Tuesday, 16 February 2010

साधुओं को गाली क्यों?

भाग : सात
मैं भी साधुओं को देखकर बहुत डरता था। बचपन में लोगों ने डराया था कि साधु बच्चों को अपने बोरे में भर ले जाते हैं। एक बार तो हमारे भाई साहब और हम साधुओं की टोली देख पेड़ की ऊंची डाल से सीधे नीचे कूद गए थे, गिरते-पड़ते भागे थे, तो साधुओं का इतना आतंक था।
तब समाज में प्रगतिशील सोच हावी थी। मन्दिरों में उतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी और न ही इतने ज्यादा मन्दिर थे। महीनों हो जाते थे, लोगों को मन्दिर गए, अब कई लाख लोग रोज मन्दिर जाते हैं। तो यह नया बदलाव है, दुनिया लौट रही है, अपनी संस्कृति को समझने की ओर। जिस संस्कृति ने शून्य और दशमलव दिया, उसी संस्कृति ने वेद-शास्त्र दिए, उसी ने कामसूत्र दिए, इसी में गणतान्त्रिक वशिष्ठ भी हुए और पूंजीवादी चार्वाक भी। राम दिए, तो कृष्ण भी। उसी संस्कृति ने शास्त्रीय नृत्य और संगीत दिए, तो अपनी संस्कृति के प्राचीन तत्वों को खारिज नहीं किया जा सकता। मेरा मानना है, अपनी जड़ों को गाली नहीं देना चाहिए। हर ब्यक्ति का अपना गोत्र है और हरेक गोत्र के पीछे ऋषि हैं, ऋषि साधु नहीं थे, तो क्या थे? साधुओं को गाली देने का मतलब है अपने गोत्र को गाली देना, अपने कुटुंब के पितृ पुरुष को गाली देना। अपने रक्त को गाली देना। वामपन्थी कोरेपन से प्रभावित जोश में आकर साधुओं को गाली देना, स्वयं अपनी जड़ों और स्वयं अपने को गाली देना है। वामपन्थ का मतलब कदापि यह नहीं कि आप अपने पिताओं को गरियाने लगें। चीन से ज्यादा वामपन्थी कौन हो सकता है? चीनियों ने अपनी तमाम प्राचीनताओं और संस्कृतियों को बचाने के लिए क्या कम संघर्ष किया है? लेकिन हम भारतीय तो स्कूलों में वामपन्थी शिक्षा पाकर स्व-संस्कृति विरोधी हो रहे हैं। स्व-ग्राम विरोधी, स्व-नगर विरोधी, स्व-देश विरोधी हो रहे हैं।
अच्छाई और बुराई हर कहीं है। खारिज किसी व्यçक्त या जगह को नहीं, बल्कि बुराई को करना चाहिए। संस्कृति तो सच्चा संबल है। कुंभ में साधुओं के जमावड़े अनेक लोगों के निशाने पर हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि तमाम साधु जिम्मेदारियों और कर्तब्यों से भागे हुए लोग हैं। यह आरोप अतार्किक है। आज दुनिया में कितने लोग हैं, जो अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभा पा रहे हैं? अपनी स्वयं की जिम्मेदारी निभा ले रहे हैं, तो परिवार की जिम्मेदारी रह जा रही है, परिवार की जिम्मेदारी निभ जा रही है, तो समाज और देश की जिम्मेदारी छूट जा रही है। हम सरकारों को जिम्मेदारी उठाने के लिए चुनते हैं, लेकिन उन्हें देखिए कि वे किस कदर जिम्मेदारियों का निर्वहन करती हैं।
तो जिम्मेदारियों और कर्तब्यों से बचने के लिए साधु बनना कदापि अनिवार्य नहीं है। बिना साधु बने भी अनगिनत लोग अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं। जिम्मेदारियों से भागने का दोषी केवल साधुओं को क्यों ठहराया जाए?

2 comments:

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

वैसे तो मैं साधुओं के लिए कभी अपशब्द का प्रयोग नहीं करता पर कुम्भ आदि बड़े अवसरों पर दिखनेवाले लगभग ९०% साधू उजड्ड, नशाखोर, और घोर तामसिक प्रवृत्तियों के होते हैं. ऐसा नहीं है की वे भीतर से संत होते हैं और बाहरी आचरण करते हैं. ऐसे साधुओं से तो उठाईगीरे बेहतर क्योंकि वे धर्म की आड़ नहीं लेते.

Aaron Thomae said...

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