जाति के जर्रे : भाग सात
मेरे नारा का नाता कतई राजनीति से नहीं है। मेरे नारा का मतलब है नाला। भोजपुरी में नाला को नारा ही बोला जाता है, जो ध्वनि के लिहाज से नाला की तुलना में ज्यादा बेहतर सुनाई पड़ता है। यह नारा मेरे लिए शुरू से रहस्य और रोमांच का विषय रहा है। हम नारा पार करके ही अपने घर पहुंचते हैं , हम अपने खेतों की ओर जाते हैं , तो नारा पार करना पड़ता है । हमारे आम के बगीचे भी नारा के उस पार पड़ते हैं। मोहन और जवाहिर राम के घर भी नारा पार ही स्थित हैं। लेकिन माफी कीजिएगा, नारा का मतलब यह नहीं है कि उसमें गांव का बदबूदार पानी बहता हो। लगभग दो सौ मीटर चौड़ा यह नारा अब सूख चुका है, किसी जमाने में यहां दरिया हुआ करता था। बताते हैं, कमर तक पानी बहा करता था। शायद यह नारा गंडक और सरयू नदी के बीच बहता होगा। यह दशकों तक एकमा और मांझी थाना की सीमा रेखा रहा है, लेकिन अब एक नया थाना बन गया है दाऊदपुर। इसमे पानी भले न रहा हो, लेकिन नारा की निशानियां अभी भी बरकरार हैं। मैंने जहां तक चलकर देखा है, नारा करीब तीन से चार किलोमीटर लंबा है। थोड़ी-सी बारिश होते ही नारा पानी से भर जाता है और गवाही देता है कि मैं कभी जिंदा था, बहता था। नारा के उत्तर में नौतन बाजार गांव है और दक्षिण में शीतलपुर बाजार। नारा के ऊपर एक पक्की सड़क है, जो शायद राज्यमार्ग है, एकमा और मांझी को जोड़ता है। पक्की सड़क से लगभग तीन सौ मीटर पश्चिम में कच्ची सड़क है, जो नौतन बाजार और शीतलपुर बाजार को जोड़ती है। इस कच्ची सड़क से आप नौतन बाजार से जब शीतलपुर की ओर आते हैं, तो पहला मकान हमारा ही पड़ता है। इस कच्ची सड़क पर एक पुलिया भी है, क्योंकि नारा के एक हिस्से में गहरे गड्ढे हैं। एक दूसरे से जुड़े इन गड्ढों का भी अपना इतिहास है। जब गांवों में मिट्टी के घर बना करते थे, तब नौतन बाजार के लोग अपने ओर के नारा की मिट्टी काट-काट कर ले जाते थे। नारा की मिट्टी काफी मजबूत है, सिमेंट के रंग की, सिमेंट जैसी। मिट्टी काटते-काटते जब गड्ढे गहरे हो गए होंगे, तो इस जगह पर एक गांव से दूसरे गांव जाना मुश्किल हो गया होगा। तब शायद नारा से ही और मिट्टी काटकर नारा और उसमें पैदा हुए गड्ढों पर बांध जैसा बनाया गया होगा और बांध पर सड़क बनाई गई होगी। बांध के नीचे से पानी आर-पार हो जाए, इसके लिए पुलिया बनाई गई होगी, जो आज भी है।
यह पुलिया अंग्रेजों के समय ही बनाई गई थी। आज भी पुलिया ऊपर-ऊपर भले टूट जाती है, लेकिन उसका ढांचा मजबूत है। हर तीन-चार साल बाद पुलिया पर ऊपर से चढ़ाया गया ज्यादा बालू और कम सिमेंट का लेप उधड़ जाता है, तो पुराने जमाने की तगड़ी ईंटें झांकने लगती हैं। ईंटों को झांकते देख हमारे बाबूजी और अन्य बुजुर्गों को शर्म आने लगती है। वे पंचायतों पर दबाव बनाते हैं, कई गांवों के लोगों का दबाव पड़ता है, तब जाकर पुलिया की मरम्मत होती है, लेकिन बस तीन-चार साल के लिए।
हमारे नारा पर बनी यह पुलिया ही नहीं, बल्कि बिहार में असंख्य पुल हैं, तो अंग्रेजों की ईमानदारी की मिसाल हैं। केवल सड़क वाले पुल ही नहीं, कई रेल पुल भी हैं, जो अंग्रेजों के समय के हैं, आदर्श हैं। वरना पटना में गंगा नदी पर बने विशाल गांधी सेतु को बने तीस साल भी तो नहीं हुए, लेकिन हालत जर्जर है। मरम्मत जारी रहती है, खत्म होने का नाम नहीं लेती।
खैर नारे के गहरे हिस्सों पर बनी पुलिया हमारे घर से मात्र डेढ़ सौ मीटर उत्तर में स्थित है। अगर आप पुलिया पर साइकिल को बिना पैडल मारे लुढ़कने दें, तो साइकिल हमारे घर के सामने आकर रुकेगी। यह पुलिया मेरे लिए आज भी कौतूहल का विषय है। जब हम छोटे थे, तो पुलिया और घर के बीच रोज दस बार अप-डाउन किया करते थे। मेरे पिता और बाबूजी ने भी खूब अप-डाउन किया होगा। मेरे भाइयों ने भी खूब अप-डाउन किया है और अब मेरे छोटे-बड़े तमाम भतीजे भी बड़े मजे से अप डाउन करते हैं। गांव के दूसरे बच्चे भी आते हैं अप-डाउन के लिए। यह अप-डाउन एडवेंचरस स्पोट्र्स की तरह है। चुनौतीपूर्ण है बच्चों के लिए विशेष रूप से, इसलिए उन्हें आनंद भी आता है।
पुलिया लगभग आठ फीट चौड़ी है, उससे जब शीतलपुर या हमारे घर की ओर उतरते हैं, तो दोनों ओर बीस-बीस फीट गहरे गड्ढे हैं, जो लगभग तीस फीट तक साथ-साथ चलते हैं। उसके बाद ही हमारे घर की ओर थोड़ी समतल भूमि शुरू होती है। इन गड्ढों को किसी से बैर नहीं है। इन्हीं भोजपुरी में गड़हा कहा जाता है। उच्चारण से ही जाहिर है, गड्ढा की तुलना में गड़हा शब्द में ज्यादा आकर्षण है। हां, पुलिया पर से साइकिल लुढ़काते हुए अगर संभलकर न चला जाए, तो लुढ़कते हुए गड्ढों में जाना पड़ता है। फिर अपने आप धूल झाड़ते हुए गड्ढे से निकलना पड़ता है या फिर कोई न कोई मददगार मिल ही जाता है। बारिश के महीने में लगभग डेढ़ महीने पूरे नारा में पानी जमा रहता है और नारा में जब पानी सूख जाता है, तब भी नारे में स्थित इन गड्ढों में लगभग तीन-चार महीने तक पानी बचा रहता है। पानी भर जाए, तो ये गड्ढे इतनी मछलियां देते हैं कि आस-पास के दस-दस गांवों के शौकीनों की आत्मा तृप्त हो जाती है।
नारा वाले गड्ढे शुरू से ही मेरे लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। आज भी जब गांव जाता हूं, मौसम चाहे कोई हो, मौका पाते ही पहले गड्ढों में झांक आता हूं कि पानी है या सूख गया। मेरे पिताजी और बाबूजी भी शायद ऐसा ही करते होंगे। मेरे भाई भी गांव जाते हैं, तो उन्हें मैं गड्ढों का मुआयना करते देख ही लेता हूं और मेरे छोटे-बड़े तमाम भतीजे तो बेशक गड्ढों का मुआयना करते होंगे।
कई बार मैं नारे और गड्ढों को लेकर भावुक या नोस्टेलजिक हो जाता हूं। सोचता हूं, अगर जल स्रोतों को ठीक से सहेजा जाए, तो यह नारा भी बह चलेगा, लेकिन मेरा अनुमान है कि जब गंडक या सरयू पर बांध नहीं बने थे, तब उनका पानी इस नारे में आता होगा। आज मजबूत बांध बन गए हैं, तो नारों में पानी कम ही आता है। उत्तर बिहार का एक बड़ा इलाका गंडक और सरयू पर बने बांधों के कारण बाढ़ से बचा रहता है, मधेपुरा, सुपौल जैसी तबाही नहीं होती है, लेकिन बांधों का एक खामियाजा यह हुआ है कि हमारे इलाके में पानी की कमी हो गई है। हालांकि अब एक नहर इधर चार-पांच साल से बह रही है, लेकिन उससे दो बातें जुड़ी हैं, अव्वल तो इस नहर के बनने में लगभग तीस साल का समय बरबाद हुआ है और दूसरी बात, यह नहर जल-कुप्रबंधन का शिकार है। जरूरत के समय पानी नहीं होता और पानी जब आता है, तो खड़ी फसल सड़ा जाता है। मेरा खयाल है, अगर नारा में बहता दरिया आज जीवित होता, तो इलाके में नहर की जरूरत ही नहीं पड़ती। इलाके के लोग न दरिया को भूले हैं और न नारा विस्मृत हो रहा है। आज भी कोई भी इस नारे में घर नहीं बनाता है। क्या पता कब नारा जाग जाए और बह चले?
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