अन्तिम लाल सलाम
रविवार, 17 जनवरी को भारतीय वामपन्थ ने अपना सबसे कामयाब क्वलाइट हाउसं गंवा दिया। ज्योति बसु के न होने से अब जो वाम सागर पीछे छूट गया है, उसमें भटकाव की आशंकाएं बहुत बढ़ गई हैं। आज से पहले जब वामपन्थी भटकते थे, तब ज्योति बाबू लाइट हाउस की भूमिका में आकर भटकाव से बचने की अपील तो करते ही थे। अब यह अलग सवाल है कि ज्योति बाबू की अपील पर कितने कॉमरेडों ने ध्यान दिया। कोई शक नहीं कि उनकी अपीलें अगर मानी गई होतीं, तो वामपन्थ सत्ता की राजनीति में ज्यादा प्रभावी रहता और देश की ज्यादा सेवा कर पाता। वामपन्थ और लोकतन्त्र, दो अलग दिशाओं में बहती विचारधाराएं हैं, लेकिन ज्योति बसु दोनों के बीच न केवल तालमेल बनाए हुए थे, बल्कि उन्होंने सत्ता का स्वाद भी भरपूर लिया। दुनिया के कोने-कोने में सत्ता में वर्चस्व के लिए संघर्षरत वामपन्थियों को उनसे इर्ष्या होती थी कि एक कॉमरेड मुख्यमंत्री कार्यालय में कैसे 23 साल तक विराजमान रहा। विरोधी विचारधाराओं के लोग चाहे जो कहें, कॉमरेडों के लिए वे आदर्श थे, उनके दर्शन से ही कॉमरेडों को सुख मिल जाता था। उनसे राजनीतिक गुर सीखकर यथोचित मार्ग मिल जाता था। सार्वजनिक लोकतान्त्रिक जीवन जीने में सहूलियत बढ़ जाती थी। वामधारा में चूंकि राजनीतिक संगठन बहुत कट्टर और विचारधारा के प्रति बहुत दृढ़ होते हैं, इसलिए सत्ता में रहते हुए उनसे समन्वय बिठाना एक अत्यन्त कठिन कार्य होता है, लेकिन इस कार्य को ज्योति बसु ने शायद सबसे कुशलता और लोकप्रियता के साथ अन्त समय तक निभाया।
आज जब वे नहीं हैं, तब अक्सर उनका मार्ग रोकने वाले माकपा संगठन के लोगों को अनुभव होना चाहिए कि उन्होंने कितना सच्चा -अज्छा समर्पित कॉमरेड गंवाया है। बहरहाल, हर लोकतान्त्रिक नेता की तरह ज्योति बसु के हिस्से में भी कई सफलताओं के साथ कुछ विफलताएं भी आई। वे मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद को अपना राजनीतिक दर्शन मानते थे, लेकिन दोनों ही मोर्चों पर उन्हें ज्यादा सफलताएं नहीं मिलीं। भूमि सुधार से पश्चिम बंगाल के समाज में व्यापक सकारात्मक बदलाव तो हुए, लेकिन जरूरत कई तरह के सुधारों की थी, जो शायद दलगत व भारतीय व्यवस्था की विधिगत मजबूरियों की वजह से सम्भव न हो सके। उनके प्रदेश की वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति कमजोर होती गई, केवल राजनीतिक शक्ति को सत्ता का सहयोग मिला। आंकड़े बताते हैं, पश्चिम बंगाल विकास की दौड़ में अनेक राज्यों से पीछे दौड़ रहा है। हां, ज्योति बसु को इस बात श्रेय अवश्य जाता है कि नवंबर 2000 तक उनके मुख्यमंत्री रहने तक पश्चिम बंगाल में असन्तोष ज्यादा नहीं उभर सका था, क्योंकि वे तमाम तरह के असन्तोषों के सामने स्वयं समाधान बनकर खड़े हो जाते थे। वे थे, तो वाम संगठन के लोग चादर तानकर सोते थे, लेकिन अब उनके न रहने से वह चादर छिन जाने को है। पश्चिम बंगाल में चादर की सलामती के लिए वामपन्थियों को फिर भूमि सुधार जैसे किसी बड़े उपयोगी सुधार की जरूरत है। वे अगर सुधार करना चाहेंगे, तो उनके लिए ज्योति बसु का उदारवाद-समन्वयवाद कदम-कदम पर कारगर साबित होगा।
रविवार, 17 जनवरी को भारतीय वामपन्थ ने अपना सबसे कामयाब क्वलाइट हाउसं गंवा दिया। ज्योति बसु के न होने से अब जो वाम सागर पीछे छूट गया है, उसमें भटकाव की आशंकाएं बहुत बढ़ गई हैं। आज से पहले जब वामपन्थी भटकते थे, तब ज्योति बाबू लाइट हाउस की भूमिका में आकर भटकाव से बचने की अपील तो करते ही थे। अब यह अलग सवाल है कि ज्योति बाबू की अपील पर कितने कॉमरेडों ने ध्यान दिया। कोई शक नहीं कि उनकी अपीलें अगर मानी गई होतीं, तो वामपन्थ सत्ता की राजनीति में ज्यादा प्रभावी रहता और देश की ज्यादा सेवा कर पाता। वामपन्थ और लोकतन्त्र, दो अलग दिशाओं में बहती विचारधाराएं हैं, लेकिन ज्योति बसु दोनों के बीच न केवल तालमेल बनाए हुए थे, बल्कि उन्होंने सत्ता का स्वाद भी भरपूर लिया। दुनिया के कोने-कोने में सत्ता में वर्चस्व के लिए संघर्षरत वामपन्थियों को उनसे इर्ष्या होती थी कि एक कॉमरेड मुख्यमंत्री कार्यालय में कैसे 23 साल तक विराजमान रहा। विरोधी विचारधाराओं के लोग चाहे जो कहें, कॉमरेडों के लिए वे आदर्श थे, उनके दर्शन से ही कॉमरेडों को सुख मिल जाता था। उनसे राजनीतिक गुर सीखकर यथोचित मार्ग मिल जाता था। सार्वजनिक लोकतान्त्रिक जीवन जीने में सहूलियत बढ़ जाती थी। वामधारा में चूंकि राजनीतिक संगठन बहुत कट्टर और विचारधारा के प्रति बहुत दृढ़ होते हैं, इसलिए सत्ता में रहते हुए उनसे समन्वय बिठाना एक अत्यन्त कठिन कार्य होता है, लेकिन इस कार्य को ज्योति बसु ने शायद सबसे कुशलता और लोकप्रियता के साथ अन्त समय तक निभाया।
आज जब वे नहीं हैं, तब अक्सर उनका मार्ग रोकने वाले माकपा संगठन के लोगों को अनुभव होना चाहिए कि उन्होंने कितना सच्चा -अज्छा समर्पित कॉमरेड गंवाया है। बहरहाल, हर लोकतान्त्रिक नेता की तरह ज्योति बसु के हिस्से में भी कई सफलताओं के साथ कुछ विफलताएं भी आई। वे मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद को अपना राजनीतिक दर्शन मानते थे, लेकिन दोनों ही मोर्चों पर उन्हें ज्यादा सफलताएं नहीं मिलीं। भूमि सुधार से पश्चिम बंगाल के समाज में व्यापक सकारात्मक बदलाव तो हुए, लेकिन जरूरत कई तरह के सुधारों की थी, जो शायद दलगत व भारतीय व्यवस्था की विधिगत मजबूरियों की वजह से सम्भव न हो सके। उनके प्रदेश की वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति कमजोर होती गई, केवल राजनीतिक शक्ति को सत्ता का सहयोग मिला। आंकड़े बताते हैं, पश्चिम बंगाल विकास की दौड़ में अनेक राज्यों से पीछे दौड़ रहा है। हां, ज्योति बसु को इस बात श्रेय अवश्य जाता है कि नवंबर 2000 तक उनके मुख्यमंत्री रहने तक पश्चिम बंगाल में असन्तोष ज्यादा नहीं उभर सका था, क्योंकि वे तमाम तरह के असन्तोषों के सामने स्वयं समाधान बनकर खड़े हो जाते थे। वे थे, तो वाम संगठन के लोग चादर तानकर सोते थे, लेकिन अब उनके न रहने से वह चादर छिन जाने को है। पश्चिम बंगाल में चादर की सलामती के लिए वामपन्थियों को फिर भूमि सुधार जैसे किसी बड़े उपयोगी सुधार की जरूरत है। वे अगर सुधार करना चाहेंगे, तो उनके लिए ज्योति बसु का उदारवाद-समन्वयवाद कदम-कदम पर कारगर साबित होगा।
- राजस्थान पत्रिका के लिए मेरे द्वारालिखा गया सम्पादकीय -
3 comments:
Good Site
http://www.banglablogs.org/out.php?ID=100
Bahut dhuk ki baat hai ke desh ek saccha desh premik ko kho diya.
Sir apko mera bahot bahot Dhanybad aaj apke madhyam se J.P se jure hue kuchh anchhue hue pahlu ko najdik se samjhne ka mauka mila.........ek bar phir se apko mera Dhanyabad
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