पिताजी बताते हैं कि कभी हमारे गांव में १३ वकील हुआ करते थे। एक लाइब्रेरी हुआ करती थी, जो पूरे इलाके में मशहूर थी। १३ वकीलों में से १२ लाला जी लोग थे और एक ब्राह्मण। अब उनमें से किसी के वंशज गांव में नहीं हैं। लाला जी लोगों के वर्चस्व के समय गांव को उचित नेतृत्व मिला हुआ था। गांव में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर साफ-सफाई के लिए अभियान भी चला करते थे। सुविधाओं के लिहाज से भी हमारा गांव बहुत अच्छा था। हमारे बगल के प्रसिद्ध गांव बरेजा से भी आगे था हमारा गांव। बरेजा स्वतंत्रता सेनानी सावलिया जी और गिरिश तिवारी की वजह से जाना जाता था। तिवारी जी बिहार की पहली सरकार में शिक्षा मंत्री रहे थे। जवाहरलाल नेहरू भी बरेजा आए थे। उसे एक समय क्रांतिकारियों का गढ़ माना जाता था। लेकिन ऐसे बरेजा गांव से ज्यादा सुकून शीलतपुर में था, क्योंकि कायस्थ समुदाय ने कमान सम्भाल रखी थी। आंदोलन इत्यादि में वे भी भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे, लेकिन गांव के बारे में भी बहुत सोचते थे। होली-दीवाली पर उनके पूरे परिवार गांव में जुट जाते थे। चहल-पहल हो जाती थी। सांस्कृतिक-सामाजिक सरगर्मी बढ़ जाती थी। गांव के बारे में कायदे की बातें होती थीं। हमारे गांव में लाला जी लोगों की कृ़पा से ही पांच छह टमटम हुआ करते थे, लेकिन बरेजा में बामुश्किल एक टमटम हुआ करता था। लाला जी लोग स्वयं घोड़े खरीदने के लिए पैसे देते थे। घोड़े के चारे के लिए पैसे देते थे, ताकि सवारी में आसानी हो। शीतलपुर से एकमा रेलवे स्टेशन आना जाना लगा रहता था। कोई बनारस रहता, तो कोई कलकत्ता तो कोई पटना, बलिया। टमटम से स्टेशन पर पहुंचते, तो टमटम वाले को एक-दो रुपया दे देते थे कि जाओ जब हम लौटेंगे, तो सूचना देंगे, हमें फिर लेने आ जाना। अब वह दौर कोई मोटरगाड़ी का तो नहीं था। गांव से रेल स्टेशन एकमा जाने के लिए ये टमटम हुआ करते थे या फिर पैदल ही जाना पड़ता था, तो लाला जी लोग शान से रहते थे और शान को बरकरार रखने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। ऐसा नहीं कि टमटम केवल लाला जी लोगों के लिए होते थे, बाकी दिनों में उनका इस्तेमाल आम लोग भी करते थे, ईमानदारी से किराया देते थे, वर्ना लालाओं के पास जमींदारी तो थी। जबकि बरेजा में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला मामला था, टमटम वाला अगर किराया मांगने की हिमाकत करता, तो ताकतवर समाज के लोग उसकी दैहिक समीक्षा मतलब पिटाई में पीछे नहीं रहते थे। संभवत: १९५५ के आसपास लालाओं का गांव से मोहभंग होने लगा। इसकी एक वजह यह थी कि जो मुख्य परिवार था, उनके लड़के ठीक-ठाक नहीं निकले। बाकी लाला परिवार अच्छे थे, लेकिन उनके लड़के बाहर रहने लगे थे, नेतृत्व के अभाव में उनका भी मन खट्टा होने लगा। जगन्नाथ प्रसाद जी लाइब्रेरी सम्भाले हुए थे। उनके विशाल घर के बड़े-बड़े तीन कमरों में करीब ५० हजार किताबें आलमारियों में भरी हुई थीं। १८५० से लेकर १९५० तक जितनी भी किताबें उपलब्ध हुई थीं, जुटाई गई थीं। वास्तव में यह लाइब्रेरी जगन्नाथ प्रसाद जी के पिता जी दामोदर प्रसाद जी द्वारा जुटाई गई थी। वे अपने जमाने में स्कूल इंस्पेक्टर हुआ करते थे। उनका अपना रुतबा था। हमारे गांव के लाला जी लोग एक से एक बड़े पद पर विराजमान थे। कोई बलिया जा बसा, koi बनारस तो किसी ने कोलकाता, तो kisine पटना या छपरा में घर बना लिया। गांव आना जाना कम हो गया। गांव से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला, तो लाइब्रेरी की किताबें धीरे-धीरे बिक गईं। एक अच्छी परंपरा का अंत हो गया। जगन्नाथ जी के लड़के आज भी कला जगत में सक्रिय हैं, उनके बड़े बेटे पाण्डेय कपिल भोजपुरी साहित्य में जाना पहचाना नाम हैं, पटना में रहते हैं। मेरे बड़े पिताजी के क्लासमेट रहे हैं। उनका भी गांव आना जाना खत्म सा हो गया है। ज्यादातर लालाओं ने खेती वाली जमीन बेच दी है। कुछ ने अपने घर भी बेचे हैं, कुछ अभी भी भूले-भटके अपने घर की देखरेख करने आ जाते हैं, लेकिन गांव में टिकता कोई नहीं है। मुझे ऐसा लगता है, लाला जी लोगों के जाने के बाद से ही हमारा गांव नेतृत्वहीन हुआ है। उनमें एक दया व सेवा का भाव हुआ करता था, उन्होंने कभी लूटकर राज नहीं किया। वे अच्छे थे, इसलिए उन्हें शायद गांव छोड़कर जाना पड़ा। वे आराम से शान से रहना चाहते थे, लेकिन गांव के बदलते समाज से उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिल सका। हालांकि यह एक तरह का पलायन है, लेकिन फिर भी इस पलायन की एक वजह है। जिसके विस्तार में जाना एक विस्तृत शोध के विस्तार में जाना होगा। गांव या बिहार की परिस्थितियां वाकई शोध की मांग करती हैं। पलायन एक ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसे हंसी हो-हल्ले में उड़ाया जा सके। दोषी केवल पलायन करने वाले नहीं हैं। जो पलायन करके जा चुके हैं, आज उनके लिए कौन तड़प रहा है? चिंता तो यह है कि लाला जी जा रहे हैं, तो जाएं, हमें अपना जमीन-घर सस्ते में दे जाएं। मैं जब गांव वालों के बीच में यह बोलता हूं कि लालाओं के जाने के बाद गांव भटक गया, तो सब इधर-उधर देखने लगते हैं, शायद वे शीलतपुर के गौरवशाली अतीत को भूल चुके हैं या भुला चुके हैं या उनके पिता ने उन्हें नहीं बताया कि शीतलपुर पहले कैसा था। मैं तो अपने पिता व बड़े पिता को खोद-खोद कर पूछता हूं कि बताइए शीतलपुर कैसा था, वे बताते हैं कि बहुत अच्छा था और मैं सोचने लगता हूं कि यह फिर कैसे अच्छा होगा।
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