मैं लौंडे की बात करने वाला हूँ , माफ कीजिएगा, मैं कोई अश्लील टिप्पणी नहीं करूंगा। जो लोग बिहार की नाट्य शैली नाच को जानते हैं, उनके लिए लौंडा वह है, जो स्त्री पोशाक पहनकर नाचता है, स्त्रियों की तरह स्वांग रचता है। बचपन में साल १९७८-७९ में कुल जमा दो बार नाच देखने की यादें हैं। एक बार सबसे बड़े भाई साहब की शादी में और एक ममेरी बहन की शादी में। तब मैं कुल जमा पांच साल का रहा होऊंगा। तब के हिट भोजपुरी गीत 'गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ी-उड़ी जाए' पर हुआ नाच आज भी याद है। नाच के अलावा बैंड के साथ भी हमारे ही इलाके से एक लौंडा गया था, जिसका नाम हीरा था। पिछले कुछ वर्षों तक हीरा गांव जाने पर दिख जाया करता था, लचकती चाल और सिर पर समेटकर बंधी चोटी के साथ। कौतूहल जगाता हुआ, लेकिन अब हीरा दिखता नहीं, शायद बूढ़ा हो गया होगा। नाचना छूट गया होगा। चोटी कट चुकी होगी, लेकिन चाल में लचक थोड़ी बची हुई होगी।
नाचने वाले की कमर में लचक स्वाभाविक ही बस जाती है। भोजपुरी के शेक्सपियर कहलाने वाले भिखारी ठाकुर भी कभी राधा या किसी महिला पात्र को निभाने की कोशिश में लचकने लगे थे। उनकी लचक इलाके में मशहूर होने लगी थी, फिर उन्होंने उस लचक से छुटकारा पाने के लिए लगातार पुरुष पात्रों को निभाना शुरू किया। प्रयास के बाद ही उनकी चाल से लचक तिरोहित हुई थी। लेकिन हर नाचने वाला भिखारी ठाकुर नहीं होता। एक बार लचक पीछे पड़ जाती है, तो पड़ी रहती है। मेरी नजर में पहले वह हीरा के पीछे थी और अब मनोज नाम के एक लौंडे के पीछे है, जो पिछले करीब १४ साल से हमारे घर के सामने से गुजरता दिख जाता है। जब गांव जाओ, तो मनोज का दिखना तय रहता है। चाल में वही लचक और सिर पर बंधी चोटी। १९९७ में मेरे भाई साहब की शादी में मनोज किशोर हुआ करता था। सुल्तान की बैंड पार्टी का नवछेरिया नचनिया। बारात के साथ यह बैंड पार्टी उत्तर प्रदेश के देवरिया के एक गांव गई थी। खूब बारिश हो रही थी। मनोज चटख मैकअप में था। वह जमकर नाचता, क्योंकि बिहार से जब कोई लौंडा पूर्वी उत्तर प्रदेश जाता है, तो वहां के लोग बड़े चाव से नाच का मजा लेते हैं। जुलाई का महीना था, बारात पहुंचने में खूब रात हो गई थी, बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, लेकिन उस गांव के पच्चीस-तीस लोग डटे थे कि लौंडा नाच देखकर ही मानेंगे। बैंड पार्टी ने तय किया था कि बारात केवल बाजे के साथ दरवाजे लगा दी जाएगी। गीली और दलदली हो चुकी जमीन और रास्ते पर नाचने का तो सवाल ही नहीं उठता था। घरातियों के गांव वालों ने जब देखा कि केवल बैंड बज रहा है और लौंडा कोने में खड़ा बस टुकुर-टुकुर ताक रहा है, तो हंगामा हो गया। लौंडा नचाने की मांग होने लगी, लाठियां बजने लगीं कि डर से लौंडा नाचने लगेगा। लौंडे की जान मुसीबत में थी, बैंड पार्टी के मुखिया सुल्तान ने उसे सुझाया कि 'मास्टर साहब के पास चले जाओ।' मास्टर साहब मतलब मेरे परिवार के मुखिया बड़े पिताजी। मनोज तत्काल दौड़कर मेरे बड़े पिता के पीछे छिपकर भीड़ की पकड़ से दूर हो गया।
१३ साल हो गए, लेकिन मनोज को आज भी वह वाकया याद है। सुल्तान नहीं रहा, अब मनोज किसी और की बैंड पार्टी में नाचता है। इस बार छठ में जब मैं गांव गया, तो तय कर रखा था कि मनोज से बात करूंगा। तो उसे घर के सामने ही रोक लिया।
'इधर आइए।'
वह एक बार तो चौंका और फिर अपनी पूरी लचक के साथ मेरे करीब आ रुका।
'ये बताइए कि इलाके में किसका नाच हिट चल रहा है?
सवाल सुनते ही शायद वह समझ गया कि मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। उसने जवाब दिया, 'नाच, अब कहां?'
'मतलब'
'अब नाच नहीं होता है?'
'कहां गए नाच?'
'खतम हो गए।'
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, मैंने जोर देकर पूछा, 'क्या नाच बिल्कुल बंद है?
'हां।'
'तो तुम क्या करते हो?'
'बैंड बाजा में हैं।'
'भिखारी ठाकुर के परिवार का कोई नाच में नहीं है?'
मनोज ने जवाब दिया, 'नहीं, अब नहीं है।'
मैंने पूछा, 'क्यों खतम हो गया नाच।'
'अब वीडियो है, सिनेमा है, ऑर्केस्ट्रा है। लोग अब नाच पसंद नहीं करते। वैसे भी मेहनत वाला काम है।'
मुझे बड़ी निराशा हुई। यह सच है, जिस नाच को भिखारी ठाकुर ने उत्तरी भारत की शान बना दिया था, वह लोक विधा समाज में दम तोड़ चुकी है। नाच की बात तो दूर है। मेरे ही घर में अब बारात के साथ भी लौंडे नहीं जाते, नए लडको ने लौंडों को पीछे छोड़ दिया है । मनोज जैसे लौंडे अब थोड़े ही बचे हैं। मनोज लगभग ३३-३४ के करीब पहुंच रहा है, लेकिन शायद तब तक नाचेगा, जब तक लोग उसे नचवाएंगे। फिर तो उसकी भी चोटी कट जाएगी और चाल में बस थोड़ी लचक शेष रह जाएगी, यह गवाही देती हुई कि कभी एक नाच हुआ करता था।
साधु को सदा याद रहे कि वह साधु है
5 weeks ago
8 comments:
bahut badlaw ho chuke hai.par ye sab kal ki hi baat lagti hai.
ज्ञानेशजी आप भाग्यशाली है कि आपको किसी मनोज से बात करने का अवसर मिल गया और आपने उसके बारे में लिखने की जहमत उठाई, नहीं तो हम तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में मनोज के नाच के संरक्षण की जिम्मेदारी यूनेस्को के कंधों पर डाल चुके हैं। पिछले दिनों खबर आई थी कि कालबेलिया नृत्य को यूनेस्को की विरासत सूची में शामिल किया गया है। खैर,शायद आपने मनोज से बात करने में देर कर दी वरना वो तो कब के हाशिए पर पटक दिए गए हैं। मनोज ने कहा कि अब लोगों को लौडों का नाच देखने में मजा नहीं आता है, इस बात पर ठहर कर सोचने की जरूरत है। मनोज के सिमटने तक तो बात ठीक थी लेकिन कल को बच्चे कहने लगे कि हमें पढने में मजा नहीं आता है, परिवार के साथ रहने में मजा नहीं आता है तो क्या होगा.... हर चीज में मजा ढूंढने की यह प्रवृति हमें कहां ले जा रही है....
अरविंद
ज्ञानेश जी, लौंडा नाच जैसी न जाने कितनी विधाएं खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। इस विचारोत्तेजक लेख के लिए शुक्रिया...
purani yaad taaza ho gaye----
ham to seede barat main pahuch gaye-----------
जय श्री कृष्ण...आपका लेखन वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं....नव वर्ष आपके व आपके परिवार जनों, शुभ चिंतकों तथा मित्रों के जीवन को प्रगति पथ पर सफलता का सौपान करायें ...
अपने ब्लॉग में लगाये घडी
http://hinditechblogs.blogspot.com/2011/01/blog-post.html
I wish you Happy New 2011!
क्या कहने साहब ।
जबाब नहीं निसंदेह ।
यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है ।
धन्यवाद ।
satguru-satykikhoj.blogspot.com
आधुनिकता अनजाने में ही बहुत कुछ लीलती जा रही है, भला इसमें मनोरंजन के ऐसे साधन कैसे बच पाएंगे। आज सब कुछ बाजार से नियंत्रित होता है। बदलते हुए समय के साथ सब कुछ बदल जाएगा, बस यादें बाकी रह जाएंगी, जिन्हें आपने दिलकश तरीके से संजो दिया है आकर्षक अल्फाजों में.........बहुत-बहुत आभार।
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