कुम्भ में हम : भाग - छह
ऋषिकेश से लौटते हुए एक जगह रुक जाना पड़ा। पुलिस ने रास्ता रोक रखा था। हरिद्वार की ओर जाने वाले दोनों ही सड़कें अवरुद्ध थीं, क्योंकि पेशवाई गुजरने वाली थी। पेशवाई मतलब नागाओं का जुलूस। पेशवाई गुजरी नहीं, नागाओं का शायद मन बदल गया। रास्ता फिर भी खुल गया। खुशी हुई कि आम तौर पर किसी शहर को कभी परेशान नहीं करते नागा, लेकिन जब कुंभ आता है, तो चाहे प्रयाग हो, नासिक, उज्जैन या हरिद्वार, हर जगह नागाओं का बोलबाला हो जाता है। उनके लिए रास्ते खाली कर दिए जाते हैं। वे वीवीआईपी हो जाते हैं। उनकी शान देखते बनती है। उनके लिए अलग व्यवस्थाएं बनती हैं। सरकारें उनके अनुरूप ही प्रबंधन करती हैं। शाही स्नानों के दिनों में नागाओं के लिए विशेष इन्तजाम होता है। शाही स्नान को मैं कुछ और समझ रहा था। वास्तव में शाही स्नान का फैसला सरकार करती है, साधु नहीं। साधु तो प्रस्ताव रखते हैं। साधुओं के साथ सरकार को समन्वय बनाना पड़ता है। अखाड़ों को सरकार ने एक दूसरे से काफी दूर-दूर बसाया है। सफेद मटमैले टैंटों से हरिद्वार के खुले इलाके अटे पड़े हैं। सरकार ने हर तरह के इन्तजाम किए हैं। दूर से शान्त दिखने वाले अखाड़ों या टैंटों की बस्ती में अन्दर काफी हलचल रहती है। शायद ही कोई ऐसा मुद्दा होता है, जिस पर साधु चर्चा न करते हों। सांप्रदायिकता और समाज में घटते सद्भाव को लेकर भी साधु चिन्तित हैं। वे देश और विश्व के बारे में भी खूब सोचते हैं। कहा जाता है, कुंभ के समय साधु अपना नया नेता, उपनेता व प्रतिनिधि चुनते हैं। पंचायत व्यवस्था अखाड़ों में बहुत पुरानी है। अखाड़ों में लोकतन्त्र बहुत पुराना है। कुंभ मेले का अखाड़ों के लिए इसलिए भी बहुत महत्व होता है। कुंभ मेले के समय अखाड़ों में राजनीति भी चरम पर होती है। न केवल अखाड़े अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास करते हैं, स्वयं अखाड़ों के अन्दर श्रेष्ठता के लिए विमर्श होते हैं। हम कह सकते हैं, कुंभ मेले से अखाड़ों और उनके साधुओं को भी पुनर्नवा होने या तरोताजा होने का अवसर मिलता है।
3 comments:
आपकी कुंभ से संबंधित सभी पोस्टें पढी। सभी उत्तम कोटि की लगीं। बहुत ही सुन्दर और निर्मल भावनाओं से लिख रहे हैं आप।
जारी रहें।य़
नागा साधुओं की दुनियां देखना भी हर किसी की किस्मत में नहीं होता......
अगर कुम्भ न होता तो आम लोग पता भी न कर पाते की नागा भारतीय अध्यात्म और शास्त्र-शक्ति के असली संरक्षक हैं.
आज आपकी सारी पोस्टें पढ़ी. शायद साधुओं के प्रति मेरे भाव बदलें. कल सुबह इसी विषय पर मेरी एक कविता मेरे ब्लॉग से प्रकाशित होने के लिए लगी है.
वो मात्र मेरी अब तक की सोच के आधार पर है.
अच्छा लगा हमेशा की तरह आपको पढ़ना.
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