Friday, 11 June 2010

इंतहा हो गई

हां, बदल रहा है बिहार, लेकिन समय की परवाह बहुत जरूरी है। बिहार में एक बड़ा तबका समय की कोई परवाह नहीं कर रहा है। ताकतवर लोग समय को अपने हिसाब से हांकना चाहते हैं, शायद यह भी एक कारण है, बिहार के पिछडऩे और बदनाम होने का। अमर उजाला के दिनों में मैंने देखा है, बिहारी पत्रकार भाई लोग छुट्टी पर जाते थे, तो निर्धारित तिथि पर लौटने की गारंटी नहीं होती थी। हम हूँ बिहारी हैं लेकिन जब बिहार गए हैं वापसी का टिकट लेकर गए हैं, खैर समय की बेकद्री पर इस बार चर्चा चली, तो एक बिहारी कर्मचारी महोदय ने सुनाया, एक महोदय ने छुट्टी के लिए आवेदन दिया, जिसमें कब से छुट्टी की तिथि तो अंकित थी, लेकिन कब तक की तिथि की जगह लिखा था, 'लौटने तक, अब लौटने तक की क्या तिथि है, सीमा है? बिहार की वापसी हो तो रही है, लेकिन कब तक होगी, कहना मुश्किल है, नीतीश कुमार भी बिहार के वैभव के लौटने की तिथि नहीं बतला सकते।
बिहार यात्रा में मैंने समय के प्रति लापरवाही को भारी मन से झेला। बड़े भतीजे की बारात पटना जानी थी, ४ चार पहिया वाहन तो निर्धारित समय १ बजे आ गए, लेकिन बस के इंतजार में खूब मगजमारी करनी पड़ी। १२ बजे फोन किया गया, तो पता चला बस सीवान में है, वहां से गांव आने के लिए चल चुकी है। एक घंटे बाद तकादा हुआ, तो पता चला, बस छपरा में है, गांव के लिए चल चुकी है। यहां हम बता दें कि हमारे गांव के लिए सीवान और छपरा दो छोर हैं, जिनके बीच साठ किलोमीटर से भी ज्यादा की दूरी है। जो लोग जयपुर-दिल्ली जैसे हाईवे पर चले हों, उनके लिए साठ किलोमीटर कोई मायने नहीं रखते, लेकिन जो लोग सीवान और छपरा में रहते हैं, उनके लिए साठ किलोमीटर का फासला पूरे एक दिन का फासला भी हो सकता है। सीवान और छपरा सड़क राजमार्ग है, लेकिन वन वे ही है, बामुश्किल दो गाडिय़ां एक दूसरे को लगभग चूमती हुई निकलती हैं। यह राजमार्ग हाजीपुर तक वन वे की तरह ही है। बताते हैं कि फोर लेने की योजना मंजूर हो गई है, लेकिन सवाल फिर वही समय की परवाह का है। तो बस वाला धोखा दे रहा था। बस मालिक का फोन नहीं लग रहा था और बस के बिचौलिये ने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया था। सवाल केवल समय के प्रति लापरवाही का नहीं है, सवाल बदमाशी की पराकाष्ठा का है। हमारा परिवार सीधा है, सब नौकरीपेशा, पेशेवर लोग हैं, पहली बार मुझे और मेरे एक डॉक्टर भतीजे को लगा कि परिवार में एक गुंडा टाइप का आदमी भी होना चाहिए, केवल सीधी उंगली से बिहार में घी निकालना मुश्किल है। मजबूरन चौपहिया वाहनों को पटना के लिए रवाना किया गया, यह सोचकर कि कम से कम कुछ लोग तो पटना पहुंच जाएं, ताकि जरूरत पडऩे पर बारात दरवाजे लगाई जा सके। कम से कम ७० लोग बस के इंतजार में पीछे छूट गए। मन मसोसकर मैं भी एक मार्शल से पटना की ओर रवाना हुआ, रास्ते में संभवत: गांव से १५ किलोमीटर दूर कोपा के पास वह बस दिखाई दी, जिसकी बुकिंग थी। बस के ड्राइवर-कंडक्टर सवारी ढो रहे थे, पूछा गया, 'कहां जा रहे हैं, तो कोई जवाब नहीं मिला। पूछा गया कि 'शीतलपुर जा रहे हैं, तो जवाब मिला 'हां, फिर पूछा गया, 'इतनी देर से क्यों जा रहे हैं, तो जवाब मिला, 'मालिक से बात कीजिए। अभद्र ड्राइवर सीधे मुंह बात करने को तैयार न था। देरी का कोई अफसोस नहीं था, आवाज में पूरी बेशर्मी थी। मन में फिर एक बार हिंसा जागी। बहरहाल, एक बजे जिस बस को गांव से बारात लेकर रवाना होना था, वह पांच बजे शाम रवाना हुई। बस को लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी तय करके पटना पहुंचने में कम से कम साढ़े चार घंटे लगने थे। फिर एक बार जयपुर-दिल्ली हाईवे की याद आई, जहां साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी वोल्वो पांच घंटे में पूरी कर लेती है। बारात लेकर पटना जा रही बस भी वोल्वो ही थी, लेकिन सड़क बिहार वाली थी और जाम भी बिहार वाला। उस दिन ३१ मई को खूब लग्न था। जगह-जगह जाम लगा हुआ था। एक और बात बता दें, मैं जिस चौपहिया में जा रहा था, वह सोनपुर पहुंचने तक चार बार पंक्चर हो चुका था। हमने तय कर लिया था हमे पटना ले जा रही मार्शल पांचवी बार पंक्चर हुई, तो पीछे आ रही बस में सवार हो जाएंगे। यह बहुत आम बात है, आजकल बिहार में कारोबारी दिमाग के लोग दिल्ली, बंगाल से खटारा गाडिय़ां खरीद लाते हैं और लगन के मौसम में झोंक देते हैं। गनीमत थी कि केवल हमारी गाड़ी खटारा थी। दो गाडिय़ां तो सरपट दौड़ती हुई रात नौ बजे तक पटना पहुंच गईं। लेकिन बस सहित तीन गाडिय़ां पीछे रह गईं। पटना में प्रवेश से पहले ही गांधी सेतु से पहले भयानक जाम लग गया। एक ट्रक ने तीन-चार महिलाओं व बच्चों को कुचल दिया था। ग्रामीण नाराज थे, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दुर्घटनास्थल पर बुलाने की शर्त के साथ जाम लगाए हुए थे। आगजनी और तोड़-फोड़ भी जमकर हुई थी। खैर उसी लंबे जाम में आगे दूल्हे की गाड़ी थी, बीच में हमारी गाड़ी थी और सबसे पीछे बस थी। जाम कब खुलेगा कोई नहीं जानता था, पुलिस वाले आ रहे थे जा रहे थे। एंबुलेंसें दौड़ रही थीं, फायर ब्रिगेड की गाड़ी भी गई, लेकिन दुर्घटनास्थल से आने वाला कोई भी यह नहीं बता रहा था कि जाम कब खुलेगा। करीब छह-सात किलोमीटर लंबा जमा था। जाम के दो घंटे के बाद लगभग ग्यारह बजे रात को खूब मान-मनौवल के बाद जाम खुला। जाम से निकलकर धीमे धीमे गांधी सेतु पार करते, पटना में बारात के ठिकाने पर पहुंचते-पहुंचते घड़ी बारह बजा चुकी थी। मजा किरकिरा हो चुका था। सोते हुए शहर के बीच बारात निकलनी थी बेमजा। सबकी जुबान पर एक ही बोल थे कि बस वाले ने पूरी बारात को लेट करवा दिया। बड़े भतीजे की बारात का आनंद लेने का इंतजार न जाने कितने महीनों से था, लेकिन धरे रह गए कई इरादे। बारात लगाते-लगाते डेढ़ बज गया, भोजन के पंडाल में पहुंचे, तो पुलाव और सब्जियां अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर थीं। चुपचाप खाए-पीए, क्योंकि भूख बड़ी जोर की लगी थी।
बहरहाल, लेटलतीफी ने तो पूरे बिहार को पछाड़ रखा है, हम और हमारी बारात की क्या बिसात?