Sunday 7 March, 2010

कुम्भ अर्थात कलश

मानव ने अपने प्रयोग के लिए भांति-भांति के पात्र बनाए, विशाल कड़ाह से छोटे से चम्मच तक सैकड़ों प्रकार के पात्र, परन्तु सृष्टि के आदि से आज तक जो सबसे सुन्दरतम, सहज व सरल पात्र बना है, वह है कलश। एक ऐसा पात्र जिस पर ऋषियों का भी हृदय आ जाता है। कमंडल हो या लोटा, सब कलश के ही सहोदर हैं, उतने ही सुंदर और मोहक। अपने में काफी कुछ छिपाए हुए, संजोए हुए, बचाए हुए। संभवत: इसी कारण कलश या कलश-जैसे पात्र का प्रयोग धर्म-कर्म पूजा-पाठ में होता है। अति सौभाग्यशाली संयोग देखिए कि कलश को कुंभ भी कहते हैं। कुंभ की भाव व्यंजना यदि पवित्र व सुंदरतम मानें, तो जहां असंख्य पवित्र व सुंदरतम मानवों व विचारों का समागम होगा, वहां क्या होगा? निस्संदेह, वहां कुंभ पर्व होगा, जिसे लोग कुंभ मेला भी कहेंगे। लोग अपने-अपने कलश लेकर अर्थात अपने-अपने कुंभ लेकर वहां पहुंचेंगे, पावन समागम होगा और फिर अपने-अपने कलश अर्थात अपने-अपने कुंभ में काफी कुछ नवीन ज्ञान, फल, ध्यान, मान, जल, अनुभव लेकर संपन्न लौटेंगे। कुंभ पर्व अपने आप में एक रहस्य है, यही नहीं पता चलता कि किस ऋषि के मन में कुंभ का विचार सर्वप्रथम आया होगा, यह भी नहीं पता चलता कि सर्वप्रथम कुंभ कहां किसने मनाया होगा। अपने अद्भुत आकार की वजह से जैसे पात्र कुंभ रहस्यमय है, ठीक उसी तरह से कुंभ पर्व भी रहस्यों से परिपूर्ण है। तनिक कुंभ पात्र पर ध्यान तो दीजिए, उसमें दिखता कम है और छिपता ज्यादा है। मानो कुंभ संदेश दे रहा हो कि जो सामान्य प्रयास में सहजता से दिख रहा है, वही सब कुछ नहीं है, जो नहीं दिख रहा है, वह भी काफी कुछ है। कुंभ में जो जगह दृष्टि से ओझल रहती है, वहां भी काफी कुछ होने की संभावना रहती है। कुंभ केवल बाहर से दृष्टिगोचर होना नहीं है, वास्तविक कुंभ तो अंत:करण में है, सच्चा कुंभ तो कुंभ के अंदर है। अंदर का कुंभ अगर बिखर जाए, तो बाहर का कुंभ बनने से रह जाएगा। ऐसा लगता है कि हमारे जिन महान अनिवर्चनीय सृजनशील पूर्वजों ने कुंभ संबोधन निर्धारित किया होगा, उन्होंने पर्याप्त विचार-विमर्श किया होगा। कुंभ मेला यदि थाली मेला होता या कढ़ाई मेला होता या बाल्टी मेला होता, तो कैसा होता? संबोधन से ही प्रयोजन की गरिमा घट जाती। अद्भुत, अतुलनीय हैं हमारे पूर्वज। कुंभ शब्द को अनुभूत करते हुए ही हृदय अभिमान से नभोन्मुखी हो जाता है। अपने-अपने कुंभ को जानने की चुनौती अनुभूत होने लगती है। अपने कुंभ को जान गए, तो दूसरे के कुंभ को जानने की, ज्यादा से ज्यादा कुंभों को जानने की इच्छा होती है। भारत में कुंभ मात्र पर्व या मेला नहीं है, यह चुनौती है, स्वयं से परिचित होने की चुनौती। स्वयं को बाहर और भीतर से निहारने की चुनौती। जो कुशलता से निहार लेगा, उसका कुंभ पर्व सफल व सार्थक हो जाएगा।
कुंभ में उजाला है, तो अंधकार भी है। कुंभ तन है, तो मन भी है। यदि साकार है, तो निराकार भी है। यहां कई मनुष्य खो जाते हैं, तो कई ठौर पा जाते हैं। कुंभ में प्रश्न हैं, तो उत्तर भी हैं। कुंभ में आशंकाएं हैं, तो संभावनाएं भी हैं। कुंभ में यदि अश्रु हैं, तो हर्ष भी है। कुंभ में मंत्र हैं, तो तंत्र भी हैं। सामाजिकता है, तो असामाजिकता भी है। राग है, तो विराग भी है। महात्मा हैं, तो ढोंगी भी हैं। कुंभ विशाल है, अथाह है, तभी तो उसकी महिमा है। संसार में मेले तो खूब लगते हैं, परन्तु जब कुंभ लगता है, तो दुनिया के सारे मेले फीके पड़ जाते हैं। यहां जन समूह कीर्तिमान बनाता है।

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