Monday 20 October, 2008

चावल का चक्कर

जाति .... : भाग नौ

उस वर्ष धान बहुत कम हुआ था, लेकिन तब मैं पैदा नहीं हुआ था। मुझसे बड़े वाले भाई साहब का दुनिया में पदार्पण होने वाला था। पिता जी परिवार लेकर राउरकेला से शीतलपुर आए हुए थे। इस छोटे परिवार का मतलब, माता, पिता, मेरे दो बड़े भाई, जो तब तीन और एक साल के हुआ करते थे।

उन्हीं दिनों बांग्लादेश की आजादी के लिए संघर्ष तेज होने लगा था। बड़ी तादाद में बांग्लादेशी भारत आ रहे थे, मेरे गांव की ओर तो नहीं, लेकिन मेरे शहर राउरकेला में पलायन का प्रभाव दिखने लगा था। इंदिरा गांधी ने कुछ ही महीने पहले गरीबी हटाओ का नारा दिया था, लेकिन ये वही वर्ष थे, जब बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्य पिछड़ने लगे थे। महाराष्ट्र, पंजाब और दक्षिण के राज्यों में तरक्की तेज होने लगी थी। बिहार विकास की सीढियों पर लुढ़क रहा था। यह वह दौर था, जब बिहार अपने पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के दौर में अर्जित दिशा और दशा को गंवाना शुरू कर चुका था।

खैर, उस साल हमारे खेतों में धान नहीं के बराबर हुआ था, जो चावल उपलब्ध था, वह मां को अच्छा नहीं लगता था और बार-बार रोटियों से पाला पड़ता। मुझसे बड़े वाले भाई साहब पेट में थे, शायद चावल के शौकीन, धमाल मचा देते होंगे। मां की इस तकलीफ से बुआ लालदेई अनभिज्ञ नहीं थीं। दादी तो थी नहीं, वैसे मेरे किसी भाई को दादी या दादा की गोद में खेलने का सौभाग्य हासिल नहीं हुआ। मेरे बड़े पिताजी अर्थात बाबूजी की भार्या अर्थात मेरी बड़ी मम्मी भी नहीं थी, लेकिन एक बूçढ़या अम्मा और एक बड़ी अम्मा थीं। बड़ी अम्मा घर की मालकिन थीं। दुर्भाग्य से घर में बेवाओं का जमावड़ा था, उनमें यदा-कदा विवाद भी होता क्योंकि वे सब अपने-अपने दुख से परेशान थीं। लेकिन मां को मैंने आज तक कभी कलह में नहीं देखा है। तब मां गांव में घूंघट भी काढ़ती थीं, दुलहिन बोली जाती थीं। अच्छे चावल खाने की इच्छा बोलें, तो किससे बोलें। पिता को बोलना बेकार था, वे आज भी कहते हैं, `जो है, क्या वह कम है?´ लेकिन मां का मन न मानता, काश, कहीं से अच्छे चावल का इंतजाम किया जाता। चावल खरीदने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, बदनामी होती। इतने खेत हैं, फिर भी चावल खरीदते हैं। गांवों में बनियों की दूकानों से ही तमाम घरों के रसोईघरों की कमियां दुनिया में फैलती हैं, वैसे भी तब गांव के बाजार पर गिनती की तीन-चार दूकानें हुआ करती थीं और सभी पहचान के बनिये थे। तो चावल खरीदने का विचार दमदार नहीं था। चुपचाप रहने वाली मां ने किसी से नहीं कहा, हालात से समझौते के लिए मन को तैयार कर लिया। फिर भी मन न मानता, शायद गर्भ में पल रहे भाई साहब को चावल बिना चैन नहीं था। जो चावल उपलब्ध था, वह न देखने में ठीक, न खाने में और न सूंघने में।

वैसे भी जिन महिलाओं के पैर भारी होते हैं, वे सूंघ-सूंघकर खाती हैं, बल्कि सूंघती ज्यादा हैं और खाती कम हैं। अगर एक बार किसी चीज की गंध से घृणा हो गई, तो फिर वह चीज पास नहीं दिखनी चाहिए।

लेकिन भाई साहब के हिस्से में ढेर सारा अच्छा चावल लिखा था और है। अगर ऊपर से देने वाला तैनात हो, तो लेने वाला तो मात्र दर्शक है। उन्हीं दिनों हमारे एक सामा बाबा था। बर्नपुर कारखाने से रिटायर होकर लौटे थे। घर के बंटवारे में वे पहले ही अलग हो गए थे। अकेले थे, शादी नहीं हुई थी। बासठ-तीरसठ की उम्र में ही काफी बूढ़े लगने लगे थे। बीमार रहते थे। अपना घर तो बनाया नहीं। जवानी कारखाने और बर्नपुर में झोंक दी, रिटायर होकर लौट आए गांव। यहां-वहां किसी-किसी के यहां रहते थे। गांवों के अनेक लोगों ने उन्हें प्यार दिखाकर खूब लूटा था। उनका पैसा किसी के पास, बर्तन-सामान किसी और के पास, तो अनाज किसी और के खलिहान में होता था। गांव में पॉपुलर थे, क्योंकि उनमें लोगों की मदद करने का माद्दा था। सामा बाबा को मेरे पिता और बाबूजी से काफी लगाव था, जो दुनिया से धोखा खाते हुए निरंतर बढ़ता जा रहा था। पिता और बाबूजी ही थे, जो बिना स्वार्थ के अपने सामा चाचा की सेवा करते थे। वे कई-कई दिनों पर हमारे घर आते थे, लेकिन घर की महिलाएं भी उनकी सेवा करने, उन्हें भोजन करवाने को तत्पर रहती थीं। पिताजी परिवार के साथ गांव आए हैं, इसकी सूचना सामा बाबा को लग चुकी थी। एक दिन सुबह मिलने के लिए हमारे घर आए। वे सीधे आवाज देते हुए आंगन में चले आए। दीन-हीन, दुबले, मटमैली होती धोती, पुराना पड़ता कुर्ता, चारों ओर से तेजी से घेरता बुढ़ापा। उन्हें आंगन में देख सहर्ष हलचल हुई। बुआ, मां सबने आगे बढ़कर उनके चरण छुए। बैठने के लिए खाट गिरा दी, चादर बिछ गई। पीने को पानी आ गया। सामा बाबा सबसे हालचाल पूछने लगे। सबने गौर किया, उनकी रूखी त्वचा पर छोटे-छोटे चकते बन गए थे। वे किसी अनाथ बूढे़ से लग रहे थे। घर की सभी महिलाओं को उन पर दया आई, तो मां बैठ गई चचिया सुसर की सेवा करने। बूçढ़या अम्मा, बड़ी अम्मा, बुआ, घर के काम करने वाली काकी, सभी से वे बात करते रहे। हमने तो सामा बाबा को नहीं देखा, लेकिन सुनते हैं, गजब के मिलनसार और दिल के बड़े मीठे आदमी थे। खड़ा और साफ-सुथरा बोलते थे, दिखावे से कोसों दूर। कुछ देर बाद उनके हाथ-पैर की त्वचा के चकते दूर हो गए, रूखापन गायब हो गया, उनकी आत्मा प्रसन्न हो गई। वे कुछ भावुक भी हुए होंगे, उन्हें अपना-सा अहसास हुआ होगा। बातों-बातों में बुआ ने मां की स्थिति और चावल की कमी के बारे में उन्हें बता दिया था। बाबा ने चावल की कमी पर कुछ नहीं कहा। खाट पर कुछ देर सुस्ताने के बाद चुपचाप आंगन से बाहर आ गए। पिता, बाबूजी और बच्चों के बारे में पूछा और नारा की ओर बढ़ चले। नारे से होते हुए नौतन बाजार की ओर जाती सड़क के पश्चिम में नारे वाले खेत में बाबूजी, पिता काम में जुटे थे। मेरे दोनों छोटे-छोटे बड़े भाई भी खेत में मिटटी-मिटटी खेल रहे थे। सामा बाबा तेजी से खेत में उतरे, सभी ने बढ़कर उनका अभिवादन किया। आदेश पर मेरे बड़े भाइयों ने भी उनके चरण छुए। उन्हें देखकर बाबा का मन खिल उठा। उन्हें पुचकारते रहे, दूसरे ही पल मन में चावल की बात उभर आई, वे थोड़े गुस्से में बाबूजी की ओर मुखातिब हुए, `मास्टर, घर में चावल का अभाव हो गया है और मुझे पता नहीं है? मुझे पराया समझे हो?´बाबूजी चुपचाप सुन रहे थे। उनमें वैसे भी पहाड़-सा संयम रहा है। `हम और तुम मिट्टी में पैदा हुए, मिट्टी में मर जाएंगे। तरह-तरह के अभाव देखे, लेकिन अब यहां से हमारी पीढ़ी बदल रही है। देखो, इन बच्चों के सुंदर-साफ चेहरे देखो, ये मिट्टी के लिए नहीं बने हैं। ये गांव में नहीं रुकने वाले। ये हमारी मेहनत के हीरे-मोती हैं, इन्हें कोई अभाव नहीं होना चाहिए। कुछ दिन के लिए गांव आए हैं और हमारे रहते, इन्हें अभाव हो?´

बाबूजी चुप रहे, पिताजी काम में लगे रहे। भाई साहबों का खेल जारी रहा, बाबा पुलिया पार करते हुए नौतन बाजार चले गए। कुछ देर बाद नौतन बाजार की ओर से एक मजदूर हमारे घर की ओर आता दिखा। कंधे पर भरा-भारी बोरा था, वह पुलिया पार करके हमारे दरवाजे पर पहुंचा। कंधे से बोरे को उतारकर बोला, `सामा बाबा, अपने खलिहान से धान भिजवाए हैं? बोले हैं, घटे, तो संकोच करने की जरूरत नहीं है।´ बुआ ने आगे बढ़कर बोरे में बनी एक छेद से थोड़ा-सा धान निकला, चावल के कुछ दाने निकाले , हथेली पर लिया, सूंघा और खुश होकर कहा, `ए दुलहिन, ये चावल बहुत अच्छा है।´

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