अगर पांच राज्यों में हुए चुनावों का टोटल स्कोर देखा जाए, तो कांग्रेस के खाते में तीन राज्य और भाजपा के खाते में दो राज्य आए हैं। कांग्रेस के खाते में दो नए राज्य आए हैं, जबकि भाजपा ने अपने खाते से एक राज्य गंवा दिया। तो स्कोर 3 बनाम 2 रहा ]
मिजोरम और राजस्थान को छोड़ दीजिये , मध्यप्रदेश, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में लोगों ने सत्ता के पक्ष में मतदान किया है, अर्थात तीनों ही राज्यों में लोग अपनी सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं। सर्वाधिक 230 विधानसभा सीटों वाले मध्य प्रदेश में भाजपा की वापसी से कांग्रेस को बेहद निराशा का सामना करना पड़ा। सीटों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन उनसे आंसू नहीं पोछे जा सकते। सुरेश पचौरी को महीनों पहले चुनावी गुनताड़े में झोंकने का प्रयोग नाकाम रहा है। पचौरी ने फिर साबित किया कि वे जमीनी आधार वाले नेता नहीं हैं। जमीनी आधार वाले दिfग्वजय सिंह चुनाव न लड़ने की कसम खाए बैठे हैं, ऐसे में मध्य प्रदेश में चुनाव हारने के लिए हम अर्जुन सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को काफी हद तक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है, तो प्रदेश की जनता ने शिवराज सिंह चौहान पर विश्वास किया है। उमा भारती की स्वतंत्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा की फिर एक बार हत्या हो गई। वे खुद अपने घोषित गढ़ में चुनाव हारकर अपने राजनीतिक करियर पर दाग लगा बैठी हैं।
उधर, छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी का सत्ता से वनवास-काल भी लंबा खिंच गया है। अतीत में की गई बड़ी राजनीतिक गलतियां कैसे पीछा करती हैं, अजीत जोगी उसके एक उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ी लोग भूले नहीं हैं कि जोगी ने सीधे-सादे राज्य में विधायक खरीदने की गुस्ताखी करके राज्य के नाम को बदनाम किया था। सत्ता में वापसी के करने वाले मुख्यमंत्री रमण सिंह बधाई के पात्र हैं। वे एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें कोई घमंड नहीं है। घमंडहीन नेताओं की पंक्ति में कांग्रेस नेता व दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी आती हैं, तभी उन्होंने युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। अति विशाल और जटिल क्षेत्र दिल्ली को संभालना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन शीला दीक्षित ने इस काम को बहुत आसान बना दिया है। दिल्ली की हार आडवाणी के लिए सबक है। वर्ष 2007 में एमसीडी चुनावों में भाजपा की जीत का नशा काफुर हो चुका है। विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री पद के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने ही पसंद किया था, अत: आने वाले दिनों में उन्हें अपनी पसंदों पर बार-बार पुनर्विचार करना होगा। मिजोरम के नतीजे लगभग तय थे, कांग्रेस को अपनी अच्छी तैयारी का फायदा मिलना ही था। कुल मिलाकर, इन चुनावी नतीजों ने भारतीय राजनीति में एक बात को बिल्कुल स्पष्ट रूप से स्थापित कर दिया है कि राजनीतिक दलों को युवाओं को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी पड़ेगी। भारत 2050 तक युवाओं का देश रहेगा। आज का युवा भावुक नहीं है, वह चालू टाइप के नारों-झूठे वादों, जाति, संप्रदाय में नहीं उलझने वाला। वह राजनेताओं को मुद्दों और शांति-विकास की ठोस कसौटियों पर तौलता है। जिन पार्टियों में प्रभावी बुजुर्गों की तादाद ज्यादा है, उन्हें सचेत हो जाना चाहिए।
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