अखाडे से आगाज : खाशाबा दादासाहेब जाधव
अगर हम ओलंपिक में भारतीयों के पदक जीतने की बात करें, तो 15 जनवरी 1926 को जन्मे खाशाबा दादासाहेब जाधव अर्थात के डी जाधव ने एकल स्पर्धा में पहली बार भारत को पदक दिलाया था। जब देश आजाद हुआ था, तब उन्होंने लंदन ओलंपिक में भाग लिया था, फ्लाइवेट केटगरी के तहत मुकाबलों में वे छठे स्थान पर रहे थे। पांच साल बाद हेलसिंकी ओलंपिक 1952 में जाधव बहुत आशा के साथ गए थे। उनकी प्रतिभा शुरुआती मुकाबलों में ही साबित हो गई थी। चूंकि इस बार उनका वजन कुछ बढ़ गया था, इसलिए उन्हें बेंटमवेट केटगरी की कुश्ती में भाग लेने दिया गया। सेमीफाइनल में उन्हें न जाने क्या हो गया, वे कुछ कमजोर पड़ते दिखे, लेकिन उन्होंने अपने अगले मुकाबले में वापसी करते हुए कांस्य पदक जीत ही लिया। यह भारत के लिए हॉकी से अलग एक बहुत बड़ी शुरुआत थी, लेकिन देश ने जाधव को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। वे पुलिस की नौकरी करते रहे और अंतत: 14 अगस्त 1884 को सड़क दुर्घटना के कारण उनका निधन हो गया। बड़ी उपलçब्ध के बावजूद जाधव का जीवन गरीबी में बीता। जाधव की जिस तरह उपेक्षा हुई, उससे साफ हो गया कि नवजात भारत सरकार आगे भी खेलों के प्रति लापरवाह रहने वाली है। आज खेल संगठन भी जाधव को ढंग से याद नहीं करते। कथित गामा पहलवान, दारा सिंह और ग्रेट खली जैसे जो पहलवान ओलंपिक में देश का सम्मान रत्ती भर भी नहीं बढ़ा पाए, उन्हें भी जाधव से ज्यादा धन-सम्मान नसीब हुआ। जाधव के बाद भारत के पास आज भी कोई पहलवान नहीं है, जो ओलंपिक में पदक की दावेदारी कर सकता हो।
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एक अंग्रेज भारतीय : नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिचर्ड
कोलकाता में 23 जून 1877 को जन्मे नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिचर्ड ने वर्ष 1900 में पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों में भारत की ओर से हिस्सा लिया था और 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण और 200 मीटर बाधा दौड़ में रजत जीता था। नॉर्मन प्रिचर्ड 1905 में इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में भी मन नहीं लगा, तो हॉलीवुड चले गए और उन्होंने वहां न केवल नाटकों बल्कि कुछ मूक फिल्मों में नॉर्मन ट्रेवर के नाम से अभिनय भी किया। 31 अक्टूबर 1929 में लॉस एंजेल्स में उनका निधन हो गया। नॉर्मन भारत की ओर से पदक जीतने वाले न केवल पहले एथलीट थे, बल्कि वे ओलंपिक पदक जीतने वाले पहले एशियाई भी थे। हालांकि उनकी नागरिकता पर भी कम विवाद नहीं है। भारत से उन्हें विधिवत ओलंपिक में भाग लेने के लिए नहीं भेजा गया था, वे स्वयं भाग लेने गए थे। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक फेडरेशन के अनुसार प्रिचर्ड भारत की ओर से नहीं, बल्कि ग्रेट ब्रिटेन की ओर से खेले थे। खेल इतिहासकार दावा करते हैं कि जब वे ब्रिटिश खेलों में भाग लेने स्वदेश गए थे, तभी उन्हें ग्रेट ब्रिटेन की ओर से ओलंपिक में खेलने के लिए अधिकृत कर दिया गया था। बहरहाल, इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी अभी भी प्रिचर्ड को भारत के हिस्से में मानती है, क्योंकि प्रिचर्ड ने ओलंपिक में भारत की ओर से अपना नाम लिखवाया था।
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सूखे में एक बूंद : लियेंडर पेस
सतरह जून 1973 को जन्मे लियेंडर पेस ने वर्ष 1996 में अटलांटा में लॉन टेनिस स्पर्धा में कांस्य पदक जीतकर एकल स्पर्धा में पदकों के सूखे को कुछ दूर किया। 1997 में देश के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से पुरस्कृत पेस वल्र्ड जूनियर चैंपियन रह चुके थे, अत: ओलंपिक में स्वाभाविक ही उनसे काफी उम्मीदें थीं, जिन्हें कांस्य जीतकर पेस ने पूरा किया। पेस इतने जबरदस्त फॉर्म में चल रहे थे कि अगर वे स्वर्ण जीत जाते, तो भी किसी को आश्चर्य नहीं होता। ओलंपिक में कई पेशेवर लॉन टेनिस खिलाडि़यों ने हिस्सा नहीं लिया था। अब तक युगल स्पर्धाओं में सात ग्रेंड स्लैम खिताब जीत चुके पेस अपने उस प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाए। खैर, ओलंपिक में एकल स्पर्धा में भारत को पदक दिलवाने वाले वे दूसरे भारतीय हैं। उन्होंने जो भी किया है, अपने दम पर किया है। उनकी तरक्की में सरकार की भूमिका न के बराबर है।
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बढ़ा देश का वजन : मल्लेश्वरी
एक जून 1975 को श्रीकाकुलम आंध्रप्रदेश में जन्मी भारोत्तलक कर्णम मल्लेश्वरी ओलंपिक में पदक पाने वाली पहली और अकेली भारतीय महिला हैं। न उनके पहले किसी भारतीय महिला ने ओलंपिक में पदक जीता और न उनके बाद। वर्ष 1996 में सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित कर्णम मल्लेश्वरी को वर्ष 2000 में सिडनी ओलंपिक के लिए भारतीय दल में शामिल करने को लेकर विवाद हुआ था, जब कुंजरानी देवी की बजाय मल्लेश्वरी को वरीयता दी गई थी, मल्लेश्वरी के लिए यह महत्वपूर्ण मौका था, उन्होंने आलोचनाओं की चुनौती को स्वीकार किया और पदक जीतने के लिए जी-जान लगा दिया। जब 69 किलोग्राम वर्ग में उन्हें कांस्य पदक मिला, तो देश में खुशी की लहर दौड़ गई। देश की लड़कियों और महिलाओं के लिए भी यह गर्व की बात है कि वे पुरुषों से ज्यादा पीछे नहीं हैं। वे कहती हैं, `लोग मुझसे पूछते रहते हैं, भारत ज्यादा पदक क्यों नहीं जीतता है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर इस बारे में बात करना आसान है, लेकिन पदक जीतना आसान नहीं है।´
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लग ही गया निशाना : राज्यवर्धन सिंह राठौर
उन्तीस जनवरी 1970 को जैसलमेर (राजस्थान) में जन्मे राज्यवर्धन सिंह राठौर ने ओलंपिक में वह कर दिखाया, जो अपने राज्य राजस्थान के बीकानेर महाराज कणी सिंह नहीं कर पाए थे। भारतीय सेना में कार्यरत ले.क. राज्यवर्धन सिंह राठौर ने डबल ट्रैप निशानेबाजी में कई कमाल किए हैं, लेकिन सबसे बड़ा कमाल था, एथेंस ओलंपिक में रजत पदक जीतना। एकल स्पद्धाü में पहली बार एक भारतीय ने रजक पदक जीता। एथेंस में क्लालिफिकेशन राउंड में राठौर पांचवे स्थान पर थे, लेकिन फाइनल में उन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया और दूसरे स्थान पर रहे। यह भारत के लिए अचानक आई बड़ी सफलता थी। पूरे देश ने राठौर का लोहा माना। बीजिंग में भी उनसे स्वाभाविक ही उम्मीद बंधी थी, लेकिन उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और वे 15वें स्थान पर रहे। फिर भी राठौर को इस बात का श्रेय जाएगा कि उन्होंने भारतीय निशानेबाजों का सम्मान बढ़ाया। उनसे पहले भारत में एक से बढ़कर एक निशानेबाज हुए थे, लेकिन किसी ने देश को ओलंपिक में पदक नहीं दिलाया था।
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