Tuesday, 14 December 2010

एक नाच हुआ करता था

मैं लौंडे की बात करने वाला हूँ , माफ कीजिएगा, मैं कोई अश्लील टिप्पणी नहीं करूंगा। जो लोग बिहार की नाट्य शैली नाच को जानते हैं, उनके लिए लौंडा वह है, जो स्त्री पोशाक पहनकर नाचता है, स्त्रियों की तरह स्वांग रचता है। बचपन में साल १९७८-७९ में कुल जमा दो बार नाच देखने की यादें हैं। एक बार सबसे बड़े भाई साहब की शादी में और एक ममेरी बहन की शादी में। तब मैं कुल जमा पांच साल का रहा होऊंगा। तब के हिट भोजपुरी गीत 'गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ी-उड़ी जाए' पर हुआ नाच आज भी याद है। नाच के अलावा बैंड के साथ भी हमारे ही इलाके से एक लौंडा गया था, जिसका नाम हीरा था। पिछले कुछ वर्षों तक हीरा गांव जाने पर दिख जाया करता था, लचकती चाल और सिर पर समेटकर बंधी चोटी के साथ। कौतूहल जगाता हुआ, लेकिन अब हीरा दिखता नहीं, शायद बूढ़ा हो गया होगा। नाचना छूट गया होगा। चोटी कट चुकी होगी, लेकिन चाल में लचक थोड़ी बची हुई होगी।
नाचने वाले की कमर में लचक स्वाभाविक ही बस जाती है। भोजपुरी के शेक्सपियर कहलाने वाले भिखारी ठाकुर भी कभी राधा या किसी महिला पात्र को निभाने की कोशिश में लचकने लगे थे। उनकी लचक इलाके में मशहूर होने लगी थी, फिर उन्होंने उस लचक से छुटकारा पाने के लिए लगातार पुरुष पात्रों को निभाना शुरू किया। प्रयास के बाद ही उनकी चाल से लचक तिरोहित हुई थी। लेकिन हर नाचने वाला भिखारी ठाकुर नहीं होता। एक बार लचक पीछे पड़ जाती है, तो पड़ी रहती है। मेरी नजर में पहले वह हीरा के पीछे थी और अब मनोज नाम के एक लौंडे के पीछे है, जो पिछले करीब १४ साल से हमारे घर के सामने से गुजरता दिख जाता है। जब गांव जाओ, तो मनोज का दिखना तय रहता है। चाल में वही लचक और सिर पर बंधी चोटी। १९९७ में मेरे भाई साहब की शादी में मनोज किशोर हुआ करता था। सुल्तान की बैंड पार्टी का नवछेरिया नचनिया। बारात के साथ यह बैंड पार्टी उत्तर प्रदेश के देवरिया के एक गांव गई थी। खूब बारिश हो रही थी। मनोज चटख मैकअप में था। वह जमकर नाचता, क्योंकि बिहार से जब कोई लौंडा पूर्वी उत्तर प्रदेश जाता है, तो वहां के लोग बड़े चाव से नाच का मजा लेते हैं। जुलाई का महीना था, बारात पहुंचने में खूब रात हो गई थी, बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, लेकिन उस गांव के पच्चीस-तीस लोग डटे थे कि लौंडा नाच देखकर ही मानेंगे। बैंड पार्टी ने तय किया था कि बारात केवल बाजे के साथ दरवाजे लगा दी जाएगी। गीली और दलदली हो चुकी जमीन और रास्ते पर नाचने का तो सवाल ही नहीं उठता था। घरातियों के गांव वालों ने जब देखा कि केवल बैंड बज रहा है और लौंडा कोने में खड़ा बस टुकुर-टुकुर ताक रहा है, तो हंगामा हो गया। लौंडा नचाने की मांग होने लगी, लाठियां बजने लगीं कि डर से लौंडा नाचने लगेगा। लौंडे की जान मुसीबत में थी, बैंड पार्टी के मुखिया सुल्तान ने उसे सुझाया कि 'मास्टर साहब के पास चले जाओ।' मास्टर साहब मतलब मेरे परिवार के मुखिया बड़े पिताजी। मनोज तत्काल दौड़कर मेरे बड़े पिता के पीछे छिपकर भीड़ की पकड़ से दूर हो गया।
१३ साल हो गए, लेकिन मनोज को आज भी वह वाकया याद है। सुल्तान नहीं रहा, अब मनोज किसी और की बैंड पार्टी में नाचता है। इस बार छठ में जब मैं गांव गया, तो तय कर रखा था कि मनोज से बात करूंगा। तो उसे घर के सामने ही रोक लिया।
'इधर आइए।'
वह एक बार तो चौंका और फिर अपनी पूरी लचक के साथ मेरे करीब आ रुका।
'ये बताइए कि इलाके में किसका नाच हिट चल रहा है?
सवाल सुनते ही शायद वह समझ गया कि मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। उसने जवाब दिया, 'नाच, अब कहां?'
'मतलब'
'अब नाच नहीं होता है?'
'कहां गए नाच?'
'खतम हो गए।'
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, मैंने जोर देकर पूछा, 'क्या नाच बिल्कुल बंद है?
'हां।'
'तो तुम क्या करते हो?'
'बैंड बाजा में हैं।'
'भिखारी ठाकुर के परिवार का कोई नाच में नहीं है?'
मनोज ने जवाब दिया, 'नहीं, अब नहीं है।'
मैंने पूछा, 'क्यों खतम हो गया नाच।'
'अब वीडियो है, सिनेमा है, ऑर्केस्ट्रा है। लोग अब नाच पसंद नहीं करते। वैसे भी मेहनत वाला काम है।'
मुझे बड़ी निराशा हुई। यह सच है, जिस नाच को भिखारी ठाकुर ने उत्तरी भारत की शान बना दिया था, वह लोक विधा समाज में दम तोड़ चुकी है। नाच की बात तो दूर है। मेरे ही घर में अब बारात के साथ भी लौंडे नहीं जाते, नए लडको ने लौंडों को पीछे छोड़ दिया है । मनोज जैसे लौंडे अब थोड़े ही बचे हैं। मनोज लगभग ३३-३४ के करीब पहुंच रहा है, लेकिन शायद तब तक नाचेगा, जब तक लोग उसे नचवाएंगे। फिर तो उसकी भी चोटी कट जाएगी और चाल में बस थोड़ी लचक शेष रह जाएगी, यह गवाही देती हुई कि कभी एक नाच हुआ करता था।

Monday, 29 November 2010

नीतीश बनाम लालू

गाल बजाने वाले नेताओं में अगर देखा जाए, तो लालू सबसे आगे नजर आएंगे, जबकि नीतीश में यह अवगुण नहीं है। लालू अपने खुले दांतों के बारे में खामोश रहते हैं, लेकिन अक्सर हमला बोलते हैं कि नीतीश के पेट में दांत हैं। नीतीश कभी भी लिट्टी चोखा, मछली-मांगुर में समय नहीं गंवाते, जबकि लालू के लिए ये खाद्य पदार्थ भाषण के प्रिय अंश हैं। लालू गजब की परिवारवादी नेता हैं, जबकि नीतीश भी पुत्रवान हैं, लेकिन उनके पुत्र की राजनीति में रुचि नहीं है। परिवार की तरफ नीतीश का कोई रुझान नहीं है। नीतीश ने निश्चित रूप से काम किया है, जबकि लालू १५ साल तक केवल गाल बजाते रहे। गांव की एक महिला बता रही थी कि उसने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दिया है। क्योंकि नीतीश कुमार ने योजना के तहत बिहार में लड़कियों को स्कूल जाने के लिए साइकिल बांटी। पहले घर के कामकाज और स्कूल के दूर होने की वजह से लड़कियों का समय पर स्कूल जाना एक मुश्किल काम था, लेकिन अब लड़कियों के पास स्कूल जाने के लिए साइकिल है। मैंने खुद देखा, स्कूल के समय स्कूल जा रही लड़कियों का रेला निकलता है। ऐसा लगता है, मानो नीतीश कुमार की रैली गुजर रही हो। लड़कियां बहुत खुश हैं और उससे ज्यादा खुशी उनके परिवार वाले हैं। पहले लोग पढ़ाई करने के बाद कमाई करके साइकिल खरीदते थे, लेकिन अब तो पढ़ाई के समय ही साइकिल मिल रही है। साइकिल वितरण से गांव-गांव में परिवर्तन आया है, इसे नकारा नहीं जा सकता। राजग का वह विज्ञापन वाकई सच्चाई बयान करता है, जब एक बिहारी महिला यह सोच रही है कि अगर नीतीश पहले बिहार के मुख्यमंत्री होते, तो वह भी साइकिल से स्कूल जाकर पढ़-लिख लेती। लेकिन नीतीश के पहले तो राबड़ी, लालू और जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने बिहार की एक पूरी पीढ़ी को बिगाड़ कर उद्दंड बना दिया। साइकिल इफेक्ट से लालू भी परेशान थे, तो उन्होंने लड़कों को सपने दिखाने की कोशिश की। चुनावी रैली में बोल दिया, लड़कों को स्कूल जाने के लिए मोटरसाइकिल देंगे। इसका जवाब नीतीश ने अपनी रैली में दिया, लालू स्कूली लड़कों को अपराधी बनाना चाहते हैं। १८ साल से कम उम्र के किशोरों, बच्चों को आखिर ड्राइविंग लाइसेंस कैसे मिलेगा? तो लालू चुप हो गए, मोटरसाइकिल वितरण के वादे पर गाल बजाना बंद कर दिया। अब उनके लिए वैसे भी गाल बजाने के मौके कम हो गए हैं। अब तो नेता प्रतिपक्ष पद पर भी उनका वाजिब हक नहीं रहा। उनकी बोलती बंद है, उन्हें स्वभाव बदलना पड़ सकता है, क्योंकि बिहारियों ने संकेत दे दिया है कि वे बदल रहे हैं। वाकई बिहार बदल रहा है। स्वागत है।

अब काम का समय

जब चुनाव के समय १० दिन बिहार में था तब लग तो रहा था कि नितीश कुमार को लोग फिर मुख्यमंत्री पद पर देखना चाहते हैं , लेकिन इतनी बड़ी जीत का सपने में भी अनुमान नहीं था. क्योंकि मेरे जिले मतलब सारण में विकास नहीं के बराबर हुआ है इसकी सबसे बड़ी गवाही एकमा और मांझी के बीच की सड़क देती है इस सड़क पर चलना मुश्किल है . एकमा में तो इतना कम काम हुआ है कि इलाके के विधायक रहे गौतम सिंह को चुनाव लड़ने के लिए मांझी आना पड़ा , गौतम सिंह बिहार सरकार में मंत्री रहने के बावजूद एकमा की सूरत नहीं बदल पाए अब वे मांझी से भरी अंतर से जीते हैं तो इसके लिये लोग नीतीश कुमार को ही श्रेय दे रहे हैं .
मांझी में पूर्व मंत्री रविन्द्र नाथ मिश्र खटिया चुनाव चिन्ह के साथ मैदान में थे . उन्होंने भी अपने समय में कोई काम नहीं किया था . वे तीसरे स्थान पर रहे. वहां लोगों ने चुनाव नतीजों के बाद एक जुमला चला दिया : लालटेन के पेंदी फूट गइल, बंगला जर गइल , हाथ टूट गइल और खटिया खड़ा हो गइल.
नीतीश की विशालता के आगे लालू बहुत बौने साबित हुए हैं. अब गौतम सिंह जैसे विधायकों और मंत्रियो को भी अपने काम से अपनी विशालता साबित करनी चाहिए . इतनी ताकत जनता बार बार नहीं देती है, ताकत का उचित इस्तेमाल होना चाहिए वरना पांच साल बीतेते ज्यादा समय नहीं लगेगा. नीतीश की टीम के निकम्मे सदस्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि काम न करने की वजह से ही लालू की ऐसी दुर्गति हुई हैं,

Friday, 29 October 2010

अभी बहुत बाकी है



लालू और नीतीश कुमार मे यह फर्क है कि लालू ने बिहार मे पिछड़ी जातियों का मान बढाया था और उन्होंने बिहार के मान की कोई फिक्र नहीं की . लेकिन नीतीश कुमार ने पूरे बिहार का मान बढाया है. बिहार के बाहर बिहारियों की शर्म कुछ कम हुई है. लोग पहले बिहार की चर्चा चलती थी तो लालू, चारा और राबड़ी की बात करते थे. लेकिन अब जो परिवर्तन आया है उसे चतुर लालू भी महसूस करते होंगे. बिहार मे देर रात के समय भी कहीं जाना संभव हुआ है. पिछली बार जब बिहार गया था, तब एकमा स्टेशन पर रात दस बजे के बाद ट्रेन पहुंची थी, स्टेशन पर ट्रेन आने पर जरनेटर थोड़ी देर के लिए जला था और ट्रेन जाने के बाद जनरेटर बंद कर दिया गया. अमावास जैसी रात थी हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, लगा कि क्या ऐसे ही रात बितानी पड़ेगी. लेकिन इतनी रात को भी जीप करके गाव पहुँच गए थे. मन मे एक बात खटक रही थी कि नीतीश कुमार अभी उर्जा के लिए कुछ नहीं कर पायें हैं. वैसे भी उर्जा के काम में काफी समय लगता है.
आज बिहार बिजली को तरस रहा है, बिजली अगर आ जाये तो आधा विकास तो वैसे ही हो जाएगा. बिजली से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होता है. बिहार में जो भी नई सरकार बने सबसे ज्यादा ध्यान बिजली या उर्जा उत्पादन पर लगाना होगा. बिजली का आकर्षण कम से कम 20 प्रतिशत बिहारियों को अपने जन्म राज्य में खीच लाएगा.
वैसे तो नीतीश के जीतने की गुंजाइश बहुत ज्यादा है. अगर उनका गठबंधन नहीं जीता, तो लालू या कांग्रेस में भी अकेले दम पर सत्ता में आने की ताकत नहीं होगी. तो वे गठबंधन करेंगे. सत्ता में आयेंगे, उनके सत्ता में आने से उन तत्वों का मनोबल बढेगा जिनका नुक्सान नीतीश कुमार ने किया है. अपराधियों की एक बड़ी आबादी जेल में बैठ कर लालू के सत्ता में आने का इन्तेजार कर रही है. अपराधी जब बाहर आयेंगे तो राहुल गाँधी और तेजस्वी यादव का जोर नहीं चलेगा.
मैं अगर अपने अनुमान पर कुछ संभानाओं की बात करूं तो
पहली : राजग जीतेगा और नीतीश फिर कमान संभालेंगे .
दूसरी : नीतीश की पार्टी अकेले दम पर भी जीत सकती है. बीजेपी की ताकत घट जायेगी.
तीसरी : लालू, कांग्रेस और पासवान सांप्रदायिक ताकतों के विरोध के नाम पर मिलकर सरकार बनायेंगे.
चौथी : लालू और पासवान का गठबंधन सत्ता में आएगा. हालांकि इसकी सम्भावना कम है.
पाचवी : बीजेपी अगर बुरी तरह पिट जाए तो कांग्रेस नीतीश को समर्थन दे सकती है, लेकिन ऐसा तभी होगा जब कांग्रेस 40 से ज्यादा शीट जीते और बीजेपी 20 से कम. और जब जनता दल यू बहुमत से 35 -40 सीट कम रह जाए.

लेकिन फिलहाल बिहार के लिए सर्वोत्तम विकल्प यही होगा कि नीतीश फिर मुख्यमंत्री बनें और लालू फिर हार कर आलोचना में जुटे रहे.
नीतीश को लालू पहले सुशासन बाबू कहते थे, लेकिन अब नहीं बोलते हैं , नीतीश को फिर एक बार सुशासन पर ध्यान देता चाहिए ताकि लालू ही नहीं पूरा भारत उन्हें सुशासन बाबू बोल सके. बिहार को सुशासन की बड़ी जरूरत है. नीतीश सही बोल रहें हैं कि बहुत हुआ, लेकिन अभी बहुत बाकी है.

Sunday, 17 October 2010

जय सियाराम

दशहरा के दिन अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो जय लंकेश जय रावन कहकर अभिवादन करते हैं. बड़ा दुःख होता है, जब ऐसे लोग मिलते हैं. उन्हें पता नहीं कि वे कितना गंभीर अपराध करते हैं, ऐसे लोगों से थोडा विचार-विमर्श करने पर ज्ञात होता हैं कि ये लोग ऐसा बहुत सोच समझकर नहीं कहते, धारा के खिलाफ चलना कुछ लोगों का स्वाभाव बन गया है, भीड़ से अलग दिखने की चेष्टा भी इसके पीछे होती है. अपने को दूसरों से अलग, मौलिक और चतुर दिखने की चेष्टा भी होती है, लेकिन दरअसल ऐसे लोग नहीं जानते की रावन की जगह कहाँ है.
रामानंदियों में तो हर ब्यक्ति को राम या सीताराम माना जाता है, लोग एक दूसरे को सीताराम कहकर संबोधित करते हैं. एक दूसरे को रावन कहकर या रावन-मंदोदरी या रावन-मेघनाद कहकर कोई संबोधित नहीं करता और ऐसा संभव भी नहीं है. एक दूसरे को रावन-रावन कहकर सम्मान प्रदर्शित किया जाये तो वास्तव में असम्मान ही होगा, परस्पर संघर्ष और युद्ध तक की नौबत आ जाएगी. रक्तपात हो जायेगा.
मेरा मानना है कि जय लंकेश वही बोल सकता है, जिसे अपनी 'सीता' की कोई चिंता नहीं है। यह तुछ अभिवादन वही कर सकता है जिसकी 'सीता' का बलात हरण नहीं हुआ हो या जिसकी 'सीता' के हरे जाने की कोई आशंका न हो। 'सीता' किसी की बेटी भी हो सकती है। किसी की बहन तो किसी की पत्नी भी। राम द्वापर युग में हुए थे, लेकिन आज भी कलयुग में यदि ज्यादातर सीतायें सलामत हैं तो केवल राम या राम सन्देश के कारण. सीता को जीवन भर निरंतर प्राप्त होती रही पीड़ा का हमें अनुभव करना चाहिए, यह अनुभव और यह अनुभूति ही हमें रावन या रावन का समर्थक होने से बचा सकती है. जय लंकेश कहने से पहले अपनी-अपनी सीताओ से पूछ लेना चाहिए कि क्या वे किसी रावन द्वारा बलात हरण के लिए तैयार हैं.

Tuesday, 28 September 2010

आज का समय और समय का धर्म

(सूरत में १९ सितम्बर को अच्छी बारिश से लबालब ताप्ती तट पर संत सान्निध्य में दिया गया भाषण)
समय की जब चर्चा छिड़ती है, तो मुझे बचपन याद आता है। एक पुरानी पहेली याद आती है, तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर, पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर। जरा सोचिए, इस पहेली में अगर ‘तीतर’ के स्थान पर ‘समय’ को रख दिया जाए, तो क्या होगा? तो पहेली कुछ यों बनेगी :- समय के दो आगे समय, समय के दो पीछे समय, आगे समय पीछे समय, बोलो कितने समय? मेरे जैसे पत्रकार साधारण जन यही उत्तर देंगे कि तीन समय। अर्थात अतीत-जो बीत गया। वर्तमान, जो बीत रहा है, और भविष्य जो बीतेगा, किन्तु विद्वान आगे और पीछे वाले समय के चक्कर में नहीं पड़ेंगे, वे मात्र इतना कहेंगे कि मात्र एक समय। न आगे समय न पीछे समय न बीच में समय, मात्र एक समय। ‘तीतर’ के स्थान पर ‘समय’ को रखते ही पहेली का उत्तर बदल जाएगा। उत्तर ‘तीन’ से ‘एक’ हो जाएगा।
परन्तु समय को एक माना जाए, तो कठिनाई है। लिखाई-पढ़ाई, पत्रकारिता समय को एक मानकर नहीं चल सकती, गृहस्थ जीवन समय को एक मानकर नहीं चल सकता, विश्व की बड़ी व छोटी तमाम तरह की अर्थव्यवस्थाएं समय को एक मानकर नहीं चल सकतीं। समय को एक मान लिया जाए, तो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का तो पूरा महानगर ही ढह जाएगा। हमारे सेठ-साहूकार समय को एक नहीं मान सकते। एक मान लिया, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। सारा ‘अकाउंट’ चौपट हो जाएगा। भौतिकता की कसौटी पर समय का यदि महत्व दर्ज किया जाए, तो समय बड़ा महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। लगेगा कि समय से ज्यादा तो कुछ और महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकता। लगेगा कि समय बड़ा बलवान है। ऐसे बलवान समय को ज्ञान और विज्ञान ने पकडऩे के बड़े प्रयास किए हैं, लेकिन समय की कोई एक पकड़ या समय की कोई एक कसौटी बनाना कठिन ही नहीं, असंभव है।
आज दुनिया में चौबीस तरह की प्रमुख व मान्य घडिय़ा हैं, इसे ‘टाइम जोन’ भी कहते हैं, अर्थात चौबीस तरह के समय आंकने के पैमाने हैं। एक ही समय में किसी घड़ी में पांच बज रहा है, तो किसी में छह, तो किसी में सात। समय एक ही है, लेकिन घडिय़ां अलग-अलग बताती हैं। अब कोई सोचे कि पांच बज रहा है, यह सच है या जो छह बज रहा है, वह सही है या जो सात बज रहा है, वह सटीक है। वास्तव में सच यह है कि समय का सच संभवत: समय भी नहीं जानता। पांच बज रहा है, यह यहां का सच है और आठ बज रहा है, वह कहीं और का सच होगा। हमारे भारत में तो हर जगह घड़ी एक-सी रहती है, लेकिन अमरीका में देखिए, लॉस एंजेलिस में १० बज रहा होता है, तो शिकागो में १२ और वॉशिगटन में १३ । जब सूरत में शाम के चार बजेंगे, तब शिकागो में घड़ी सुबह के साढ़े पांच बजा रही होगी। साढ़े ग्यारह घंटे का फर्क है। गजब हो गया, अब बताइए कौन-सा समय सही है? अत: समय को यथावत स्वीकार करने में ही भलाई है, परन्तु वह एक नहीं है, यह बात पूर्ण सत्य है। समय को पकडऩे के प्रयास जारी हैं। समय ऐसा है कि घड़ी गड़बड़ा जाती है, घड़ी को कभी एकाध पल के लिए रोकना पड़ता है, तो कभी एकाध पल आगे करना पड़ता है। फिर भी समय की ताल से ताल मिलाना दुष्कर है।
मुझे यह लगता है, समय को पकडऩे की चेष्टा वास्तव में ईश्वर को पाने की चेष्टा के समान है। संभवत: इसीलिए ईश्वर को प्राप्त कर लेने वालों के बारे में कहा जाता है कि वे समय बंधन से मुक्त हो गए। भौतिक दृष्टि से आप घड़ी देखकर यह टिप्पणी कर सकते हैं कि बुरा समय चल रहा है या अच्छा समय चल रहा है, इसे गलत भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से आज के समय को थामना कठिन है। भविष्यवाणी करने वाले अतीत और भविष्य बता देते हैं, कई बार भविष्यवाणी सिद्ध भी हो जाती है, लेकिन सौ प्रतिशत सही भविष्यवाणी असंभव है। आज का जो समय है, उसमें यदि कोई सौ प्रतिशत सही भविष्यवाणी करने लगे, तो लोग उसे ईश्वर घोषित करने में देर नहीं लगाएंगे। ग्रंथ पढि़ए, देवताओं के राजा इंद्र भी कई बार हैरान-परेशान दिखते हैं कि असुर जाति कहर ढा रही है, अब क्या होगा? प्रश्न उठाया जा सकता है कि अगर ब्रह्मा जी सबकुछ जानते थे, यदि विष्णु जी व महेश जी सबकुछ जानते थे, तो फिर उनके राजा इंद्र को हैरान-परेशान होने की क्या आवश्यकता थी। मेरी समस्या यह बात जानकर बहुत बढ़ जाती है कि देवताओं के राजा भी समय को पकडऩे में विफल थे। देवताओं के बीच सबसे ज्यादा गलतियां शायद उन्होंने ही की होंगी और सबसे ज्यादा निंदा भी शायद उन्हीं की हुई। आज भी होती है, इंद्र के मंदिर खोजे से नहीं मिलते। उन्हें सुख-दुख में कोई भूलकर भी याद नहीं करता। हां, बारिश न हो, तो इंद्र देवता को सभी याद करते हैं, भारत सरकार भी याद करती है। इंद्र की स्थिति संकेत करती है, समय नियंत्रण में भले न रहे, आचरण अवश्य नियंत्रण में रहना चाहिए। आचरण अगर अनुकूल न रहा, तो आप मनुष्यों में राजा की तो बात छोडि़ए, यदि आप देवताओं के भी राजा होंगे, तो आपको सम्मान प्राप्त नहीं होगा, आप हैरान-परेशान रहेंगे। आप पूज्य नहीं होंगे।
जब मुझे ज्ञात हुआ कि मुझे समय पर बोलना है, तो मैंने यह जानने की कोशिश की भगवान राम ने समय के बारे में क्या कुछ कहा है। काल के स्वरूप की क्या विवेचना उन्होंने की है। योगवाशिष्ठ के सर्ग २३-२५ में राम जी कह रहे हैं, ‘जैसे बडवाग्नि उमड़े हुए समुद्र को सोखती है, उसी प्रकार यह सर्वभक्षी काल भी उत्पन्न हुए जगत को अपना ग्रास बना लेता है। भयंकर कालरूपी महेश्वर इस सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच को निगल जाने के लिए सदा उद्यत रहते हैं, क्योंकि सारी वस्तुएं उनके लिए सामान्यरूप से ग्रास बना लेने के योग्य हैं। युग, वर्ष और कल्प के रूप में काल ही प्रकट है। इसका वास्तविक रूप कोई देख नहीं सकता। वह सब संसार को अपने वश में करके बैठा है।’ काल लीला से चकित राम जी आगे कहते हैं, ‘संसार में अब तक ऐसी कोई वस्तु नहीं हुई, जिसे काल उदरस्थ न कर ले। इस काल का विचार सदा सबको निगल जाने का ही रहता है। यह एक को निलगता हुआ भी दूसरे को चबा जाता है। अब तक असंख्य लोग इसकी उदर-दरी में प्रवेश कर चुके हैं, तो भी यह महाखाऊ काल तृप्त नहीं होता।’ राम जी यह भी कहते हैं, ‘काल न कहीं आता है, न जाता है, न अस्त होता है और न इसका उदय होता है।’ हमारे देश में दर्शन शास्त्र के एक प्रकाण्ड विद्वान हुए हैं : अन्नम भट्ट। (मंच पर विराजमान पूज्य श्री रामनरेशाचार्य जी भी इस दौर में दर्शन के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हैं।) अन्नम भट्ट ने कहा था, कालो नित्य: अर्थात काल नित्य है, उसका क्षरण नहीं होता। (कालो नित्य: का प्रसंग मैंने सूरत में ही प्रिय-सखा शास्त्री कोसलेन्द्रदास के सुझाव पर अपने भाषण में समाहित किया। उनको धन्यवाद।)
बहरहाल, राम जी समय को बहुत अच्छी तरह से समझ रहे थे। उनके जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आए, लेकिन उन्होंने सदा आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने जीवन में सिद्ध किया कि आदर्श बनने के लिए समय को समझना जरूरी है, उससे आतंकित होने से काम नहीं चलेगा। मेरा मानना है, भारत के लोग समय से सबसे कम डरते हैं, क्योंकि उनके पास आध्यात्मिक पूंजी है।
एक पश्चिमी विद्वान टिल्ली ओलसेन की टिप्पणी सुनिए - the clock talked loud. I threw it away, it scared me what it talked. घड़ी बहुत जोर से बोली, मैंने उसे फेंक दिया, उसकी बातों ने मुझे डरा दिया। दूसरे एक पश्चिमी विद्वान डिओन बाउसिकाउल्ट का कथन कुछ ज्यादा सही है, देखिए -Men talk of killing time, while time quietly किल them . लोग समय को मारने की बात करते हैं, जबकि समय चुपचाप उन्हें मार देता है। एक बात बहुत सिद्ध है कि संसार में सभी समय को लेकर बहुत चिंतित हैं। यह चिंता कैसे दूर होगी? इस चिंता को दूर करने के क्या उपाय हैं? समय का धर्म क्या है? बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। मुझे लगता है, समय को यों ही नहीं छोडऩा चाहिए, उसे समझना चाहिए। समय का मानकीकरण करना चाहिए। मेरा मानना है, समय का सर्वश्रेष्ठ मानकीकरण धर्म है और धर्म का सर्वश्रेष्ठ मानकीकरण भक्ति है और भक्ति का सर्वश्रेष्ठ मनोनुकूल सहजीकरण राम भक्ति है। समय था, समय है, समय सदा रहेगा, किन्तु वह यों ही अच्छा नहीं बीतेगा, उसके लिए धर्म आवश्यक है। हमारे महान पूज्य पूर्वजों ने धर्म के रूप में समय का सबसे अनुकूल व सभ्य पड़ोसी तैयार किया। हमारे पूर्वज तो जीवनशैली खोज रहे थे, वे कोई धर्म नहीं बना रहे थे। उन्होंने जो धर्म दिया, धर्म के ज्ञान की जो वैज्ञानिकता निर्मित की, वास्तव में उसी के फलस्वरूप हमारे यहां एक से एक महात्माओं का पदार्पण हुआ। किसी भी चरण या युग में हमारे पूर्वज भयभीत नहीं थे, क्योंकि वे समझदार थे। मात्र राम-राम जपकर भी असंख्य लोग अत्यंत निडर हो गए। प्रलय की कल्पना को लेकर हमारे पूर्वजों ने कभी क्रंदन नहीं किया। उन्हें तो यह भी चिंता नहीं थी कि हम अपना धर्म नहीं फैलाएंगे, तो मिट जाएंगे। वे इहलोक की उतनी ही बात करते थे, जितनी परलोक की। वे यह नहीं कहते थे कि इहलोक में हत्या करो कि परलोक में स्वर्गानुभूति हो। वे तो कहते थे, इहलोक सुधारो, परलोक स्वत: सुधर जाएगा। कर्म करो, भविष्य की चिंता छोड़ो। कर्म नेक होंगे, तो भविष्य नि:संदेह आनंददायक होगा। तो आज समय का धर्म यही है कि समय को हम ठीक से समझें, समय का हम ठीक से निर्वाह करें। समय से अनावश्यक बैर न करें, शांति बनाए रखें। काश, यह बात पूरा संसार समझ पाता। ग्लोबल वार्मिंग क्या है, समय को समझने की विफलता का नकारात्मक पारितोषिक है। दुख क्या है, समय के अनादर का परिणाम है। सुख क्या है, समय के आदर की परिणति है। हमें आज समय का तांडव नहीं देखना, हमें धर्म के माध्यम से समय का सुगम संगीत सुनना है। हमें समय का ध्रुवपद सुनना है। जो समय के धु्रवपद को सबसे डूबकर सुनेगा, वह संसार में सुख व शक्ति के साथ टिक पाएगा। हम भारतीयों का समय एक है, इसीलिए हम टिके हुए हैं। यहां अध्यात्म टिका हुआ है। हमारे राम जी घर-घर में टिके हुए हैं। पश्चिम हम भारतीयों के समय के साथ सरोकार व सम्बन्ध को समझ नहीं सकता। उदाहरण के लिए, हाल ही में इस सदी के सबसे बड़े भौतिकशास्त्री कहलाने वाले स्टीफन हॉकिंग ने कह दिया, ‘सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की।’ पश्चिम में विद्वानों को ईश्वर की बड़ी चिंता रहती है। पिछली सदी में नीत्से ने तो ईश्वर की मौत की घोषणा कर दी थी और फिर खुद भी डर गए थे कि ईश्वर के बिना दुनिया का क्या होगा। एक तरह से यह मानते हुए नीत्से पीछे हट गए कि ईश्वर को झुठलाने के लिए हमें ईश्वर को समझना-जानना होगा। मेरा मानना है, ईश्वर को समझने के लिए हमें समय को समझना होगा। समय से प्रेम करना होगा। समय से प्रेम करेंगे, तो न अतीत का भय रहेगा न भविष्य का। तभी हम स्वयं को कुछ बना पाएंगे, हमारा महत्व बढ़ेगा, हमारी सार्थकता बढ़ेगी। मैं फिर एक अंग्रेजी विद्वान डोमिनिको एस्त्रादा का उद्धरण दूंगा : Time is like the wind it lifts the light and leaves the heavy. . अर्थात : समय हवा की तरह है, हल्के को उठा लेता है, लेकिन भारी को छोड़ देता है। अब हमें सोचना चाहिए कि हमें अपने धर्म-कर्म से हल्का बनना है या भारी।

Saturday, 4 September 2010

वाह! स्वामी जी


बिहार सरकार मुश्किल में है और स्वामी अग्निवेश उसकी मुश्किल बढ़ा रहे हैं। नक्सलियों या माओवादियों से उनका मोह निंदनीय स्तर पर पहुंच गया है। नक्सलियों का भाव बढ़ाने वाली ममता बनर्जी खामोश हैं, ममता की पीठ थपथपाने वाले प्रणव मुखर्जी भी मुंह नहीं खोल रहे हैं, लेकिन स्वामी जी नक्सलियों के स्वयंघोषित प्रवक्ता पद पर कायम हैं। जिस पुलिस के जवान की नक्सलियों ने हत्या की है, उसके परिवार में तीन-तीन लड़कियां हैं, उसके घर क्या मातम होगा, दहाड़ मारकर औरतें रो रही होंगी, लेकिन ऐसे पीडि़तों को मुंह चिढ़ाते हुए स्वामी जी मात्र इतना बोल रहे हैं, जो हुआ दुर्भाग्यपूर्ण है। और हत्या के लिए बिहार सरकार जिम्मेदार है, उनका कहना है, नक्सलियों के सामने और कोई रास्ता नहीं था। वाह रे स्वामी जी, आप तो भगवा पहनकर खूनियों के प्रवक्ता हो गए। आपको तो मारे गए पुलिस के निर्दोष जवान के घर होना चाहिए था, पुलिस के जवान की रोती बेटियों का आंसू पोछते, तो कहने में अच्छा लगता कि स्वामी जी अच्छा काम कर रहे हैं। लाज आती है, भगवा रंग का यह एक और नया दुरुपयोग है। भगवा और माओ का मिलन हो गया है, देखते जाइए, आगे राह में क्या-क्या मंजर मिलेंगे।
ऐसे ही मौके जब आते हैं, तो यह तर्क मजबूत होता है कि बंदूक उठाने वालों को जेल में नहीं रखना चाहिए, मौके पर ही खत्म कर देना चाहिए। जनता के धन से जेलों में रोटियां तोडऩे वाले नक्सलियों की सुरक्षा में भी पुलिस ही रहती है और नक्सलियों ने लखीसराय में चार पुलिस वालों का अपहरण करने के बाद एक की हत्या करके सिवाय हैवानियत के और किस चीज का प्रदर्शन किया है, यह स्वामी जी जैसे लोग ही बता पाएंगे। कानून सम्मत हत्या को सभ्य दुनिया में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन जो हत्याएं कानून को हाथ में लेते हुए बिल्कुल सोच-समझकर की जाती हैं, उन्हें किस आधार पर सही ठहराया जा सकता है? स्वामी जी ने एक और तर्क दिया है कि जेलों में बंद नक्सली कमांडरों का अपराध उतना बड़ा नहीं है। मतलब यह हुआ कि छोटे अपराध वालों को जेल में नहीं रखना चाहिए। चोर-उचक्के-डकैत-साजिशबाज-भ्रष्टाचारी-छुरीबाज और ऐसे अन्य अपराधियों को जेल में नहीं रखना चाहिए, जो खूंखार नहीं है। केवल खूंखार अपराधी जेल में रहेंगे, बाकी सारे अपराधी खुले में विचरण करेंगे। अच्छा होगा, हमारी जेलें बहुत हद तक खाली हो जाएंगी, लेकिन उसके बाद स्वयं स्वामी जी कितने सुरक्षित रहेंगे, इस बारे में स्वामी जी ही बेहतर सोचकर बता सकेंगे।

Monday, 19 July 2010

मैं क्यों भेद करूं?


जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी
पूज्य श्री कह रहे थे, मैं क्यों भेद करूं, जब ईश्वर भेद नहीं करता। सूर्य सबको समान किरण देता है, ब्राह्मण को भी उतना ही जितना शूद्र को, जितना गरीब को, उतना ही अमीर को। हवा भी सबको समान मिलती है, लेकिन भेद तो हम करते हैं। और अधिकतर जो समस्याएं हैं, वो वितरण की अपारदर्शिता के कारण हैं। अगर ईमानदार वितरण हो, तो किसी के साथ भी अन्याय नहीं होगा। पूज्य श्री जाति आधारित जनगणना की चर्चा से चिंतित हैं। उन्हें लगता है, जात-पात पूछने का युग फिर आ जाएगा। जगदगुरु रामानन्दाचार्य जात-पात पर कतई जोर नहीं देते थे। जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे से हरि का होई। पूज्य श्री ने बताया कि वे एक ऐसे अभियान से जुड़े हैं, जिसका कार्य जाति आधारित जनगणना का विरोध करना है। यह जानकर मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने मन ही मन यह सोचना प्रारम्भ किया कि पूज्य श्री के चिंतन को कैसे दूर तक पहुंचाया जाए। कई बातें हुईं, वे कह रहे थे, सरस्वती पुत्रों के बीच प्रेम होना चाहिए। सरस्वती पुत्रों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए। जरा यह सोचकर देखिए कि पढ़े-लिखे लोग अगर एकजुट हो जाएं, तो राष्ट्र के विकास की गति कितनी तेज हो सकती है। वामपंथ पर बात हुई। मैंने कहा, रामराज्य में ऐसे तत्व हैं, जो उसे वामपंथ से भी आगे रखते हैं। पूज्य श्री ने इसे स्वीकार करते हुए चंडीगढ़ के एक नास्तिक वामपंथी का उदाहरण दिया। एक रामकथा के वाचन के उपरांत उस व्यक्ति ने पूज्य श्री के चरण छुए, तो बहुतों को आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्तिमंदिरों में ईश्वर के सामने हाथ नहीं जोड़ता, वह पूज्य श्री को प्रणाम कर रहा है। द्वितीय भेंट में पूज्य श्री ने हरिद्वार कुम्भ को भी याद किया। कुम्भ के प्रति प्रेम से वे लबालब थे। कई घटनाओं को उन्होंने याद किया। यह भी बताया कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हरिद्वार गए थे। उत्तराखंड के राज्य अतिथि थे। यहां मैं यह बता दूं कि पूज्य श्री और अशोक गहलोत में बहुत प्रेम है। मैंने पूज्य श्री के मुख से अशोक गहलोत के लिए केवल प्रशंसा ही सुनी है। बहरहाल, अशोक जी हरिद्वार पहुंचे और पूज्य श्री से कहा, अपना राम मंदिर दिखलाइए। यहां यह बता दें कि हरिद्वार में पूज्य श्री के रामानन्द संप्रदाय की ओर से लगभग १५० करोड़ रुपयों की लागत से भव्य राम मंदिर बन रहा है। यह मंदिर कई तरह की विशेषताओं से युक्त होगा। इसकी पूरे देश में चर्चा है। पूज्य श्री ने टालने की कोशिश की, लेकिन अंतत: अशोक जी के साथ उन्हें हरिद्वार में निर्माणाधीन विशाल राम मंदिर के दर्शन के लिए जाना पड़ा। खांटी कांग्रेसी अशोक जी ने निर्माण देखकर बड़े प्रसन्न होकर अर्थपूर्ण टिप्पणी की, 'उनका तो बनेगा नहीं, अपना बन गया।

Saturday, 10 July 2010

जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी से द्वितीय भेंट


सच कहा गया है, प्रेम की कथा अकथ होती है। हृदय प्रेम में ऐसा स्तब्ध हो जाता है कि भाव प्रवाह ठहर जाता है। वाणी पर ताले पड़ जाते हैं, पड़े भी क्यों न, उसकी चाभी तो मस्तिष्क के पास होती है और मस्तिष्क प्रेम में ऐसा डूबा हुआ होता है, मानो प्रेम में ही समाहित हो गया हो, मानो प्रेम प्रवाह में बह गया हो। कहते हैं रस में रस हो, तो रस की अनुभूति नहीं होती, रस की अनुभूति के लिए पात्र चाहिए और अगर पात्र ही रसमय या रसिक हो जाए, तो फिर रस की पृथक अनुभूति तो असंभव हो ही जाएगी।
ऐसा ही हुआ, जब रामानन्द संप्रदाय के प्रधान पूज्य श्री जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी से द्वितीय भेंट हुई। हम ऐसे मिले, मानो कभी बिछड़े न हों। जिस भाव धरा पर हम एक दूजे से ३० दिसम्बर २००९ को विलग हुए थे, ठीक उसी भाव धरा पर हम पुन: विराजमान हुए। मुझे तो ऐसा प्रतीत हुआ कि हमारा संवाद ३० दिसम्बर से निरंतर था और अभी भी है। कौन कहता है कि सदेह निकट उपस्थिति ही संवाद के लिए आवश्यक है, संवाद तो सतत है, जैसे प्रेम सतत है, जैसे भक्ति सतत है। दो प्रेमी साथ न हों, तब भी तो उनके हृदय में प्रेम सतत रहता है। संसार में हमारे राम जी कभी हुए थे सदेह, आज सदेह नहीं हैं, तो क्या उनसे हमारा संवाद टूट गया? अनुभूति की शक्ति को सप्रेम प्रज्जवलित करके देखिए, तो राम जी आज भी हमसे संवादरत अनुभूत होते हैं। कुछ अत्यधिक अनुभूत करके देखिए, तो राम जी की सदेह अनुभूति भी असंभव नहीं है। चिंतन में उतर जाइए, तो यह भी अनुभूति संभव है कि आप रामजी की गोद में बैठे हैं। यह अनुभव अभ्यास एक प्रयोग है और प्रयोग करते करते ही कोई आविष्कार होता है। कम से कम मैंने तो स्वयं का अर्थात अपने राम का आविष्कार ऐसे ही किया है। खैर, पूज्य श्री बोल रहे थे, समस्याओं और अविकास पर रोना ठीक नहीं है। यह उनकी खूबी है वे न तो निराश हैं और न दूसरों को निराश करते हैं। उनके अनुसार, विकास हुआ है और साफ दिख रहा है, उसे नकारना नहीं चाहिए। ईंधन की ही बात करें तो यह संकट दूर हुआ है। मैं जब बच्चा था, पढ़ता था रात-रात भर। लालटेन सारी रात जलती, तेल खत्म हो जाता था। कण्ट्रोल से सीमित मात्रा में तेल आता था। उसकी उपलब्धता सहज नहीं थी। दादी जी कहती थीं, तेल जलकर खर्च नहीं होता, ये तेल पी जाता है। इतना पढ़कर को कलेक्टर बनेगा क्या?... पूज्य श्री बोल रहे थे, आज स्थितियां बदल गई हैं, ऊर्जा है, सुविधा है। गरीब भी पढ़ रहे हैं। यही तो विकास है। किन्तु पूज्य श्री के बचपन की यह संक्षिप्त कथा मुझे झकझोर गई। मैं विकास के विषय पर नहीं अटका , मेरा मन कलेक्टर वाली बात पर अटका। धन्य हैं वो पूजनीया दादी जी और राम जी की इच्छा। पूज्य श्री कलेक्टर तो नहीं बने, परन्तु जो बने हैं, वह हजार कलेक्टर भी मिलकर नहीं बन सकते । हृदय यों हुआ, मानो देह-बाड़ तोड़ बाहर आ जाएगा। रात-रात भर की वह पढाई-कमाई आज यों काम आती है कि मेरे जैसे रस- कंगले लूट रहे हैं, छक रहे हैं और जो चीज छक रहे हैं, उसका कोई अंत नहीं है, कोई विकल्प नहीं है।
भारत भूमि की उर्वरा देखनी हो, तो कोई पूज्य श्री के सामने आ जाए। आधुनिक दौर में ज्यादातर फलदार व्यक्ति अकड़कर लंबे-चौड़े हो जाते हैं, झुकने को तैयार नहीं होते, लेकिन इसी दौर में पूज्य श्री जैसा एक फल-समृद्ध भी है, जो विनम्रता में झुका जा रहा है, जो उनसे ग्रहण कर सके , ग्रहण करे। साधु क्या है, जैसी प्रकृति । अच्छे साधु और प्रकृति के बीच भेद मिट जाता है। साधु के पास जो भी होता है, प्राकृतिक होता है। कृत्रिमता उसे तनिक भर भी छू नहीं पाती है। पूज्य श्री भी सहजता के वैभव से ऐसे लबालब होते हैं आपके और उनके बीच की दूरियां पलक झपकते नप जाती हैं, खाइयां तत्काल पट जाती हैं। वे अपनी बातों से ऐसा सेतु निर्मित करते हैं, जिस पर से होते हुए उन तक पहुंचना अति सहज हो जाता है।
उनसे मिलने के बाद मुझे आश्चर्य होता है कि मैं कभी नास्तिक होकर भी सोचता था। मेरी प्रगतिशीलता के अनुभव ऐसे थे कि किसी भी साधु को स्वीकार करना कठिन प्रतीत होता था। मेरे अनुभव कोष में जिस प्रथम साधु का समावेश हुआ, उनके बारे में मैं बताना चाहूंगा। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में सरयू नदी के किनारे उनका आश्रम था, मेरा ननिहाल का गांव बभनियाव उन बाबा जी के आश्रम के समीप था। मैं करीब पांच-छह वर्ष का था, हम लोग सब बैलगाड़ी पर सवार उन्हें देखने गए थे। हम आश्रम पहुंचकर अभी बैलगाड़ी से उतर ही रहे थे कि मचान पर बैठे साधु हमें ‘जाओ-जाओ-जाओ’ कहने लगे। मैं तो उन साधु बाबा को ठीक से देख भी नहीं पाया, वहां जल्दी-जल्दी प्रसाद लेकर हम फिर बैलगाड़ी पर सवार हो गए थे। मौसियों ने बताया था, ‘इहे देवराहा बाबा हउवन।’ मतलब यही देवराहा बाबा हैं।
कुछ बड़ा हुआ, तो पता चला, देवराहा बाबा बड़े-बड़े लोगों से भेंट किया करते थे। उनका बड़ा सम्मान था, पहुंचे हुए संत थे। पिता बताते हैं, वे दो बार उनसे मिलने गए थे और दोनों ही बार उन्होंने पिता से दो बार संवाद किया था। मतलब कि वे हर किसी को नहीं भगाते थे। खासकर वे बच्चों और महिलाओं को दूर रखा करते थे। मेरे मन पर खराब प्रभाव पड़ा कि हम बड़े नहीं थे, इसलिए देवराहा बाबा ने हमें दुत्कार दिया। वे मचान पर बैठे रहते थे और हर आने वाले साधारण व्यक्ति को दूर से ही जाओ-जाओ कहने लगते थे। ये उनका अपना तरीका था। शायद इससे उनका आश्रम भीड़ से बच पाता होगा, वर्ना उनके आश्रम के आसपास तो मेला लगाने की इच्छा रखने वालों की कमी नहीं थी। लेकिन देवराहा बाबा के बचाव वाले ये तर्क मेरे मन में बाद में तैयार हुए। साधु सहज नहीं होते हैं, यह धारणा तो मन में जड़ें जमा चुकी थी। धर्म को जानने की इच्छा तो हृदय में सदैव रही, लेकिन धर्म के समीप जाने की इच्छा बचपन में ही मार दी गई।
मैं हृदय से स्वीकार करना चाहूंगा, पूज्य श्री से भेंट के बाद मैंने आध्यात्मिक बचपन का पुन: प्रारम्भ किया । घोषणा करता हूं मैं फिर जीने लगा हूं। अब केवल शब्दों ही नहीं, सांसों का भी मेरे लिए नया अर्थ है।

Monday, 5 July 2010

बदलाव आहिस्ता-आहिस्ता

कहीं मैंने इंटरनेट पर देखा है कि मेरा गांव शीतलपुर बाजार मांझी ब्लॉक का आदर्श गांव है, लेकिन जमीन हकीकत ऐसी नहीं है कि इसे आदर्श गांव कहा जा सके। फिर भी तमाम कमियों के बावजूद धीरे-धीरे बदल रहा है मेरा गांव। लगभग हर घर में मोबाइल फोन है, ज्यादातर घरों में एक से ज्यादा मोबाइल है। प्रति मोबाइल एक से ज्यादा सिम कार्ड है। मतलब गांव में जितने लोग हैं, शायद उतने ही मोबाइल कनेक्शन हैं। कुछ साल पहले एसटीडी बूथों पर लाइन लगा करती थी, बाहर बात करने के लिए एसटीडी बूथों पर घंटों बैठना पड़ता था, लाइन बड़ी मुश्किल से मिलता था। एसटीडी बूथ पर बाहर से भी फोन आते थे। एसडीटी बूथ वाले की बड़ी जिम्मेदारी हुआ करती थी कि जिसका फोन आए, उसे गांव से बुलाना पड़ता था। अब एसटीडी बूथों की रौनक खत्म हो गई है, धंधा चौपट हो गया है। चार-पांच बूथ हुआ करते थे, लेकिन अब एकाध ही बचा है, बस नाम के लिए। घर-घर में मोबाइल हो गया। बिजली नहीं है, कनेक्शन है, बामुश्किल एकाध घंटे के लिए बिजली आती है। उससे मोबाइल को चार्ज करना मुश्किल है। लेकिन जनरेटर से मोबाइल चार्ज करने का धंधा चल निकला है। लोग टीवी देखने के लिए भी जनरेटर से ही बैटरी चार्ज करते हैं। टीवी का क्रेज अब पहले जैसा नहीं है, क्योंंकि दूरदर्शन पर ढंग के प्रोग्राम नहीं आते हैं। रामायण-महाभारत के समय बात ही कुछ और थी। केबल नेटवर्क अभी गांव में नहीं पहुंचा है। हां, कुछ लोगों ने डीटीएच लगवा रखा है।
गांव में बिजली की जरूरत सभी को महसूस होने लगी है। तो बिजली का जुगाड़ भी किया गया है। इस बार मैंने देखा, प्रति प्वाइंट ८० रुपए महीना के दर से जनरेटर से पैदा बिजली का आवंंटन हो रहा है। सिंगल फेज है, बस सीएफएल जलता है। पंखा नहीं चलाया जा सकता। सामान्य बल्ब नहीं जलाया जा सकता। हां, मोबाइल चार्ज हो सकता है। जनरेटर से बिजली पैदा करके बांटने का धंधा चमकने लगा है। गांव में दो-तीन लोगों ने यह धंधा शुरू किया है। शाम को अंधेरा होते ही बिजली आपूर्ति शुरू हो जाती है और करीब तीन घंटे तक आपूर्ति होती है। मैं जब गांव में था, तब साढ़े सात बजे बिजली आती थी और साढ़े दस बजे चली जाती थी। घर में शादी का माहौल था, तो जनरेटर वाले को बोल रखा था कि भइया आधा घंटे देर से जनरेटर बंद करना। कहां जाता है, अगर इच्छा हो, तो राह निकल आती है। बिजली के लिए राह निकल आई है। शायद कोई हिम्मत करेगा और जनरेटर से ही चौबीस घंटे बिजली की आपूर्ति भी संभव हो पाएगी, लेकिन जरूरी है कि लोग बिजली की कीमत समझें और ईमानदारी से कीमत चुकाएं। एक और तब्दीली आई है, जितने साइकिलें हैं, उससे कुछ ही कम मोटरसाइकिलें होंगी। मोटरसाइकिल होने से रात-बिरात कहीं आना-जाना आसान हो जाता है। माहौल खराब है, पूरी तरह से सुधरा नहीं है, लेकिन लोग रात के समय भी जरूरी होने पर आना-जाना करने लगे हैं। अब डर पहले जैसा नहीं है। पहले तो दस-ग्यारह बजे रात में रेलवे स्टेशन की ओर जाने के बारे में सोचना मुश्किल था। लोग रेलवे स्टेशन पर अगर शाम आठ बजे के बाद बाहर से पहुंचते थे, तो वहीं रात गुजारनी पड़ती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अगर आप रात के समय भी स्टेशन पर पहुंचें, तो आपको वहां जीप, सफारी, मार्शल इत्यादि गाडिय़ां मिल जाएंगी। आप रिजर्व करके अपने घर जा सकते हैं। रास्ते में लूट कम हुई है। देर रात कहीं आप जा रहे हों, तो हल्का डर तो लगता है, लेकिन धीरे-धीरे बात करते हुए रास्ता कट ही जाता है। पुलिस की व्यवस्था बिल्कुल नहीं सुधरी है। बिहार में बड़ी संख्या में पुलिस चौकियों की जरूरत है, ताकि कम से कम बड़े गांवों के करीब पुलिस चौकी बने, जो जरूरत पडऩे पर सुरक्षा मुहैया कराने का काम करे। तो एक ओर, जहां मूलभूत ढांचे पर ध्यान देना होगा, वहीं कानून-व्यवस्था भी पुख्ता करने की जरूरत है। बिहार के ये इलाके पिछड़े हुए जरूर हैं, लेकिन यहां लोग पिछड़े हुए नहीं हैं। ज्यादातर लोग मजबूर हैं, कुछ कर नहीं सकते। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर जीते हैं। इलाके विधायक और सांसद को ध्यान देना चाहिए। आम लोगों को अभी भी नीतीश कुमार से बड़ी उम्मीदें हैं। नीतीश के साढ़े चार साल में लोग ऊबे नहीं हैं, लोगों में विश्वास जगा है। यह बात नकारात्मक भी है और सकारात्मक भी यहां के लोग जल्दी नहीं ऊबते हैं। लालू से ऊबने में लोगों ने पंद्रह साल लगा दिए। नीतीश से ऊबने में कम से कम दस साल तो लगने ही चाहिए। पांच-छह वर्ष में तस्वीर बदलनी चाहिए, बदल भी रही है, लेकिन रफ्तार धीमी है।

Tuesday, 29 June 2010

लाइब्रेरी वाला गांव

पिताजी बताते हैं कि कभी हमारे गांव में १३ वकील हुआ करते थे। एक लाइब्रेरी हुआ करती थी, जो पूरे इलाके में मशहूर थी। १३ वकीलों में से १२ लाला जी लोग थे और एक ब्राह्मण। अब उनमें से किसी के वंशज गांव में नहीं हैं। लाला जी लोगों के वर्चस्व के समय गांव को उचित नेतृत्व मिला हुआ था। गांव में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर साफ-सफाई के लिए अभियान भी चला करते थे। सुविधाओं के लिहाज से भी हमारा गांव बहुत अच्छा था। हमारे बगल के प्रसिद्ध गांव बरेजा से भी आगे था हमारा गांव। बरेजा स्वतंत्रता सेनानी सावलिया जी और गिरिश तिवारी की वजह से जाना जाता था। तिवारी जी बिहार की पहली सरकार में शिक्षा मंत्री रहे थे। जवाहरलाल नेहरू भी बरेजा आए थे। उसे एक समय क्रांतिकारियों का गढ़ माना जाता था। लेकिन ऐसे बरेजा गांव से ज्यादा सुकून शीलतपुर में था, क्योंकि कायस्थ समुदाय ने कमान सम्भाल रखी थी। आंदोलन इत्यादि में वे भी भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे, लेकिन गांव के बारे में भी बहुत सोचते थे। होली-दीवाली पर उनके पूरे परिवार गांव में जुट जाते थे। चहल-पहल हो जाती थी। सांस्कृतिक-सामाजिक सरगर्मी बढ़ जाती थी। गांव के बारे में कायदे की बातें होती थीं। हमारे गांव में लाला जी लोगों की कृ़पा से ही पांच छह टमटम हुआ करते थे, लेकिन बरेजा में बामुश्किल एक टमटम हुआ करता था। लाला जी लोग स्वयं घोड़े खरीदने के लिए पैसे देते थे। घोड़े के चारे के लिए पैसे देते थे, ताकि सवारी में आसानी हो। शीतलपुर से एकमा रेलवे स्टेशन आना जाना लगा रहता था। कोई बनारस रहता, तो कोई कलकत्ता तो कोई पटना, बलिया। टमटम से स्टेशन पर पहुंचते, तो टमटम वाले को एक-दो रुपया दे देते थे कि जाओ जब हम लौटेंगे, तो सूचना देंगे, हमें फिर लेने आ जाना। अब वह दौर कोई मोटरगाड़ी का तो नहीं था। गांव से रेल स्टेशन एकमा जाने के लिए ये टमटम हुआ करते थे या फिर पैदल ही जाना पड़ता था, तो लाला जी लोग शान से रहते थे और शान को बरकरार रखने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। ऐसा नहीं कि टमटम केवल लाला जी लोगों के लिए होते थे, बाकी दिनों में उनका इस्तेमाल आम लोग भी करते थे, ईमानदारी से किराया देते थे, वर्ना लालाओं के पास जमींदारी तो थी। जबकि बरेजा में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला मामला था, टमटम वाला अगर किराया मांगने की हिमाकत करता, तो ताकतवर समाज के लोग उसकी दैहिक समीक्षा मतलब पिटाई में पीछे नहीं रहते थे। संभवत: १९५५ के आसपास लालाओं का गांव से मोहभंग होने लगा। इसकी एक वजह यह थी कि जो मुख्य परिवार था, उनके लड़के ठीक-ठाक नहीं निकले। बाकी लाला परिवार अच्छे थे, लेकिन उनके लड़के बाहर रहने लगे थे, नेतृत्व के अभाव में उनका भी मन खट्टा होने लगा। जगन्नाथ प्रसाद जी लाइब्रेरी सम्भाले हुए थे। उनके विशाल घर के बड़े-बड़े तीन कमरों में करीब ५० हजार किताबें आलमारियों में भरी हुई थीं। १८५० से लेकर १९५० तक जितनी भी किताबें उपलब्ध हुई थीं, जुटाई गई थीं। वास्तव में यह लाइब्रेरी जगन्नाथ प्रसाद जी के पिता जी दामोदर प्रसाद जी द्वारा जुटाई गई थी। वे अपने जमाने में स्कूल इंस्पेक्टर हुआ करते थे। उनका अपना रुतबा था। हमारे गांव के लाला जी लोग एक से एक बड़े पद पर विराजमान थे। कोई बलिया जा बसा, koi बनारस तो किसी ने कोलकाता, तो kisine पटना या छपरा में घर बना लिया। गांव आना जाना कम हो गया। गांव से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला, तो लाइब्रेरी की किताबें धीरे-धीरे बिक गईं। एक अच्छी परंपरा का अंत हो गया। जगन्नाथ जी के लड़के आज भी कला जगत में सक्रिय हैं, उनके बड़े बेटे पाण्डेय कपिल भोजपुरी साहित्य में जाना पहचाना नाम हैं, पटना में रहते हैं। मेरे बड़े पिताजी के क्लासमेट रहे हैं। उनका भी गांव आना जाना खत्म सा हो गया है। ज्यादातर लालाओं ने खेती वाली जमीन बेच दी है। कुछ ने अपने घर भी बेचे हैं, कुछ अभी भी भूले-भटके अपने घर की देखरेख करने आ जाते हैं, लेकिन गांव में टिकता कोई नहीं है। मुझे ऐसा लगता है, लाला जी लोगों के जाने के बाद से ही हमारा गांव नेतृत्वहीन हुआ है। उनमें एक दया व सेवा का भाव हुआ करता था, उन्होंने कभी लूटकर राज नहीं किया। वे अच्छे थे, इसलिए उन्हें शायद गांव छोड़कर जाना पड़ा। वे आराम से शान से रहना चाहते थे, लेकिन गांव के बदलते समाज से उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिल सका। हालांकि यह एक तरह का पलायन है, लेकिन फिर भी इस पलायन की एक वजह है। जिसके विस्तार में जाना एक विस्तृत शोध के विस्तार में जाना होगा। गांव या बिहार की परिस्थितियां वाकई शोध की मांग करती हैं। पलायन एक ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसे हंसी हो-हल्ले में उड़ाया जा सके। दोषी केवल पलायन करने वाले नहीं हैं। जो पलायन करके जा चुके हैं, आज उनके लिए कौन तड़प रहा है? चिंता तो यह है कि लाला जी जा रहे हैं, तो जाएं, हमें अपना जमीन-घर सस्ते में दे जाएं। मैं जब गांव वालों के बीच में यह बोलता हूं कि लालाओं के जाने के बाद गांव भटक गया, तो सब इधर-उधर देखने लगते हैं, शायद वे शीलतपुर के गौरवशाली अतीत को भूल चुके हैं या भुला चुके हैं या उनके पिता ने उन्हें नहीं बताया कि शीतलपुर पहले कैसा था। मैं तो अपने पिता व बड़े पिता को खोद-खोद कर पूछता हूं कि बताइए शीतलपुर कैसा था, वे बताते हैं कि बहुत अच्छा था और मैं सोचने लगता हूं कि यह फिर कैसे अच्छा होगा।

शीतलपुर या गरमपुर

किसी कवि के नाम पर पड़ा था मेरे गांव का नाम शीतलपुर। शायद उन्हीं की रचना है कि जेकर घर मइल ओकर घर गइल। मतलब घर मैला हुआ तो समझिए घर गया। नाम शीतलपुर है, लेकिन गरमपुर भी कह सकते हैं, क्योंकि किसी न किसी बुरी वजह से यहां माहौल गर्म रहता है। होली और दीवाली का मजा भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। सामूहिकता का भाव बड़ी तेजी से रिस रहा है। दिलों में प्रेम उतनी ही तेजी से घट रहा है, जितनी तेजी भूजल। बताते हैं, पानी में लोहा बढ़ गया है, आर्सेनिक की मात्रा भी बढ़ रही है। जो स्वास्थ्य के लिए बहुत नुकसानदेह है। शायद यह जगह ही संकेत देने लगी है कि अब यहां किसी मनुष्य का स्वस्थ्य रहना मुश्किल है।
पहले मेरे गांव के लोग कम बीमार पड़ते थे, लेकिन अब ज्यादा बीमार पडऩे लगे हैं। पूछता हूँ , तो हर कोई अपनी या किसी अपने की बीमारी की दास्तान सुनाता है। चेहरों की रौनक बुझने लगी है। क्या हो गया है मेरे गांव को?
कहते हैं, जो गांव पूरब से पश्चिम तक लंबा बसा होता है, उस गांव में बहुत शांति कभी नहीं रहती। किसी की हुकूमत ज्यादा दिन तक नहीं चलती है। बड़े बड़े आते हैं और चले जाते हैं। तो गांव तो उत्तर से दक्षिण दिशा में लंबवत होकर बसना चाहिए। हमारा गांव पूरब-पश्चिम वाला है, उसे चाहकर भी शायद उत्तर-दक्षिण वाला नहीं बनाया जा सकता। मेरा मानना है, यह गांव लंबा होता जा रहा है, लेकिन घर के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि गांव शुरू से ही ऐसा ही है। कभी किसी ने कोशिश नहीं की कि इसे सुधारा जाए। जिसे जहां बसना था, बस गया, घर बना लिया। लेकिन यह बात बिल्कुल सही है कि कभी गांव में किसी की ज्यादा दिन तक नहीं चली। एक से एक लाला जी हुए गांव में, लेकिन कोई जमा नहीं। एक से एक साह हुए, सोनार हुए, लेकिन लंबे समय तक कोई जमा नहीं रहा। ब्राह्मणों का वर्चस्व तो शायद ही कभी रहा हो। अब इधर आरक्षण वाली जमात मजबूत हुई है, उन्हीं का वर्चस्व है, वही तय करते हैं कि किसे सरपंच व मुखिया बनाना है।
पिछली बार एक दागी छवि वाले व्यक्ति को लोगों ने मुखिया बनवाया, हालांकि उनका मुखिया पद छिन चुका है। मुखिया जी की नेतागिरी बिल्कुल ठीक चल रही थी, पूरा सम्मान मिलने लगा था, पैसा आने लगा था, लेकिन शायद उनकी किस्मत खराब थी। एक चाट वाले से लड़ बैठे कि उनके लोग खाएंगे चाट, लेकिन पैसा नहीं देंगे। गरीब चाट वाला अड़ा, तो अपने कुछ दांतों से हाथ धो बैठा। कानून कड़ा है, सिर के किसी भाग पर प्रहार को खास गम्भीरता से लेता है, मुखिया जी को अंदर जाना पड़ा। अब जमानत पर बाहर आ गए हैं, लेकिन उनकी मुखियाई तो गई। नया मुखिया बनाया गया है, वह भी आरक्षित वर्ग से ही है। सब लोगों ने मिलकर उसे पंचायत के बाकी बचे हुए कार्यकाल के लिए मुखिया चुन लिया गया है।
नेता आज भी हैं, लेकिन पहले जैसी गुणवत्ता नहीं रही। सेवा का भाव कम हुआ है। शीतलपुर एक अच्छा गांव है, संपन्न गांव है, उसे आज काफी आगे होना चाहिए था, लेकिन आस-पास के गांवों से भी पिछडऩे लगा है, क्योंकि नेतृत्व उतना कुशल नहीं है, जितना होना चाहिए। आपस में झगड़े सुलझाए नहीं जाते, झगड़े लगाए और कराए जाते हैं। उदाहरण के लिए, मेरे घर के सामने जो सड़क सदियों से है, वह आज भी कागज पर नहीं आई है। व्यावहारिकता में सड़क है, लेकिन वहां कोई ईंट नहीं बिछाता, वहां कोई सिमेंटेड सड़क नहीं बनाता। मुखिया आते हैं, चले जाते हैं। हमारे सामने जिनका घर है, उनसे हमारा झगड़ा है, गांव के चतुर लोग जानते हैं कि सड़क बन जाएगी, तो झगड़ा खत्म हो जाएगा। चलने के लिए सड़क तो है ही, चलते रहिए, कागज पर नहीं है, तो क्या हुआ? कागज पर थोड़े चलने जाना है। एक और बात बता दूं, आसपास के सभी गांवों में सड़कें सीमेंटेड हो गई हैं, लेकिन हमारे गांव में इसकी कोई सुगबुगाहट नहीं है। तो यह है नेतृत्व?
बहरहाल, मेरी चिंता दूसरी है, गांव के प्रति गांव के लोगों में जो प्रेम होना चाहिए, वह नदारद है। गांव पर गर्व करने के बहाने लगातार कम होते जा रहे हैं। मैंने अपनी उम्र के छत्तीस वर्षों में अपने गांव के समाज को लगातार गिरते हुए, टूटते हुए और बिगड़ते हुए देखा है। शायद जैसे जैसे मेरा गांव पिछड़ता गया है, वैसे वैसे बिहार के गांव और शायद स्वयं बिहार भी पिछड़ता गया है। जैसे जैसे योग्य लोग मेरे गांव को छोड़ते गए हैं, वैसे-वैसे योग्य लोग बिहार को छोड़ते गए हैं।
क्रमश:

Friday, 25 June 2010

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।
चन्दन खाट कै खटोलना तापर दुल्हिन सूतल हो ।
उठो सखी मोर मांग सवारों दूल्हा मोसे रूठल हो
चारी जाने मिली खाट उठाइन चहुँ दिस धू धू उठल हो।
आये जमराज पलंग चढ़ी बैठे नैनं आंसू टूटल हो।
कहत कबीर सुनो भाई साधो जग से नाता टूटल हो।
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो .

कबीर की ये पंक्तियाँ देर तक और दूर तक पीछा करती हैं । झकझोर कर रख देते हैं कबीर । इतना रेडिकल कवि कोई दूसरा नहीं दीखता । आखिर कबीर इतने बड़े कवि कैसे हैं ? कभी सोचता हूँ तो यही जवाब मिलता है कि कबीर केवल लिखते नहीं थे वे अपने लिखे हुए को जीते थे इसलिए वे उस ऊंचे मुकाम पर नजर आते हैं जहाँ कोई दूसरा कवि नजर नहीं आता । इस देश मे कबीर से बड़ा कवि और गाँधी जी से बड़ा नेता नहीं हो सकता । दोनों मे एक ही साम्यता है कि दोनों कथनी और करनी के भेद को अपने जीवन मे मिटा देते हैं । दोनों की कथनी करनी में ही नहीं बल्कि रहनी में भी साम्यता है । कथनी करनी और रहनी की साम्यता ही वास्तव में किसी को महान बनाती है।

आज कबीर जयंती है दुःख होता है उन्हें याद करने वालों की संख्या क्यों कम है ?

Friday, 11 June 2010

बिहार मे पूरबी की खोज

पूरबी गीत-संगीत मुझे अच्छा लगता है। वह मुझे बेचैन करता है। कोई पूरबी गाना चले, तो रुककर मैं सुनता हूं। महुआ चैनल की कृपा से कभी-कभी पूरबी सुनने को मिल जाता है, लेकिन मेरी इच्छा है कि पूरबी गानों की एक पूरी सीडी या डीवीडी रखूं। इस बार बिहार यात्रा के दौरान पूरबी की खोज करता रहा। हर जगह निराशा ही हाथ लगी। दुकान वाले नए गाने तो जानते हैं, लेकिन पूरबी संगीत की पहचान न के बराबर लोगों को है। मेरे परिवार में ही पूरबी पहचानने वाले कम लोग हैं, हालांकि सुना सभी ने है। थोड़ा गाकर भी बताया, फिर भी पूरबी खोजने में मुश्किल आई। गुड्डू रंगीला टाइप गानों या फिर अच्छों में मनोज तिवारी ने दुकानों को भर रखा है। पता नहीं किसी ने केवल पूरबी पर काम किया है या नहीं?
लौटने के दिन ४ जून को अंतिम मौका था, थावे वाली माता के दर्शन के लिए गया था। उनके और हरषू भगत के दर्शन के बाद सीडियों की दुकानों को खंगालना शुरू किया। यहां भी वही जवाब। बहुत खोजा, पूछा तो एक जगह गायिका कल्पना के संग्रह में एक पूरबी गाना मिला, उस गाने के नाम पर ही सीडी का नाम था : देवरा तूड़ी किल्ली। जो लोग भोजपुरी थोड़ा भी समझ रहे होंगे, वे इस गाने का अर्थ समझ गए होंगे। इसके मुखड़े का हिस्सा है, आ जा घरे छोड़ के तू दिल्ली, देवरा तूड़ी किल्ली। यह गाना मैं पहले भी सुन चुका था, लेकिन गाना चूंकि पूरबी में है, इसलिए शब्दों को भूलकर उसके धुन में रमना मेरे लिए आसान है। इस सीडी के अलावा भरत शर्मा और शारदा सिन्हा के गानों की सीडी भी खरीदकर लौटा।
दुख होता है, जो समृद्ध है, वह किनारे पर पड़ा है। भिखारी ठाकुर का पूरा काम और पूरबी, विदेशिया को बहुत ऊंचाइयों पर ले जाया जा सकता है, लेकिन वांछित प्रयास नदारद हैं। जगह-जगह 'चोलिया के हूक राजा जी लगाए दीहीं और 'हम पाड़े हईं टाइप गाने गूंजते सुनाई पड़ते हैं। ऐसे ही गानों का बड़ों और बच्चों पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे ही गाने लोगों की जुबान पर चढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए, पिछले दिनों एनडीटीवी के मनीष बिहार के आरा जिला के गांवों में रिपोर्ट कर रहे थे। इन इलाकों में पानी में आर्सेनिक की मात्रा इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि ऐसे बच्चे पैदा हो रहे हैं, जिनकी आंख ही नहीं होती है। रवीश कुमार की जानदार आवाज वाली वह डाक्यूमेंट्री मुझे याद है। एक बिना आंख वाला बच्चा कैमरे के सामने नाचते हुए गा रहा था, 'चोलिया के हूक राजा जी लगाए दीहीं। यह सुनकर मैं सिहर गया था, वह सिहरन अभी लिखते हुए भी उतनी ही महसूस हो रही है।
बिहार के संगीत के बारे में मैं कहना चाहूंगा कि संगीत समृद्ध है, लेकिन शब्द भटक चुके हैं। दिलों में काफी उजास है, लेकिन बाहर जो झलक रहा है, वह केवल अंधेरा है।
मैं एक और अच्छा गाना खोज रहा था, जो सुर संग्राम कार्यक्रम में शायद नंदन-चंदन नाम के दो गायक भाइयों ने गाया था, 'काहे खिसियाइल बाड़ू जान लेबू का हो, बोलो हमारा सुगनी परान लेबू का हो। यह भी नहीं मिला। नेट पर खोजा, तब भी नहीं मिला। ३१ मई को जब भतीजे की बारात पटना जा रही थी, तो भतीजों की मांग पर यह गाना मैंने सुनाया था। भतीजों ने कहा है कि वे यह गाना खोजने में मेरी मदद करेंगे।
खैर, बारात यात्रा के दौरान आर।डी बर्मन का एक बांग्ला गाना भी खूब याद आया, उसे भी मैंने गाया।
मोने पोड़े रूबी राय, कोबिताय तोमाके
एक दिन कतोकिरी देखीछे,
आज हाय रूबी राय,
देके बोलो आमाके
तोमाके कोथाय जेनो देखीछे।

रोड जोला दुपुरे, सुर तुले नुपुरे।
बस थाके तुमी जोबे नामते ।
एक टी किशोर छेले, एका केनो डारिये
से कोथा कि कोनोदिनू भाबते।
मोने पोड़े रूबी राय...
इसी गीत के संगीत को बाद में आरडी ने हिन्दी फिल्म अनामिका में इस्तेमाल किया। तब उसके बोल हो गए थे : मेरी भीगी भीगी से पलकों पे रह गए...। बांग्ला गाना आरडी की अपनी आवाज में है। बांग्ला संस्करण में यह गाना किशोर कुमार से भी मीठी आवाज में आरडी ने गाया है। बांग्ला गाना गाते हुए आरडी की सुविख्यात खुरदुरी आवाज रसोगुला माफिक मीठी हो जाती है, शायद यह बांग्ला का जादू है, जो भोजपुरी की पड़ोसी भाषा है। बहरहाल, भोजपुरी पीछे छूट चुकी है, लेकिन बांग्ला तो बहुत आगे है।

इंतहा हो गई

हां, बदल रहा है बिहार, लेकिन समय की परवाह बहुत जरूरी है। बिहार में एक बड़ा तबका समय की कोई परवाह नहीं कर रहा है। ताकतवर लोग समय को अपने हिसाब से हांकना चाहते हैं, शायद यह भी एक कारण है, बिहार के पिछडऩे और बदनाम होने का। अमर उजाला के दिनों में मैंने देखा है, बिहारी पत्रकार भाई लोग छुट्टी पर जाते थे, तो निर्धारित तिथि पर लौटने की गारंटी नहीं होती थी। हम हूँ बिहारी हैं लेकिन जब बिहार गए हैं वापसी का टिकट लेकर गए हैं, खैर समय की बेकद्री पर इस बार चर्चा चली, तो एक बिहारी कर्मचारी महोदय ने सुनाया, एक महोदय ने छुट्टी के लिए आवेदन दिया, जिसमें कब से छुट्टी की तिथि तो अंकित थी, लेकिन कब तक की तिथि की जगह लिखा था, 'लौटने तक, अब लौटने तक की क्या तिथि है, सीमा है? बिहार की वापसी हो तो रही है, लेकिन कब तक होगी, कहना मुश्किल है, नीतीश कुमार भी बिहार के वैभव के लौटने की तिथि नहीं बतला सकते।
बिहार यात्रा में मैंने समय के प्रति लापरवाही को भारी मन से झेला। बड़े भतीजे की बारात पटना जानी थी, ४ चार पहिया वाहन तो निर्धारित समय १ बजे आ गए, लेकिन बस के इंतजार में खूब मगजमारी करनी पड़ी। १२ बजे फोन किया गया, तो पता चला बस सीवान में है, वहां से गांव आने के लिए चल चुकी है। एक घंटे बाद तकादा हुआ, तो पता चला, बस छपरा में है, गांव के लिए चल चुकी है। यहां हम बता दें कि हमारे गांव के लिए सीवान और छपरा दो छोर हैं, जिनके बीच साठ किलोमीटर से भी ज्यादा की दूरी है। जो लोग जयपुर-दिल्ली जैसे हाईवे पर चले हों, उनके लिए साठ किलोमीटर कोई मायने नहीं रखते, लेकिन जो लोग सीवान और छपरा में रहते हैं, उनके लिए साठ किलोमीटर का फासला पूरे एक दिन का फासला भी हो सकता है। सीवान और छपरा सड़क राजमार्ग है, लेकिन वन वे ही है, बामुश्किल दो गाडिय़ां एक दूसरे को लगभग चूमती हुई निकलती हैं। यह राजमार्ग हाजीपुर तक वन वे की तरह ही है। बताते हैं कि फोर लेने की योजना मंजूर हो गई है, लेकिन सवाल फिर वही समय की परवाह का है। तो बस वाला धोखा दे रहा था। बस मालिक का फोन नहीं लग रहा था और बस के बिचौलिये ने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया था। सवाल केवल समय के प्रति लापरवाही का नहीं है, सवाल बदमाशी की पराकाष्ठा का है। हमारा परिवार सीधा है, सब नौकरीपेशा, पेशेवर लोग हैं, पहली बार मुझे और मेरे एक डॉक्टर भतीजे को लगा कि परिवार में एक गुंडा टाइप का आदमी भी होना चाहिए, केवल सीधी उंगली से बिहार में घी निकालना मुश्किल है। मजबूरन चौपहिया वाहनों को पटना के लिए रवाना किया गया, यह सोचकर कि कम से कम कुछ लोग तो पटना पहुंच जाएं, ताकि जरूरत पडऩे पर बारात दरवाजे लगाई जा सके। कम से कम ७० लोग बस के इंतजार में पीछे छूट गए। मन मसोसकर मैं भी एक मार्शल से पटना की ओर रवाना हुआ, रास्ते में संभवत: गांव से १५ किलोमीटर दूर कोपा के पास वह बस दिखाई दी, जिसकी बुकिंग थी। बस के ड्राइवर-कंडक्टर सवारी ढो रहे थे, पूछा गया, 'कहां जा रहे हैं, तो कोई जवाब नहीं मिला। पूछा गया कि 'शीतलपुर जा रहे हैं, तो जवाब मिला 'हां, फिर पूछा गया, 'इतनी देर से क्यों जा रहे हैं, तो जवाब मिला, 'मालिक से बात कीजिए। अभद्र ड्राइवर सीधे मुंह बात करने को तैयार न था। देरी का कोई अफसोस नहीं था, आवाज में पूरी बेशर्मी थी। मन में फिर एक बार हिंसा जागी। बहरहाल, एक बजे जिस बस को गांव से बारात लेकर रवाना होना था, वह पांच बजे शाम रवाना हुई। बस को लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी तय करके पटना पहुंचने में कम से कम साढ़े चार घंटे लगने थे। फिर एक बार जयपुर-दिल्ली हाईवे की याद आई, जहां साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी वोल्वो पांच घंटे में पूरी कर लेती है। बारात लेकर पटना जा रही बस भी वोल्वो ही थी, लेकिन सड़क बिहार वाली थी और जाम भी बिहार वाला। उस दिन ३१ मई को खूब लग्न था। जगह-जगह जाम लगा हुआ था। एक और बात बता दें, मैं जिस चौपहिया में जा रहा था, वह सोनपुर पहुंचने तक चार बार पंक्चर हो चुका था। हमने तय कर लिया था हमे पटना ले जा रही मार्शल पांचवी बार पंक्चर हुई, तो पीछे आ रही बस में सवार हो जाएंगे। यह बहुत आम बात है, आजकल बिहार में कारोबारी दिमाग के लोग दिल्ली, बंगाल से खटारा गाडिय़ां खरीद लाते हैं और लगन के मौसम में झोंक देते हैं। गनीमत थी कि केवल हमारी गाड़ी खटारा थी। दो गाडिय़ां तो सरपट दौड़ती हुई रात नौ बजे तक पटना पहुंच गईं। लेकिन बस सहित तीन गाडिय़ां पीछे रह गईं। पटना में प्रवेश से पहले ही गांधी सेतु से पहले भयानक जाम लग गया। एक ट्रक ने तीन-चार महिलाओं व बच्चों को कुचल दिया था। ग्रामीण नाराज थे, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दुर्घटनास्थल पर बुलाने की शर्त के साथ जाम लगाए हुए थे। आगजनी और तोड़-फोड़ भी जमकर हुई थी। खैर उसी लंबे जाम में आगे दूल्हे की गाड़ी थी, बीच में हमारी गाड़ी थी और सबसे पीछे बस थी। जाम कब खुलेगा कोई नहीं जानता था, पुलिस वाले आ रहे थे जा रहे थे। एंबुलेंसें दौड़ रही थीं, फायर ब्रिगेड की गाड़ी भी गई, लेकिन दुर्घटनास्थल से आने वाला कोई भी यह नहीं बता रहा था कि जाम कब खुलेगा। करीब छह-सात किलोमीटर लंबा जमा था। जाम के दो घंटे के बाद लगभग ग्यारह बजे रात को खूब मान-मनौवल के बाद जाम खुला। जाम से निकलकर धीमे धीमे गांधी सेतु पार करते, पटना में बारात के ठिकाने पर पहुंचते-पहुंचते घड़ी बारह बजा चुकी थी। मजा किरकिरा हो चुका था। सोते हुए शहर के बीच बारात निकलनी थी बेमजा। सबकी जुबान पर एक ही बोल थे कि बस वाले ने पूरी बारात को लेट करवा दिया। बड़े भतीजे की बारात का आनंद लेने का इंतजार न जाने कितने महीनों से था, लेकिन धरे रह गए कई इरादे। बारात लगाते-लगाते डेढ़ बज गया, भोजन के पंडाल में पहुंचे, तो पुलाव और सब्जियां अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर थीं। चुपचाप खाए-पीए, क्योंकि भूख बड़ी जोर की लगी थी।
बहरहाल, लेटलतीफी ने तो पूरे बिहार को पछाड़ रखा है, हम और हमारी बारात की क्या बिसात?

Tuesday, 8 June 2010

बंद पड़ी मिल

हर बार चाहता हूं
चुपचाप निकल जाना,
लेकिन हाहाकार लिए
लौटता हूं हर बार।


बंद पड़ी मिल में
गरीबी की चुड़ैलें बेखौफ नाचती हैं।
अभाव के विजयी भूत
ही...ही...ही...करते हैं।
बंद सूता मिल के एक पोर्च में
वर्षों से खड़ी है अकेली गाड़ी,
कब के भाग गए ड्राइवर
भाग गई सवारी।
हर बार वह गाड़ी चुनौती देती है
आओ देखो तो सही,
मेरे कितने पुर्जे सही?
ओ, सयाने,
कब तक भागोगे बनाकर बहाने।

सूनी मिल के आहते में सूने मकान
अतीत में लौट जाना चाहते हैं,
लेकिन टूट रहे हैं ईंट दर ईंट
लोग ले जा रहे
नई के अभाव में पुरानी तरक्की
काट-काट कर,
एक दिन पुराना कुछ न बचेगा।
लेकिन अभी तो पोर्च है,
गाड़ी है, मिल है, झाडिय़ां हैं।
इस बार भी जैसे हर बार।

Sunday, 6 June 2010

बिहार से फिर लौटकर

मेरे बचपन का बिहार अर्थात गर्मी की छुट्टियों वाला बिहार, पके आम, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, खेत-खलिहान, बंसवारी, बगीचों, अनथक धमा-चौकड़ी वाला बिहार, गांव के साप्ताहिक बाजार वाला बिहार, गांव के सुन्दर मंदिर वाला बिहार। अब पीछे छूटता जा रहा है। मैं उसे पकड़ नहीं पा रहा हूं और उसकी मुझे पकडऩे में कोई रुचि नहीं है। वह शायद चाहता है कि मेरे जैसी थोड़ी समझ वाले लोग बाहर रहें, ताकि उसका कारोबार निर्विघ्न चलता रहे। बदलते बिहार में चिन्ताएं दूसरी दिशा में मुडऩे लगी हैं। बढ़ती उम्र के साथ आंखें कुछ और देखने-खोजने लगी हैं। मेरे लिए अब एक सांस्कृतिक, सामाजिक, मानसिक आघात की तरह होने लगी हैं बिहार यात्राएं। अब मजा कम आता है और तकलीफ ज्यादा होती है। अंधेरा पहले लगता था कि केवल बाहर है, लेकिन सबसे ज्यादा अंधेरा तो लोगों के दिलों में बस गया है। विकास की गाड़ी ठहर गई है, कहीं कोई नरेगा नहीं है, है तो बस लूट है। नीतीश कुमार जहां जाते हैं, वहां सड़कों को कामचलाऊं बना दिया जाता है, जैसे हमारे गांव शीतलपुर बाजार से गुजरने वाली मुख्य सड़क (एकमा-मांझी) को बना दिया गया। सड़क पर बने गड्ढों को मिट्टी और गिट्टी से भर दिया गया है। जब बारिश शुरू होगी, तो नीतीश कुमार बिहार के इस पिछड़े इलाके में झांकने भी नहीं आ पाएंगे। यहां के स्थानीय नेता हमेशा की तरह दूसरों के चेहरे पर अपनी बड़ी गाडिय़ों के बड़े पहियों से कीचड़ उछालते हुए लापरवाह गुजर जाएंगे। विकास का रायता बुरी तरह फैल जाएगा। सड़कों पर बड़े आराम से गड्ढे खोद जाएगी बारिश। अपने गांव में बिजली का मुझे बचपन से इंतजार है। वह आती है, सरकारी बाबुओं की तरह हाजिरी बनाती है और चली जाती है। परंपराओं का पतन हो रहा है। अच्छी बातें बीत रही हैं। खराब बातें जम रही हैं। जर्रा-जर्रा बेईमान होने का बेताब नजर आता है। ज्यादातर लोगों की आंखों में ईष्र्या में सनी बदमाशी नजर आती है। लाज के मोटे-मोटे परदों को लोग बेलेहाज फाड़ रहे हैं। क्रोध से जी मचल जाता है, नायकत्व जागने लगता है कि कुछ किया जाए। आखिर क्यों?
जो अच्छा है,
सिमटकर थोड़ा बचा है।
जो बुरा है,
चादर फाड़कर पसरा है।

रिस रही अच्छाई,
सिलन से बेहाल दीवारों पर
बचे हैं बस नारे
जिन्हें कोई लिख जाता है
बार-बार बचाकर नजरें।
लिखने-लिखवाने वालों से
मैं समझना चाहता हूं
नारों का सच।

यहां का सच
बाहर नारों से ढंक जाता है
अंदर सिलन से उधड़ जाता है
लेकिन पहलू दो ही नहीं
अनेक हैं।
दीवार में सीमेंट कम
ज्यादा मिट्टी है,
ईंटें कम
बेडौल पत्थर अधिक हैं।
शायद दीवार बनाई नहीं
केवल दिखाई गई है।

या शायद केवल आभास है
कि खड़ी है दीवार।

तभी तो
जो अच्छा है,
सिमटकर थोड़ा बचा है।
जो बुरा है,
चादर फाड़कर पसरा है।

Monday, 10 May 2010

विदा आचार्य


अतुलनीय संत आचार्य महाप्रज्ञ का निर्वाण केवल श्वेताम्बर तेरापंथ ही नहीं, वरन पूरे राष्ट्र व विश्व के लिए एक अपूरणीय क्षति है। आज संसार आध्यात्मिकता के एक ऐसे 'लाइट हाउस से वंचित हो गया है, जिसने संसार रूपी अथाह समुद्र में अपने पवित्रतम उजास से लगभग दो-तीन पीढिय़ों को भटकने से बचाया। वे धर्म सिद्धांतों के अद्भुत शिखर पुरुष थे। उनके सिद्धांत किसी भी दृष्टि से कोरे नहीं थे, उनके सिद्धांत व्यावहारिकता के ताप में पके-पगे हुए थे। संसार में जहां उन्हें असीमित एश्वर्य से बढ़ते असंतुलन की चिंता थी, वहीं उन्हें भूख की समस्या भी समाज सेवा हेतु प्रेरित करती थी। आज ऐसे अनेक साधु-मुनि हैं, जिनके पास प्रश्नों के ढेर हैं, किन्तु आचार्य तो उत्तरों के अपरिमित भण्डार थे। उनके बेजोड़ उत्तर ही उन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में धर्म-सूर्य समान प्रतिष्ठा प्रदान करते थे। उनके कर कमलों से २०० से ज्यादा पुस्तकें रची गईं, जिनमें जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े प्रश्नों के उत्तर देखे जा सकते हैं। १९२० में जन्मे महाप्रज्ञ का जीवन स्वयं किसी गुरुकुल से कम न था। दस वर्ष की बाली उमर लुकाछिपी खेलने की होती है, लेकिन उम्र का यही पड़ाव था, जब नन्हे नथमल ने संन्यास के दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश किया। साधुता की गोद और आचार्य तुलसी की छत्रछाया में महाप्रज्ञ का ज्ञान वृक्ष इतना घना और विशाल हो गया कि जिसमें किसी एक पंथ के नहीं, वरन तमाम पंथों के गुणिजन ठौर पाने लगे। अहिंसा पर कार्य का अवसर महात्मा गांधी को ज्यादा नहीं मिला, लेकिन आचार्य ने अहिंसा के क्षेत्र में इतने कार्य किए कि सम्भवत: आने वाली सदियों में भी शायद ही कोई उतने कार्य कर पाएगा।

वर्षों पहले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें 'आधुनिक विवेकानंद कहा था। आज दिनकर की वह उक्ति कदापि अतिशयोक्ति नहीं लग रही है। समस्याग्रस्त राष्ट्र में जब साधु-संत अपने-अपने डेरों, आश्रमों, शिविरों में कैद होने लगे, तब महाप्रज्ञ समस्याओं से मुक्ति का मार्ग बताने ऐतिहासिक अहिंसा यात्रा पर निकले। ५ दिसम्बर २००१ को सुजानगढ़ से यात्रा शुरू हुई थी, जो देश भर के ८७ जिलों, २४०० गांवों से होती हुई सुजानगढ़ में ही संपन्न हुई। आंखें खोलकर तलाश लीजिए, ऐसा कोई आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं मिलेगा, जो समाज के व्यापक हित में ऐसी विशाल व उपयोगी यात्रा पर निकला हो। उन्होंने बताया कि अहिंसा और सत्य को भी विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम बनाया जा सकता है। उन्होंने स्वयं जीकर दिखाया कि गुरु भक्ति क्या होती है। आज कोई भी गुरु अपने जीते-जी किसी शिष्य को गद्दी नहीं सौंपता, लेकिन आचार्य तुलसी ने अपने जीवन काल में ही अपने शिष्य को गद्दी प्रदान की थी। अविश्वास के दौर में विश्वास का यह स्तर वस्तुत: महाप्रज्ञ को न केवल विलक्षण समर्पित, स्नेही शिष्य, वरन विलक्षण संत भी सिद्ध करता है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति, वैज्ञानिक अब्दुल कलाम से महाप्रज्ञ का मेल भी अविस्मरणीय रहेगा, वे जब-जब मिले, तब-तब राष्ट्र को समयोचित दिशानिर्देश मिले। अंतिम समय तक सक्रिय रहे महाप्रज्ञ अणुव्रत के महा-अनुष्ठान का ही चिन्तन संघ से कर रहे थे। जैन आगमों का अनुवाद-संरक्षण व प्रेक्षा प्राणायाम का आविष्कार उनके ऐसे अनमोल योगदान हैं, जो सदैव प्रासंगिक रहेंगे। आज जैन दर्शन व न्याय क्षेत्र बहुत सूना हो गया। आने वाली पीढिय़ों के लिए उनके ज्ञान की विशाल थाती छूट गई है, जो पग-पग पर काम आएगी।


(महाप्रज्ञ के महाप्रयाण पर लिखा गया सम्पादकीय )

Wednesday, 24 March 2010

बाबा रे बाबा

उत्तर से दक्षिण तक एक- एक कर बाबाओं की पोल खुल रही है, उनके चारित्रिक दामन पर दाग सामने आ रहे हैं या कहा जाए कि कुछ बाबाओं ने बाबा होने को अविश्वसनीय होने की हद तक ला खड़ा किया है...संसार ही बाजार है और बाजार ही संसार है। संसार या बाजार में किसी भी चीज का खूब चलना खतरे से खाली नहीं होता। कोई ब्रांड अगर जम जाए, तो उससे मिलते-जुलते ब्रांड बाजार में उतर आते हैं। ठीक इसी तरह से अगर किसी योग्य बाबा का जादू चल जाए, तो उससे मिलते-जुलते बाबाओं के शामियाने तनने लगते हैं। हर असली ब्रांड व असली बाबा के पीछे कम से कम दस नकली ब्रांड व नकली बाबाओं की दुकान चल निकलती है। आजकल पैकेज का भी जमाना है। भीतर भले नकली माल हो, लेकिन पैकेट खूब आकर्षक होना चाहिए। मीठी आवाज, लुभावने प्रवचन, थोड़े व्यायाम, एकाध पल का ध्यान, आधे-अधूरे तंत्र मंत्र, भजन, भभूत, पुष्प, पंडाल और वेतनभोगी पंडों इत्यादि से बाबाओं का पैकेज तैयार होता है। दिल्ली में एक कथित इच्छाधारी बाबा ऎसा भी सरेआम हुआ, जिसके पैकेज में भक्तों-अभक्तों तक यौन सुख पहुंचाने की सेवा भी शामिल थी। हजारों कथित बाबा हैं, जो देश की सेवा कर रहे हैं और खूब मेवा भी बटोर रहे हैं, बल्कि मेवा बटोरने ही सेवा में उतरे हैं। सरकार अगर इन पर सेवा कर लगा दे, तो ज्यादातर बाबा होंगे, जो सेवा कर अदा करने के लिए तैयार हो जाएंगे, लेकिन कथित सेवा नहीं छोड़ेंगे। सरकार बाबाओं पर सेवा कर नहीं लगा सकती, क्योंकि सरकार चलाने वाले नेताओं और यहां तक कि बड़े अफसरों को भी बाबाओं की सख्त जरूरत होती है।
कोई मुख्यमंत्री अपनी गद्दी बचाने के लिए बकरे के खून से स्नान करता है, तो कोई मुख्यमंत्री बंगले में प्रवेश से पहले 21 पुजारियों से 96 घंटे तक यज्ञ करवाता है। बाबाओं के निर्देश पर देश के च्यादातर कर्णधार इतने तरह के टोने-टोटके करते हैं, जनता जान जाए, तो भड़क उठे। चुनाव से पहले ज्यादातर बाबा व्यस्त हो जाते हैं, लगभग सभी नेता जीतने के लिए नाना प्रकार के कर्मकांड व अनुष्ठान करवाते हैं। इंदिरा गांधी भी बाबाओं के यहां जाती थीं। पहले अटल बिहारी वाजपेयी के लिए अनुष्ठान होते थे, तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए भी अनुष्ठान होते हैं। लोग भूले नहीं होंगे, मनमोहन सिंह ने तो एक बार आरोप लगा दिया था कि उनकी मौत के लिए तांत्रिक अनुष्ठान किया गया। छत्तीसगढ़ में आडवाणी के रथ को शुद्ध करने के लिए एक बकरे की बलि दी गई थी और 101 नारियल के पानी से रथ धुला था। एक तांत्रिक बाबा के कहने पर एक केन्द्रीय मंत्री दिल्ली में अपने सरकारी बंगले पर लाल गाय बांधे रखते थे। देश में एक नहीं, दर्जनों ऎसे मठ-पीठ हैं, जहां बाबा लोग हर पार्टी के नेताओं को सेवा देने के लिए तत्पर रहते हैं। बाबा भी बड़े चतुर हैं, कांग्रेस वाला आएगा, तो उसे जय हो कहेंगे और भाजपा वाला आएगा, तो वो भी आशीर्वाद संग गदगद लौटेगा। दरअसल किसी को नाराज न करना ज्यादातर बाबाओं का एक गुण है, तो भला सरकार बाबाओं को क्यों नाराज करे? होने दो, जो बाबा चाहें। तभी तो बलात्कार व हत्या के आरोपी किसी बाबा को छूते ही उनके समर्थक सड़कों हंगामा बरपा देते हैं और सरकार देखती है टुकुर-टुकुर।
इतनी भीड़ क्यों?
बाबाओं के सिलेब्रिटी टाइप के भक्त ही वास्तव में आम गरीब भक्तों की भीड़ को आकर्षित करते हैं। कोई बाबा अगर एक भी बड़ा रसूखदार मुरीद जुटा ले, तो उसके चेलों का कारवां बढ़ने लगता है। हर कथित कामयाब बाबा के पीछे उसके कामयाब मुरीदों का हुजूम होता है। वैसे भी अपने देश में देखा-देखी ज्यादा भीड़ लगती है।एक और बात है, ओशो ने कहा था, "गरीब आदमी मंदिर में वही मांगता रहा है, जो संसार में उसे नहीं मिल रहा है।" लेकिन ओशो का जमाना बीत गया। अब पत्थरों पर सिर पटकते असंख्य लोगों का धैर्य टूट रहा है। फास्ट फूड के दौर में लोगों को मुंह में तत्काल कौर चाहिए, कौर चाहे जिस ठौर मिले। जीते-जागते भांति-भांति के कथित बाबाओं का दौर है, जिनके दरबार में अनगिनत जनता वह खोज रही है, जो उसे उसकी दुनिया में नहीं मिल रहा है। मंदिरों के पारंपरिक मायाजाल से अलग कथित बाबाओं के दरबार "रियलिटी शो" का मजा दे रहे हैं। कोई बाबा कृष्ण, कोई राम, तो कोई राधा-मय होने का स्वांग रच रहा है। च्यादातर कथित बाबा यह साबित करना चाहते हैं कि वे दूसरे बाबाओं से भिन्न हैं, विशेष हैं। उनकी यह भिन्नता व विशेष्ाता लोगों को खींच रही है। लेकिन सारे लोग कतई केवल श्रद्धा वश नहीं आ रहे हैं, यह बात बार-बार साबित हुई है। प्रतापगढ़ में भी लोग नोट और उपहार के चक्कर में जुटे थे। यह भी एक देखने लायक पक्ष है, जैसे नेताओं की रैली में लालच के दम पर भीड़ जुटाई जाती है, ठीक वही फॉर्मूला कई कथित बाबा भी आजमा रहे हैं। ज्यादातर बाबाओं के यहां लोगों का कल्याण भले न हो रहा हो, लेकिन स्वयं बाबाओं का कल्याण तो खूब हो रहा है। प्रतापगढ़ में एक बाबा महाराज के आश्रम में उनके व्यक्तिगत आयोजन में भीड़ जुटी, 60 से च्यादा लोग कुचलकर मारे गए, लेकिन बाबा महाराज तनिक भी कृपालु नहीं हुए। यही जतलाया कि सब अपनी मौत मरे हैं, इसमें उनका कोई दोष नहीं। यहां भी गौर कीजिए, बाबा ने किसी को फूटी कौड़ी का मुआवजा नहीं थमाया, मुआवजा सरकारी जेब से ही ढीला हुआ। मतलब, बाबा सिर्फ भीड़ जुटाएंगे, भीड़ में कुछ उल्टा-पुल्टा हुआ, तो जिम्मा सरकार लेगी, मतलब यहां भी परोक्ष रूप से जनता की ही जेब ढीली होगी। बाबाओं की हर हाल में चांदी है। गिला-शिकवा अच्छे-सगो बाबाओं से किसी को नहीं, लेकिन दिक्कत तो उन बाबाओं से है, जो धंधा जमाए बैठे हैं। चिंता असली से तनिक नहीं, खतरा नकली से भयानक है। नकली सूरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे हैं और असली इस बढ़ते मुंह के मायाजाल से बाहर आने को महावीर होना चाहते हैं, लेकिन ऎसा कैसे होगा?
आदर्श संत आचार संहिता
बताते हैं कि गायत्री परिवार के प्रणव पंडया ने बाबाओं के लिए आचार संहिता निर्माण हेतु बिगुल बजा दिया है। देखना है, इस बिगुल की आवाज पर कितने कथित बाबा कान देते हैं। यह दुष्कर सद्प्रयास टांय-टांय फिस्स भी हो सकता है। निस्संदेह यहां भी बड़ी मारामारी होगी, बाबाओं के बीच तू-तू मैं-मैं होगी। हालांकि ऎसा भी नहीं है कि संन्यासी या साधु या संत या बाबाओं के लिए आचार संहिता नहीं है। आज भी लोग श्री कृष्ण के मुख से निकली गीता में समाधान खोजते हैं। कृष्ण ने कहा, अनाश्रित: कर्मफलम कार्य कर्म करोति य:। अर्थात जो पुरूष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है, लेकिन यहां तो संन्यासियों के यहां प्रवेश शुल्क निर्घारित है। जैसे सिनेमा हॉल में तय रहता है कि ज्यादा पैसे वाला बॉक्स में बैठेगा, फर्स्ट क्लास में बैठेगा, और कम पैसे वाला थर्ड क्लास में, ठीक उसी तरह च्यादातर बाबाओं के यहां बनी अलग-अलग खिड़कियां अध्यात्म और श्री कृष्ण को मुंह चिढ़ा रही हैं। साम्यवादी श्री कृष्ण ने उपदेश दिया था, समदर्शी होना, अर्थात राजा, रंक और यहां तक की पशु और पत्थर में भी मुझे देखना अर्थात सबको एक समान देखना। लेकिन आजकल जो हो रहा है, वह भला किससे छिपा है? सारी अच्छी कसौटियां टूट रही हैं, भीड़ एकमात्र कसौटी बची है। अच्छे और सगो बाबाओं को धर्म रक्षा के लिए सजग हो जाना चाहिए, वरना संसार में अध्यात्म भी एक उद्योग में तब्दील हो जाएगा। कहीं ऎसा न हो कि नकली बाबाओं की जमात ही पूरे जनमानस पर कब्जा कर ले और असली वालों को ठिकाना न मिले। अच्छे और सगो बाबाओं को गौर करना चाहिए कि जैसे राजनीति में अच्छे और सगो लोगों का टिकना मुश्किल हो गया है, ठीक उसी तरह से कहीं अध्यात्म के क्षेत्र में भी अच्छे और सगो लोगों का टिकना मुश्किल न हो जाए।
अवतार की प्रतीक्षा?
ज्यादातर कथित बाबा यह भूल जाते हैं, कृष्ण ने गीता में यह भी कहा है, "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधु पुरूषों का उद्धार करने के लिए पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैँ युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं।" क्या व्यापक संत समाज (जिसमें सिद्ध व स्वघोषित सभी संत शामिल हैं) परिस्थितियों, क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं को स्वयं सुधारना चाहता है या फिर किसी अवतार की प्रतीक्षा है?

(यह लेख हम लोग, डेली न्यूज़ मे १४ मार्च को प्रकाशित हुआ था )

Sunday, 7 March 2010

कुम्भ अर्थात कलश

मानव ने अपने प्रयोग के लिए भांति-भांति के पात्र बनाए, विशाल कड़ाह से छोटे से चम्मच तक सैकड़ों प्रकार के पात्र, परन्तु सृष्टि के आदि से आज तक जो सबसे सुन्दरतम, सहज व सरल पात्र बना है, वह है कलश। एक ऐसा पात्र जिस पर ऋषियों का भी हृदय आ जाता है। कमंडल हो या लोटा, सब कलश के ही सहोदर हैं, उतने ही सुंदर और मोहक। अपने में काफी कुछ छिपाए हुए, संजोए हुए, बचाए हुए। संभवत: इसी कारण कलश या कलश-जैसे पात्र का प्रयोग धर्म-कर्म पूजा-पाठ में होता है। अति सौभाग्यशाली संयोग देखिए कि कलश को कुंभ भी कहते हैं। कुंभ की भाव व्यंजना यदि पवित्र व सुंदरतम मानें, तो जहां असंख्य पवित्र व सुंदरतम मानवों व विचारों का समागम होगा, वहां क्या होगा? निस्संदेह, वहां कुंभ पर्व होगा, जिसे लोग कुंभ मेला भी कहेंगे। लोग अपने-अपने कलश लेकर अर्थात अपने-अपने कुंभ लेकर वहां पहुंचेंगे, पावन समागम होगा और फिर अपने-अपने कलश अर्थात अपने-अपने कुंभ में काफी कुछ नवीन ज्ञान, फल, ध्यान, मान, जल, अनुभव लेकर संपन्न लौटेंगे। कुंभ पर्व अपने आप में एक रहस्य है, यही नहीं पता चलता कि किस ऋषि के मन में कुंभ का विचार सर्वप्रथम आया होगा, यह भी नहीं पता चलता कि सर्वप्रथम कुंभ कहां किसने मनाया होगा। अपने अद्भुत आकार की वजह से जैसे पात्र कुंभ रहस्यमय है, ठीक उसी तरह से कुंभ पर्व भी रहस्यों से परिपूर्ण है। तनिक कुंभ पात्र पर ध्यान तो दीजिए, उसमें दिखता कम है और छिपता ज्यादा है। मानो कुंभ संदेश दे रहा हो कि जो सामान्य प्रयास में सहजता से दिख रहा है, वही सब कुछ नहीं है, जो नहीं दिख रहा है, वह भी काफी कुछ है। कुंभ में जो जगह दृष्टि से ओझल रहती है, वहां भी काफी कुछ होने की संभावना रहती है। कुंभ केवल बाहर से दृष्टिगोचर होना नहीं है, वास्तविक कुंभ तो अंत:करण में है, सच्चा कुंभ तो कुंभ के अंदर है। अंदर का कुंभ अगर बिखर जाए, तो बाहर का कुंभ बनने से रह जाएगा। ऐसा लगता है कि हमारे जिन महान अनिवर्चनीय सृजनशील पूर्वजों ने कुंभ संबोधन निर्धारित किया होगा, उन्होंने पर्याप्त विचार-विमर्श किया होगा। कुंभ मेला यदि थाली मेला होता या कढ़ाई मेला होता या बाल्टी मेला होता, तो कैसा होता? संबोधन से ही प्रयोजन की गरिमा घट जाती। अद्भुत, अतुलनीय हैं हमारे पूर्वज। कुंभ शब्द को अनुभूत करते हुए ही हृदय अभिमान से नभोन्मुखी हो जाता है। अपने-अपने कुंभ को जानने की चुनौती अनुभूत होने लगती है। अपने कुंभ को जान गए, तो दूसरे के कुंभ को जानने की, ज्यादा से ज्यादा कुंभों को जानने की इच्छा होती है। भारत में कुंभ मात्र पर्व या मेला नहीं है, यह चुनौती है, स्वयं से परिचित होने की चुनौती। स्वयं को बाहर और भीतर से निहारने की चुनौती। जो कुशलता से निहार लेगा, उसका कुंभ पर्व सफल व सार्थक हो जाएगा।
कुंभ में उजाला है, तो अंधकार भी है। कुंभ तन है, तो मन भी है। यदि साकार है, तो निराकार भी है। यहां कई मनुष्य खो जाते हैं, तो कई ठौर पा जाते हैं। कुंभ में प्रश्न हैं, तो उत्तर भी हैं। कुंभ में आशंकाएं हैं, तो संभावनाएं भी हैं। कुंभ में यदि अश्रु हैं, तो हर्ष भी है। कुंभ में मंत्र हैं, तो तंत्र भी हैं। सामाजिकता है, तो असामाजिकता भी है। राग है, तो विराग भी है। महात्मा हैं, तो ढोंगी भी हैं। कुंभ विशाल है, अथाह है, तभी तो उसकी महिमा है। संसार में मेले तो खूब लगते हैं, परन्तु जब कुंभ लगता है, तो दुनिया के सारे मेले फीके पड़ जाते हैं। यहां जन समूह कीर्तिमान बनाता है।

Tuesday, 16 February 2010

साधुओं को गाली क्यों?

भाग : सात
मैं भी साधुओं को देखकर बहुत डरता था। बचपन में लोगों ने डराया था कि साधु बच्चों को अपने बोरे में भर ले जाते हैं। एक बार तो हमारे भाई साहब और हम साधुओं की टोली देख पेड़ की ऊंची डाल से सीधे नीचे कूद गए थे, गिरते-पड़ते भागे थे, तो साधुओं का इतना आतंक था।
तब समाज में प्रगतिशील सोच हावी थी। मन्दिरों में उतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी और न ही इतने ज्यादा मन्दिर थे। महीनों हो जाते थे, लोगों को मन्दिर गए, अब कई लाख लोग रोज मन्दिर जाते हैं। तो यह नया बदलाव है, दुनिया लौट रही है, अपनी संस्कृति को समझने की ओर। जिस संस्कृति ने शून्य और दशमलव दिया, उसी संस्कृति ने वेद-शास्त्र दिए, उसी ने कामसूत्र दिए, इसी में गणतान्त्रिक वशिष्ठ भी हुए और पूंजीवादी चार्वाक भी। राम दिए, तो कृष्ण भी। उसी संस्कृति ने शास्त्रीय नृत्य और संगीत दिए, तो अपनी संस्कृति के प्राचीन तत्वों को खारिज नहीं किया जा सकता। मेरा मानना है, अपनी जड़ों को गाली नहीं देना चाहिए। हर ब्यक्ति का अपना गोत्र है और हरेक गोत्र के पीछे ऋषि हैं, ऋषि साधु नहीं थे, तो क्या थे? साधुओं को गाली देने का मतलब है अपने गोत्र को गाली देना, अपने कुटुंब के पितृ पुरुष को गाली देना। अपने रक्त को गाली देना। वामपन्थी कोरेपन से प्रभावित जोश में आकर साधुओं को गाली देना, स्वयं अपनी जड़ों और स्वयं अपने को गाली देना है। वामपन्थ का मतलब कदापि यह नहीं कि आप अपने पिताओं को गरियाने लगें। चीन से ज्यादा वामपन्थी कौन हो सकता है? चीनियों ने अपनी तमाम प्राचीनताओं और संस्कृतियों को बचाने के लिए क्या कम संघर्ष किया है? लेकिन हम भारतीय तो स्कूलों में वामपन्थी शिक्षा पाकर स्व-संस्कृति विरोधी हो रहे हैं। स्व-ग्राम विरोधी, स्व-नगर विरोधी, स्व-देश विरोधी हो रहे हैं।
अच्छाई और बुराई हर कहीं है। खारिज किसी व्यçक्त या जगह को नहीं, बल्कि बुराई को करना चाहिए। संस्कृति तो सच्चा संबल है। कुंभ में साधुओं के जमावड़े अनेक लोगों के निशाने पर हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि तमाम साधु जिम्मेदारियों और कर्तब्यों से भागे हुए लोग हैं। यह आरोप अतार्किक है। आज दुनिया में कितने लोग हैं, जो अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभा पा रहे हैं? अपनी स्वयं की जिम्मेदारी निभा ले रहे हैं, तो परिवार की जिम्मेदारी रह जा रही है, परिवार की जिम्मेदारी निभ जा रही है, तो समाज और देश की जिम्मेदारी छूट जा रही है। हम सरकारों को जिम्मेदारी उठाने के लिए चुनते हैं, लेकिन उन्हें देखिए कि वे किस कदर जिम्मेदारियों का निर्वहन करती हैं।
तो जिम्मेदारियों और कर्तब्यों से बचने के लिए साधु बनना कदापि अनिवार्य नहीं है। बिना साधु बने भी अनगिनत लोग अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं। जिम्मेदारियों से भागने का दोषी केवल साधुओं को क्यों ठहराया जाए?

Sunday, 14 February 2010

नागाओं का बोलबाला

कुम्भ में हम : भाग - छह

ऋषिकेश से लौटते हुए एक जगह रुक जाना पड़ा। पुलिस ने रास्ता रोक रखा था। हरिद्वार की ओर जाने वाले दोनों ही सड़कें अवरुद्ध थीं, क्योंकि पेशवाई गुजरने वाली थी। पेशवाई मतलब नागाओं का जुलूस। पेशवाई गुजरी नहीं, नागाओं का शायद मन बदल गया। रास्ता फिर भी खुल गया। खुशी हुई कि आम तौर पर किसी शहर को कभी परेशान नहीं करते नागा, लेकिन जब कुंभ आता है, तो चाहे प्रयाग हो, नासिक, उज्जैन या हरिद्वार, हर जगह नागाओं का बोलबाला हो जाता है। उनके लिए रास्ते खाली कर दिए जाते हैं। वे वीवीआईपी हो जाते हैं। उनकी शान देखते बनती है। उनके लिए अलग व्यवस्थाएं बनती हैं। सरकारें उनके अनुरूप ही प्रबंधन करती हैं। शाही स्नानों के दिनों में नागाओं के लिए विशेष इन्तजाम होता है। शाही स्नान को मैं कुछ और समझ रहा था। वास्तव में शाही स्नान का फैसला सरकार करती है, साधु नहीं। साधु तो प्रस्ताव रखते हैं। साधुओं के साथ सरकार को समन्वय बनाना पड़ता है। अखाड़ों को सरकार ने एक दूसरे से काफी दूर-दूर बसाया है। सफेद मटमैले टैंटों से हरिद्वार के खुले इलाके अटे पड़े हैं। सरकार ने हर तरह के इन्तजाम किए हैं। दूर से शान्त दिखने वाले अखाड़ों या टैंटों की बस्ती में अन्दर काफी हलचल रहती है। शायद ही कोई ऐसा मुद्दा होता है, जिस पर साधु चर्चा न करते हों। सांप्रदायिकता और समाज में घटते सद्भाव को लेकर भी साधु चिन्तित हैं। वे देश और विश्व के बारे में भी खूब सोचते हैं। कहा जाता है, कुंभ के समय साधु अपना नया नेता, उपनेता व प्रतिनिधि चुनते हैं। पंचायत व्यवस्था अखाड़ों में बहुत पुरानी है। अखाड़ों में लोकतन्त्र बहुत पुराना है। कुंभ मेले का अखाड़ों के लिए इसलिए भी बहुत महत्व होता है। कुंभ मेले के समय अखाड़ों में राजनीति भी चरम पर होती है। न केवल अखाड़े अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास करते हैं, स्वयं अखाड़ों के अन्दर श्रेष्ठता के लिए विमर्श होते हैं। हम कह सकते हैं, कुंभ मेले से अखाड़ों और उनके साधुओं को भी पुनर्नवा होने या तरोताजा होने का अवसर मिलता है।

पढ़ना-लिखना जरूरी : कुम्भ में हम : भाग- पांच

साधु पढ़े-लिखे होते हैं या नहीं? ज्यादातर तो कम उम्र में साधु बन जाते हैं। औपचारिक शिक्षा नहीं मिल पाती है। पोथी कम पढ़ते हैं, सुनकर ज्यादा जानते हैं और जीवन से सीखते हैं। हरिद्वार में भगवानदास जी से पढ़ाई-लिखाई पर भी चर्चा हुई, उन्होंने स्वीकार किया कि अब पढ़ाई-लिखाई बहुत जरूरी हो गयी है, वरना संस्थाओं को चलाना कठिन है। प्रबंधन में कठिनाई आती है। पढ़े-लिखे होने से सुविधा होती है, संवाद भी आसानी से होता है। साधुओं का काम बढ़ता जा रहा है। उनकी संस्थाओं का निरन्तर विस्तार होता जा रहा है। समाज में श्रद्धा का भी विकास हुआ है। गांधी जी जब १९१५ में कुंभ में आए थे, तब उन्होंने जिक्र किया है कि 19 लाख लोग कुंभ आए थे। आज कुंभ में करोड़ों लोगों के आने की संभावना है। कुंभ जनवरी मध्य से शुरू हुआ है और अप्रेल मध्य तक चलेगा। बिना शिक्षा व लिखित, सुनिश्चित प्रबंधन के कुंभ को सम्भालना कठिन है। साधुओं की देश में हजारों संस्थाएं हैं, संस्थाओं का काम बढ़ रहा है। कांवड़ यात्राओं में पहले बहुत कम लोग आते थे, अब लाखों की संख्या में आते हैं। मन्दिरों में दान कम होता था, लेकिन अब बहुत होता है। साधुओं की संख्या भी घटने की बजाय बढ़ रही है। धार्मिक भारत का आकार बढ़ रहा है। पढ़ाई-लिखाई जरूरी होती जाएगी। मठों या आश्रमों का संचालन वही साधु कर पाएंगे, जो पढ़े-लिखे होंगे। अतः न केवल साधुओं के संगठनों को बल्कि सरकार को भी साधुओं की शिक्षा का ध्यान रखना चाहिए। साधुओं से दूरी बनाना ठीक नहीं है। यह दूरी साधुओं के लिए ज्यादा हानिकारक नहीं है, यह देश और सरकार के लिए हानिकारक है। साधु भारतीय चेतना के ही अंग हैं। उनका ध्यान देश को रखना चाहिए। साधुओं की ओर घृणा या भय से देखने की बजाय जिज्ञासा और प्रेम से देखना चाहिए।
आधुनिकता साधुओं को नकारने में नहीं, उन्हें समझने में है। साधुओं के चिन्तन पर दृष्टि रखने की आवश्यकता है। कम से कम पढ़ाई-लिखाई के धरातल पर हम साधुओं को समझ सकते हैं, लेकिन ऐसा तभी सम्भव है, जब साधु पढ़े-लिखे हों। वे पढ़े-लिखे होंगे, तो न केवल प्राचीन भारत उनकी छत्रछाया में सुरक्षित होगा, बल्कि वे आधुनिक भारत को भी निर्देशित कर सकेंगे।

कहां से आते हैं साधु?

हमारे देश में साधुओं का मजाक उड़ाने की छूट है, तो बड़ी सहजता से उनका मजाक उड़ाया जाता है। ऐसा भी नहीं है, साधुओं का मजाक उड़ाने के खिलाफ कानून बना दिया जाए, स्वयं साधु ऐसे किसी कानून का विरोध करेंगे। कबीर कह गए थे, निन्दक नियरे राखिये। निन्दा भले ही किसी को अच्छी नहीं लगती, लेकिन निन्दा से कुछ न कुछ हर कोई सीखता अवश्य है। साधु होना कतई आसान नहीं है। गांधी जी १९१५ में हरिद्वार में लगे कुंभ में आए थे। उन्होंने साधुओं को मालपुए छकते देखा था और यह अनुमान भी लगाया था कि ये लोग शायद पकवान छकने के लिए ही साधु बने हैं। हां, वैसे भी साधु होते होंगे, लेकिन तब भी साधु होना आसान नहीं है। पहले वे घर-परिवार छोड़ते हैं, बाद में घर-परिवार ही उन्हें अपने से दूर भगाने लगता है। अकेलेपन से इनकार नहीं किया जा सकता। आज आधुनिक चमक-दमक को देखकर यह कहना मुश्किल नहीं है कि कई साधु अवसाद ग्रस्त रहते होंगे। उन्हें तपस्या निरर्थक मालूम पड़ती होगी। वैज्ञानिक आधुनिकता ने एक स्वर्ग-सा परिवेश पृथ्वी पर रच ही दिया है, वह अवश्य साधुओं को लुभाता होगा। ह्रदय को लुभाने वाली तमाम बुराइयों से बचकर साधु होना कदापि आसान नहीं है। बुराइयों वाले भी हैं, लेकिन उन्हें सच्चा सुख-सन्तोष नहीं मिल सकता। जो बुरा होगा, उसका मन जानता होगा कि वह साधु नहीं है। कोई दूसरों को धोखा दे सकता है, लेकिन अपने आप को नहीं।
जब मैंने जाने-माने पत्रकार रामशरण जोशी जी को कुंभ यात्रा की योजना के बारे में बताया था, तब उन्होंने कहा था कि वहां यह पता करने की कोशिश करना कि अब साधु अमीर परिवार से आ रहे हैं या गरीब परिवार से। यह सवाल मेरे मन को मथ रहा था। हरिद्वार में जब महामण्डलेश्वर भगवानदास जी से बात हुई, तब उन्होंने कहा, अमीर परिवारों से भी लोग आते हैं साधु बनने। हालांकि उन्होंने माना कि ऐसे साधुओं की तादाद कम है। लोग ईश्वर से मन्नत मांगते हैं, सन्तान दो, भले ही साधु बनाकर अपनी सेवा में लगा लेना। ऐसे बच्चे भी साधु बनते हैं। गरीब परिवार के लोग बड़ी संख्या में साधु बनते हैं। अभाव से आहत होकर वैराग्य का जागना स्वाभाविक है। साधु बनकर कम से कम दो जून की रोटी का तो जुगाड़ हो ही जाता है। दूसरी बात कि साधु बन जाओ, तो फिर कोई जाति नहीं पूछता। पूजा-पाठ से मानसिक सुख तो मिलता ही है। इहलोक ही नहीं, परलोक भी सुधरने की आश्वस्ती रहती है। साधु बनने के अपने कई फायदे हैं, लेकिन इसके बावजूद साधु होना दुष्कर है। साधुओं की पवित्रता और उनका आध्यात्मिक विकास होना अत्यन्त आवश्यक है। अच्छे साधु ही अच्छे लोगों को आकर्षित करते हैं। गौतम बुद्ध हों या भगवान महावीर राजसी पृष्ठभूमि से आए थे, लेकिन उनके समय भी अमीर पृष्ठभूमि से साधु कम ही आते थे, यह कोई नई बात नहीं है। गरीबों के देश में गरीबों के घर से साधु नहीं आएंगे, तो कहां से आएंगे?

Friday, 12 February 2010

नागा साधु हैं, तो हम हैं

कुम्भ में हम : भाग - तीन

अगर आपने नागा साधुओं को नहीं समझा, तो आप यह नहीं जान पाएंगे कि हमारे राष्ट्र में सनातन धर्म की रक्षा के लिए कुछ हजार लोगों को क्यों सर्वस्व लुटाना पड़ा था? सचमुच, सच्चा हिन्दुत्व किसी राजनीतिक पार्टी या संगठन के पास नहीं, कुंभ मेला परंपरा के पास है। चूंकि कुंभ की परंपरा समाप्त नहीं हो सकती, इसलिए हम आश्वस्त रह सकते हैं कि भारत समाप्त नहीं हो सकता। नंग-धड़ंग, जटा-जूट, भभूत, अस्त्र, शस्त्र नागाओं की पहचान हैं। पहली नज़र में वे किसी को भी भयावह नज़र आते हैं।
हरिद्वार में हमने एक युवा साधु को अपने ही चूल्हे की राख से निकाल भभूत लपेटते देखा, तो दूसरे साधु से पूछा, भभूत क्यों लपेटते हैं?
उत्तर मिला, खराब दिखने के लिए। खराब दिखेंगे, तो लोग निकट नहीं आएंगे। आकर्षण नहीं बनेगा। आकर्षण नहीं बनेगा, तो वैराग्य को बल मिलेगा।
यह उत्तर मेरे मन को मथता रहा। खुद को सशक्त बनाने के लिए कितना कष्ट सहा है साधुओं ने। युवा साधु भभूत बड़े मन से लपेट रहा था।
मैंने फिर पूछा, गंगा में नहाएंगे, तो भभूत बह जाएगा।
मुस्कराहट के साथ उत्तर मिला, ये तो गंगा से निकलकर फिर भभूत लपेट लेंगे। उत्तर सुनकर मुझे खुशी हुई। भभूत लपेटने के बाद मात्र हथेली को धो रहे साधु के मुख पर प्रसन्नता तैर रही थी। आकर्षणहीन हो जाने की यह प्रसन्नता भी नागाओं को बल प्रदान करती होगी।
भभूत प्रेमी डरावने नागाओं के पीछे भारत की विशाल संघर्ष कथा विराजमान है। निस्सन्देह, कभी यह देश केवल सीधे-सादे साधुओं का रहा होगा। आज भी है, लेकिन जिन जमातों ने भारत की अपनी परंपरा पर समय-समय पर निर्मम आक्रमण किए, भारत को भारत से अपदस्थ करने हेतु आक्रमण किए, उन आक्रमणों के प्रतिउत्तर स्वरूप हमारी संस्कृति में नागाओं का पदार्पण हुआ। जिन साधुओं ने सहजता से गर्दन कटाना स्वीकार नहीं किया, वे नागा बन गए। शस्त्र-अस्त्र उठा लिया। अपने आप को बाह्य और आन्तरिक रूप से अत्यन्त कठोर बना लिया, ताकि आक्रमणों का उचित प्रतिउत्तर दे सकें, ताकि सनातन संस्कृति को बचाया जा सके, ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि भारतीय साधुओं ने चुडीयाँ नहीं पहन रखी हैं।
इतिहास गवाह है, दूसरे कुछ पन्थों-धमो ने जो अखाड़े दिए, उनसे आतंकवाद पनपा, बच्चों और स्त्रियों की भी हत्या हुई। लेकिन सनातन संस्कृति या हिन्दुओं की पीड़ा से जो अखाड़े उपजे, उन्होंने कभी किसी निर्दोष को नहीं मारा।
कुंभ में नागाओं के जनसमुद्र को देखकर रोम-रोम पुलकित हो जाता है। सुरक्षा अनुभूत होने लगती है। वे हमारी सनातन संस्कृति के माता-पिता नज़र आने लगते हैं। वे हैं, तो हम आश्वस्त हैं कि हमें भारत भूमि से कोई अपदस्थ नहीं कर पाएगा।

इनके राम ऑफलाइन?

इनके राम भला ऑन लाइन क्यों न हों? अब ऑफ लाइन रहने से रामानन्दियों का संसार में गुजारा कैसे चलेगा? इसमें कोई संदेह नहीं कि वे सीधे-सादे और सहज हैं, लेकिन मुझे ऐसा लगा कि अध्ययन व ज्ञान-विज्ञान के बारे में समय के हिसाब से सिद्ध नहीं हैं। मेरा मानना रहा है कि भविष्य में वही साधु ध्यान धारा में अंगद की तरह पांव टिका पाएगा, जो पर्याप्त पढ़ा-लिखा होगा। भव सागर में राम नाम की अतुलनीय पतवार काम तो आएगी, लेकिन संघर्ष के समय नाव के पलटने या पलायन कर जाने की आशंका बनी रहेगी। ज्ञान का साम्राज्य भी रामानंदियों से भरा पूरा रहना चाहिए.
यह संप्रदाय बहुत पुराना है, लेकिन उसके जो प्रमुख केन्द्र हैं, उनके रखरखाव और वैभव में वृद्धि समय के हिसाब से नहीं है। जबकि कई दूसरे संप्रदाय या मठ कुछेक वर्ष पहले ही आए हैं, लेकिन मात्र बेहतर अध्ययन व तैयारी की वजह से चमकदार हो गए हैं, सबको नज़र आ रहे हैं, जबकि रामानन्द संप्रदाय अपनी सर्वकालिकता, गुणसंपन्नता, सज्जनता, पारंपरिकता व अटूट तपस्या व संघर्ष के बावजूद प्रचार से दूर है। कई नए-नए फिजूल के मठ ऑन लाइन हो गए, लेकिन यह राष्ट्र अनुकूल श्रेष्ठ मठ या संप्रदाय अभी भी ऑफ लाइन है। साधु होने का कदापि यह मतलब नहीं है कि जड़ हो जाया जाए। राम नाम जप रहे हैं और राज-पात ख़ाक हो रहा है। सच्ची साधुता इसमें है कि समाज की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को परिवर्तित किया जाए। समाज के रक्षार्थ जीना और संघर्ष करना वही जानता है, जो सच्चा साधु है। यह बात साधुओं से बेहतर कौन जानता है। नागा साधु तो संघर्ष की सर्वश्रेष्ठ मिसाल रहे हैं।
ध्यान से सुना जाए, राम महाराज रामानन्दियों को ऑन लाइन धरा पर भी पुकार रहे हैं।

कुम्भ में हम


अगर आपने कुंभ नहीं देखा, तो आप यह नहीं जान पाएंगे कि मेला क्या होता है? मेला केवल टिक्की, चाट, समोसे, जलेबी, पिज्जा, बर्गर, झूला, बैलून, चरखी बिकने का स्थान नहीं है। मेला तो व्यापक है। मेला तो जितना बाह्य है, उससे कहीं ज्यादा आन्तरिक है। जो मेला पावन तपस्वियों की ह्रदय परिधि में पहले लगता है और बाह्य व्यवस्थाएं बाद में बनती हैं, वही सच्चा मेला है, वही अच्छा मेला है और बस वही काम का मेला है।
मेरी बड़ी इच्छा थी, कुंभ मेला देखूं। जन्म कुछ सार्थक करूं, तो इस बार 5 फरवरी को हरिद्वार गया। सोचा था, साधुओं के रामानन्द आश्रम में रहूंगा, लेकिन आश्रम में केवल साधु विराजमान थे। तरह-तरह के साधु। हर उम्र के साधु। भभूत लपटते, ध्यान करते, धूनी रमाते वैरागी अर्चनालीन, रामभक्त रामानन्दी सीधे-सादे साधु। परिवार मेरे साथ था। साधुओं को अटपटा लगता, तो आश्रम के सामने ही एक होटल में साधुओं ने ही ठहरवा दिया। आश्रम के प्रमुख महामण्डलेश्वर श्री भगवानदास जी का यह आदेश था। आश्रम में ठहरने की इच्छा अधूरी रही, मन थोड़ा भारी हुआ। खैर, सुबह ही हम कमरे से निकल जाते थे। भोजन का समय होता, तो साधु अपने चेलों को हमें बुलाने भेजते थे। ठीक साढ़े आठ बजे रात घंटी बजती थी, साधुओं को भोजन-प्रसाद का समय बताती। मेरी भी इच्छा थी, एक बार मैं भी भोजन प्रसाद ग्रहण करूं। तो सात फरवरी की रात पात में बैठे सैकड़ों साधुओं के समीप मैं भी जा बैठा सपरिवार। पत्तल आया, गिलास आया। फिर आई बहुत ही स्वादिष्ट खिचड़ी, पत्ता गोभी की सब्जी और चपाती, अचार। जितना मन करे, उतना छकिए, कोई रोक नहीं। आनन्द हो गया। शायद कोई सुकर्म फलीभूत हुआ हो, वर्ना साधुओं के हाथ का बना प्रसाद साधुओं के हाथों से प्राप्त करना कहां-कितनों को सम्भव होता है?
महात्मा रामानन्द जी कण-कण में राम देखते थे, आज भी परंपरा जीवित है। कोई भी बैठे पात में प्रसाद सबको मिलेगा, न जात पूछी जाएगी, न पन्थ। स्वभाव में इतनी निर्मलता कि रामानन्दी साधु एक दूसरे को महात्मा या सीताराम कहकर संबोधित करते हैं। अरे महात्मा ये क्या कर रहे हैं, नल तो बन्द कीजिए। लगता है सीताराम सो गए हैं। ऐसे मीठे वाक्य सुनकर आज भी यादें गदगद हैं।
निस्सन्देह, अब मैं सबको बता सकूंगा कि कुंभ से मैंने क्या पहला श्रेष्ठ अनुभव प्राप्त किया।

Sunday, 31 January 2010

संघ को बधाई


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बधाई। क्षेत्रवाद के खिलाफ उसका आदेश-निर्देश हाले ही बहुत देर से आया है, लेकिन उसे उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए अब अडिग रहना चाहिए। संघ को नया इतिहास लिखना है। अभी तक यही बात इतिहास में दर्ज है कि जब मुम्बई में गरीब उत्तर भारतीय लोग शिव सैनिकों व नवनिर्माण सेना के कथित राष्ट्र प्रेमी योद्धाओं के हाथों पिट रहे थे, तब स्वयंसेवकों का खून नहीं खौला था। क्या ऐसा इसलिए हुआ था, क्योंकि संघ का मुख्यालय नागपुर, महाराष्ट्र में है? शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि संघ ने शिव सेना को ललकारा है। शिव सेना जब मुम्बई पर अपनी बपौती की कोशिश में लगी है, तब संघ का हस्तक्षेप वाकई हर्ष पैदा करता है। बाला साहेब ठाकरे के हमलों का कोई तो जवाब दे और यह ताकत संघ में है। राष्ट्रीय एकता के लिए उससे बेहतर संघर्ष और कोई नहीं कर सकता।
बाला साहेब को दोटूक जवाब मिलना चाहिए कि क्षेत्रवादी हिंसा करने वालों को राष्ट्र की चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। क्षेत्रवादी हिंसा के समर्थकों को नस्लीय हिंसा पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है। पिछले दिनों शिव सेना प्रमुख ने धमकी दे डाली थी कि अगर ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले नहीं रुके, तो ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिलाडियों को महाराष्ट्र में क्रिकेट खेलने नहीं दिया जाएगा। गौर कीजिए, शिव सेना की नीति और घृणा फैला रहे ऑस्ट्रेलिया के लोगों में समानता है। ऑस्ट्रेलिया के लोगों की शिकायत है कि भारतीय लोग ऑस्ट्रेलियाई परंपराओं से नहीं जुड़ते हैं और अलग समुदाय बनाकर रहते हैं, ठीक इसी तरह की शिकायत शिव सेना को उत्तर भारतीयों से रही है। ऐसे में, शिव सेना का ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मुंह खोलना शर्मनाक है।
शाहरुख और आमीर खान को टु इडियट्स कहा गया? शाहरुख को देशद्रोही कहा जा रहा है। क्या मजाक है? क्षेत्रवादी शिव सेना देशप्रेम का प्रमाणपत्र बांट रही है। यह बात नई नहीं है, बाला साहेब अकसर भारतीय क्रिकेट खिलाडियों और अभिनेताओं को आत्म सम्मान और देशभक्ति की नसीहत देते हैं, जब मुम्बई में क्षेत्रवादी हिंसा हो रही थी, तब उनकी देशभक्ति कहां थी? तब कहां था भारतीय होने का आत्म सम्मान ? बाला साहेब की राजनीति मराठियों को भी समझ में आने लगी है, तभी तो उनके लिए सत्ता दूर की कौड़ी हो गई है।
ऐसे लोगों से देशवासियों को सावधान रहना चाहिए। बाला साहेब ठाकरे का क्या है, वे तो कुछ समय तक राष्ट्र चिन्तन के बाद क्षेत्र चिन्तन में लौट जाएंगे। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तो सदैव राष्ट्र चिन्तन में सक्रिय रहना चाहिए। क्षेत्रवाद के खिलाफ किसी राजनीतिक पार्टी से भारत राष्ट्र की जनता को कोई आशा नहीं है। क्षेत्रवाद क्या देशद्रोह से कम है?

Monday, 18 January 2010

ज्योति बसु का न होना


अन्तिम लाल सलाम
रविवार, 17 जनवरी को भारतीय वामपन्थ ने अपना सबसे कामयाब क्वलाइट हाउसं गंवा दिया। ज्योति बसु के न होने से अब जो वाम सागर पीछे छूट गया है, उसमें भटकाव की आशंकाएं बहुत बढ़ गई हैं। आज से पहले जब वामपन्थी भटकते थे, तब ज्योति बाबू लाइट हाउस की भूमिका में आकर भटकाव से बचने की अपील तो करते ही थे। अब यह अलग सवाल है कि ज्योति बाबू की अपील पर कितने कॉमरेडों ने ध्यान दिया। कोई शक नहीं कि उनकी अपीलें अगर मानी गई होतीं, तो वामपन्थ सत्ता की राजनीति में ज्यादा प्रभावी रहता और देश की ज्यादा सेवा कर पाता। वामपन्थ और लोकतन्त्र, दो अलग दिशाओं में बहती विचारधाराएं हैं, लेकिन ज्योति बसु दोनों के बीच न केवल तालमेल बनाए हुए थे, बल्कि उन्होंने सत्ता का स्वाद भी भरपूर लिया। दुनिया के कोने-कोने में सत्ता में वर्चस्व के लिए संघर्षरत वामपन्थियों को उनसे इर्ष्या होती थी कि एक कॉमरेड मुख्यमंत्री कार्यालय में कैसे 23 साल तक विराजमान रहा। विरोधी विचारधाराओं के लोग चाहे जो कहें, कॉमरेडों के लिए वे आदर्श थे, उनके दर्शन से ही कॉमरेडों को सुख मिल जाता था। उनसे राजनीतिक गुर सीखकर यथोचित मार्ग मिल जाता था। सार्वजनिक लोकतान्त्रिक जीवन जीने में सहूलियत बढ़ जाती थी। वामधारा में चूंकि राजनीतिक संगठन बहुत कट्टर और विचारधारा के प्रति बहुत दृढ़ होते हैं, इसलिए सत्ता में रहते हुए उनसे समन्वय बिठाना एक अत्यन्त कठिन कार्य होता है, लेकिन इस कार्य को ज्योति बसु ने शायद सबसे कुशलता और लोकप्रियता के साथ अन्त समय तक निभाया।
आज जब वे नहीं हैं, तब अक्सर उनका मार्ग रोकने वाले माकपा संगठन के लोगों को अनुभव होना चाहिए कि उन्होंने कितना सच्चा -अज्छा समर्पित कॉमरेड गंवाया है। बहरहाल, हर लोकतान्त्रिक नेता की तरह ज्योति बसु के हिस्से में भी कई सफलताओं के साथ कुछ विफलताएं भी आई। वे मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद को अपना राजनीतिक दर्शन मानते थे, लेकिन दोनों ही मोर्चों पर उन्हें ज्यादा सफलताएं नहीं मिलीं। भूमि सुधार से पश्चिम बंगाल के समाज में व्यापक सकारात्मक बदलाव तो हुए, लेकिन जरूरत कई तरह के सुधारों की थी, जो शायद दलगत व भारतीय व्यवस्था की विधिगत मजबूरियों की वजह से सम्भव न हो सके। उनके प्रदेश की वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति कमजोर होती गई, केवल राजनीतिक शक्ति को सत्ता का सहयोग मिला। आंकड़े बताते हैं, पश्चिम बंगाल विकास की दौड़ में अनेक राज्यों से पीछे दौड़ रहा है। हां, ज्योति बसु को इस बात श्रेय अवश्य जाता है कि नवंबर 2000 तक उनके मुख्यमंत्री रहने तक पश्चिम बंगाल में असन्तोष ज्यादा नहीं उभर सका था, क्योंकि वे तमाम तरह के असन्तोषों के सामने स्वयं समाधान बनकर खड़े हो जाते थे। वे थे, तो वाम संगठन के लोग चादर तानकर सोते थे, लेकिन अब उनके न रहने से वह चादर छिन जाने को है। पश्चिम बंगाल में चादर की सलामती के लिए वामपन्थियों को फिर भूमि सुधार जैसे किसी बड़े उपयोगी सुधार की जरूरत है। वे अगर सुधार करना चाहेंगे, तो उनके लिए ज्योति बसु का उदारवाद-समन्वयवाद कदम-कदम पर कारगर साबित होगा।

- राजस्थान पत्रिका के लिए मेरे द्वारालिखा गया सम्पादकीय -

Friday, 15 January 2010

जेपी का गांव














जब भी जयप्रकाश नारायण के बारे में पढ़ता था, मन में यह बात उठती थी कि एक बार उनके गांव जाकर देखना चाहिए। बचपन से ही यह सुनता आया था कि मेरे अपने गांव से जयप्रकाश नारायण का गांव बहुत दूर नहीं है। पिछले साल 28 अक्टूबर को जेपी के गांव जाने का सपना साकार हुआ। अपने गांव शीतलपुर बाजार से मांझी तक सड़क ऐसी थी कि नीतीश कुमार पर बहुत गुस्सा आ रहा था। नीतीश ने उत्तरी बिहार पर बहुत कम ध्यान दिया है। स्थानीय नेता तो बस चुनाव जीतने और हारने के लिए ही आते हैं। कई नेता तो यह मानकर लूट मचाते हैं कि अगली बार जनता मौका नहीं देगी। कहीं सड़क पर खड्ढे हैं, तो कहीं खड्ढे में सड़क। ऐसी सड़कों पर पैदल चलना भी चुनौतीपूर्ण है। सात किलोमीटर दूर मांझी पहुंचने में लगभग पैंतालीस मिनट लग गए। फिर सरयू पर बना नया पुल पार किया, यह पुल भी लगभग बीस साल में तैयार हुआ है। खराब सड़कों की वजह से पुल से वाहनों की आवाजाही अभी कम ही है। खैर, आगे भी सड़क कहने को राजमार्ग है, हालत खस्ता है।
जेपी के गांव सिताब दीयरा के लिए छपरा-बलिया सड़क मार्ग से बाईं ओर मुड़ना होता है। दीयर का इलाका भी मैंने पहली बार देखा। दूर-दूर तक सपाट खेत, ऊंची सड़क से कहीं कहीं धूल उड़ाती गुजरती कार। सिताब दीयरा बहुत बड़ा गांव है, शायद 27 टोलों का। सड़क की बाईं ओर समानांतर लगभग पांच सौ मीटर दूर गांव शुरू हो चुका है, अपेक्षाकृत अच्छी, लेकिन सूनी सड़क पर पूछते-पूछते हम आगे बढ़ रहे हैं। जेपी ने चंबल में डकैतों से समर्पण करवाया, लेकिन उनका खुद का इलाका हमेशा से चोरों-लुटेरों से परेशान रहा है। जिस सड़क से हम गुजर रहे हैं, वह सुरक्षित नहीं है। बाईं ओर कई टोलों को पार करते हुए दाईं ओर एक टोला नजर आता है, पूछने पर पता चलता है, हां, इधर ही जयप्रकाश नारायण का घर है। उनके टोले में प्रवेश करते हुए लगता है कि किसी पॉश कॉलोनी में आ गए हैं। कई शानदार भवन, बागीचे, द्वार, अच्छी सड़कें। कोई भीड़भाड़ नहीं है। टोले के ज्यादातर लोग शायद बाहर ही रहते हैं। बाहर से भी यहां देखने के लिए कम ही लोग आते हैं। इस टोले का नाम पहले बाबुरवानी था, यहां बबूल के ढेरों पेड़ थे। जेपी के जन्म से काफी पहले जब सिताब दीयरा में प्लेग फैला, तो बचने के लिए जेपी के पिता बाबुरवानी में घर बनाकर रहने आ गए।
दीयर इलाका वह होता है, जो नदियों द्वारा छोड़ी गई जमीन से बनता है। सिताब दियरा गांव गंगा और सरयू के बीच पड़ता है। नदियां मार्ग बदलती रहती हैं। कभी यह गांव बिहार में था, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में है, हालांकि बताया जाता है, राजस्व की वसूली बिहार सरकार ही करती है। वैसे भी ऐसी जमीनें हमेशा से विवादित रही हैं। जेपी के दादा दारोगा थे और पिता नहर विभाग में अधिकारी, अतः जेपी के परिवार के पास खूब जमीन थी। आजादी के बाद भी काफी जमीन बच गई। चूंकि दीयर इलाके में हर साल बाढ़ आती है, इसलिए मजबूत घर बनाना मुश्किल काम है, अतः जेपी के घर की छत खपरैल वाली ही थी। आज भी उनका घर बहुत अच्छी स्थिति में रखा गया है। देख-रेख बहुत अच्छी तरह से होती है। जेपी के गांव जाने से दो दिन पहले मैं डॉ राजेन्द्र प्रसाद के गांव भी गया था। जेपी का गांव मेरे गांव से 34 किलोमीटर दूर, तो राजेन्द्र बाबू का गांव 52 किलोमीटर दूर है। राजेन्द्र जी के गांव में उनकी उपेक्षा हुई है, जबकि सिताब दीयरा में जेपी सम्मानजनक स्थिति में नजर आते हैं।
यहां यह उल्लेख जरूरी है कि राजेन्द्र प्रसाद और जेपी के बीच रिश्तेदारी भी थी। राजेन्द्र बाबू के बड़े बेटे मृत्युंजय प्रसाद और जेपी साढ़ू भाई थे।
जेपी का घर, दालान, उनका अपना कमरा, उनकी वह चारपाई जो शादी के समय उन्हंे मिली थी, उनकी चप्पलें, कुछ कपड़े, वह ड्रेसिंग टेबल जहां वे दाढ़ी बनाया करते थे, सबकुछ ठीक से रखा गया है, जिन्हें देखा और कुछ महसूस किया जा सकता है। उनके घर की बाईं ओर शानदार स्मारक है। जहां उनसे जुड़े पत्र, फोटोग्राफ इत्यादि संजोए गए हैं। पत्रों में डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा राष्ट्रपति रहते हुए भोजपुरी में लिखा गया पत्र भी शामिल है। इंदिरा गांधी, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू इत्यादि अनेक नेताओं के पत्र व चित्र दर्शनीय हैं। दरअसल, बलिया में सांसद रहते चंद्रशेखर ने जेपी के प्रति अपनी भक्ति को अच्छी तरह से साकार किया है। चंद्रशेखर की वजह से ही बाबुरवानी का नाम जयप्रकाश नगर रखा गया है। उन्हीं की वजह से बाहर से आने वाले शोधार्थियों के पढ़ने लिखने के लिए पुस्तकालय है, तीन से ज्यादा विश्राम गृह, स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए कुटीर उद्योग हैं। काश, राजेन्द्र प्रसाद को भी कोई चंद्रशेखर जैसा समर्पित प्रेमी नेता मिला होता। चंद्रशेखर वाकई धन्यवाद के पात्र हैं। उजाड़ दीयर इलाके में उन्होंने जयप्रकाश नगर बनाकर यह साबित कर दिया है कि अपने देश में नेता अगर चाहें, तो क्या नहीं हो सकते।
लेकिन न जेपी रहे और न चंद्रशेखर। तो क्या जयप्रकाश नारायण नगर का वैभव बरकरार रह पाएगा? मोटे तोर पर जयप्रकाश नगर का विकास चंद्रशेखर की ही कृपा से हुआ, सांसद निधि से भी कुछ पैसा मिला करता था। स्मारक इत्यादि के लिए सरकार ने कभी कोई बजट नहीं दिया। जो नेता या पदाधिकारी आते थे, अपने विवेक से कुछ दान की घोषणा कर जाते थे। चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर, जो अब बलिया से सांसद हैं, स्मारक का ध्यान रख रहे हैं, लेकिन जयप्रकाश नगर में कुछ न कुछ बदलेगा, लेकिन जो भी बदलाव हो, उससे वैभव में वृद्धि ही हो, ताकि यहां आने वालों को सुखद अहसास हो।
यह पावन भूमि जेपी जैसे महान नेता की जन्मभूमि है। एक ऐसे नेता की भूमि है, जो महात्मा गांधी को चुनौती देने की हिम्मत रखता था। जिसमें पंडित नेहरू भी प्रधानमंत्री होने की सारी योग्यताएं देखते थे। जिन्होंने सदैव दलविहीन लोकतंत्र की पैरोकारी की। वे चाहते थे कि प्रतिनिधि सीधे चुनाव जीत कर आएं, राजनीतिक दलों के चुनाव लड़ने को वे गलत मानते थे। वे किसी भी क्षण सत्ता के चरम पर पहुंच सकते थे, लेकिन उन्होंने सत्ता के बजाय जन-संघर्ष का रास्ता चुना। सरकारी लोग उनके नाम से कांपते थे। उनका प्रभाव सत्ता में बैठे नेताओं से भी ज्यादा था। उन्होंने संपूर्ण क्रांति से देश की भ्रष्ट सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार को संभव बनाया। उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया। जीवन में सदैव नैतिक ऊंचाइयों को छूते रहे। उनके योगदानों की बड़ी लंबी सूची है। उनको चाहने वाले दुनिया के हर कोने में थे। अमेरिकी उन्हें पसंद करते थे, क्योंकि जेपी को बनाने में तब के जुझारू व मेहनतकश अमरीका का भी योगदान था, जेपी ने 1922 से 1929 तक अमरीका में रहकर मजदूरी करते हुए अध्ययन किया था। जब उनका निधन हुआ, तब सात दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा हुई थी। पटना में उनके अंतिम दर्शन के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ चलाई गई थीं। निस्संदेह, उनकी यादों व स्मारकों की अहमियत हमेशा बनी रहेगी।
वाकई याद रहेगा जेपी का गाँव, मौका मिला तो फिर आयेंगे।

Friday, 1 January 2010

जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी : पूज्य से भेंट



नव वर्ष में आकर जब पिछले को देखता हूं, तो सोचता हूं कि आखिर पिछले का क्या अगले में याद रह जाएगा या पिछले का क्या विशेष अगले में साथ रखने योग्य है। अगर किसी एक इंसान की चर्चा करूं, जिससे मैं लगातार मिलना चाहूंगा, तो वो हैं जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी। हत् भाग्य पत्रकारिता ने मानसिकता ऐसी बना रखी है कि मन में प्रश्न आवश्यकता से अधिक उपजते हैं। प्रश्नों ने जितना भला नहीं किया है, उससे ज्यादा कबाड़ा किया है। हालांकि खोज तो सदा रही है कि कोई मेरे कबाड़ व पूरी मानसिक अव्यवस्था को व्यवस्थित कर दे। शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी का धन्यवाद देता हूं और अफसोस भी जताता हूं कि उनके कई आग्रहों पर मैं ध्यान नहीं दे पाया, वरना अदभुत हस्ती रामनरेशाचार्य जी से मेरी भेंट बहुत पहले ही हो गई होती। इसी को सौभाग्य कहते हैं, वह तभी संभव है, जब भाग्य प्रबल हो, वरना दुर्भाग्य तो मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है। ग्रेगोरियन कलेंडर के वर्ष 2009 को मैं इसलिए याद रखना चाहूंगा, क्योंकि इस वर्ष मेरी भेंट पूज्य रामनरेशाचार्य जी से हुई। 30 दिसंबर की वह दोपहर सदा मेरी स्मृति में अंकित रहेगी। गेरुआ चादर लपेटे लंबी कद काठी के लगभग छह फुट के पूज्य श्री की छवि सदैव स्मरणीय है। पांव में गेरुआ मोजे, सिर और कान को ढकते हुए बंधा गेरुआ स्कार्फ यों बंधा था, मानो किसी ईश्वर ने अपने इन योग्य सुपुत्र को अपने हाथों से बाँधा हो। चेहरे पर सहजता-सरलता ऐसी मानो कुछ भी बनावटी न हो, कुछ भी आडंबरपूर्ण न हो, कुछ भी छिपाना न हो, कुछ भी पराया न हो, सबकुछ अपना हो, सब सगे हों। मेरे साथ समस्या है, मेरी दृष्टि उस चेहरे पर नहीं टिक पाती, जो चेहरा मुझसे बात करता है, लेकिन पहली बार बिना बगलें झांके मैंने अनायास पूज्य श्री को देखा। मेरे बारे में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने उन्हें पहले ही बता रखा था। वे एक तरह से मेरे जैसे तुच्छ ब्यक्ति से मिलना चाहते थे । आदर -सत्कार के बाद पहले उन्होंने संपादन की चर्चा की। यहां यह बताना उचित होगा कि पूज्य श्री के श्रीमठ (जो वाराणसी में पंचगंगा घाट पर स्थित है) से स्वामी रामानन्द जी पर एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है, जिसके संपादन में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने मेरा सहयोग लिया है, जिसके लिए मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। जिस पावन श्रीमठ की स्थापना महान श्री स्वामी रामानन्द जी ने की थी, जिससे कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा, सैन, तुलसीदास जी जैसी अनगिन महान विभूतियां निकलीं। जिन्होंने न केवल राम के नाम को जन-जन तक पहुंचाया, बल्कि समाज में धर्म भेद और जाति भेद को भी गौण बनाया। ऐसी महान विभूतियों को समाहित करने का प्रयास करती पुस्तक के संपादन में कुछ समय देकर सहयोगी बनना निस्संदेह सौभाग्य की बात है।
यह शायद मेरे भाग्य में लिखा था कि पहले मैं पूज्य रामानन्द जी को जानूं, उनके योगदान व शिष्यों को जानूं, उनकी छटांक भर सेवा करूं, उसके बाद ही मुझे पूज्य रामनरेशाचार्य जी के दर्शन सुलभ होंगे। देश में स्वतंत्र मन वाले जो कुछ सम्मानित धर्मगुरु हैं, उनमें रामनरेशाचार्य जी का नाम पूरी ईमानदारी के साथ समाहित है। राष्ट्र की मुख्यधारा राजनीति भी उनका महत्व जानती है। वे एक ऐसे गुरु हैं, जो किसी दलित को पुजारी बनाते हिचकते नहीं हैं, जो किसी मुस्लिम से मंदिर की नींव डलवाने का भी सु-साहस रखते हैं। तो संपादन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, कौन-सा लेख कहां जाना चाहिए, किसका लेख पहले जाना चाहिए, यह तय करना महत्वपूर्ण कार्य है। अच्छे संपादन से अखबार चमक जाते हैं। स्वामी रामानन्द जी पर मेरे स्वयं के लेख ,थोथा दिया उड़ाय, को सराहते हुए उन्होंने कहा कि पुस्तकों से उद्धरण देकर तो बहुत लोग लिख लेते हैं। ऐसा हमेशा से होता रहा है। साल दर साल यही सब चलता है। इतिहास पुरुषों पर मौलिक लेखन कम होता है।
बिहार चर्चा
पूज्य श्री के साथ हुई बिहार चर्चा विशेष रही। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि मेरी पैतृक भूमि बिहार है, तब उन्होंने उत्तर बिहार अर्थात पुराने छपरा जिला की विभूतियों को गिनाना शुरू किया। नामी संस्कृत विद्वानों के साथ-साथ उन्होंने कुंवर सिंह, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, भिखारी ठाकुर इत्यादि को याद किया। मैंने उन्हें बताया कि मेरे गांव से राजेन्द्र जी का घर 52 किलोमीटर दूर और जयप्रकाश नारायण का घर 34 किलोमीटर दूर स्थित है। मैंने यह भी बताया कि ठग नटवरलाल भी वहीं के थे, राजेन्द्र प्रसाद के गांव के बगल के, तो उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव भी वहीं के हैं। लेकिन उनका जोर उस भूमि की प्रशंसा पर था। उन्होंने बताया, सिकंदर ने पंजाब जीत लिया, लेकिन उसकी हिम्मत मगध या बिहार की ओर बढ़ने की नहीं हुई, क्योंकि वहां नंद वंश का शासन था। ऐसी धारणा थी कि अगर सिकंदर की सेना बिहार पर आक्रमण करती, तो कोई जीवित नहीं लौटता। इस बीच उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि हम भी वहीं से आते हैं। यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि पूज्य श्री का गांव भोजपुर के जगदीशपुर के परसिया में पड़ता है। ईश्वर ने चाहा, तो कभी उनके गांव की यात्रा करूंगा।
मेरे पैर सो गए
उनके चरणों में बैठे-बैठे मेरे पैर सो गए, तो अनायास मन में भाव आया कि पैर ये संकेत दे रहे हैं कि अब यहां थमा जा सकता है, आगे चलने या आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं है। यहां निश्चिंत हुआ जा सकता है, खुद को पूज्य श्री को समर्पित करते हुए। उनके साथ केवल धर्म नहीं है, उनके साथ एक राष्ट्रीय आंदोलन है, जो वास्तव में राष्ट्र को सशक्त करने की क्षमता रखता है। उनके साथ केवल कर्मकांडी नहीं, कर्मयोगी हुआ जा सकता है। ऐसा कर्मयोगी बना जा सकता है, जो राष्ट्र के सच्चे मर्म को समझता हो। उनकी कृपा की सदैव अपेक्षा रहेगी। अत्यंत संकोच के साथ बताना चाहूंगा कि महात्मा स्वामी रामानंद जी को पढ़ते-जानते हुए मेरी आंखों में आंसू आ गए थे और पूज्य श्री रामनरेशाचार्य से भेंट के उपरांत भी मेरे मन में आंसुओं का वैसा ही ज्वार उठा, जैसा ज्वार किसी खोए हुए अभिभावक को पाकर किसी अभागे पुत्र के मन में उठता होगा। लगा, मैं बहुत दिनों बाद फिर बच्चा हो गया हूं, उंगली पकड़कर चलना सीखने को तैयार बच्चा।
वही राम दशरथ का बेटा, वही राम घट-घट में व्यापा, वही राम ये जगत पसारा, वही राम है सबसे न्यारा।
निष्कर्ष
अब अपनी विवेचना करूं, तो पाता हूं कि मैं विचार भूमि पर प्रारंभ से ही रामानन्दी रहा था, अभी भी हूं और आगे भी रहूंगा।