Wednesday, 24 March 2010

बाबा रे बाबा

उत्तर से दक्षिण तक एक- एक कर बाबाओं की पोल खुल रही है, उनके चारित्रिक दामन पर दाग सामने आ रहे हैं या कहा जाए कि कुछ बाबाओं ने बाबा होने को अविश्वसनीय होने की हद तक ला खड़ा किया है...संसार ही बाजार है और बाजार ही संसार है। संसार या बाजार में किसी भी चीज का खूब चलना खतरे से खाली नहीं होता। कोई ब्रांड अगर जम जाए, तो उससे मिलते-जुलते ब्रांड बाजार में उतर आते हैं। ठीक इसी तरह से अगर किसी योग्य बाबा का जादू चल जाए, तो उससे मिलते-जुलते बाबाओं के शामियाने तनने लगते हैं। हर असली ब्रांड व असली बाबा के पीछे कम से कम दस नकली ब्रांड व नकली बाबाओं की दुकान चल निकलती है। आजकल पैकेज का भी जमाना है। भीतर भले नकली माल हो, लेकिन पैकेट खूब आकर्षक होना चाहिए। मीठी आवाज, लुभावने प्रवचन, थोड़े व्यायाम, एकाध पल का ध्यान, आधे-अधूरे तंत्र मंत्र, भजन, भभूत, पुष्प, पंडाल और वेतनभोगी पंडों इत्यादि से बाबाओं का पैकेज तैयार होता है। दिल्ली में एक कथित इच्छाधारी बाबा ऎसा भी सरेआम हुआ, जिसके पैकेज में भक्तों-अभक्तों तक यौन सुख पहुंचाने की सेवा भी शामिल थी। हजारों कथित बाबा हैं, जो देश की सेवा कर रहे हैं और खूब मेवा भी बटोर रहे हैं, बल्कि मेवा बटोरने ही सेवा में उतरे हैं। सरकार अगर इन पर सेवा कर लगा दे, तो ज्यादातर बाबा होंगे, जो सेवा कर अदा करने के लिए तैयार हो जाएंगे, लेकिन कथित सेवा नहीं छोड़ेंगे। सरकार बाबाओं पर सेवा कर नहीं लगा सकती, क्योंकि सरकार चलाने वाले नेताओं और यहां तक कि बड़े अफसरों को भी बाबाओं की सख्त जरूरत होती है।
कोई मुख्यमंत्री अपनी गद्दी बचाने के लिए बकरे के खून से स्नान करता है, तो कोई मुख्यमंत्री बंगले में प्रवेश से पहले 21 पुजारियों से 96 घंटे तक यज्ञ करवाता है। बाबाओं के निर्देश पर देश के च्यादातर कर्णधार इतने तरह के टोने-टोटके करते हैं, जनता जान जाए, तो भड़क उठे। चुनाव से पहले ज्यादातर बाबा व्यस्त हो जाते हैं, लगभग सभी नेता जीतने के लिए नाना प्रकार के कर्मकांड व अनुष्ठान करवाते हैं। इंदिरा गांधी भी बाबाओं के यहां जाती थीं। पहले अटल बिहारी वाजपेयी के लिए अनुष्ठान होते थे, तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए भी अनुष्ठान होते हैं। लोग भूले नहीं होंगे, मनमोहन सिंह ने तो एक बार आरोप लगा दिया था कि उनकी मौत के लिए तांत्रिक अनुष्ठान किया गया। छत्तीसगढ़ में आडवाणी के रथ को शुद्ध करने के लिए एक बकरे की बलि दी गई थी और 101 नारियल के पानी से रथ धुला था। एक तांत्रिक बाबा के कहने पर एक केन्द्रीय मंत्री दिल्ली में अपने सरकारी बंगले पर लाल गाय बांधे रखते थे। देश में एक नहीं, दर्जनों ऎसे मठ-पीठ हैं, जहां बाबा लोग हर पार्टी के नेताओं को सेवा देने के लिए तत्पर रहते हैं। बाबा भी बड़े चतुर हैं, कांग्रेस वाला आएगा, तो उसे जय हो कहेंगे और भाजपा वाला आएगा, तो वो भी आशीर्वाद संग गदगद लौटेगा। दरअसल किसी को नाराज न करना ज्यादातर बाबाओं का एक गुण है, तो भला सरकार बाबाओं को क्यों नाराज करे? होने दो, जो बाबा चाहें। तभी तो बलात्कार व हत्या के आरोपी किसी बाबा को छूते ही उनके समर्थक सड़कों हंगामा बरपा देते हैं और सरकार देखती है टुकुर-टुकुर।
इतनी भीड़ क्यों?
बाबाओं के सिलेब्रिटी टाइप के भक्त ही वास्तव में आम गरीब भक्तों की भीड़ को आकर्षित करते हैं। कोई बाबा अगर एक भी बड़ा रसूखदार मुरीद जुटा ले, तो उसके चेलों का कारवां बढ़ने लगता है। हर कथित कामयाब बाबा के पीछे उसके कामयाब मुरीदों का हुजूम होता है। वैसे भी अपने देश में देखा-देखी ज्यादा भीड़ लगती है।एक और बात है, ओशो ने कहा था, "गरीब आदमी मंदिर में वही मांगता रहा है, जो संसार में उसे नहीं मिल रहा है।" लेकिन ओशो का जमाना बीत गया। अब पत्थरों पर सिर पटकते असंख्य लोगों का धैर्य टूट रहा है। फास्ट फूड के दौर में लोगों को मुंह में तत्काल कौर चाहिए, कौर चाहे जिस ठौर मिले। जीते-जागते भांति-भांति के कथित बाबाओं का दौर है, जिनके दरबार में अनगिनत जनता वह खोज रही है, जो उसे उसकी दुनिया में नहीं मिल रहा है। मंदिरों के पारंपरिक मायाजाल से अलग कथित बाबाओं के दरबार "रियलिटी शो" का मजा दे रहे हैं। कोई बाबा कृष्ण, कोई राम, तो कोई राधा-मय होने का स्वांग रच रहा है। च्यादातर कथित बाबा यह साबित करना चाहते हैं कि वे दूसरे बाबाओं से भिन्न हैं, विशेष हैं। उनकी यह भिन्नता व विशेष्ाता लोगों को खींच रही है। लेकिन सारे लोग कतई केवल श्रद्धा वश नहीं आ रहे हैं, यह बात बार-बार साबित हुई है। प्रतापगढ़ में भी लोग नोट और उपहार के चक्कर में जुटे थे। यह भी एक देखने लायक पक्ष है, जैसे नेताओं की रैली में लालच के दम पर भीड़ जुटाई जाती है, ठीक वही फॉर्मूला कई कथित बाबा भी आजमा रहे हैं। ज्यादातर बाबाओं के यहां लोगों का कल्याण भले न हो रहा हो, लेकिन स्वयं बाबाओं का कल्याण तो खूब हो रहा है। प्रतापगढ़ में एक बाबा महाराज के आश्रम में उनके व्यक्तिगत आयोजन में भीड़ जुटी, 60 से च्यादा लोग कुचलकर मारे गए, लेकिन बाबा महाराज तनिक भी कृपालु नहीं हुए। यही जतलाया कि सब अपनी मौत मरे हैं, इसमें उनका कोई दोष नहीं। यहां भी गौर कीजिए, बाबा ने किसी को फूटी कौड़ी का मुआवजा नहीं थमाया, मुआवजा सरकारी जेब से ही ढीला हुआ। मतलब, बाबा सिर्फ भीड़ जुटाएंगे, भीड़ में कुछ उल्टा-पुल्टा हुआ, तो जिम्मा सरकार लेगी, मतलब यहां भी परोक्ष रूप से जनता की ही जेब ढीली होगी। बाबाओं की हर हाल में चांदी है। गिला-शिकवा अच्छे-सगो बाबाओं से किसी को नहीं, लेकिन दिक्कत तो उन बाबाओं से है, जो धंधा जमाए बैठे हैं। चिंता असली से तनिक नहीं, खतरा नकली से भयानक है। नकली सूरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे हैं और असली इस बढ़ते मुंह के मायाजाल से बाहर आने को महावीर होना चाहते हैं, लेकिन ऎसा कैसे होगा?
आदर्श संत आचार संहिता
बताते हैं कि गायत्री परिवार के प्रणव पंडया ने बाबाओं के लिए आचार संहिता निर्माण हेतु बिगुल बजा दिया है। देखना है, इस बिगुल की आवाज पर कितने कथित बाबा कान देते हैं। यह दुष्कर सद्प्रयास टांय-टांय फिस्स भी हो सकता है। निस्संदेह यहां भी बड़ी मारामारी होगी, बाबाओं के बीच तू-तू मैं-मैं होगी। हालांकि ऎसा भी नहीं है कि संन्यासी या साधु या संत या बाबाओं के लिए आचार संहिता नहीं है। आज भी लोग श्री कृष्ण के मुख से निकली गीता में समाधान खोजते हैं। कृष्ण ने कहा, अनाश्रित: कर्मफलम कार्य कर्म करोति य:। अर्थात जो पुरूष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है, लेकिन यहां तो संन्यासियों के यहां प्रवेश शुल्क निर्घारित है। जैसे सिनेमा हॉल में तय रहता है कि ज्यादा पैसे वाला बॉक्स में बैठेगा, फर्स्ट क्लास में बैठेगा, और कम पैसे वाला थर्ड क्लास में, ठीक उसी तरह च्यादातर बाबाओं के यहां बनी अलग-अलग खिड़कियां अध्यात्म और श्री कृष्ण को मुंह चिढ़ा रही हैं। साम्यवादी श्री कृष्ण ने उपदेश दिया था, समदर्शी होना, अर्थात राजा, रंक और यहां तक की पशु और पत्थर में भी मुझे देखना अर्थात सबको एक समान देखना। लेकिन आजकल जो हो रहा है, वह भला किससे छिपा है? सारी अच्छी कसौटियां टूट रही हैं, भीड़ एकमात्र कसौटी बची है। अच्छे और सगो बाबाओं को धर्म रक्षा के लिए सजग हो जाना चाहिए, वरना संसार में अध्यात्म भी एक उद्योग में तब्दील हो जाएगा। कहीं ऎसा न हो कि नकली बाबाओं की जमात ही पूरे जनमानस पर कब्जा कर ले और असली वालों को ठिकाना न मिले। अच्छे और सगो बाबाओं को गौर करना चाहिए कि जैसे राजनीति में अच्छे और सगो लोगों का टिकना मुश्किल हो गया है, ठीक उसी तरह से कहीं अध्यात्म के क्षेत्र में भी अच्छे और सगो लोगों का टिकना मुश्किल न हो जाए।
अवतार की प्रतीक्षा?
ज्यादातर कथित बाबा यह भूल जाते हैं, कृष्ण ने गीता में यह भी कहा है, "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधु पुरूषों का उद्धार करने के लिए पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैँ युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं।" क्या व्यापक संत समाज (जिसमें सिद्ध व स्वघोषित सभी संत शामिल हैं) परिस्थितियों, क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं को स्वयं सुधारना चाहता है या फिर किसी अवतार की प्रतीक्षा है?

(यह लेख हम लोग, डेली न्यूज़ मे १४ मार्च को प्रकाशित हुआ था )

3 comments:

Unknown said...

भाई ये बाबा जो ना करे कम है

Udan Tashtari said...

भले ही कुछ ऐसे हैं मगर पूरी जमात को बदनाम किया है इन्होंने.

DUSHYANT said...

baba log sab ek se hain bas jo pakda gayaa wah badnaam hua...