Thursday 3 March, 2011

दिनों बाद दो फिल्में

सिनेमा हॉल में मैंने इतनी कम फिल्में देखी हैं कि बचपन से आज तक मैं गिना सकता हूं कि कौन-कौन-सी फिल्म देखी हैं और किसके साथ देखी हैं। पहली फिल्म शायद गंगा की सौगंध थी, जो पूरे परिवार के साथ देखी थी। फिर नूरी, मासूम, दर्द का रिश्ता, ताजमहल, हम हैं राही प्यार के, हम आपके हैं कौन, बाम्बे, रंगीला, बड़े मियां-छोटे मियां, जख्म, वाटर, सरकार, आजा नचले, सरकार राज इत्यादि। इनमें से हर फिल्म को देखने के साथ छोटी व यादगार कहानी भी जुड़ी है। संक्षेप में कहूं, तो मासूम मैंने राउरकेला, उड़ीसा के रज्जाक सिनेमा हॉल में देखी थी, जिसके लिए टिकट सिनेमा हॉल के बाहर चार घंटे सपरिवार इंतजार के बाद पिताजी ने कहीं से जुटाए थे। हम हैं राही प्यार के, मैंने राउरकेला में ही अफ्सरा सिनेमा हॉल में कालेज के दिनों में अपने अर्थशास्त्र विभाग के संगियों-सहेलियों के साथ देखी थी। याद आ रहा है, अफ्सरा सिनेमा के मालिक गफूर मियां थे, उनका एक शराब का कारखाना हुआ करता था, जहां बनाई शराब अनारकली नाम से बिकती थी। प्रदीप कुमार-बीना राय की मुख्य भूमिका वाली ताजमहल मैंने दरभंगा में देखी, जब फिल्म देखकर निकला था, तो तेज बुखार पीछे छूट चुका था। पहली बार गाजियाबाद में मैंने मल्टीप्लेक्स में सरकार फिल्म देखी, तो सरकार राज राजस्थान के कोटा के सिनेमा हॉल नटराज में देखी। बाकी कहानियां फिर कभी। तो छोटी-सी सूची है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैंने फिल्में कम देखी हैं। छोटे पर्दे पर ही सही, फिल्में ठीक-ठाक संख्या में देख रखी हैं। फिल्मों के प्रति रुचि तब जगी थी, जब राजकपूर को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला था और सिलसिलेवार ढंग से दूरदर्शन पर राजकपूर की फिल्में दिखाई गई थीं। आज फिल्मों की ठीक-ठाक विवेचना कर सकता हूं। लगभग सभी महत्व के अभिनेताओं, अभिनेत्रियों पर बोल व लिख सकता हूं। थोड़ी मेहनत से इतना ज्ञान तो अर्जित कर ही लिया है। हालांकि फिल्मों पर लिखने के अवसर मुझे ज्यादा नहीं मिले हैं, लेकिन फिल्मों के बारे में मैंने दूसरों का ज्ञान अवश्य बढ़ाया है। फिल्म पत्रकारिता पर कुछ काम भी किए हैं और सौभाग्य से दो-तीन बार फिल्म पत्रकारिता पढ़ा भी चुका हूं।
बहरहाल, बहुत दिनों बाद जयपुर के पिंक स्क्वायर में मधुर भंडारकर की फिल्म 'दिल तो बच्चा है जी देखने गया। यह मेरे पौने तीन साल के बेटे द्वारा सिनेमा हॉल में देखी गई पहली फिल्म है, जो उसने जागते हुए और पॉपकॉर्न खाते हुए देखी। यह फिल्म खराब तो नहीं ही कही जाएगी, लेकिन भंडारकर ब्रांड की फिल्म यह नहीं है। आजकल एक ट्रेंड है कि किसी फिल्म में एक साथ अनेक कहानियां चलती हैं। दिल तो बच्चा है जी में भी तीन या चार-पांच प्रेम कहानियां चलती हैं, लेकिन तीनों ही प्रेम कहानियां एकतरफा प्रेम या प्रेम की गलतफहमी की कहानियां हैं। गीत नीलेश मिश्र ने लिखे हैं, जो हिन्दुस्तान टाइम्स में पत्रकार हैं, एक गीत को छोड़ दीजिए, तो फिल्म में गीत-संगीत मामूली ही है, भंडारकर जैसे निर्देशक इस बात को नजरअंदाज कर गए कि प्रेम कहानी या कहानियों पर आधारित फिल्मों में गीत-संगीत आला दर्जे का होना चाहिए। भारतीय समाज में प्रेम और संगीत का चोली-दामन का साथ है। भारतीय फिल्मों में आज भी बिना गीत-संगीत के प्रेम असंभव, अप्रभावी व अनाकर्षक है।
मैंने दूसरी फिल्म ७ खून माफ देखी। ख्यात निर्देशक विशाल भारद्वाज की यह फिल्म रस्किन बांड की कहानी पर आधारित है और भारद्वाज ने एक अमरीकी स्क्रीन प्ले राइटर की मदद से फिल्म भी ठीक-ठाक बनाई है। निर्देशन अच्छा है, लेकिन अंधेरा कुछ ज्यादा है। कई बार फिल्म अपनी मूल धारा से भटक जाती है। अब लगभग सब जानते हैं, फिल्म की नायिका सुजन्ना बारी-बारी से परिस्थितिवश अपने छह पतियों का खून करती है, उसका सातवां पति ईश्वर है। फिल्म अभिनय के लिहाज से शानदार है। प्रियंका चोपड़ा के लिए यह फिल्म यादगार होगी। नील नितिन मुकेश, अन्नू कपूर खास तौर पर प्रभावी हैं, जबकि इरफान खान और नसरुद्दीन शाह ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। इन चरित्रों में जरूरत से ज्यादा कोण या झोल हैं, जिसकी वजह से यह फिल्म आम दर्शकों के सिर के ऊपर से निकल सकती है। हुआ भी यही, कोटा के नटराज सिनेमा में, ९ बजे के बाद के शो में बामुश्किल २५ लोग थे।फिल्म पर जो चर्चा हुई, उसमें यह बात सामान्य तौर पर उभरी है कि यह बिगाडऩे वाली फिल्म है। साथी या जीवन साथी बारबार बदलने को उकसाने वाली फिल्म है, लेकिन मेरी नजर में इस फिल्म में जो अंत है, उससे गहरा अध्यात्मिक बोध पैदा होता है। यह फिल्म स्थापित करती है कि भोग या काम से ज्यादा महत्वपूर्ण है संयम और मोक्ष। जहां तक मेरा मानना है, यह फिल्म यह भी संदेश देती है कि अगर आप बिगड़े हुए हों, विचलित हों, तो या तो आप मार दिए जाओगे या फिर आप किसी को मार डालोगे। सुजन्ना किसी आम महिला की तरह मारी नहीं जाती, बल्कि मारती है। यह शायद उत्तरआधुनिक नारीवाद है, या बदला या एक तरह का जयघोष है, एक तरह की खोज है, जिसे यह फिल्म मुकाम तक पहुंचाती है। वाकई, यह याद रह जाने वाली फिल्म है।

1 comment:

आकांक्षा 'प्रिमरोज़' said...

वैसे दो नई फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो शायद अब तक आपकी देखी (जिनके नाम लेख में हैं) गई सारी फिल्में परिवार के साथ देखने लायक है। वैसे भंडारकर साहब को अब समझ में आ गया है कि बॉक्स आफिस पर चलने के लिए मसाला जरूरी है। मगर इस कवायद में उनकी हालिया फिल्म में काफी झोल आ गए है। मधुर की परम्परागत शैली और मसाला फार्मूला में फंसकर रह गई है- दिल तो बच्चा है जी
अरविंद सेन