आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने जीवन में सिद्ध किया कि आदर्श बनने के लिए समय को समझना जरूरी है, उससे आतंकित होने से काम नहीं चलेगा। मेरा मानना है, भारत के लोग समय से सबसे कम डरते हैं, क्योंकि उनके पास आध्यात्मिक पूंजी है।
एक पश्चिमी विद्वान टिल्ली ओलसेन की टिप्पणी सुनिए - the clock talked loud. I threw it away, it scared me what it talked. घड़ी बहुत जोर से बोली, मैंने उसे फेंक दिया, उसकी बातों ने मुझे डरा दिया। दूसरे एक पश्चिमी विद्वान डिओन बाउसिकाउल्ट का कथन कुछ ज्यादा सही है, देखिए -Men talk of killing time, while time quietly किल them . लोग समय को मारने की बात करते हैं, जबकि समय चुपचाप उन्हें मार देता है। एक बात बहुत सिद्ध है कि संसार में सभी समय को लेकर बहुत चिंतित हैं। यह चिंता कैसे दूर होगी? इस चिंता को दूर करने के क्या उपाय हैं? समय का धर्म क्या है? बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। मुझे लगता है, समय को यों ही नहीं छोडऩा चाहिए, उसे समझना चाहिए। समय का मानकीकरण करना चाहिए। मेरा मानना है, समय का सर्वश्रेष्ठ मानकीकरण धर्म है और धर्म का सर्वश्रेष्ठ मानकीकरण भक्ति है और भक्ति का सर्वश्रेष्ठ मनोनुकूल सहजीकरण राम भक्ति है। समय था, समय है, समय सदा रहेगा, किन्तु वह यों ही अच्छा नहीं बीतेगा, उसके लिए धर्म आवश्यक है। हमारे महान पूज्य पूर्वजों ने धर्म के रूप में समय का सबसे अनुकूल व सभ्य पड़ोसी तैयार किया। हमारे पूर्वज तो जीवनशैली खोज रहे थे, वे कोई धर्म नहीं बना रहे थे। उन्होंने जो धर्म दिया, धर्म के ज्ञान की जो वैज्ञानिकता निर्मित की, वास्तव में उसी के फलस्वरूप हमारे यहां एक से एक महात्माओं का पदार्पण हुआ। किसी भी चरण या युग में हमारे पूर्वज भयभीत नहीं थे, क्योंकि वे समझदार थे। मात्र राम-राम जपकर भी असंख्य लोग अत्यंत निडर हो गए। प्रलय की कल्पना को लेकर हमारे पूर्वजों ने कभी क्रंदन नहीं किया। उन्हें तो यह भी चिंता नहीं थी कि हम अपना धर्म नहीं फैलाएंगे, तो मिट जाएंगे। वे इहलोक की उतनी ही बात करते थे, जितनी परलोक की। वे यह नहीं कहते थे कि इहलोक में हत्या करो कि परलोक में स्वर्गानुभूति हो। वे तो कहते थे, इहलोक सुधारो, परलोक स्वत: सुधर जाएगा। कर्म करो, भविष्य की चिंता छोड़ो। कर्म नेक होंगे, तो भविष्य नि:संदेह आनंददायक होगा। तो आज समय का धर्म यही है कि समय को हम ठीक से समझें, समय का हम ठीक से निर्वाह करें। समय से अनावश्यक बैर न करें, शांति बनाए रखें। काश, यह बात पूरा संसार समझ पाता। ग्लोबल वार्मिंग क्या है, समय को समझने की विफलता का नकारात्मक पारितोषिक है। दुख क्या है, समय के अनादर का परिणाम है। सुख क्या है, समय के आदर की परिणति है। हमें आज समय का तांडव नहीं देखना, हमें धर्म के माध्यम से समय का सुगम संगीत सुनना है। हमें समय का ध्रुवपद सुनना है। जो समय के धु्रवपद को सबसे डूबकर सुनेगा, वह संसार में सुख व शक्ति के साथ टिक पाएगा। हम भारतीयों का समय एक है, इसीलिए हम टिके हुए हैं। यहां अध्यात्म टिका हुआ है। हमारे राम जी घर-घर में टिके हुए हैं। पश्चिम हम भारतीयों के समय के साथ सरोकार व सम्बन्ध को समझ नहीं सकता। उदाहरण के लिए, हाल ही में इस सदी के सबसे बड़े भौतिकशास्त्री कहलाने वाले स्टीफन हॉकिंग ने कह दिया, ‘सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की।’ पश्चिम में विद्वानों को ईश्वर की बड़ी चिंता रहती है। पिछली सदी में नीत्से ने तो ईश्वर की मौत की घोषणा कर दी थी और फिर खुद भी डर गए थे कि ईश्वर के बिना दुनिया का क्या होगा। एक तरह से यह मानते हुए नीत्से पीछे हट गए कि ईश्वर को झुठलाने के लिए हमें ईश्वर को समझना-जानना होगा। मेरा मानना है, ईश्वर को समझने के लिए हमें समय को समझना होगा। समय से प्रेम करना होगा। समय से प्रेम करेंगे, तो न अतीत का भय रहेगा न भविष्य का। तभी हम स्वयं को कुछ बना पाएंगे, हमारा महत्व बढ़ेगा, हमारी सार्थकता बढ़ेगी। मैं फिर एक अंग्रेजी विद्वान डोमिनिको एस्त्रादा का उद्धरण दूंगा : Time is like the wind it lifts the light and leaves the heavy. . अर्थात : समय हवा की तरह है, हल्के को उठा लेता है, लेकिन भारी को छोड़ देता है। अब हमें सोचना चाहिए कि हमें अपने धर्म-कर्म से हल्का बनना है या भारी।

Saturday 4 September, 2010

वाह! स्वामी जी


बिहार सरकार मुश्किल में है और स्वामी अग्निवेश उसकी मुश्किल बढ़ा रहे हैं। नक्सलियों या माओवादियों से उनका मोह निंदनीय स्तर पर पहुंच गया है। नक्सलियों का भाव बढ़ाने वाली ममता बनर्जी खामोश हैं, ममता की पीठ थपथपाने वाले प्रणव मुखर्जी भी मुंह नहीं खोल रहे हैं, लेकिन स्वामी जी नक्सलियों के स्वयंघोषित प्रवक्ता पद पर कायम हैं। जिस पुलिस के जवान की नक्सलियों ने हत्या की है, उसके परिवार में तीन-तीन लड़कियां हैं, उसके घर क्या मातम होगा, दहाड़ मारकर औरतें रो रही होंगी, लेकिन ऐसे पीडि़तों को मुंह चिढ़ाते हुए स्वामी जी मात्र इतना बोल रहे हैं, जो हुआ दुर्भाग्यपूर्ण है। और हत्या के लिए बिहार सरकार जिम्मेदार है, उनका कहना है, नक्सलियों के सामने और कोई रास्ता नहीं था। वाह रे स्वामी जी, आप तो भगवा पहनकर खूनियों के प्रवक्ता हो गए। आपको तो मारे गए पुलिस के निर्दोष जवान के घर होना चाहिए था, पुलिस के जवान की रोती बेटियों का आंसू पोछते, तो कहने में अच्छा लगता कि स्वामी जी अच्छा काम कर रहे हैं। लाज आती है, भगवा रंग का यह एक और नया दुरुपयोग है। भगवा और माओ का मिलन हो गया है, देखते जाइए, आगे राह में क्या-क्या मंजर मिलेंगे।
ऐसे ही मौके जब आते हैं, तो यह तर्क मजबूत होता है कि बंदूक उठाने वालों को जेल में नहीं रखना चाहिए, मौके पर ही खत्म कर देना चाहिए। जनता के धन से जेलों में रोटियां तोडऩे वाले नक्सलियों की सुरक्षा में भी पुलिस ही रहती है और नक्सलियों ने लखीसराय में चार पुलिस वालों का अपहरण करने के बाद एक की हत्या करके सिवाय हैवानियत के और किस चीज का प्रदर्शन किया है, यह स्वामी जी जैसे लोग ही बता पाएंगे। कानून सम्मत हत्या को सभ्य दुनिया में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन जो हत्याएं कानून को हाथ में लेते हुए बिल्कुल सोच-समझकर की जाती हैं, उन्हें किस आधार पर सही ठहराया जा सकता है? स्वामी जी ने एक और तर्क दिया है कि जेलों में बंद नक्सली कमांडरों का अपराध उतना बड़ा नहीं है। मतलब यह हुआ कि छोटे अपराध वालों को जेल में नहीं रखना चाहिए। चोर-उचक्के-डकैत-साजिशबाज-भ्रष्टाचारी-छुरीबाज और ऐसे अन्य अपराधियों को जेल में नहीं रखना चाहिए, जो खूंखार नहीं है। केवल खूंखार अपराधी जेल में रहेंगे, बाकी सारे अपराधी खुले में विचरण करेंगे। अच्छा होगा, हमारी जेलें बहुत हद तक खाली हो जाएंगी, लेकिन उसके बाद स्वयं स्वामी जी कितने सुरक्षित रहेंगे, इस बारे में स्वामी जी ही बेहतर सोचकर बता सकेंगे।