Saturday 22 June, 2013

यात्रा भीतर यात्रा

जनसत्ता 28 अप्रैल, 2013: यात्रा कहां से शुरू होती है, शायद कोई नहीं जानता। कभी अंदर से शुरू होती है, तो कभी बाहर से। अनेक अखबारों-पत्रिकाओं में लिख कर अपने यात्रा संस्मरणों को संजोते रहे राजेश कुमार व्यास के ताजा यात्रा वृत्तांत संग्रह ‘कश्मीर से कन्याकुमारी’ में यह एक बड़ी खूबी है कि वे कभी यात्रा अपने अंदर से शुरू करते हैं और फिर बाहर की ओर बढ़ते हैं और कभी वे बाहर घूमते-घूमते अंदर उतरने लगते हैं। कभी गद्य में तो कभी पद्य में। वे इतने प्रेम के साथ यात्राएं करते हैं कि उनकी आंखों से देखे गए स्थल निखर आते हैं। उन्हें पाठक अपनी आंखों से देखने लगता है। हर बार एक नई जगह के भाव, दृश्य, संगीत और स्वर। वे चौंकाते भी बहुत हैं, किताब के शीर्षक ‘कश्मीर से कन्याकुमारी’ से लगता है कि वे पहले कश्मीर ले जाएंगे, लेकिन वे कन्याकुमारी से ही शुरू और अंत कश्मीर पर करते हैं। पुस्तक के पुरोवाक में व्यास लिखते हैं, ‘चरन् वै मधु विन्दति’, यानी जो चलता है, उसी को जीवन का अमृत-मधु प्राप्त होता है। इस पुस्तक में दर्ज उनकी चौदह यात्राएं यह अहसास निरंतर कराती हैं कि राजेश जी घुमक्कड़ी का मधु छक रहे हैं। पूरे आनंद के साथ वे यात्रा करते हैं। यह आनंद और यात्रा का प्रेम केवल देखी जा रही जगह के प्रति नहीं है, बल्कि उनके साथ जो भी है, उसे वे पूरे लगाव के साथ लिए चलते हैं। उनकी गठरी में अपनापा है, वे जहां जाते हैं, उन्हें उस जगह से प्यार हो जाता है। यही नहीं, एक बड़ी खूबसूरत बात यह है कि उनके सभी यात्रा वृत्तांत उस जगह से बिछुड़ने का दर्द भी बयान करते हैं। उन्हें वह जगह घेर कर पकड़ती है, वे पकड़े जाते हैं और फिर एक तरह से घिसटते हुए-से, वहां दिल छोड़ते हुए-से लौटते हैं, यह सोचते हुए कि फिर लौटूंगा। उनका लौटना कविता में बदल जाता है, रोहतांग दर्रे के पास से लौटते हुए वे लिखते हैं : बर्फ का रेगिस्तान धीरे-धीरे खाली हो रहा है। ठीक इसी तरह जब वे जैसलमेर से लौटते हैं, तो लिखते हैं: ‘रेत, रेत और रेत। बीच में खिला गुलाब। कल्पना नहीं हकीकत। मन में विचार आता है, आखिर कब तक?’ सिक्किम से बिछुड़ने का दर्द देखिए: ‘शहर की भागमभाग से दूर प्रकृति की गोद से बिछुड़ने का मन नहीं है, पर लौटना तो है ही।’ कोणार्क से जब वे लौटते हैं, तो साफ-साफ लिख देते हैं, ‘कोणार्क से बिछुड़ना आसान नहीं है।’ कन्याकुमारी से लौटते हुए वे लिखते हैं: ‘है न अद्भुत!... हमने भी अनुभूत किया। सुबह सूरज को निकलते देखा और अब सूरज को अस्त होते... सागर से विदा लेते भी देख लिया। सागर की लहरें सूर्य को विदा दे रही हैं... हमें भी।’ घुमक्कड़ व्यास पांडिचेरी से लौट रहे हैं: ‘सुकून और शांति का यह अहसास जाने कब फिर से यहां लाएगा... भविष्य को भला किसने पढ़ा है... पांडिचेरी अलविदा।’ और जब वे कश्मीर से लौट रहे हैं, तो लिखते हैं: ‘भगवान धरती के हमारे स्वर्ग को भी बचाए! फिर से कब बहेगी धरती के स्वर्ग में अमन और चैन की हवा! कब उगेगा कश्मीर में नया सूर्य!...’ तमाम जगहों से लौटते हुए राजेश व्यास भावुक कर देते हैं, प्रार्थना और प्रेम के भाव से भर देते हैं, किसी किशोर की तरह नॉस्टेलजिक-से हो जाते हैं। उनकी यात्राओं का अपनत्व जादुई असर छोड़ता है। उनकी यात्राएं लौकिक से अलौकिक होती चली जाती हैं। उनकी आस्था, उनके भले होने का अहसास उनके यात्रा संस्मरणों में होता है। दुनिया में ऐसे अनेक यात्रा वृत्तांत मिलते हैं, जिनमें यात्रा करने वाला अपनी बदमाशियों-चालाकियों का भी जिक्र कर डालता है, लेकिन राजेश जी अपनी इन यात्राओं में इतने प्रेम विभोर रहते हैं कि उनसे ऐसी चालाकी की उम्मीद कोई नहीं कर सकता। यात्रा वृत्तांत वही अच्छा लिख सकता है, जो अच्छा देखता हो। अच्छा देखना केवल वर्तमान को अच्छा देखना नहीं है। समग्रता में अच्छा देखने में अतीत, वर्तमान और भविष्य, तीनों को देखना शामिल है। इस लिहाज से राजेश कुमार व्यास किसी भी जगह पर जाते हैं, तो उस जगह का अतीत, वर्तमान और भविष्य भी देखने की कोशिश करते हैं। वे केवल वर्तमान में समय बर्बाद नहीं करते, वे आगे बढ़ते हैं, वे उस जगह की बेहतरी के बारे में अपने विचार रखते हैं। खासकर कश्मीर यात्रा का वृत्तांत तो सवालों से भरा हुआ है, केवल सवाल हावी नहीं हैं, सवालों के उत्तर जानने की कोशिश और आग्रह भी बार-बार उभरता है। कब उगेगा कश्मीर में नया सूर्य? यहां यात्रा वृत्तांत केवल ट्रेवल बुक की तरह नहीं है, जहां केवल सूचनाएं हों कि कहां क्या मिलेगा और कहां कैसे जाएं, कैसे रहें, यहां तो यात्रा वृत्तांत अपने देश को अपनी मिट्टी को जानने की कोशिश है। केरल, कोणार्क, सरिस्का, बदरीनाथ, चंबा, रोहतांग दर्रा, सिक्किम, रामटेक, वैशाली जैसी महत्त्वपूर्ण जगहों की यात्रा के विवरण यादगार बन पड़े हैं। व्यास के यात्रा वृत्तांत गहरी व्यापक संभावनाएं पैदा करते हैं। वे सोचने पर विवश करते हैं। वे इंतजार का भाव पैदा करते हैं। वे यात्रा के लिए प्रेरित करते हैं। उनके वृत्तांतों में अनेक कहानियों और उपन्यास के प्लॉट बिखरे नजर आते हैं। वे यात्रा स्थलों की समस्याओं को भी बखूबी उठाते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने जैसलमेर के सोनार किले के दर्द को बेहतरीन बयान किया है, वे लिखते हैं: ‘मुझे किले की ढलान से नीचे उतरते जैसे किले का रुदन सुनाई देने लगा है।’ वास्तव में किले का यह रुदन लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के लिए है कि किले की बिगड़ती अवस्था को ठीक किया जाए। इस विश्व धरोहर की रक्षा की जाए। उनकी कुछ यात्राएं तो बहुत रोमांच पैदा कर देती हैं, खासकर ‘बाघिन मुक्ति की राह पर’। एक वन से ले जाकर बाघिन को दूसरे वन में छोड़ा जाता है, राजेश व्यास भी छोड़ने वालों की टीम के साथ हैं। यह एक तरह से यात्रा भी है और कथा भी, पाठकों को बड़ा आनंद देता यह यात्रा वृत्तांत खास बन पड़ा है। एक और खास बात, हवाई यात्राओं का भी उन्होंने अच्छा ब्योरा दिया है। उड़ते हवाई जहाज की खिड़की से आकाश कैसा दिखता है, मेघ, सूर्य की किरणें क्या जादू पैदा करती हैं, यह सब खास है। मेघों से घिर कर झटके खाते विमान में होने के अनुभव का भी उन्होंने अच्छा जिक्र किया है। यह यात्रा वृत्तांत बहुत पठनीय और प्रेरक है। इसकी भाषा और शैली अत्यंत रोचक और आकर्षक है। यात्रा कैसे की जाती है, उसका संस्कार भी यह पुस्तक देती है। पर्यटकों, यायावरों के लिए ही नहीं, बल्कि आम लोगों के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी है। कश्मीर से कन्याकुमारी: राजेश कुमार व्यास; नेशनल बुक ट्रस्ट, नेहरू भवन, 5 इंस्टीट्यूशनल एरिया, फेज-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली; 90 रुपए।

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