मैंने खबरों के साथ-साथ विचारों की भी पत्रकारिता खूब की है, अत: तमाम पार्टियों के विचारों से मैं करीबी से रू-ब-रू हुआ हूं। सपा, बसपा हो या भाजपा या कांग्रेस या वामपंथी दल मैं किसी भी पार्टी पर घंटों बोल सकता हूं और सामने वाला मुझे बड़ी आसानी से बासपाई, भाजपाई या कांग्रेसी या कम्युनिस्ट समझ सकता है, लेकिन वह मुझे किसी एक खाने में नहीं पाएगा। वैसे मुझे ज्यादातर लोग वामपंथी समझते हैं, लेकिन शायद वे वामपंथ को नहीं जानते। अगर गरीबों, शोषितों के बारे में बात करना, साम्प्रदायिकता को ग़लत ठहराना ,सरकार की कमियों पर उंगली रखना, भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करना वामपंथी होना है, तो हूं मैं वामपंथी। लेकिन पत्रकार होने के लिए मेरा भाजपाई या वामपंथी होना क्यों जरूरी है? देश के बड़े-बड़े पत्रकारों को भी जब मैं पार्टियों के प्रेम में पगा देखता हूं, तो मुझे बहुत दुख होता है। मैं जिन्हें आदर्श मानता था, उन्हें भी मैंने पार्टी-पार्टी चिल्लाते देखा है। धिक्कार है। दुख होता है, कई बार तो पार्टी प्रेम का फैसला अखबार प्रबंधन ही कर लेता है, यह स्थिति ज्यादा खतरनाक है। ये फैसले बहुत दुखद हैं कि फलां नेता के खिलाफ कुछ नहीं लिखना है या फलां नेता के पक्ष में कलम तोड़ देनी है। ऐसा नहीं है कि किसी खास मौके पर, किसी खास नीति या कारनामे की वजह से मुझे किसी पार्टी से कभी प्रेम नहीं हुआ हो, लेकिन उस प्रेम को कभी मैंने हावी नहीं होने दिया। मेरी पत्रकारिता कांग्रेस या भाजपा की पत्रकारिता नहीं, बल्कि भलाई-बुराई पर आधारित पत्रकारिता है।
दरअसल आप जब पत्रकारिता को एक मामूली धंधा समझ लेते हैं, तब आप अपने लाभ के लिए किसी पार्टी से दिल लगा बैठते हैं। आपकी पार्टी जब चुनाव हार जाती है, तो आपको दुख होता है, अपने विगत के कार्य पर पछतावा होता है। जब आपकी पार्टी चुनाव जीत जाती है, तो आप न्यूज रूम में खुलेआम घोषणा करते हैं, `अब अपनी सरकार बनेगी।´ कई पार्टी प्रेम वाले पत्रकार तो एकाध चुनाव में झटके खाने के बाद संभल जाते हैं, लेकिन कई पत्रकार ऐसे भी होते हैं, जो हर पांच साल पर झटके खाते हैं, लेकिन नहीं सुधरते। जब कांग्रेस की सरकार रहेगी, तो कांग्रेस के पीछे दीवाने हुए घूमेंगे और जब भाजपा की सरकार आएगी, तो कमल को सींचने लगेंगे। पत्रकारिता बिना पानी के सूख रही हो, तो सूख जाए, पार्टी प्रेम का पौधा नहीं सूखना चाहिए। किसी पार्टी से लगाव वालों को आखिर पत्रकारिता में क्यों रहना चाहिए? साथ ही यह जरूर सोचना चाहिए कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं या कोई मौकापरस्त धंधा?
2 comments:
दरअसल आप जब पत्रकारिता को एक मामूली धंधा समझ लेते हैं, तब आप अपने लाभ के लिए किसी पार्टी से दिल लगा बैठते
Priy gyanesh ji ab patrakarita mission nahi rah gayi. Aapka dard wajib hai, ho sakata hai aapke dwara ki gayi chot kuchh ki atmaon ko jhakjhore de.
Dr. Rahees Singh
Post a Comment