बिहार सरकार मुश्किल में है और स्वामी अग्निवेश उसकी मुश्किल बढ़ा रहे हैं। नक्सलियों या माओवादियों से उनका मोह निंदनीय स्तर पर पहुंच गया है। नक्सलियों का भाव बढ़ाने वाली ममता बनर्जी खामोश हैं, ममता की पीठ थपथपाने वाले प्रणव मुखर्जी भी मुंह नहीं खोल रहे हैं, लेकिन स्वामी जी नक्सलियों के स्वयंघोषित प्रवक्ता पद पर कायम हैं। जिस पुलिस के जवान की नक्सलियों ने हत्या की है, उसके परिवार में तीन-तीन लड़कियां हैं, उसके घर क्या मातम होगा, दहाड़ मारकर औरतें रो रही होंगी, लेकिन ऐसे पीडि़तों को मुंह चिढ़ाते हुए स्वामी जी मात्र इतना बोल रहे हैं, जो हुआ दुर्भाग्यपूर्ण है। और हत्या के लिए बिहार सरकार जिम्मेदार है, उनका कहना है, नक्सलियों के सामने और कोई रास्ता नहीं था। वाह रे स्वामी जी, आप तो भगवा पहनकर खूनियों के प्रवक्ता हो गए। आपको तो मारे गए पुलिस के निर्दोष जवान के घर होना चाहिए था, पुलिस के जवान की रोती बेटियों का आंसू पोछते, तो कहने में अच्छा लगता कि स्वामी जी अच्छा काम कर रहे हैं। लाज आती है, भगवा रंग का यह एक और नया दुरुपयोग है। भगवा और माओ का मिलन हो गया है, देखते जाइए, आगे राह में क्या-क्या मंजर मिलेंगे।
ऐसे ही मौके जब आते हैं, तो यह तर्क मजबूत होता है कि बंदूक उठाने वालों को जेल में नहीं रखना चाहिए, मौके पर ही खत्म कर देना चाहिए। जनता के धन से जेलों में रोटियां तोडऩे वाले नक्सलियों की सुरक्षा में भी पुलिस ही रहती है और नक्सलियों ने लखीसराय में चार पुलिस वालों का अपहरण करने के बाद एक की हत्या करके सिवाय हैवानियत के और किस चीज का प्रदर्शन किया है, यह स्वामी जी जैसे लोग ही बता पाएंगे। कानून सम्मत हत्या को सभ्य दुनिया में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन जो हत्याएं कानून को हाथ में लेते हुए बिल्कुल सोच-समझकर की जाती हैं, उन्हें किस आधार पर सही ठहराया जा सकता है? स्वामी जी ने एक और तर्क दिया है कि जेलों में बंद नक्सली कमांडरों का अपराध उतना बड़ा नहीं है। मतलब यह हुआ कि छोटे अपराध वालों को जेल में नहीं रखना चाहिए। चोर-उचक्के-डकैत-साजिशबाज-भ्रष्टाचारी-छुरीबाज और ऐसे अन्य अपराधियों को जेल में नहीं रखना चाहिए, जो खूंखार नहीं है। केवल खूंखार अपराधी जेल में रहेंगे, बाकी सारे अपराधी खुले में विचरण करेंगे। अच्छा होगा, हमारी जेलें बहुत हद तक खाली हो जाएंगी, लेकिन उसके बाद स्वयं स्वामी जी कितने सुरक्षित रहेंगे, इस बारे में स्वामी जी ही बेहतर सोचकर बता सकेंगे।
1 comment:
बिल्कुल सही कहा है आपने। पुलिसिया हिंसा या आतंक के खिलाफ तो मानवाधिकार भी हैं और लेखक-बुद्धिजीवी भी, लेकिन माओवादी हिंसा और आतंक के खिलाफ कौन बोलेगा। स्वामी अग्निवेश जैसे माओवादियों के खिलाफ कौन बोलेगा। इन्हीं बाबा अग्निवेश का ही प्रताप है कि किसी समय सबसे मजबूत रहा आर्य समाज आंदोलन आज टुकड़ों में बदल गया है। सस्ती लोकप्रियता पाने के चक्कर में स्वामीजी कभी समलैंगिकों का समर्थन करते हैं तो कभी ममता बनर्जी का। इनकी विद्वता का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि जो भी, जहां भी भारतीय राज्य के खिलाफ लड़ रहा है, वहां स्वामीजी को मानवाधिकार नजर आने लगता है। स्वामीजी जैसे कुछ मानवाधिकारों के ठेकेदार हमारे विश्वविद्यालय में भी है, जो कभी जाति जनगणना से लेकर नक्सलवाद में सामाजिक न्याय के अंश खोजते हैं। स्वामजी का वश चले तो अपने दिव्य चक्षुओं से वह तालिबानयों, पाकिस्तानीओं व सोमालियाई लुटेरों- हर किसी के मानवाधिकार का सवाल उठाने लगें। स्वामीजी जैसे ढोगिंयों की वडह से भगवा रंग बदनाम हुआ है। अग्निवेश को भगवा चोला धारणा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं हैं क्योंकि वह खूनियों की पैरवी करते हैं।
बंगाल से पिताजी का फोन आया था, वह कह रहे थे कि अग्निवेश को लोगों ने ममता को नया एजेंट कहना शुरू कर दिया है जो ममता के भ्रम की पुष्टि करने में लगे हैं।
चटकारी खबरों के भूखे दिल्ली के चैनलों के लिए भी अग्निवेश एक आईना है जिसमें वह देख सकते है कि किस प्रकार एक औसत दर्जे का आदमी आज अपने-आपको नायक समझता है। अग्निवेशजी, यह भी भारत ही है जहां आप नई दिल्ली में बैठकर माताओं-बहनों का सुहाग उजाड़ने वाले खूनियों का समर्थन कर रहे हैं। जरा तिब्बत या पीओके में भी मानवाधिकारों की पैरवी करके बताएं...
अरविंद सेन, जेएनयू
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