Monday, 5 July 2010

बदलाव आहिस्ता-आहिस्ता

कहीं मैंने इंटरनेट पर देखा है कि मेरा गांव शीतलपुर बाजार मांझी ब्लॉक का आदर्श गांव है, लेकिन जमीन हकीकत ऐसी नहीं है कि इसे आदर्श गांव कहा जा सके। फिर भी तमाम कमियों के बावजूद धीरे-धीरे बदल रहा है मेरा गांव। लगभग हर घर में मोबाइल फोन है, ज्यादातर घरों में एक से ज्यादा मोबाइल है। प्रति मोबाइल एक से ज्यादा सिम कार्ड है। मतलब गांव में जितने लोग हैं, शायद उतने ही मोबाइल कनेक्शन हैं। कुछ साल पहले एसटीडी बूथों पर लाइन लगा करती थी, बाहर बात करने के लिए एसटीडी बूथों पर घंटों बैठना पड़ता था, लाइन बड़ी मुश्किल से मिलता था। एसटीडी बूथ पर बाहर से भी फोन आते थे। एसडीटी बूथ वाले की बड़ी जिम्मेदारी हुआ करती थी कि जिसका फोन आए, उसे गांव से बुलाना पड़ता था। अब एसटीडी बूथों की रौनक खत्म हो गई है, धंधा चौपट हो गया है। चार-पांच बूथ हुआ करते थे, लेकिन अब एकाध ही बचा है, बस नाम के लिए। घर-घर में मोबाइल हो गया। बिजली नहीं है, कनेक्शन है, बामुश्किल एकाध घंटे के लिए बिजली आती है। उससे मोबाइल को चार्ज करना मुश्किल है। लेकिन जनरेटर से मोबाइल चार्ज करने का धंधा चल निकला है। लोग टीवी देखने के लिए भी जनरेटर से ही बैटरी चार्ज करते हैं। टीवी का क्रेज अब पहले जैसा नहीं है, क्योंंकि दूरदर्शन पर ढंग के प्रोग्राम नहीं आते हैं। रामायण-महाभारत के समय बात ही कुछ और थी। केबल नेटवर्क अभी गांव में नहीं पहुंचा है। हां, कुछ लोगों ने डीटीएच लगवा रखा है।
गांव में बिजली की जरूरत सभी को महसूस होने लगी है। तो बिजली का जुगाड़ भी किया गया है। इस बार मैंने देखा, प्रति प्वाइंट ८० रुपए महीना के दर से जनरेटर से पैदा बिजली का आवंंटन हो रहा है। सिंगल फेज है, बस सीएफएल जलता है। पंखा नहीं चलाया जा सकता। सामान्य बल्ब नहीं जलाया जा सकता। हां, मोबाइल चार्ज हो सकता है। जनरेटर से बिजली पैदा करके बांटने का धंधा चमकने लगा है। गांव में दो-तीन लोगों ने यह धंधा शुरू किया है। शाम को अंधेरा होते ही बिजली आपूर्ति शुरू हो जाती है और करीब तीन घंटे तक आपूर्ति होती है। मैं जब गांव में था, तब साढ़े सात बजे बिजली आती थी और साढ़े दस बजे चली जाती थी। घर में शादी का माहौल था, तो जनरेटर वाले को बोल रखा था कि भइया आधा घंटे देर से जनरेटर बंद करना। कहां जाता है, अगर इच्छा हो, तो राह निकल आती है। बिजली के लिए राह निकल आई है। शायद कोई हिम्मत करेगा और जनरेटर से ही चौबीस घंटे बिजली की आपूर्ति भी संभव हो पाएगी, लेकिन जरूरी है कि लोग बिजली की कीमत समझें और ईमानदारी से कीमत चुकाएं। एक और तब्दीली आई है, जितने साइकिलें हैं, उससे कुछ ही कम मोटरसाइकिलें होंगी। मोटरसाइकिल होने से रात-बिरात कहीं आना-जाना आसान हो जाता है। माहौल खराब है, पूरी तरह से सुधरा नहीं है, लेकिन लोग रात के समय भी जरूरी होने पर आना-जाना करने लगे हैं। अब डर पहले जैसा नहीं है। पहले तो दस-ग्यारह बजे रात में रेलवे स्टेशन की ओर जाने के बारे में सोचना मुश्किल था। लोग रेलवे स्टेशन पर अगर शाम आठ बजे के बाद बाहर से पहुंचते थे, तो वहीं रात गुजारनी पड़ती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अगर आप रात के समय भी स्टेशन पर पहुंचें, तो आपको वहां जीप, सफारी, मार्शल इत्यादि गाडिय़ां मिल जाएंगी। आप रिजर्व करके अपने घर जा सकते हैं। रास्ते में लूट कम हुई है। देर रात कहीं आप जा रहे हों, तो हल्का डर तो लगता है, लेकिन धीरे-धीरे बात करते हुए रास्ता कट ही जाता है। पुलिस की व्यवस्था बिल्कुल नहीं सुधरी है। बिहार में बड़ी संख्या में पुलिस चौकियों की जरूरत है, ताकि कम से कम बड़े गांवों के करीब पुलिस चौकी बने, जो जरूरत पडऩे पर सुरक्षा मुहैया कराने का काम करे। तो एक ओर, जहां मूलभूत ढांचे पर ध्यान देना होगा, वहीं कानून-व्यवस्था भी पुख्ता करने की जरूरत है। बिहार के ये इलाके पिछड़े हुए जरूर हैं, लेकिन यहां लोग पिछड़े हुए नहीं हैं। ज्यादातर लोग मजबूर हैं, कुछ कर नहीं सकते। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर जीते हैं। इलाके विधायक और सांसद को ध्यान देना चाहिए। आम लोगों को अभी भी नीतीश कुमार से बड़ी उम्मीदें हैं। नीतीश के साढ़े चार साल में लोग ऊबे नहीं हैं, लोगों में विश्वास जगा है। यह बात नकारात्मक भी है और सकारात्मक भी यहां के लोग जल्दी नहीं ऊबते हैं। लालू से ऊबने में लोगों ने पंद्रह साल लगा दिए। नीतीश से ऊबने में कम से कम दस साल तो लगने ही चाहिए। पांच-छह वर्ष में तस्वीर बदलनी चाहिए, बदल भी रही है, लेकिन रफ्तार धीमी है।

2 comments:

गंगा सहाय मीणा said...

खूबसूरत ब्‍लॉग. भारतीय ग्रामीण जीवन में तेजी से आ रहे बदलावों को आपने सही रेखांकित किया है. भारत के गांवों में जितना परिवर्तन 20वीं सदी के अंतिम 50 वर्षों में हुआ होगा, लगभग उतना ही परिवर्तन 21वीं सदी के आरंभिक 10 वर्षों में हो गया है. सच में बिजली, मोटरसाइकिल और मोबाइल ने गांव के लोगों की जिंदगी बदल दी है.
हम सब लोग शहरों में आकर अपने गांवों को भूलते जा रहे हैं. आपकी यह बेहतरीन पोस्‍ट पढकर मन यही कह रहा है- 'आओ गांव चलें'.
हिन्‍दी कथा साहित्‍य में भी अब धीरे-धीरे इस बदले हुए गांव की अभिव्‍यक्ति होने लगी है.

ASHOK KUMAR DUBEY said...

Gyaneshji ,
Gaon ke bare men aapki likhi baten solah aane sach hai aur kamo besh sabhi gaon ka hal ek jaisa hi hai par yah baat pakki hai ki Nitishji ke shashan kal men gaon ka wikas bhi huwa hai main bhi Bhojpur ke Dubowly Gaon ka rahne wala hun aur Nitishji ka rajnitik jiwan wahin se shuru huwa hai unhone is sal gaon ki sadak banwa dee aur bijli bhi aa gayi hai bhale bijli kuchh der ke liye hi kyon na rahti ho. Atah main to yahi chahunga aur logon ko bhi kahunga ki Nitish ko ek mauka aur jarur dena chahiye, Dhanyawad
Ashok Kumar Dubey, Delhi-75