Thursday, 6 June 2013

जिया, कैसे जीया?

पंखे से लटकने से पहले वह क्या सोच रही होगी? उसने यह क्यों मान लिया कि उसके लिए जिंदगी को खत्म कर लेना ही एकमात्र उपाय है? उसने अपने बाद आते और आगे बढ़ते अनेक अभिनेत्रियों को देखा। दुनिया शुरू से ऐसी ही है, कुछ लोग पीछे रह जाते हैं, कुछ लोग जहां के तहां और कुछ लोग आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन पीछे छूट जाने का मतलब यह कतई नहीं कि अपने आप को समाप्त कर लिया जाए। यह कौन-सी युवा पीढ़ी है, जो पीछे छूट जाने का मतलब मौत समझ बैठी है। युवा और बढ़ते वय में अगर मौत को गले लगाने को मन चाहे, तो फिर कहीं न कहीं समाज में कुछ गड़बड़ चल रही है, पड़ताल होनी चाहिए? गहरी पड़ताल, कि ऐसा क्यों हो रहा है, दिव्या भारती १९ की थी, कुलजीत रंधावा भी ज्यादा की नहीं थी, जिया खान २५ की थी? यानी जीवन के शुरुआत की उम्र। दिव्या भारती वाली पीढ़ी तो नशे के भी गिरफ्त में थी, लेकिन अब नई पीढ़ी पर नशा उस तरह से हावी नहीं है। नशा जितना होना चाहिए, उतना है, वो युवा मूर्खों में गिने जाएंगे, जो बेहिसाब नशा करते होंगे। आज की पीढ़ी तो जागरूक है, अंतरराष्ट्रीय पीढ़ी है। जिया खान भी अंतरराष्ट्रीय पीढ़ी की ही कलाकार थी, फिर ऐसा क्या हो गया कि उसने मौत को गले लगा लिया? बेशक, समाज में निराशा बढ़ी है, क्योंकि जीवन का संघर्ष निरंतर कड़ा होता जा रहा है। पल में आशा और पल में निराशा का ऐसा तांडव हर जगह नजर आता है कि हर कोई ना सही, लेकिन ज्यादातर लोग हताश हैं। अवसाद घेरने लगा है और यह भावना भी प्रबल हो रही है कि हमें क्या मिला? हमें तो बहुत कुछ मिलना चाहिए था, लेकिन नहीं मिला, शायद नहीं मिल सकेगा, इसलिए निराशा भरे कल का इंतजार क्यों किया जाए, अभी ही दुनिया से निकल लेते हैं? मतलब, इंतजार करने का संयम भी नहीं है। क्या मूर्ख हैं वो वैज्ञानिक जो बार-बार विफल होने के बावजूद लगे रहते हैं किसी आविष्कार में... कितना आसान है न, ऐसे सोचना, लेकिन मरना उतना ही मुश्किल है। बहुत मुश्किल से मरी होगी जिया खान, शायद पंखे से लटकने के बाद जीने की इच्छा हुई होगी, लेकिन मौका हाथ से निकल चुका होगा। कितनी अभिनेत्रियां हैं हमारे बॉलीवुड में, जिन्होंने अमिताभ बच्चन, आमिर खान और अक्षय कुमार जैसे स्टारों के साथ काम किया है? कई लड़कियों के लिए ये तीन फिल्में और ये तीन स्टारों के साथ काम ही उम्र भर के लिए जरूरत से ज्यादा होगा। ये तीनों ही कलाकार भारतीय सिने इतिहास का हिस्सा हैं, इनके साथ १०-१५ मिनट रुपहला पर्दा साझा करने वाला कोई भी कलाकार खुद को धन्य ही मानेगा। लेकिन लगता है जिया खान ने खुद को ध्यन्य नहीं माना? क्योंकि और ज्यादा, बहुत ज्यादा पाने की चाहत थी। और बड़ा स्टार बनने की चाहत, दुनिया से और ज्यादा लेने की चाहत? दोस्तों से और ज्यादा प्यार पाने की चाहत? ये जो पाने की चाहत है, यह खतरनाक होती जा रही है। पाने की चाहत अपने आप में अच्छी बात है, लेकिन न पाने की आशंका भी तो हमेशा रहती है, जिंदगी केवल अच्छी संभावनाओं का ही नाम नहीं है, यह बुरी आशंकाओं का भी डेरा है। पहले की पीढ़ी दूसरों को देकर अपनी जिंदगी को आसान बनाती थी, अपनी जिंदगी को रंगीन बनाती थी, लेकिन अब जो पीढ़ी है, वह केवल लेने में विश्वास करने लगी है। पहले की पीढ़ी के लोग यह सपने देखते थे कि मां के लिए यह करूंगा, पिता के लिए यह करूंगा, दोस्तों के लिए यह करूंगा और देश के लिए यह करूंगा, लेकिन अब सोच बदल चुकी है। अब पिता से यह पूछा जाता है कि आपने हमारे लिए क्या किया? पैदा कर दिया और छोड़ दिया, हमारे लिए कितने प्लॉट आपने खरीदे, कितना बैंक बैलेंस छोड़ा, मां से पूछा जाता है, पाला-पोसा, तो क्या नई बात कर दी, ये तो पैदा किया, तो करना ही था। दोस्तों से भी यही उम्मीद रहती है कि सामने वाला महंगे से महंगा गिफ्ट दे, देश से यह उम्मीद रहती है कि देश सब कुछ नकद दे और बदले में कुछ न ले। यह एक खतरनाक सोच है। आज की पीढ़ी को यह सोचना चाहिए कि उसने दोस्तों को, माता-पिता को और समाज-देश को क्या दिया है? कोई युवा देश को बदलने के प्रयास में लगा है और कोई युवा अपनी जिंदगी को बदलने में विफल होने के बाद मौत को गले लगा ले रहा है? संभव है, देश की निराशाजनक भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने में किसी युवा की जान चली जाए, ऐसे जान जाना ज्यादा बेहतर है, बजाय इसके कि कोई पंखे से अपने खुद के दुख के कारण लटक जाए। युवा पीढ़ी, जो आत्महत्या के अवगुण के करीब जा रही है, सुसाइडल सिंड्रोम की शिकार हो रही है, उसे यह सोचना चाहिए कि उसने दुनिया में आकर किसी को दिया क्या है? आशिकी और जिंदगी केवल लेने से नहीं बढ़ती, देने से भी बढ़ती है, जिया खान शायद यह भूल गई थी.. . लेकिन यह बात हम तो याद रखें।

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