नुक्लेअर सप्लायर ग्रुप -एनएसजी- के 45 सदस्य देशों में से 20 देश भारत को परमाणु व्यापार की मंजूरी तो देना चाहते हैं, लेकिन शर्तों के साथ। एक पक्ष यह है कि भारत अमेरिका असैन्य परमाणु करार पर ऐतराज करने वाले देश परमाणु अप्रसार के तगड़े पक्षधर रहे हैं और दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर देश भारत को उभरती ताकत के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनके मन में भारत की वह छवि अंकित है, जो दुनिया में पाकिस्तान और चीन जैसे देशों की कृपा से बनी है।
एनएसजी के 20 करार विरोधी देशों को तीन बिंदुओं पर ऐतराज है। पहली बात, वे चाहते हैं, भारत सीटीबीटी और एनपीटी पर हस्ताक्षर करे। दूसरी बात, वे करार मसौदे में हाइड एक्ट का स्पष्ट उल्लेख करना चाहते हैं। तीसरी बात, वे परमाणु संवर्धन और पुनर्सस्करण तकनीक भारत को देने के खिलाफ हैं। कुल मिलाकर, वे लिखित आश्वासन चाहते हैं कि भारत न तो परमाणु परीक्षण करेगा, न परमाणु हथियार बनाएगा, न परमाणु सामग्री का व्यापार करेगा।
वियेना में पहले दौर की वार्ता से निराश सरकार बोल तो यही रही है कि वह नई शर्ते स्वीकार नहीं करेगी, लेकिन भारतीय विदेश सचिव शिवशंकर मेनन का न्यूयॉर्क जाना और वहां अमेरिकी उपविदेश मंत्री विलियम बन्र्स के साथ मसौदे की पुनर्रचना का प्रस्ताव चिंतित करता है। पहली नजर में यही लगता है कि सरकार मसौदे की पुनर्रचना के पक्ष में है और वह केवल इतना चाहती है कि मसौदे में कोई आदेशात्मक शर्त शामिल न की जाए। असली खतरा यही है। न केवल मसौदे की भाषा बदल सकती है, बल्कि उसमें चुपचाप कुछ शर्तें भी शामिल की जा सकती हैं। अगर केवल हाइड एक्ट को ही मसौदे में शामिल कर लिया गया, तो एनएसजी में आपत्ति करने वाले देशों की जीत हो जाएगी और साथ ही, करार को अमेरिकी कांग्रेस में पारित करवाना भी जॉर्ज बुश के लिए आसान हो जाएगा, लेकिन यह भारत के लिए एक बड़ी हार होगी। जिस परमाणु करार को हम अच्छा मान रहे हैं, वह हमारे लिए बुरा हो जाएगा। भारत सवा अरब लोगों का महान देश है। वह आस्ट्रिया , न्यूजीलैंड, आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देशों जैसा नहीं है। भारत की चुनौतियां ऐसे दस देशों की चुनौतियों से भी ज्यादा हैं। हम अपनी गिनती दुनिया के 45 देशों में नहीं, बल्कि खास 6-8 देशों में करवाना चाहते हैं। भारत सरकार अगर नई शर्तें स्वीकार करेगी, तो यह भारत के उज्ज्वल सपनों के साथ समझौता होगा। परमाणु करार के मसले पर अगर हम और झुकेंगे, तो टूट जाएंगे।
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