Monday, 26 December 2011

असुरक्षित मोबाइल

बड़े अफसोस की बात है कि भारत में कई कंपनियां अपने ग्राहकों के स्वास्थ्य व जीवन के साथ खिलवाड़ करती हैं, लेकिन इससे ज्यादा शर्मनाक व चिंताजनक बात तो यह है कि परोक्ष रूप से सरकार भी उनका साथ देती है। सरकार ने मोबाइल कंपनियों के लिए अनिवार्य कर दिया है कि वे हैंडसेट में विकिरण स्तर देखने की सुविधा दें। सरकार का यह कदम अच्छा तो लगता है, लेकिन वास्तव में अधूरा है। सरकार ने विकिरण घटाने के पुख्ता इंतजाम नहीं किए हैं। इसका नुकसान यह होगा कि मोबाइल कंपनियां ऎसे हैंडसेट बाजार में उतारेंगी, जो गलत जांच करेंगे और विकिरण को वास्तविक स्तर से कम दिखाएंगे। मोबाइल कंपनियों के लिए विकिरण घटाना अनिवार्य नहीं हुआ है, बल्कि सिर्फ दिखाना अनिवार्य हो गया है। स्वास्थ्य और जीवन से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। कम से कम कोई आधुनिक उत्पाद या तकनीकी जरूरत तो कभी भी जिंदगी के मुकाबले भारी नहीं पड़ सकती, लेकिन यह हमारे देश में एक बड़ा दुर्भाग्य है कि सरकारों को अपने लोगों की पर्याप्त चिंता नहीं है। जनता के स्वास्थ्य की कीमत पर भी रूपए-पैसे का कोई धंधा चमक रहा हो, तो सरकार उसे रोकने की बजाय बढ़ावा ही देती है!
देश के असंख्य भोले-भाले लोग इस बात से अत्यंत प्रसन्न हैं कि उनके हाथ में मोबाइल सेट आ गया है, अब वे कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं, लेकिन ये लोग नहीं जानते कि मोबाइल हैंडसेड से एक ऎसी इलैक्ट्रो मैग्नेटिक ऊर्जा निकलती है, जो स्वास्थ्य को बहुत नुकसान पहुंचाती है। सरकार ने स्वयं यह इंतजाम किया है कि किसी मोबाइल के विज्ञापन में बच्चे या गर्भवती महिला को नहीं दिखाया जा सकता, लेकिन सरकार को मोबाइल फोन सेवा से लोगों की सुरक्षा के लिए बहुत कुछ करना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोबाइल के मसले पर गठित अंतर्मत्रालयी समिति की ज्यादातर अच्छी अनुशंसाओं को सरकार ने नकार दिया है। कुल मिलाकर पिछले दिनों बहुत चिंताजनक संकेत उभरे हैं, कंपनियां मोबाइल टावर लगाने की आजादी में खलल नहीं चाहतीं, वे मोबाइल सेवा को सुरक्षित नहीं बनाना चाहतीं। वे न्यूनतम लागत-अघिकतम मुनाफे के पीछे भाग रही हैं, सुरक्षित तकनीक पर खर्च करना नहीं चाहतीं। ऎसी स्थिति में लोगों को ही संभलना होगा। सरकार ने भी कहा है कि फोन पर बातचीत की बजाय वह एसएमएस करने को बढ़ावा देगी, लेकिन क्या इस कदम से सरकार का कत्तüव्य पूरा हो जाता है? पूरी कीमत चुकाकर भी जब सही व सुरक्षित फोन सेवा नहीं मिल रही है, तो क्या इसके लिए भी लोगों को आंदोलन करना पड़ेगा?


As editorial in rajasthan patrika today, written by me. 26-12-2011

Sunday, 25 December 2011

आज कैसे हैं अटल बिहारी वाजपेयी



अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर संडे जैकेट तैयार करते हुए एक जिज्ञासा थी कि आज अटल जी कैसे हैं? तो पहले जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय बात हुई और उसके बाद अटल जी के प्रेस सलाहकार रह चुके श्री अशोक टंडन जी से बात हुई। जो जानकारियां मिली हैं, पेश हैं।
- अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली स्थिति अपने सरकारी मकान में रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं हैं। खासकर वर्ष २००९ के आखिर में लकवे के आघात के कारण उनका ज्यादातर समय बिस्तर पर आराम करते बीतता है। उनकी स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन वे काफी कमजोर हो गए हैं। दिन में दो बार उन्हें ब्हील चेयर पर बैठाकर घुमाया जाता है। उनके परिजन व सेवक उनकी सेवा में लगे रहते हैं।
- स्मरण शक्ति कमजोर हो गई है। कोई मिलने आता है, तो अक्सर उन्हें याद दिलाना पड़ता है। करीबियों को अच्छी तरह पहचानते हैं। डॉक्टरों की सलाह भी है कि उन्हें कम ही लोगों व करीबियों से मिलने दिया जाए। उन्हें आज भी पत्र आते हैं, जिसका जवाब उनसे पूछकर उनके सचिव देते हैं। पिछले दिनों उनकी स्मरण शक्ति में कुछ सुधार हुआ है। आज जन्मदिन पर भी कुछ ही लोग उनसे मिल सकेंगे।
- सुनाई भी कुछ कम देता है और आवाज भी भर्राती है। एक वाक्य पूरा बोलने में जोर आता है। कभी हंसी-ठट्ठा और भाषण के शौकीन रहे अटल जी के आसपास शांति पसरी रहती है। वे किताब या अखबार नहीं पढ़ते, केवल टीवी देख लेते हैं। डॉक्टरों की सलाह से रूटीन का जीवन है। संयोग की बात है कि इन दिनों अटल जी के सहयोगी रहे पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की भी लगभग ऐसी ही स्थिति है।
- पूर्व सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें पेंशन मिलती है, जिससे उनका काम चलता है। पद के जोर पर धन-वैभव अर्जित करने के प्रमाण कहीं आस-पास भी नजर नहीं आते हैं।

Monday, 19 December 2011

वाइ दिस कोलावेरी?

जो गीत नई धुन में हमें रुलाते हैं, दिल को झकझोरते हैं, उस पर मरहम लगाते हैं, वो हमें कुछ देर तक झुमाने में कामयाब हो जाते हैं। दक्षिण के गायक धनुष के कोलावेरी गीत के साथ भी ऐसा ही हुआ। हमारी दुनिया में देवदासपना हमेशा से पसंद किया गया है। यह बात केवल भारत की नहीं है, दुनिया में हर कहीं कोलावेरी या ‘किलर रेज’ या मरने या मारने पर उतारू भावना वाले गीत पसंद किए जाते रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि दक्षिण और उत्तर भारत को इस कोलावेरी गीत ने अपनी तरह से एक कर दिया है, लेकिन वास्तव में इतना कह देना ही पर्याप्त नहीं होगा। अक्सर हिंगलिश को लेकर शिकायत होती है, जबकि यह कोलावेरी गीत तमिलिश में है। यानी तमिल के भी शब्द हैं और इंगलिश के भी। यह एक तरह से देवदासपने का एक मोबाइल संस्करण है। भानुमती के कुनबे की तरह यहां केवल भावनाएं ही नहीं मिलतीं, शब्द भी मिलते हैं, अलग-अलग जगह से आकर धुनें भी मिलती हैं, इसमें नई तकनीक लगती है, यू ट्यूब लगता है और गीत देखते-देखते पूरी दुनिया में किसी संक्रमण की तरह फैल जाता है। तो क्या ऐसा पहली बार हुआ है? नहीं ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, हां यह जरूर पहली बार हुआ है कि देवदासपने को इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों का साथ मिला है, इंटरनेटीय सोशल मीडिया माध्यमों का साथ मिला है। पहले गीतों को सुनने के स्रोत कम हुआ करते थे।
जब ग्रामोफोन का जमाना था, थोड़ा-बहुत रेडियो भी सुना जाने लगा था, देश आजाद भी नहीं हुआ था, १९४६ में के. एल. सहगल ने एक गीत गाया था, ‘जब दिल ही टूट गया, तो जीके क्या करेंगे . . . वह गीत उस जमाने में सुपर हिट हुआ था। साधन सीमित थे, लेकिन जिसे भी जहां भी मिला था, उसने सहगल के गीत को सुना था। जमाना बदल गया, आज गाने की वह शैली युवाओं में हंसी का मुद्दा भी बन जाती है। लेकिन के.एल. सहगल ने जब दिल ही टूट गया, गाया था, तब लोगों को वाकई महसूस हुआ था कि हां कोई दिल टूटा है, जबकि वह जमाना ऐसा था कि देश को आजादी मिलने ही वाली थी। इस गाने में ऐसा देवदासपना था कि जिसने सभी को छू लिया था। सहगल या सैगल को इस गीत के लिए हमेशा याद किया जाएगा। हां, हो सकता है, देश विभाजन के दर्द ने भी इस गीत को लोकप्रिय बनाया हो।
त्रासदी की भावना वाले सैड सांग तो बहुत बने, लेकिन शूप सांग अर्थात टूटे दिल का गीत या प्यार में विफलता का कोलावेरी जैसा गीत जब भी आया है, दुनिया ने उसे दिल से लगाया है। कई बार तो ऐसा लगता है कि दुनिया को ऐसे गीतों का इंतजार रहता है। १९६० में जब मुगल-ए-आजम आई थी, तबमुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए, गाने ने झकझोर कर रख दिया था। जहां एक ओर ‘जब प्यार किया, तो डरना क्या’ गीत था, वहीं दूसरी ओर, ‘मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए’ गाने ने न जाने कितने दिलों को सुकून दिया। इस गाने पर अनेक पैरोडियां बनीं। १९६९ में मुकेश का एक गाना ‘चांदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया, एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया’ आया, इस गीत में अमीरी गरीबी का फासला था, फिर भी इसे खूब पसंद किया गया, वह इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का दौर था। १९७० में हीर रांझा का गीत ‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं,’ गली-गली में गूंजा। रफी की आवाज ने दीवाना बना दिया था। उसके बाद जिस गीत ने युवाओं को बहुत प्रभावित किया, वह था १९७७ में आया ‘क्या हुआ तेरा वादा’। इसने रिकॉर्ड तोड़ दिए। यह गीत आज भी टूटे दिल आशिकों को सहारा बनता है।
१९८० के दशक में भी कई गीत आए, लेकिन १९९० में खासकर पाकिस्तान से एक आवाज आई, जिसने सरहद को भुला दिया। पाकिस्तानी गायक अताउल्लाह खान ने गाया, ‘अच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का, यार ने ही लूट लिया घर यार का।’ यह एक ऐसी आवाज थी, जो कोलावेरी जैसे कम से कम तीन-चार गानों को साथ लेकर थोक में आई थी। ‘इधर जिंदगी का जनाजा उठेगा, उधर जिंदगी उनकी दुल्हन बनेगी।’ और ‘इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं, किस कदर चोट खाए हुए हैं।’ वह इंटरनेट का जमाना नहीं था, लोग वीसीपी और वीसीआर से फिल्में देखते थे, मोबाइल की तो कल्पना ही नहीं थी। अताउल्लाह खान साहब खूब सुने गए, टूटे दिलों का सहारा बने। उनके गाए गीतों को सोनू निगम, मुहम्मद अजीज, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण और न जाने कितने भारतीय गायकों ने गाया। १९९४ में गुलशन कुमार ने अपने छोटे भाई साहब किशन कुमार को लेकर फिल्म भी बना डाली बेवफा सनम। उस दौर अताउल्लाह खान के बारे में कई तरह की अफवाह भी उड़ी थीं कि उन्हें उनकी प्रेमिका ने धोखा दे दिया है, प्रेमिका को मारकर वह जेल में हैं, फांसी का इंतजार कर रहे हैं और इसी इंतजार के दौरान उनके दिल से ये गीत फूटे हैं। अफवाहें आज भी फैलती हैं, लेकिन उनका निदान भी जल्दी हो जाता है, लेकिन पहले तो कानों-कान ही अफवाह फैलती थी और निदान होने में महीनों लग जाते थे। अखबार इत्यादि भी फिल्मों और गीत-संगीत में कोई खास रुचि नहीं लेते थे, पेज-३ का तो सपना भी नहीं देखा गया था। बहरहाल, अताउल्लाह खान आज भी जीवित हैं और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहुत सम्मान के साथ रह रहे हैं।
अताउल्लाह खान की जो लोकप्रियता है, धनुष उसके आधे पर भी नहीं हैं। चमके तो अल्ताफ रजा भी थे, जिन्होंने गाया था, ‘तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे’, लगता था, टूटे दिलों को आवाज मिल गई। हर तरफ अल्ताफ छा गए थे। रेडियो से टीवी और फिर सिनेमा के बड़े परदे पर भी वे परदेसी के जलवे बिखेरने लगे थे।
बहरहाल, अच्छा सिला और कोलावेरी में काफी फर्क है। कोलावेरी में कहानी तो है, लेकिन टुकड़ों में, टूटते भाव व अल्फाज में। जबकि अच्छा सिला में पूरी कहानी है। ऐसी कहानी कि जिस पर फिल्म बन गई थी।
तो देवदासपने के गाने पहले भी बनते थे, लेकिन कहना न होगा, उन्हें जन-जन का इलेक्ट्रॉनिक साथ नहीं मिलता था।
कोलावेरी के अनेक संस्करण बने हैं, लेकिन उसकी असली ख्याति की परीक्षा छह महीने बाद होगी, अगर यह गीत लोगों की जुबान पर टिक गया, अंताक्षरियों में शामिल हो गया, तो वाकई उसका लोहा मान लेना होगा। यह देखने वाली बात होगी कि यह ‘किलर रेज’ टिकती कितनी है।

Wednesday, 7 December 2011

माननीय, अब माफ कर दीजिए

जरूरी नहीं है कि माननीय लोग जो भी टिप्पणी करें, वह माननीय ही हो। न्यायमूर्ति महोदय ने जब पहले डंडा भांजा था, तब मुझे वाकई खुशी हुई थी कि चलो प्रेस परिषद में अब रौनक हो जाएगी, लेकिन न्यायमूर्ति महोदय शायद यह भूल रहे हैं कि बार-बार एक ही डंडा भांजने वाले ग्वालों से भैंसें भी नहीं डरा करतीं।
विदर्भ में किसानों की आत्महत्या से ८८ वर्षीय देव आनंद की मौत की तुलना कदापि माननीय नहीं हो सकती। मौका एक ऐसे फिल्म वाले की मौत का था, जो दुर्लभ किस्म का था। एक ऐसा कलाकार जो अपने समय के समाज को अच्छी तरह समझता था। जिस दिन देव आनंद साहब का निधन हुआ, उस दिन प्रयाग शुक्ल जी मुझे बता रहे थे कि देव आनंद हिन्दी के बड़े कवि अज्ञेय जी से मिलने उनके कार्यालय आए थे। हिन्दी समाज में जो भी अज्ञेय जी से मिल चुका है, वह जानता है कि अज्ञेय से मिलना कितना मुश्किल और जटिल था। देव आनंद और उनके भाइयों के साहित्यिक
सरोकार किसी से छिपे नहीं थे। आर.के. लक्ष्मण के उपन्यास गाइड पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाना कोई मामूली बात नहीं है। देव आनंद समाज से बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए थे, आपातकाल के विरोध में जिन बड़े अभिनेताओं ने आवाज उठाई, उसमें देव आनंद सबसे आगे थे। उन्होंने तो राजनीतिक पार्टी तक बना डाली। उनका जीवन अपने आप में एक सबक है। उनसे कम से कम दस गुण तो भारतीय समाज सीख ही सता है।
ऐसे देव आनंद के निधन का
समाचार अगर कोई पत्रकार पहले पृष्ठ पर नहीं छापेगा, तो बिलकुल यह माना जाना चाहिए कि उसने पत्रकारिता का ककहरा ठी से नहीं पढ़ा है।
न्यायमूर्ति साहब के साथ शायद यह दिक्कत है कि वे हिन्दी के अखबार नहीं पढ़ते हैं, अंग्रेजी वालों की चम
-दम में रहते हैं। हिन्दी अखबारों ने तो भारतीय सामाजि और आर्थि मुद्दों पर इतना छापा है कि समेटने की हिम्मत कोई नहीं कर सता। बार-बार यह हना कि पत्रकारों को प्राथमिता का ध्यान नहीं है, एक बेहद हल्की टिप्पणी है और उन लोगों का अपमान भी है, जो गंभीरता से पत्रकारिता कर रहे हैं। पत्रकारिता ने कभी न्यायमूर्ति का अपमान नहीं किया होगा, क्योंकि हमारे कानूनों ने भी न्यायमूर्तियों को ‘पवित्र गाय’ मान रखा है। किन्तु माफ कीजिएगा, न्यायमूर्ति जी, पत्रकारिता या पत्रकारों के संरक्षण के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, इसलिए पत्रकारिता और पत्रकारों की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं। जिसका मन करता है, वही प्राथमिकता और पेज थ्री के नाम पर पत्रकारिता और पत्रकारों को उपदेश सुना जाता है।
उपदेश देना बहुत आसान है। मैं जानना चाहूंगा कि अच्छे पत्रकारों और अच्छी पत्रकारिता के संरक्षण के लिए न्यायमूर्ति महोदय ने आज तक क्या किया है? उस दिन देव आनंद के निधन के समाचार के अलावा भी सामाजिक और आर्थि
सरोकार के समाचार व विचार अखबारों में प्रकाशित हुए थे, लेकिन लगता है न्यायमूर्ति महोदय देव आनंद को ही देखते रहे। मुझे लगता है, वे भी एक डंडा लेकर साधारणीकरण में जुटे हैं। वे चाहते हैं कि तमाम तरह के पत्रकारों को हांक कर एक ही तबेले में पहुंचा दें, जो कि संभव नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का लक्ष्य कोई एक तबेला नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही यह है कि सबकी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति होगी और सब जरूरी नहीं हैं कि एक ही तबेले या एक ही मंजिल पर पहुंचना चाहें। न्यायमूर्ति महोदय को ऐसी साधारण वैचारिकी से बचना चाहिए। उन्होंने बड़े मुंह से छोटी बात कही है, जो शोभा नहीं देती। साधारणीकरण या जेनरलाइज करके वे वही काम कर रहे हैं, जो अधिसंख्य पत्रकारों ने किया है, हर बात को जेनरलाइज करके देखना। समाचार-विचार को साधारण और अशिक्षित व आम लोगों के अनुकुल बनाते-बनाते पत्रकारिता ने अपना भाषाई और वैचारिक स्तर गिरा लिया है, यह गिरा हुआ स्तर अचानक से ऊपर नहीं आएगा।
आपकी प्राथमिकता देव आनंद की मौत का समाचार नहीं है, तो कोई बात नहीं, करोड़ों दूसरे लोग भी हैं, जो देव आनंद को पढऩा और याद करना चाहते हैं। न्यायमूर्ति महोदय अगर यह सोच रहे हैं कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्या ही रोज प्रथम पृष्ठ पर छाई रहे, तो यह अन्याय है। अदालतों में हर तरह के मुद्दे आते हैं, क्या अदालतों ने कभी प्राथमिकता तय की है? क्या अदालतों ने कभी यह कहा है कि देखिए, पहले सारे हत्या के प्रकरणों को हम प्राथमिकता के आधार पर निपटाएंगे और चोरी के मामले को बाद में देखा जाएगा। कोई भी न्यायमूर्ति यह नहीं कहता कि छेड़छाड़ की तो सुनवाई ही भूल जाइए, पहले हत्या का मुकदमा निपटाया जाएगा। अदालतों ने कभी नहीं कहा कि पहले हम गरीबों के शोषण से निपट लेते हैं और बाद में अमीरों के आपसी झगड़े निपटाएंगे।
लगता है, न्यायमूर्ति महोदय किसी दूसरी दुनिया से आए हैं। अगर विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो क्या इसके लिए मीडिया दोषी है? न्यायमूर्ति महोदय किसानों की मौत के लिए उस सरकार को क्यों नहीं रोज सुबह उठकर गरियाते हैं, जिसने उन्हें नियुक्त किया है? किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो इसके लिए सरकारें दोषी हैं? यह काम या यह नाकामी सरकार की है, उसे कोसा जाना चाहिए। यहां मीडिया को कोसने का तो कोई मतलब ही नहीं है। मीडिया पहले कालाहांडी के लिए खूब कागद कारे कर चुका है और विदर्भ के लिए भी कर रहा है।
माफ कीजिएगा, मीडिया के लिए जन्म और मृत्यु, दोनों ही समाचार हैं। शहर में मौतें होती रहती हैं, लेकिन उनकी वजह से शादियां नहीं रुकतीं, शादियों में नाच-गाना नहीं रुकता। शायद न्यायमूर्ति जी इस बात को भूल गए हैं।
न्यायमूर्ति महोदय को गरीबों की चिंता का शानदार शहर बसाने से पहले एक बार सरकार से भी पूछ लेना चाहिए कि सरकार क्या चाहती है। सरकार तो विलास ही पसंद करेगी, क्योंकि जो सरकारें अपनी जनता को खुश नहीं कर पाती हैं, वे देश में विलास को ही बढ़ावा देती हैं। वे चाहती हैं कि लोग मनोरंजन में उलझे रहें, सरकारी विफलता व भ्रष्टाचार की बात न करें। माननीय की इच्छा व प्रयासों के अनुरूप सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकता जब पूरी तरह से छा जाएंगी, तो सबसे ज्यादा तकलीफ सरकारों को ही होगी, मीडिया तो हमेशा की तरह आलोचना झेल लेगा, लेकिन क्या न्यायमूर्ति महोदय झेल पाएंगे?

Sunday, 4 December 2011

राजेन्द्र प्रसाद की याद

४ दिसम्बर देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की जयंती थी, लेकिन सरकार ने उनकी याद में एक सेंटीमीटर विज्ञापन भी नहीं जारी किया, आपने अगर उनके नाम का विज्ञापन देखा हो, तो बताइएगा। वैसे यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनमोहन सिंह की ‘राजा’ टीम राजेन्द्र बाबू को भूल चुकी है। राहुल गांधी का तो राजेन्द्र बाबू से सम्बंधित सवालों के जरिये मुश्किल भरा टेस्ट लिया जा सकता है। राजेन्द्र बाबू परीक्षाओं में हमेशा टॉप करते थे, उनको देश का संविधान पूरा याद था, वे इतने तेज थे कि दस साल पहले किसी कागज पर देखा गया कोई नम्बर तक उन्हें याद रहता था। ऐसे राजेन्द्र बाबू को भुला देने से किसी बाबू-अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ता। आज के सांसद तो संसद में बिना काम के भी पूरे पैसे लेते हैं, जबकि राजेन्द्र बाबू अपना पूरा वेतन भी नहीं लेते थे। वे उतना ही पैसा लेते थे, जितने में उनका काम चल जाए। हालांकि आज के नेताओं से पूछा जाए कि बताइए कितना वेतन चाहिए, तो नेता बोलेंगे कि आप जितना भी वेतन दे सकें, हमारे लिए कम पड़ेंगे।
राजेन्द्र बाबू का मानना था कि हमारी स्वतंत्रता तभी बचेगी, जब हम अपनी जरूरतों को सीमित करेंगे। लेकिन आज तो होड़ जरूरतों को बढ़ाते-फैलाते जाने की है। बस अपनी स्वतंत्रता बची रहे, उसके लिए दूसरों को परतंत्र बनाए रखने की चेष्टा हमेशा होती है।
मनमोहन सिंह की सरकार ने मान लिया है कि बुरे दौर में अच्छे लोगों के विज्ञापनों की जरूरत नहीं है। अच्छे लोगों की फोटुएं भी दीवारों से उतरती चली जाएंगी। अच्छे लोगों की मूर्तियां टूट जाएंगी, तो फिर नई नहीं बनेंगी, उनकी जगह बुरे लोगों की मूर्तियां ले लेंगी। भूल जाइए कि राजेन्द्र बाबू जैसा ईमानदार व्यक्ति इस देश का १२ साल तक राष्ट्रपति रहा और तीसरी बार भी बन जाता, लेकिन स्वयं इनकार कर दिया। लोग कहते हैं, देश में दो ही राष्ट्रपति टक्कर के हुए हैं, एक राजेन्द्र बाबू और दूसरे एपीजे अब्दुल कलाम। ईमानदार मनमोहन सिंह की सरकार ने कलाम को दूसरी बार राष्ट्रपति नहीं बनने दिया, एक बार राष्ट्रपति रहकर ही कलाम राजेन्द्र बाबू के स्तर को छू गए। आज राजेन्द्र बाबू के विज्ञापन नहीं छप रहे हैं, आज से चालीस-पचास साल बाद शायद कलाम के भी विज्ञापन नहीं छपेंगे। अभी भी नहीं छपते हैं। कोई कांग्रेसी कलाम का नाम नहीं लेता, क्योंकि वे कांग्रेस के आदमी नहीं हैं, लेकिन राजेन्द्र प्रसाद तो कांग्रेस के सिपाही थे, उनका नाम क्यों नहीं लिया जाता? यह सवाल कांग्रेस नेताओं से पूछा जाना चाहिए।
राजेन्द्र बाबू को बिहार में भी बहुत याद नहीं किया जाता, उन पर आरोप लगते हैं कि उन्होंने बिहार के लिए कुछ नहीं किया, पूरे देश को अपना मानते रहे, लेकिन देखिए, राजेन्द्र बाबू न अपने बिहार के रहे और न देश के, देश उन्हें भूल चुका है और बिहार के पास उन्हें याद करने के बहाने नहीं हैं। जीरादेई और पटना में उन्हें याद करने की कहीं-कहीं रस्में भर बची हैं। राजेन्द्र बाबू बचे हैं, तो बस सामान्य ज्ञान की किताबों में, क्योंकि वहां से उन्हें कोई सरकार चाहकर भी नहीं हटा सकती।

Tuesday, 1 November 2011

छठ, बिहारी और देश

छठ पूजा (सूर्य षष्टि व्रत) पर गांव चला जाता हूं, इस बार नहीं जा पाया। यह ऐसा महान लोक पर्व है, जिसके करीब आते ही बिहारियों के आसपास की फिजा बदल जाती है। मैं अक्सर कहता हूं, शायद ही कोई ऐसा बिहारी होगा, जिसे छठ का गीत सुनकर बिहार की याद नहीं आती। मैं तो बिहार में नहीं रहा, राउरकेला-उड़ीसा में जन्मा, वहीं पला-बढ़ा, लेकिन वहां भी बिहारी समाज अच्छी खासी संख्या में है। होश संभाला, तो मां को छठ पूजा करते पाया। छठ की यादें आज भी ताजा हैं, रिक्शा से पहले शाम और फिर सुबह के समय कोयल नदी के तट पर जाते थे, जो घर से करीब पांच किलोमीटर दूर बहती थी। साइकिल रिक्शावाले उड़ीसा के ही स्थानीय आदिवासी समाज के थे, लेकिन वे भी न केवल खुद नहा-धोकर आते थे, बल्कि रिक्शा भी धुलता था। पवित्रता का महत्व वे भी जान गए थे, छठ का ऐसा प्रभाव पड़ा था कि उन्हें भी घाट पर पहुंचने की जल्दी होती थी और हम बच्चों को भी। हम बच्चे जिस रिक्शावाले के रिक्शे पर बैठते थे, उसका नाम रामलाल था। रामलाल इसलिए अच्छा था, क्योंकि वह दूसरे रिक्शेवाले से आगे बढक़र रिक्शा चलाता था। पहले राउरकेला में भी छठ घाटों पर केवल बिहारी होते थे, वह भी कम संख्या में, लेकिन धीरे-धीरे उड़ीसा और बंगाली समाज के लोग भी तट पर श्रद्धा भाव के साथ आने लगे। भीड़ बढ़ती गई। भीड़ आज और बढ़ गई होगी और श्रद्धा भी, मैं तो आखिरी बार उड़ीसा में १९९५ की छठ में शामिल हुआ था। उसके बाद राउरकेला छूट गया, छठ नहीं छूटा, क्योंकि यह कोई छूटने वाली चीज नहीं है।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मगध की संस्कृति का वैभव छठ काल में चरम पर होता है। बिहार देखना हो, तो आप छठ के समय वहां जाइए और देखिए कि बिहार वास्तव में क्या है। १९६०-६५ के बाद के वर्षों में बिहारियां को इतनी गालियां मिली हैं कि उसकी खूबियां भी मजाक का विषय बनती रही हैं। अब तो खैर देश के हर शहर में बिहारी हैं और छठ भी मनाते हैं, लेकिन हर शहर में एक दौर ऐसा भी रहा, जब बिहारी सिर पर डाला या टोकरी को पीले या लाल कपड़े से ढककर ईंख के गुच्छे थामे, दीप जलाए हुए, छठ के गीत गाते जब किसी तालाब या नदी के किनारे पहुंचते थे, तो दूसरे लोगों को आश्चर्य होता था। वे सोचते थे कि आज बिहारियों को क्या हो गया है। शाम के समय भी सजधज कर तैयार होकर तालाब या नदी के तट पर आते हैं और फिर दूसरे दिन सुबह अंधेरे में ही तट पर पहुंचकर उसे रोशन कर देते हैं, बिहारियों को ये क्या हो जाता है? मैंने दिल्ली के भी छठ का आनंद लिया है, शायद ही ऐसा कोई पर्व होगा, जब दिल्ली वाले यमुना के किसी किनारे को साफ करते होंगे, दिल्ली वालों ने तो मानो यमुना को गंदा करने का ठेका ही ले रखा है, यह श्रेय बिहारियों को दिया जाना चाहिए कि यमुना के कुछ तट छठ के बहाने साफ हो जाते हैं, हरियाणा से आने वाली नहर में पानी छूटता है, उस नहर के भी कई तट साफ हो जाते हैं। कई तटों पर तो स्थायी सीढिय़ां बनी हैं, पहले बिहारी समाज के लोग ही मिट्टी काटकर सीढ़ीनुमा तट बना लेते थे। छठ के बहाने बड़े शहरों में भी तटों पर कुछ तो सकारात्मक हुआ है, वरना ऐसे कितने त्योहार भारत में हैं, जिनके चलते तालाबों, नदियों के तटों की सफाई होती है?
बिहारी स्वभाव से संकोची रहे हैं, दूसरे समाजों में झुककर, समझौते करते हुए मिलना उनका स्वभाव रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस देश को बांधकर रखने में मारवाडिय़ों और बिहारियों का सबसे ज्यादा योगदान है। ये भारत में हर जगह मिल जाएंगे। दुर्गम जगहों पर सडक़ बनानी हो, जान भी खतरे में हो, तो बिहारी मजदूर खटते हुए मिल जाते हैं। असम हो या अरुणाचल या लद्दाख, बिहारियों को देखा जा सकता है। पंजाब में खेती करने से लेकर कन्याकुमारी के घाटों पर मछली ढोने तक। बिहारियों ने अपने लोक पर्व को कभी नहीं भुनाया, उसे बाजार के हवाले नहीं किया, उसे पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाते रहे हैं। भारत के दूसरे प्रांत के लोग कहीं पहुंचते हैं, तो तुरंत संगठित हो जाते हैं, लेकिन बिहारी एक ऐसा समुदाय है, जिसने कहीं जाकर काली बाड़ी जैसा कोई प्रयोग नहीं किया। बिहारियों को केवल एक तट चाहिए छठ मनाने के लिए। दिल्ली सरकार भले ही सरकारी छुट्टी दे या न दे, बिहारी तो छठ मनाएंगे। बैंडबाजे के साथ मनाएंगे, हर्षोल्लास के साथ मनाएंगे। बिहारी के साथ अन्याय कहां नहीं हुआ, मुंबई में भी उन्हें छठ मनाने से रोकने वाले आगे आ जाते हैं। देश को सस्ते बिहारी मजदूर चाहिए, गुजरात को चाहिए, पंजाब को चाहिए, दिल्ली, कोलकाता, मुंबई को चाहिए, क्योंकि बिहारी ज्यादा मेहनती होते हैं, लेकिन बिहारियों की विशेषताओं को भी तो स्वीकार किया जाए, बिहारियों को केवल वोट बैंक न समझा जाए। मैं मीडिया में हूं, कहीं चोरी-डकैती हो, तो सबसे पहला शक बिहारियों पर किया जाता है। मैंने अज्ञानता में बहुतेरे लोगों को यह कहते सुना है कि बिहारियों ने माहौल बिगाड़ रखा है। मैं यह जरूर जानना चाहूंगा कि देश में कौन राज्य ऐसा है, जहां अपराध या अपराधी पैदा नहीं होते।
हालांकि यह सच है कि छठ के समय बिहार में ऐसी हवा चलती है कि अपराध कम हो जाते हैं। एक ऐसा पर्व, जिसमें जाति का बंधन नहीं, घाटों पर सूप और कलसूप देखकर कोई जाति के सवाल नहीं उठाता। बहुतों को आश्चर्य होगा, लेकिन मुसलमान भी छठ करते हैं। पुरुष भी छठ कर सकते हैं, महिलाएं भी। यह पर्व थोड़ा कठिन है, करवां चौथ जैसा नहीं है कि सुबह से शाम तक भूखे रहे और चांद देखने के बाद पार्टी मना ली। छठ में लगभग दो दिन का उपवास होता है और ध्यान दीजिएगा, जल पीना भी वर्जित है। इस सम्पूर्ण उपवास अवधि को कितना भी कम किया जाए, डेढ़ दिन से कम नहीं किया जा सकता। उपवास कठिन है, इसलिए छठ पर खतरा बताया जाता है। जिस संयम-व्रत-शुद्धता-संकल्प-इच्छाशक्ति की मांग यह पर्व करता है, क्या उसकी पूर्ति आधुनिक होते बिहारी कर पाएंगे, क्या झारखंड, बिहार उत्तर प्रदेश में यह पर्व धीरे-धीरे हाशिये पर होता चला जाएगा? आप भी जाइए, किसी छठ घाट पर, देखिए, क्या भीड़ कम हो रही है, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। जूहू बीच से पटना घाट तक छठ का साम्राज्य बढ़ता चला जा रहा है। देश में जगह-जगह से आवाज गूंज रही है : केरवा जे फरेला घवद से, ओपर सूगा मेडराय... समझ में न आए, तो किसी बिहारी से पूछिए, उसे ढूंढऩे के लिए ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा। बिहार आपके पास आ गया है। आपके घाटों पर बस दो वक्त रहेंगे बिहारी और फिर अपने-अपने काम पर लग जाएंगे। जय छठ, जय हिन्द।

Thursday, 27 October 2011

उठती उंगलियों को तोड़ती सत्ता

सत्ता का अपना स्वभाव है, उसे आलोचना मंजूर नहीं, सत्ता तानाशाह की हो या लोकतांत्रिक। अमरीका ने विकिलीक्स के जूलियन असांज को जिस तरह से निशाना बनाया, यह किसी से छिपा नहीं है। जब खुद को असली लोकतांत्रिक कहने वाला अमरीकी प्रशासन आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकता, तो फिर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान से तो उम्मीद ही क्या की जा सकती है? पहले तो सत्ता ने सीधे अन्ना को ही निशाने पर ले लिया था, लेकिन अन्ना आज के दौर के एक ऐसे सामाजिक संत हैं, जिन्होंने खुद को सामान्य जीवन से ऊपर कर लिया है, उन्हें आसानी से निशाना नहीं बनाया जा सकता। मनीष तिवारी ने अन्ना को भ्रष्ट बताने की पुरजोर कोशिश की थी, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी, माफी भी मांगनी पड़ी और प्रवक्ता के रूप में उनका आकर्षण भी क्षतिग्रस्त हो गया, अत: इन दिनों वे अवकाश पर हैं।
लेकिन जरूरी नहीं कि हर आदमी का दामन अन्ना की तरह ही साफ-सुथरा और बेदाग हो। किरण बेदी का भी नहीं है, अरविंद केजरीवाल का भी नहीं है। टीम अन्ना में तरह-तरह के लोग हैं, स्वामी अज्निवेश भी उसमें शामिल थे। अज्निवेश अन्ना की टीम में रहते हुए भी सरकार के आदमी बने हुए थे, सत्ता का यह तरीका भी पुराना है, विरोधियों की टीम में अपना आदमी शामिल करवाना या तैयार करना। अज्निवेश को टीम से बाहर कर दिया गया, तो अज्गिवेश अपने असली रंग में आ गए। जब तक वे टीम अन्ना में थे, तब तक उनको रुपये-पैसों में कोई गड़बड़ी नजर नहीं आई थी, बताया जाता है, रुपये-पैसे का हिसाब रखने में उनका बड़ा योगदान था, लेकिन जब वे टीम से बाहर आ गए, तो उन्हें अन्ना की टीम को मिले लाखों रुपए की चिंता सताने लगी है। अगर दान के पैसे में घोटाला हुआ है, तो वे उसी घोटाले पर पहले बैठे हुए थे और जब उन्हें खड़ा करके चलता कर दिया गया, तो वे घोटाले को दूर से सूंघ रहे हैं और बार-बार चोर-चोर का शोर मचा रहे हैं। ऐसा करते हुए जाहिर है, वे निरंतर उसी सत्ता की ही सेवा कर रहे हैं, जो किसी भी कीमत पर किसी भी तरह से अन्ना के आंदोलन के नैतिक बल को खत्म करना चाहती है, ताकि जनलोकपाल जैसे कानून की मांग करने की कोई हिमाकत न करे।
सरकार का तर्क यही है कि किसी का दामन साफ नहीं, सभी चोर हैं, इसलिए किसी भी चोरी पर कोई आपत्ति न करे, सभी चुप रहें, सरकार भी चुप रहेगी, लूट की छूट जारी रहेगी। किरण बेदी ने जो किया है, उसका १०० फीसद बचाव नहीं किया जा सकता। रोबिन हुड अमीरों को गरीबों के हित में लूटा करते थे, किरण बेदी ने किसी को लूटा नहीं है, लेकिन उन्होंने अपने भाषणों-दौरों के पर्याप्त पैसे लिए हैं, ताकि अपनी संस्था इंडिया विजन फाउंडेशन को दे सकें। मैं यह व्यक्तिगत रूप से जानता हूं कि किरण बेदी को अखबारों से जो पारिश्रमिक या मानेदय मिलता है, वे उनके फाउंडेशन के नाम से ही जाता है। बड़े-बड़े समाजसेवी हैं, जिनके नाम से कटे चैक पर अगर स्पेलिंग की त्रुटि हो, तो हल्ला मचा देते हैं कि मानदेय कहीं इधर-उधर न हो जाए। आज भारतीय मीडिया के लिए लिखने वालों में ऐसे कितने लोग होंगे, जो अपना मानदेय अपने नाम से नहीं, धर्मार्थ किसी संस्था के नाम से लेते होंगे?
स्वयं अपने लिए पैसा लेने वाले और बार-बार अखबारों में फोन करके अपने मानदेय का तकादा करने वाले लेखकों-पत्रकारों में ढेरों ऐसे होंगे, जो किरण बेदी को निशाना बनाएंगे और बना रहे हैं। सत्ता यही तो चाहती है।
वास्तव में किरण बेदी के खिलाफ सरकार को मुकदमा करना चाहिए या शिकायतकर्ताओं को तैयार करके आगे लाना चाहिए। लेकिन अभी स्थिति यह है कि कोई शिकायतकर्ता आगे नहीं आ रहा है, लेकिन सरकार की पेट में दर्द हो रहा है। मकसद साफ है, किरण बेदी को पीटा कम और घसीटा ज्यादा जाएगा। सत्ता अपने बड़े और नामी विरोधियों के खिलाफ ऐसा ही करती है, परेशान करो, भितरघात करो, अंदर से हिलाकर खोखला कर दो, ताकि विरोधी या आलोचक को खड़ा होने में भी दिक्कत होने लगे।
सत्ता का यह स्वभाव पुराना है, ईसा मसीह को सत्ता ने सूली पर चढ़ा दिया था, जूलियस सीजर मारे गए, सत्ता ने ही एकलव्य का अंगूठा ले लिया, सत्ता ने ही द्रौपदी के वस्त्र खींचे थे, सत्ता ने गांधी जी जैसी महान हस्ती को मर जाने दिया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण इत्यादि को निपटाने में सत्ता ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। १२ से ज्यादा ऐसे लोग मारे गए हैं, जिन्होंने सूचना के अधिकार के तहत सूचना की मांग की थी। सत्ता को निशाना बनाते हुए एक फिल्म बनी थी : किस्सा कुर्सी का, प्रधानमंत्री पुत्र ने उस फिल्म की ब्लू प्रिंट को ही जलवा दिया। सत्ता किस हद तक जा सकती है, इसके अनेक प्रमाण हैं। बड़ी-बड़ी बातें सुन लीजिए, प्रधानमंत्री कोई हो, नैतिकता की दुहाई देते थकता नहीं है। दिज्विजय सिंह अपनी पार्टी के गिरेबां में नहीं झांकते, दूसरों के ही कुरते पर सबसे आगे बढक़र गंदगी खोजने का उनका स्वभाव हो गया है। विरोधियों पर गंदगी खोजने और गाल बजाने व तीखा हमला बोलने से ही पार्टी में नंबर बढ़ते हैं। किन्तु वे यह क्यों नहीं कहते कि किरण बेदी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए, उसी तिहाड़ में भेजा जाए, जहां कि वे कभी प्रभारी रह चुकी हैं। और तो और, राजा से किरण बेदी की तुलना की जा रही है, किरण बेदी अगर पैसा लौटा दें, तो भी उन्हें माफ नहीं किया जा सकता, अगर ऐसा किया जाए, तो राजा को भी माफ कर दिया जाए, अगर राजा घोटाले के पैसे लौटा दें। क्या गजब की तुलना है? क्या हमारा लोकतंत्र ऐसी ही तुलनाओं से धनी होगा? क्या हमारे लोकतंत्र को ऐसे ही कुतर्कों की जरूरत पडऩे लगी है?
चोरों पर या उन्हें बचाने वालों पर कोई उंगली न उठाए, सरकार की यह कोशिश अगर कामयाब हुई, तो भारत को चोरों के मुहल्ले में तब्दील कर देगी। तब सरकार के पास केवल एक ही रास्ता बचेगा कि जनलोकपाल जैसा कानून न बने, उसके बदले भ्रष्टाचार को मान्य करने वाला कानून बन जाए। सरकार के प्रवक्ताओं के पास जो तर्क हैं, वे हमें इसी दिशा में ले जा रहे हैं।
किरण बेदी ने वही गलती की है, जो रोबिन हुड ने की थी, रोबिन हुड सत्ता की नजरों में दोषी था, किरण बेदी भी दोषी हैं। रोबिन हुड आम लोगों के बीच लोकप्रिय था, किरण बेदी भी हैं। रोबिन हुड को छिपकर रहना पड़ता था, लेकिन किरण बेदी को छिपना नहीं चाहिए, खुद आगे बढक़र अपनी आर्थिक चालाकियों को स्वीकार करना चाहिए। अगर वे पहले ही अपनी चालाकी को स्वीकार कर लेतीं, सच उजागर कर देतीं, तो सरकार को बोलने का मौका नहीं मिलता। सत्ता सच से डरती है, उसके सामने सच समय से पहले आ जाए, तो उसके हाथ-पैर फूल जाते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी आंदोलन होगा, उसमें शामिल होने वालों को अपने पूर्व के जीवन की तमाम गलतियों को पहले ही खुलेआम स्वीकार करना होगा, ताकि छिपाने के लिए कुछ भी न रह जाए। अगर वे आगे बढक़र सच स्वीकार कर लेंगे, तो इससे उनका नैतिक बल ही बढ़ेगा और सरकार दबाव में आ जाएगी। अगर वह नैतिक दबाव में नहीं आई, तो वह हमेशा की तरह ही अपनी ओर उठने वाली उंगलियों को तोड़ती रहेगी।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की इच्छा रखने वाले तमाम लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कोई फैशन नहीं है कि मैं भी अन्ना की टोपी पहन ली, राष्ट्र ध्वज लेकर लहरा दिया, हम जीयेंगे और मरेंगे ऐ वतन तेरे लिए गीत पर झूम लिए, तो रातोंरात देश में हीरो बन जाएंगे, मीडिया की आंखों के तारे बन जाएंगे। अगर आप दागदार रहते हुए सरकार के खिलाफ उतरना चाहते हैं, तो तैयार रहिए, सत्ता आपको इतना घसीटेगी कि आपकी कमर टूट जाएगी।
जय हिन्द, जय भारत

Tuesday, 11 October 2011

जेपी के जन्मदिन पर कुछ भावुक नोट्स

मेरा आकलन है कि आजादी के बाद भारत में मास लीडर गिने-चुने ही हुए हैं। पंडित नेहरू पुरानी पीढ़ी के ऐसे मास लीडर थे, जिन्होंने गुलामी और आजादी दोनों का दौर देखा। इंदिरा गांधी के मास लीडर होने पर किसी को संदेह नहीं हो सकता। बड़े नेता आंधी की तरह होते हैं, एक उनकी अपने व्यंजना होती है, वे बिना बोले ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं, खींचते हैं। मुझे याद आता है, इंदिरा गांधी मेरे जन्म-नगर राउरकेला आई थीं, करीब १९८०-८१ का समय होगा। उन्हें देखने के लिए बहुत भीड़ लगी थी, उनका काफिला तेजी से निकला, पता नहीं वो किस गाड़ी में थीं, मैं सात का रहा होऊंगा, छोटा था, उन्हें देखने से रह गया। राजीव गांधी को मैंने करीब से तीन बार देखा है, वे बहुत लोकप्रिय व सुदर्शन नेता थे, लेकिन मास लीडर नहीं थे।
इंदिरा गांधी के अलावा जयप्रकाश नारायण मास लीडर हुए, इसमें कोई शक नहीं है। देश की दिशा को बदल दिया, कई लोग कहेंगे कि उनकी सम्पूर्ण क्रांति तो युवाओं का संघर्ष थी, लेकिन जयप्रकाश नारायण के प्रतीक हुए बिना या छत्रछाया के बिना वह आंदोलन उस तरह से संभव नहीं था, जिस तरह से वह संभव हुआ। जयप्रकाश नारायण ने राजनीति की पूरी दिशा बदल दी।
उसके बाद जिस नेता का मैं नाम लूंगा, उस पर विवाद हो सकता है, लेकिन यह नाम लालकृष्ण आडवाणी का है, जिन्होंने प्रगतिशील भारत में हिन्दू नवजागरण का बिगुल बजाया। भारत की न केवल दिशा बदल गई, बल्कि भारतीय समाज की दशा बदल गई। आडवाणी ने जो राजनीतिक आंदोलन चलाया, उसी पर अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हुए। वाजपेयी जी बड़े लोकप्रिय व स्वीकार्य नेता थे, लेकिन आडवाणी अगर न होते, तो वाजपेयी प्रधानमंत्री तो कदापि नहीं बन पाते। हम इसे यों भी कह सकते हैं कि सत्ता तो आडवाणी ने हासिल की थी, और सत्ता के लिए समझौते अटल जी ने किये। या यों भी कह सकते हैं कि सत्ता तो
आडवाणी के नेतृत्व में हासिल की गयी और समझौते अटल जी के नेतृत्व में किये गए. हालांकि एक सच यह भी है कि आडवाणी की रथयात्रा के पीछे गोविंदाचार्य और प्रमोद महाजन का दिमाग काम कर रहा था। यह सच है, रथ यात्रा लेकर आडवाणी ही निकले थे, राम मंदिर आंदोलन को उन्होंने ही चरम पर पहुंचाया था और १९९६ में जब सरकार बनाने का मौका मिला, तो उन्होंने अटल जी का नाम प्रस्तावित कर दिया।
पंडित नेहरू ने नींव रखी। इंदिरा गांधी ने देश की दिशा को बदला, जयप्रकाश ने भी देश को बदला और आडवाणी ने भी देश में एक रास्ता तैयार किया, हां, उस रास्ते की निंदा हो सकती है, होती ही रही है। इस बीच अनेक नेता भारत में हुए, गांधी जी तो राम मनोहर लोहिया को भविष्य का नेता मानते थे, और यह मानते थे कि उनकी विरासत को लोहिया ही संभालेंगे, लेकिन लोहिया मास लीडर नहीं बने, जयप्रकाश बन गए।
वैसे अब आडवाणी भी बूढ़े हो गए हैं। बीस साल पहले जो बात उनमें थी, वह तो अब वे चाहकर भी नहीं पैदा कर सकते। तब के आडवाणी और आज के आडवाणी में काफी फर्क है। मुझे याद है, १९९० की रथ यात्रा और जय श्रीराम के नारे। राउरकेला में ही बिलकुल मेरे सामने से गुजरा था आडवाणी का रथ, खूब भीड़ थी, जय श्रीराम का बड़ा जोर था, आडवाणी ने नमस्कार किया, हाथ हिलाया, जब जय श्रीराम का नारा जोर से लगा, तो मुझे याद है, मेरे हाथ भी आसमान की ओर उठ गए थे, मुझे लगा था कि जय श्रीराम का नारा लगा लेने में कोई बुराई नहीं है। आज जब समीक्षा करता हूं वह आंदोलन किसलिए था, क्यों था, उससे क्या मिला, तो दुख होता है, अपने देश की राजनीति और लोगों की समझ पर भी थोड़ा तरस आता है।
मैंने रामबहादुर राय जी से कहा कि मुझे याद नहीं आता कि भाजपा ने सत्ता में रहते हुए जेपी को याद किया हो, या भाजपा के मंच पर जेपी की तस्वीरें लगी हों, तो फिर अचानक आडवाणी जी को जेपी के गांव सिताब दियारा से रथयात्रा की क्यों सूझी, यह तो जेपी का दुरुपयोग है? राय साहब की यादें ताजा हो गईं। उन्होंने बताया, हां, बिल्कुल सही है, भाजपा ने सत्ता में रहते हुए जेपी को भुला दिया था। आडवाणी उप प्रधानमंत्री थे, २००२ जेपी का जन्मशती वर्ष था, हम लोगों को उम्मीद थी कि जेपी की जन्मशती ठीक उसी तरह से मनाई जाएगी, जैसे काग्रेस ने महात्मा गांधी की मनाई थी, लेकिन राजग सरकार का मन साफ नहीं था। मेनका गांधी को जन्मशती मनाने की योजना बनाने वाली समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। कहना न होगा, मेनका गांधी की आपातकाल के दौरान क्या भूमिका थी, वह किस के पक्ष में थी । जेपी तो आपातकल के खिलाफ थे, लेकिन जो आपातकाल के साथ थीं, उन्हें ही जेपी जन्मशती आयोजन के लिए बनी समिति का अध्यक्ष बना दिया गया? क्या आडवाणी इस बात को नहीं जानते थे?
जाहिर है, राजग को जेपी को याद करने की औपचारिकता का निर्वहन करना था, जो उसने बखूबी किया। आडवाणी पता नहीं किस मुंह से सिताब दियारा से रथयात्रा शुरू कर रहे हैं? जेपी का गांव जब पूछेगा कि बताओ, तुम २००२ में कहां थे, तब आडवाणी क्या जवाब देंगे? भला हो, चंद्रशेखर जेपी को याद कर लिया गया। वरना सरकारों के भरोसे अगर रहते, तो शायद जेपी का गांव गंगा-सरयू की धार में बह गया होता।
कभी-कभी बहुत दुख होता है? राजनीति इतनी गिरी हुई, निकम्मी और मौकापरस्त कैसे हो गई?
कुछ दोष राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों का भी है। लोहिया गांधी जो को बहुत प्रिय थे, जयप्रकाश तो गांधी जी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक हर तरह की मदद लेने की स्थिति में थे। लोहिया और जेपी के पास जो ऊर्जा थी, वह आज कहां है, समाज में दिखती क्यों नहीं? किताबों, भाषणों और यादों में लगातार बेवजह टहल रही है उनकी ऊर्जा। लोहिया नहीं होंगे, जेपी नहीं होंगे, तो जाहिर है, आडवाणियों की रथयात्रा निकलेगी, राजाओं-कलमाडियों की रैली निकलेगी। अन्ना जैसी जनता आकर बताएगी कि सच्ची राजनीति क्या होती है. धूर्त, चापलूस, शिथिल मंत्रियों और जरूरत से ज्यादा समय गंवाने वाले प्रधानमंत्री क्यों हैं?
इसका एक बड़ा कारण है, न तो लोहिया राजनीति में पांव जमा सके और न जेपी ने आगे आकर मोर्चा संभाला। जेपी को तो पहली केंद्र सरकार में मंत्री बनने का प्रस्ताव खुद पंडित नेहरू ने दिया था, जेपी ने २५ शर्तें थोपकर नेहरू को निराश कर दिया। जेपी को मौके कई मिले, लेकिन पीछे हट गए, पीछे हटने का एक कारण उनका समाजवादी खेमा भी रहा, जिसमे अगर पांच नेता होते, तो पांच तरह की आवाजें भी आती थीं। विचार से भारी-भरकम और संभावनाशील नेताओं ने एक दूसरे को काटते-काटते इतना हल्का बना लिया कि सत्ता का मैदान हल्के लोगों की भीड़ से बोझिल होने लगा। फिर भी जेपी के नाम से एक आंदोलन है, लेकिन लोहिया के नाम से तो वह भी नहीं है?
सिताब दियारा से आडवाणी का रथ जब निकलेगा, तो क्या जेपी की आत्मा खुश होगी, यह सवाल पूछना ही चाहिए। हममें यह कमी है कि हम पूछकर चुप हो जाते हैं, जबकि पूछना सतत प्रक्रिया है, जो जारी रहनी चाहिए। रथ लेकर निकले हर रथी से पूछना चाहिए कि बताओ, ध्वंस करोगे या निर्माण?

तेलंगाना का शीघ्र हो समाधान

दिन से तेलंगाना राज्य के लिए आंध्र प्रदेश में जबरदस्त आंदोलन चल रहा है। ज्यादातर सरकारी दफ्तर, स्कूल, कॉलेज बंद हैं। हैदराबाद जैसी हाईटेक सिटी में जमकर विद्युत कटौती हो रही है। विद्युत घरों को बंद करने की नौबत आ गई है, लेकिन केन्द्र सरकार केवल बातचीत में लगी है। तेलंगाना के मामले पर टीआरएस को छोड़ दीजिए, तो आंध्र प्रदेश में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में मतभेद है।

आंध्र के अनेक नेता दिल्ली में हैं, केन्द्रीय नेताओं व मंत्रियों से उनकी मुलाकात हो रही है, लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि बातचीत किस दिशा में जा रही है। आंदोलन कर रहे लोगों का संयम जवाब देने लगा है। 12, 13, 14 अक्टूबर को रेल रोकने का ऎलान हो गया है। आंध्र में अगर रेलों को रोका गया, तो दक्षिण भारत व उत्तर भारत के बीच रेल संपर्क काफी हद तक बाघित हो जाएगा।

इससे जो स्थितियां बनेंगी, शायद सरकार को उनका पूरा आभास नहीं है।

जिम्मेदार नेता अभी भी तेलंगाना मामले के राजनीतिक समाधान के मूड में हैं। अतीत की तरह तेलंगाना के कितने नेताओं को मंत्री बनाया जाएगा? तेलंगाना के मसले पर अब राजनीति रूकनी ही चाहिए। जो प्रदेश कभी तेजी से आगे बढ़ रहा था, जिस हैदराबाद का पूरी दुनिया में नाम है, उस शहर के नाम पर बट्टा लग रहा है। आंदोलन की वजह से जो नुकसान हुआ है या जो नुकसान आने वाले दिनों में सरकारें होने देना चाहती हैं, उनकी भरपाई कैसे होगी? प्रधानमंत्री तेलंगाना मसले को सुलझाने के लिए कुछ समय चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि कितना समय? लोग भूले नहीं हैं, यह वही केन्द्र सरकार है, जिसने तेलंगाना गठन का मन बना लिया था और घोषणा भी कर दी गई थी, लेकिन पांव पीछे खींच लिए गए और राजनीति शुरू हो गई। बहुत दुख की बात है, अपने देश को दिनों-दिनों तक चलने वाले आंदोलनों का रोग-सा लग गया है।

आंदोलन गुर्जरों का हो, अन्ना या तेलंगाना का, जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं बहता, सरकारों के साये में कोरी बातचीत की राजनीति चलती रहती है। केन्द्र सरकार को ध्यान रखना चाहिए समस्याओं को सिर्फ संवाद में उलझाने पर समस्याएं बढ़ती हैं, घटती नहीं। सरकार और वोटों के शौकीन राजनेता क्या यह बता पाएंगे कि तेलंगाना के उन बच्चों का क्या दोष है, जो स्कूल नहीं जा पा रहे हैं? उन तेलंगानावासियों का क्या दोष है, जिन्हें दशकों से तेलंगाना का सपना दिखाया गया है? जब नए राज्य गठन के विगत अनुभव अच्छे रहे हैं, तो फिर तेलंगाना पर राज्य व देश का साधन व समय खराब नहीं करना चाहिए। समाधान जल्द होना चाहिए।

मेरे द्वारा लिखा गया एक सम्पादकीय

Monday, 26 September 2011

अपने दिल का ख्याल रखें



ह्रदय रोग को ध्यान में रखकर मेरे नेतृत्व में बनाया गया विशेष सन्डे जैकेट पेज,

हृदय रोग उपचार में कैसे हुई तरक्की

टाइम लाइन
• 1628 : अंग्रेज फिजिशियन विलियम हार्वी ने रक्त संचार को समझाया।
• 1706 : फ्रांसीसी एनाटोमी प्रोफेसर रेमण्ड डी वीयूसेंस ने पहली बार हार्ट चेम्बर्स और नसों के ढांचे का वर्णन किया।
• 1733 : अंग्रेज वैज्ञानिक स्टीफन हेल्स ने पहली बार रक्तचाप को मापा।
• 1816 : फ्रेंच फिजियोलॉजिस्ट टी. एच. लेन्नेक ने स्टेथोस्कोप का आविष्कार किया।
• 1903 : डच फिजियोलॉजिस्ट विल्लेम इनथोवेन ने इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ का विकास किया।
• 1912 : अमरीकी फिजिशियन जेम्स बी हेर्रिक ने बताया कि आर्टेरीज के हार्ड होने की वजह से हृदय रोग होता है।
• 1927 : पुर्तगीज फिजिशियन व न्यूरोलॉजिस्ट इगस मोनिज ने लिस्बन में सेरेब्रल (मस्तिष्कीय) एंजियोग्राम तकनीक को अंजाम देकर कोरोनरी (हृदय सम्बंधी) एंजियोग्राफी की आधारशिला रखी।
• 1929 : लिस्बन में ही रेनॉल्डो सिड डोस सेंटोस ने आर्टोग्राम का इस्तेमाल किया।
• 1938 : अमरीकी सर्जन रॉबर्ट ई. ग्रॉस ने पहली बार हार्ट सर्जरी की।
• 1951 : अमरीकी सर्जन चाल्र्स हफनेगल ने ऑर्टिक वाल्व को दुरुस्त करने के लिए प्लास्टिक वाल्व तैयार किया।
• 1951 : अमरीकी सर्जन एफ. जॉन लेविस ने ओपन हार्ट सर्जरी को अंजाम दिया।
• 1953 : सेल्डिंगर तकनीक की शुरुआत हुई, कैथेटर के जरिये हृदय के अंदर नसों को देखना संभव हुआ, एंजियोग्राफी पहले की तुलना में ज्यादा सुरक्षित व कारगर हुई।
• 1953 : अमरीकी सर्जन जॉन एच. गिबॉन ने पहली बार मैकेनिकल हार्ट और ब्लड प्यूरीफायर का उपयोग किया।
• 1960 : अमरीका में डॉक्टर रॉबर्ट गोएट्ज की टीम ने पहली सफल कोरोनरी आर्टरी बाइपास सर्जरी की
• 1961 : अमरीकी कार्डियोलॉजिस्ट जे.आर. जुडे ने हृदय को पुन: चलाने के लिए बाह्य हृदय मसाज करने वाली टीम का नेतृत्व किया।
• 1964 : इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिस्ट चाल्र्स डोट्टेर ने एंजियोप्लास्टी को अंजाम दिया, उन्हें फादर ऑफ इंटरवेंसनल रेडियोलॉजी कहा जाता है।
• 1965 : अमरीकी सर्जन माइकल डीबेकेय और एड्रियन केन्ट्रोविट्ज ने बीमार हृदय के सहयोग के लिए मैकेनिकल डिवाइस का प्रत्यारोपण किया।
• 1967 : दक्षिण अफ्रीकी सर्जन करिस्टिआन बर्नार्ड ने एक व्यक्ति से लेकर दूसरे व्यक्ति में हृदय प्रत्यारोपित किया।
• 1968 : मेल्विन जुडकिन्स की मेहनत रंग लाई, हृदय धमनियों तक आसानी से पहुंचने में सक्षम कैथेटेर निर्मित होने लगे।
• 1977 : स्विस कार्डियोलॉजिस्ट एंड्रेस ग्रुएनजिग ने मरीज के होश में रहते हुए ही एंजियोप्लास्टी की।
• 1982 : अमरीकी सर्जन विल्लेम डे व्राइज ने स्थायी कृत्रिम हृदय प्रत्यारोपित किया इस हृदय को अमरीकी फिजिशियन रॉबर्ट जारविक ने डिजाइन किया था।
• 1986 : पहली बार हृदय में एंजियोप्लास्टी के जरिये सफलतापूर्वक स्टंट लगाया गया।

दिल है, तो जान है और जान है तो जहान है।

Thursday, 22 September 2011

अपने और अपनी किताब के बारे में कुछ शब्द


मेरी किताब के बारे में अनेक अख़बारों और पत्रिकाओं में शब्द प्रकाशित हुए हैं, उनमें श्रेष्ठ प्रकाशन प्रथम प्रवक्ता का रहा है। प्रकाशन तो काफी पहले हो गया था लेकिन संकोच के कारण पोस्ट नहीं कर रहा था, खैर आप भी देखिये, जाने माने पत्रकार और शायर श्री दिनेश ठाकुर जी ने यह टिप्पणी लिखी है, उनका ह्रदय से आभार। वैसे तो मैं हमेशा ही बहुतों को उपकृत करने की स्थिति में रहा हूँ लेकिन ऐसा कभी किया नहीं, इस मामले में मैं बहुत काम का आदमी नहीं हूँ. ऐसा बहुत सारे लोग भी मानेंगे. न कभी किसी को अनुचित रूप से उपकृत किया और न कभी स्वयं अनुचित रूप से उपकृत हुआ। पत्रकारिता के प्रति गहरी ईमानदारी रही है, पत्रकारिता पर विश्वास भी गहरा रहा है इसलिए कभी अनुचित लाभ नहीं उठाया। इसका नुक्सान जरूर रहा है, लेकिन मैं अपना तरीका नहीं बदलूँगा मेरी किताब मेरी कथनी नहीं बल्कि करनी का प्रतिफल है। उन तमाम मित्रों का आभार जो निःस्वार्थ भाव से मेरे साथ रहे हैं। अग्रज दिनेश ठाकुर जी की जितनी प्रसंशा की जाए कम है, मुझे लगा था कि मेरे जैसे किसे ब्यक्ति की किताब पर मेरे जैसा ही एक अग्रज लिखे, तो ईमानदारी ज्यादा सुनिश्चित होगी और वह हुई, आज भी हम दोनों के बीच न तो फालतू की बटरिंगबाजी है और न कोई सेटिंग, ऐसा ही बहुत कुछ है मेरे पास, जो पोलिटिकली गलत है, बाकी फिर कभी....

Wednesday, 21 September 2011

मेरी किताब पर राजेंद्र शेखर जी की टिप्पणी

मैंने आपकी पुस्तक बड़े चाव और चिंतन भाव से पढ़ी. आपकी भाषा सहज, एक बहती नदी के निरंतर प्रवाह के माफिक है और शैली आकर्षक और ज्ञान वर्धक है. पुस्तक केवल पत्रकारिता के ही लिए नहीं बल्की आकांक्षी लेखकों के लिए भी उपयोगी है. क्योंकी पत्रकार और लेखक का ध्येय एक ही है की रोचक और आकर्शंपूर्ण सामग्री से पाठक को प्रभावित करना. और यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है की पत्रकारिता और लेखन स्थाई छाप तभी छोड़ सकते हैं जब की वे बेलाग इरादों से और पूरी इमानदारी से अपना पक्ष पेश करें.
यह तथ्यात्मक सत्य है की जन तंत्र में खबर जनता के लिए होती है और अधिनायकवाद में सरकार के लिए. आपने इस विचार को सटीक तरीके से यूं उद्धृत किया है की पत्रकार का काम प्रसार करना है न की प्रचार. इसी सन्दर्भ में अन्ना प्रकरण से आहत सरकार ने पत्रकारिता पर नकेल डालने के उपाय सोचने शुरू कर दिए हैं.क्योंकी वह अपने पक्ष के प्रचार को ज्यादा महत्व देती है.
इस विषय में आपने गांधीजी का उद्धरण किया है. महात्मा लिखते हैं की बाहर से आया हुआ अंकुश , निरंकुशता से भी विषैला होता है; अंकुश तो अन्दर से ही लाभदायक है.
दुर्भाग्य वश बढ्ता हुआ व्यवसाय-केन्द्रित सोच, अनैतिक होड़ और २४गुना ७ के बेतहाशा दबाब ने पत्रकारिता अथवा इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर से यह अंकुश कमोवेशी गायब ही कर दिया है. जैसा की आपने बड़ी निर्भीकता और ठोस तरीके से कई स्थानों पर ज़िक्र किया है. प्रबंधन भी स्व-अस्तित्व बनाए रखने की फिराक में अंदरूनी अंकुश लगाने मैं संकुचित है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया में तो यह बीमारी टी.आर. पी. और ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में नैतिकता को पीछे धकेल कर काले बादल की तरह परदे पर छा गयी है. जब की ये दोनों उबाने वाले नौटंकी के घिसे पिटे अविश्वनीय औजार बन गए हैं.
आपने आंकड़ों से हिन्दी भाषा में पत्रकारिता की लोकप्रियता में अभूतपूर्व बढ़ोतरी की भविष्यवाणी की है और में आप से सहमत हूँ. इस झुकाव का एक अहम कारण है हिन्दी का शब्दकोष दूसरी भाषाओं के अंतर्वाह, खासकर अंग्रेज़ी से. आपने भी अपनी पुस्तक में ऐसे आयातित शब्दों का उपयुक्त उपयोग किया है
जन तंत्र में व्यक्तिगत गोपनीयता का महत्व सर्वोपरी है। इस लिए पत्रकारिता खोजपूर्ण हो सकती है लेकिन इओस प्रयास में अनधिकृत घुसपैठ का वर्जित होना ज़रूरी है. आपने इस कमजोरी का कई स्थानों पर ज़िक्र किया है. पत्रकारिता का असली चेहरा आपने निर्भीकता से बेनकाब किया है. और न्यूज़ रूम तथा सम्पादकीय डेस्क का चित्रण अति इमानदारी और उपयोगी ढंग से किया है.,जिससे आशा की जा सकती है की आपके सहकर्मी और संचालक पत्रकारिता की शुचिता बनाए रखने के लिए ज़रूरी अहतियात बरतेंगे और उचित प्रकार से अंकुश लगाने को प्रेरित होंगे.
मेरी ओर से आपको सहर्ष शुभ कामनाएं इस आशा के साथ की आप भविष्य में भी रोचक और उपयोगी प्रसंग लिखते रहेंगे।
शुभेच्छ
(श्री राजेंद्र शेखर, पूर्व सीबीआई निदेशक व नॉट अ लाइसेंस टू किल जैसी पुस्तक के लेखक)

Friday, 26 August 2011

लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली



यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली, सिताब दियर, उत्तर प्रदेश का है. 29 - 10 - 2009 की दोपहर का वीडियो है. इस वीडियो में दायी और जो मंदिरनुमा निर्माण है वह संग्रहालय है, जहाँ जेपी की यादों को संजोया गया है, यह गाँव बहुत विशाल है, उसके जिस टोले में जेपी का जन्म हुआ, उसका पुराना नाम बबुरवानी और नया नाम जयप्रकाश नगर है.

यह प्रथम राष्ट्रपति के घर का आँगन है.

यह प्रथम राष्ट्रपति के घर का आँगन है.



यह प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की जन्मस्थली, जीरादेई, बिहार है, यह वीडियो 26 - 10 - 2009 की दोपहर 2.27 पर लिया गया है पुराने मोबाइल से.

Tuesday, 23 August 2011

देश के लिए कुछ शब्द

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी हम लोग एकमत नहीं हैं पहली बार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक माहौल बना है, लेकिन जो संभावनाएं बन रहीं हैं उनकी भ्रूण हत्या के लिए एक साथ ढेर सारे लोग सक्रिय हो गए हैं, कोई इसे बीजेपी का आन्दोलन बता कर दूर हो रहा है, तो किसी को वन्दे मातरम से परहेज है, भ्रष्टाचार स्वीकार है लेकिन वन्दे मातरम नहीं? एक बड़ी जमात वह भी है जो अभी भी दलितवाद की आड़ में उस सरकार के साथ है, जिसने हमेशा ही दलितों के साथ राजनीत की है. दलितों के खिलाफ राजनीति करने वाले दलितों से इन्हें कोई परहेज नहीं, लेकिन अन्ना से परहेज है, क्या अन्ना का आन्दोलन सफल होगा तो केवल सवर्णों को फायदा होगा? यह बहुत घटिया किस्म की राजनीति है. सरकार का साथ देने की यह राजनीति दरअसल इस देश में अतार्किक रूप से शासन चलने की अनुमति जारी रखने की राजनीति है. कोटा सिस्टम अपने सारे कुतर्कों के साथ बरकरार है, सिस्टम भी पसर रहा है और कुतर्क भी पसरते जा रहे हैं. नेताओं को भी कोटा सिस्टम की राजनीति सबसे आसान लगती है, इसमें अगर वे तर्क का इस्तेमाल करेंगे, कोटा सिस्टम की रूप रेखा ही बदल जायेगी. पहले भी जाति के नाम पर सवर्णों ने कुतर्क को चालेये रखा, और अब अ - सवर्णों को भी यह चस्का लग गया है. आप तर्क की तो बात ही मत कीजिये क्योंकि इससे राजनीति मुश्किल में पड़ जायेगी.
जन लोकपाल थोड़े परिवर्तन के साथ एक तार्किक कानून बन सकता है. लेकिन सरकार के सामने समस्या यह है कि यह कानून हमारी ब्यवस्था में तर्क की नयी शुरुवात कर देगा. एक मोर्चे पर जैसे ही कोई सुधार होगा वैसे ही दूसरे मोर्चों पर भी सुधार की मांग बढ़ जायेगी. कोटा सिस्टम से देश का एक बड़ा वर्ग परेशां है, कोटा सिस्टम लगातार अतार्किक होता चला गया है. इसमें जब सुधार की मांग होगी तो कोटा का लाभ उन्हें ही मिलेगा जो वास्तविक हकदार हैं. यहाँ नाम लेने की कोई जरूरत नहीं है, कई जातियां है जो कोटा के दम पर इतनी संगठित व शक्तिशाली हो चुकी हैं कि उन्हें बड़ी आसानी से नव-सवर्ण माना जा सकता है.
दलित एक्ट की बात करें तो यह भी एक कुतर्क पर आधारित है. सवर्ण अगर किसी अ-सवर्ण को गाली देता है तो शिकायत होने पर उसकी जमानत भी नहीं होती लेकिन अगर कोई अ-सवर्ण किसी सवर्ण को गाली दे दे तो कोई कानून नहीं है, जो बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाए. झूठी शिकायतें और इस कानून के दुरपयोग की बात अगर छोड़ दे तो भी इस कानून को तार्किक नहीं बताया जा सकता. गाली कोई भी दे, दंड समान होना चाहिए. आप कुछ नव-दलित चिंतकों की भाषा पर गौर कीजियेगा. वे ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहें हैं, जिसको वे स्वयं अपने लिए भी स्वीकार नहीं करेंगे. अगर कोई सवर्ण वैसी भाषा का इस्तेमाल कर दे, दलित एक्ट लागू हो जायेगा. कोई शक नहीं कोटा सिस्टम अगर तार्किक होगा तो इससे उन अ-सवर्ण जातियों को ही लाभ होगा जो वास्तविक रूप से संविधान के पैमानों पर ST या Sc या OBC हैं.
दो दिन पहले दलित चिन्तक चंद्रभान प्रसाद का एक sms आया कि God का शुक्र है मैं अन्ना नहीं हूँ. मैं उनसे पूछा, क्या मतलब है आपका? लेकिन उनका जवाब नहीं आया. कतई जरूरी नहीं है कि चंद्रभान प्रसाद जैसे दिग्गज अ-सवर्ण चिन्तक मेरे जैसे कथित सवर्ण पत्रकार को जवाब दें. यह उनकी ताकत का दौर है. अच्छी बात है. मैंने हमेशा उनका साथ दिया है, अमर उजाला में रहते हुए भी और अपने वर्तमान समाचार पत्र में रहते हुए भी मैंने उनको आमंत्रित कर उनके पीछे पड़ कर उनके लेख प्रकाशित करवाए हैं. मैं चाहता था कि वे नियमित स्तम्भ लिखें मैंने उनसे ब्यक्तिगत रूप से मिल कर निवेदन किया, आप लिखिए. बहुत मनाने के बाद उन्होंने कहा, प्रति लेख पांच हजार रूपये लूँगा. बात यही ख़त्म हो गयी. अगर जाति को सामने रख कर बात करें, तो किसी सवर्ण को भी इतना भुगतान नहीं होता है. मैंने उन्होंने मनाने की जितनी कोशिश की, उतनी कोशिश मैंने किसी को मनाने के लिए नहीं की है. मैं यहाँ यह बता दूं कि मैं उन्हें तीन हजार रूपये प्रति लेख देना चाहता था. वो तैयार नहीं हुए. उन्होंने निःस्वार्थ निवेदन का भी मान नहीं रखा. अब विचारों का लोगों तक पहुंचना महत्वपूर्ण नहीं है. अब बिज़नस और पोलिटिक्स ज्यादा महत्वपूर्ण है.
दलितों पर ईमानदारी से लिखने वालों की कमी है. राजस्थान एक ऐसा राज्य है. जहाँ कोटा सिस्टम में अतार्किकता बढती जा रही है. इस पर चरण सिंह पथिक जी ने स्वयं आगे बढ़ कर एक लेख लिखा था जो प्रकाशित भी हुआ था, लेकिन बाद में ऐसा लगा कि वे भी पीछे हट गए. बेशक तर्क से परहेज पूरे समाज का नुक्सान करेगा और फायदा केवल राजनीति को होगा.
दलित राजनीति और हिंदी पट्टी में दलित चिंतन की तर्क से दूरी लगातार बढती चली जा रही है. अन्ना की बात करें तो महाराष्ट्र के दलित उनके साथ हैं लेकिन हिंदी पट्टी के दलित उनके साथ नहीं है. गुर्जर आन्दोलन के समय कई कई दिनों तक रेल ट्रैक जाम रहता है, लोग खाते पीते वहां जमे रहते हैं, तब किसी को बुरा नहीं लगता लेकिन अन्ना के अनशन को देश घातक और भयानक बताया जाता है.
अभी बंगलुरु में अन्ना के समर्थन में एक रैली निकली बच्चे नेताओं के रूप में रैली में शामिल हुए. उनमे कोई भी अम्बेडकर बन कर नहीं आया, यह बात चंद्रभान प्रसाद जी को चुभ गयी वे ndtv prime टाइम के समय रवीश कुमार से लगातार निवेदन कर रहे थे कि रैली का footage दिखाया जाए, footage दिखाया भी गया लेकिन क्या यह सच नहीं है कि स्वयं दलित राजनीति ने अम्बेडकर की बातों को भुला दिया है. अम्बेडकर ने कोटा सिस्टम के बारे में बहुत कुछ कहा था, लेकिन उन बातों को याद करना दलित चिन्तकों को शायद राजनीतिक रूप से गलत लगता है. अम्बेडकर कभी इस भाषा में बात नहीं करते थे जिस भाषा में आज के रसूखदार दलित नेता करते हैं. लेकिन इनको यही लगता है कि अन्ना गुंडागर्दी कर रहे हैं. यह दुःख और निंदा की बात है.
आज जरूरत सिस्टम को बदलने की है. लेकिन कुछ चिन्तक यह मानते हैं कि सिस्टम बदलेगा तो कोटा सिस्टम भी बदलेगा. इसलिए सिस्टम को बदलने का विरोध हो रहा है. जो सरकार अतार्किक रूप से कोटा सिस्टम को जारी रखना चाहती है, उस सरकार के बचाव को कुछ लोगों ने अपना मकसद मान लिया है. जरूरी है सिस्टम में सुधार, अगर सिस्टम नहीं सुधरेगा, अगर वह तर्क पर आधारित नहीं होगा, तो यकीन मानिए. कोटा कांटे की तरह चुभता रहेगा. और यह काटा कितना किसको चुभ रहा है, यह वो दलित भी जानते हैं जिन्होंने कोटा का लाभ लिया है. शर्मसार वे नहीं है जो बार बार पीढ़ी दर पीढ़ी कोटा का लाभ लेते हुए सवर्णों से भी शक्तिशाली हो चुके हैं. दुखी कुंठित तो वो हैं, जो पहली बार कोटा का लाभ उठाते हुए तर्क खोज रहे हैं. दुखी तो वो हैं जिन्हें आज भी कोटा का लाभ नहीं मिला लेकिन काँटों से जिनका जिगर लहूलुहान हैं. और घूस ने हमारे समाज को कहाँ तक घुस कर मारा है, यह कहानी फिर कभी...

Thursday, 18 August 2011

पिता की मछलियाँ

मेरे बाजुओं में सिर्फ पानी है
लेकिन पिता ने पाली हैं
बाजुओं में मछलियां।
जिन पर हम भाइयों ने गुमान किया।
उन मछलियों के साए में हम पले।
पिता कभी जिम नहीं गए
खेतों-अखाड़ों में जूझकर
पाली मछलियां तगड़ी-मोटी।
लेकिन अब पिता नहीं,
दरअसल मछलियां बूढ़ी हो रही हैं।
पहले की तरह खुराक नहीं मांगतीं।
कलेवर-तेवर नहीं दिखातीं।
हम चाहते हैं खूब खाएं,
फडक़े, कसें और फैली रहीं मछलियां
लेकिन इन दिनों नहीं मानती मछलियां।
वे उतनी ही जिद्दी हैं
जितना कि वक्त।

Sunday, 24 July 2011

बाइपास सर्जरी के चार महीने बाद पिता


अब पिता

पिता के लिए


पिता
के
बहुत मुश्किल है
पिता को पिता लौटाना
लेकिन मुमकिन है
पिता को पुत्र लौटाना
वही सही
लौटा रहा हूं
कुछ लौटाने की कामना में
मुझे ही मिल जा रहा है
बहुत कुछ
शायद नामुमकिन है
पिता को कुछ भी लौटाना


गाढ़े दर्द भरी आंखों से
इशारा करते हैं पिता
जरा उठाओ तो
और पिता को उठाते
मैं खुद उठता हूं,
अपनी असामाजिकता के रद्दीखाने से
अकूत धूल झाडक़र
लंबी बेशर्म नींद तोड़
वो मुझे उठना सिखाते हैं
जागना, सहेजना
अनायास
बिना बोले पिता का मौन गुरुकुल
पीढिय़ों का उजास समेटकर
मेरी झोली में डालता है।
हाथ थामकर चलते हैं पिता
कुछ डगमग मैं होता हूं
मौन पूर्वज प्यार से चीख पड़ते हैं
पिता बिन कहे उलाहते हैं
अब तो चलना सीख लो।
बूढ़ा हो गया
चलाते-चलाते।



पिता की देह में कांपती हैं कमजोरियां,
मां को चुनौती देती हुई
पांच कौर पर मुंह फेर लेते हैं पिता
सातवें कौर की उम्मीद लिए बैठी रहती मैं मां।
मनुहारती है मां
बस एक और कौर दूर है मजबूती
छठा कौर किसी तरह निगलकर
मुंह सिल लेते हैं पिता
सातवां रह जाता है
मां की उंगलियों में
और आठवां थाली में।

Sunday, 3 July 2011

खेजड़ी का पेड़





जहां रूठ गया पानी
जहां उखड़ गए पेड़ों के पांव,
जहां चंद बूंदों की भीख को
रोते सूख गए पौधे।
वहां जम गया
रम गया
अकेला खेजड़ी।




खेजड़ी में देखता है मरुथल
कि कैसे होते हैं पेड़।
कितनी मीठी होती है छांव,
ठन्डे पत्ते और नर्म स्पर्श
और उनसे फूटती हवा।
क्या होता है,
जलते-तपते में वीरान में जीना।

कसम रेत की,
पांव जमाकर खेजड़ी
डालता है मरुथल के पांवों में बेडिय़ां।
और देता है गवाही
रेत के सीने में भी होती है थोड़ी मिट्टी
जैसे रूखे शरीर में दिल
थोड़ा-सा बचा हुआ।
शायद उसी के लिए,
उसी थोड़े की पूर्णता के लिए
जिन्दा है खेजड़ी।

बनी-बंधी आस
थोड़ी-थोड़ी नरमी,
जरा-जरा प्यार
छोटे-छोटे पत्ते,
छोटी-छोटी छांव से धनी खेजड़ी।
दूसरी जगह बड़ा होने से
बहुत बड़ी बात है
मरुथल में थोड़ा होना।

कुछ दूर साथ चलता है बबूल,
छोटे भाई की तरह।
कुछ आगे हारकर
ठिठक जाता है,
और देखता है
बड़े भाई को जाते
बहुत आगे
रेत के टीले दर टीले।



कभी बड़ी दया उमड़ती खेजड़ी पर,
क्या मृगमरीचिका का षड्यंत्र उसे फंसा लाया?
सीधा-सादा खेजड़ी
आगे बढ़ता चला गया।
बहुत शातिर दूसरे पेड़
पीछे रह गए
बहुत पानी में
और भोला खेजड़ी
रह गया हानि में।

गिनती की बूंदों के आते
लहलहा जाता।
बड़ा रसिया खेजड़ी।
हर आषाढ़ रचाता शादी।
तब देखो तो उसे जरा
उसके खुरदुरे तनों-अंगों पर
हर ऊपरी सिरों-छोरों पर,
पत्तों की घनी-हरी ओढऩी।
जैसे अधेड़ बींद पर
नशे-सी छाई
नई नवेली बींदणी।




(मरुभूमि में जहाँ कोई पेड़ नहीं उगता वहां उगता है खेजड़ी, यह कविता पिछले साल जयपुर से सीकर जाते समय लिखी थी , मौसम यही था, बहुत रुला कर देर से आया था मानसून, और जब कुछ ही बूंदें बरसी थीं, लहलहा उठे थे खेजड़ी के पेड़ )

Wednesday, 30 March 2011

अपनी बात


पत्रकारिता आधार, प्रकार और व्यवहार पत्रकारिता एक अत्यधिक व्यावहारिक क्षेत्र है। यहां मची आपाधापी में शायद ही किसी के पास फुरसत है कि वह समस्याओं के विस्तार में जाए और विधिवत समाधान बताने का कष्ट करे। मैंने पत्रकारिता में अनेक नए व पुराने लोगों को भी अपने सवालों के साथ परेशान-भटकते देखा है। एक बड़ी जमात है, जो गलतियां तो निकालती है, आलोचना भी करती है, लेकिन यह नहीं बताती कि आखिर काम कैसे किया जाए, काम कैसे सुधारा जाए। हर काम अच्छा नहीं होता, लेकिन जो अच्छा नहीं है, उसे अच्छा कैसे बनाया जा सकता है, ऐसे ही अनेक सवाल हैं, जिनके जवाब खोजने की कोशिश में ही धीरे-धीरे यह किताब लिखी गई है। प्रस्तुत पुस्तक में अकादमिक पहलुओं को लगभग छोड़ दिया गया है और केवल व्यावहारिक दृष्टि से उत्तर देने या समाधान बताने की कोशिश की गई है। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैंने इस पुस्तक में अनेक विषयों पर स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने की कोशिश की है, समस्याओं के समाधान बढऩे की कोशिश की है। हमेशा इस लक्ष्य का ध्यान रखा है कि पुस्तक लाभदायक बने। इस किताब को लिखते हुए कई बार मैंने विचार किया कि क्या मैं ठीक लिख रहा हूं, क्या ऐसी किताब की वाकई जरूरत है। न जाने कितने नए व प्रशिक्षु पत्रकारों ने अनजाने में ही मुझे यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी है, मैं सबसे पहले उन्हीं का शुक्रगुजार हूं। प्रस्तुत पुस्तक में प्रथम खंड आधार में मैंने पत्रकारिता के आधारभूत पक्षों को समझने-समझाने की कोशिश की है। प्रकार खंड में मैंने विभिन्न तरह की पत्रकारिता की चर्चा की है। अंतिम खंड व्यवहार में मैंने कुछ ऐसे पक्षों को उठाया है, जिनसे आम तौर पर बचने की परंपरा रही है। पुस्तक में न केवल पत्रकार बिरादरी की बेहतरी की कामना की गई है, बल्कि पाठकों-श्रोताओं-दर्शकों की भी मदद करने की कोशिश हुई है। आदरणीय रामशरण जोशी जी को जरूर याद करूंगा, उन्हें मैंने लगभग साल भर पहले पुस्तक के कुछ अध्याय दिखाए थे और पूछा था कि क्या ऐसी कोई पुस्तक अभी है, क्या मुझे लिखना चाहिए। उन्होंने उत्साह भी बढ़ाया, सुझाव भी दिए। मित्र डॉ. राजेश कुमार व्यास ने मुझे किताब को जल्दी लिखने के लिए हमेशा प्रेरित किया। शास्त्री कोसलेन्द्रदास से हुई चर्चाएं प्रेरणादायी रहीं। राजीव जैन जैसे कुशल युवा पत्रकार और मनीष शर्मा जैसे नवागंतुक को मैंने कुछ अध्याय पढऩे के लिए दिए, ताकि यह पता चले कि मैं जो लिख रहा हूं, वह फायदेमंद है या नहीं। आदरणीय रामबहादुर राय द्वारा प्राप्त सहयोग अतुलनीय रहा। मैं तो न्यू मीडिया जैसे विषय को छोड़कर आगे बढ़ रहा था, लेकिन उन्होंने मुझे प्रेरित किया और इस विषय पर भी शोध व लेखन की सलाह दी। पुस्तक के रूप में मेरी यह कोशिश अगर पत्रकारों की नई व पुरानी पीढ़ी और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले आम पाठकों को थोड़ी भी लाभान्वित कर सके, तो मैं अपनी मेहनत को सार्थक मानूंगा।

Wednesday, 9 March 2011

मेरी किताब


(मेरी इस किताब का जल्द ही लोकार्पण होने वाला है.)
मीडिया पुस्तकों में सिद्धांत और पत्रकारिता का इतिहास तो पर्याप्त मिल जाता है, लेकिन व्यावहारिक समझ की बातें अधूरी रह जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो हथियार चलाना तो सिखा दिया जाता है, लेकिन युद्ध भूमि में कब किस परिस्थिति में कैसे संघर्ष करना है, यह सब नहीं बताया जाता। अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदना तो आता था, लेकिन उसे नहीं पता था कि चक्रव्यूह के अंदर विराजमान लगभग तमाम महारथी युद्ध के सारे सिद्धांतों-नियमों की धज्जियां उड़ाकर व्यावहारिक हो जाएंगे और उसका वध हो जाएगा। मीडिया जगत में महाभारत निरंतर जारी है, आज अर्जुन होने-बनने की जरूरत है, ताकि चक्रव्यूह को न केवल भेदना, बल्कि उसे जीतना भी संभव हो सके।
आधुनिक दौर में जब पूंजी का नियंत्रण बहुत बढ़ चुका है, जब गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा पत्रकारों की प्रतीक्षा कर रही है, तब यह एक स्वाभाविक सत्य है कि एक सीमा के बाद सिद्धांत नाकाम हो जाते हैं और केवल व्यावहारिक होने का विकल्प ही बचा रहता है। प्रस्तुत पुस्तक में चाहे आधार की बात हो या प्रकार की या व्यवहार की, हर जगह यह चेष्टा हुई है कि पत्रकारिता में आने को इच्छुक छात्रों, नए-पुराने पत्रकारों, मीडिया प्रबंधकों और यहां तक की पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं को भी समाधानों का व्यावहारिक संबल प्रदान किया जाए।

Monday, 7 March 2011

मुंह बाए खड़ा पक्षी



(कोटा चिडिय़ाघर में यह पक्षी विशेष मुद्रा में दिखा, तो न खुद को फोटो खींचने से रोक सका और न कविता लिखने से।)

एक पक्षी
पिजड़े की भीड़ में अकेला
नि:शब्द स्तब्ध
देर से सिर उठाए।
सीमा के अतिरेक तक मुंह बाए।
खड़ा, मानो विराम पर ठहरी दुनिया।
मानो हल होने वाला हो
पापी पेट का सवाल।
इंतजार बढ़ाता कोई दाना
या गले में अटका कोई गाना।
कोई भूला हुआ राग
या ठिठकी हुई रागिनी।
गले में फंसा सुर
या कोई गुप्त गुर।
कोई विचित्र नृत्य
या उसकी कोई विलंबित मुद्रा।
दुख में डूबा या सुख में बिसरा।
या आजादी की संभावनाओं का निकलता दम।
या टूटे सपने का सन्नाटा।
सूर्य या पृथ्वी को निगल जाने का गुमान,
या किसी फतींगे को धोखा देने की तैयारी।
आलस्य का चरम
या भूल गए हों कि मुंह खुला है
या खुले मुंह में आ गई हो नींद।

भकोल है
या बहुत भोला है
शायद नहीं जानता
छूटते प्राणों और
सिमटते जीवनों की दुनिया में
खतरनाक है यों मुंह खोले खड़े रहना।
भयावह होती दुनिया में
खुले मुंह का खतरा
जैसे आ मौत मुझे मार का आह्वान।

हे अनाम पक्षी
अभी बंद रखो मुंह,
खाक में मिलने से पहले तक
जैसे बंद रहती है लाख की मुट्ठी।
क्योंकि अंतत: उसे खुला ही रह जाना है।

Thursday, 3 March 2011

दिनों बाद दो फिल्में

सिनेमा हॉल में मैंने इतनी कम फिल्में देखी हैं कि बचपन से आज तक मैं गिना सकता हूं कि कौन-कौन-सी फिल्म देखी हैं और किसके साथ देखी हैं। पहली फिल्म शायद गंगा की सौगंध थी, जो पूरे परिवार के साथ देखी थी। फिर नूरी, मासूम, दर्द का रिश्ता, ताजमहल, हम हैं राही प्यार के, हम आपके हैं कौन, बाम्बे, रंगीला, बड़े मियां-छोटे मियां, जख्म, वाटर, सरकार, आजा नचले, सरकार राज इत्यादि। इनमें से हर फिल्म को देखने के साथ छोटी व यादगार कहानी भी जुड़ी है। संक्षेप में कहूं, तो मासूम मैंने राउरकेला, उड़ीसा के रज्जाक सिनेमा हॉल में देखी थी, जिसके लिए टिकट सिनेमा हॉल के बाहर चार घंटे सपरिवार इंतजार के बाद पिताजी ने कहीं से जुटाए थे। हम हैं राही प्यार के, मैंने राउरकेला में ही अफ्सरा सिनेमा हॉल में कालेज के दिनों में अपने अर्थशास्त्र विभाग के संगियों-सहेलियों के साथ देखी थी। याद आ रहा है, अफ्सरा सिनेमा के मालिक गफूर मियां थे, उनका एक शराब का कारखाना हुआ करता था, जहां बनाई शराब अनारकली नाम से बिकती थी। प्रदीप कुमार-बीना राय की मुख्य भूमिका वाली ताजमहल मैंने दरभंगा में देखी, जब फिल्म देखकर निकला था, तो तेज बुखार पीछे छूट चुका था। पहली बार गाजियाबाद में मैंने मल्टीप्लेक्स में सरकार फिल्म देखी, तो सरकार राज राजस्थान के कोटा के सिनेमा हॉल नटराज में देखी। बाकी कहानियां फिर कभी। तो छोटी-सी सूची है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैंने फिल्में कम देखी हैं। छोटे पर्दे पर ही सही, फिल्में ठीक-ठाक संख्या में देख रखी हैं। फिल्मों के प्रति रुचि तब जगी थी, जब राजकपूर को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला था और सिलसिलेवार ढंग से दूरदर्शन पर राजकपूर की फिल्में दिखाई गई थीं। आज फिल्मों की ठीक-ठाक विवेचना कर सकता हूं। लगभग सभी महत्व के अभिनेताओं, अभिनेत्रियों पर बोल व लिख सकता हूं। थोड़ी मेहनत से इतना ज्ञान तो अर्जित कर ही लिया है। हालांकि फिल्मों पर लिखने के अवसर मुझे ज्यादा नहीं मिले हैं, लेकिन फिल्मों के बारे में मैंने दूसरों का ज्ञान अवश्य बढ़ाया है। फिल्म पत्रकारिता पर कुछ काम भी किए हैं और सौभाग्य से दो-तीन बार फिल्म पत्रकारिता पढ़ा भी चुका हूं।
बहरहाल, बहुत दिनों बाद जयपुर के पिंक स्क्वायर में मधुर भंडारकर की फिल्म 'दिल तो बच्चा है जी देखने गया। यह मेरे पौने तीन साल के बेटे द्वारा सिनेमा हॉल में देखी गई पहली फिल्म है, जो उसने जागते हुए और पॉपकॉर्न खाते हुए देखी। यह फिल्म खराब तो नहीं ही कही जाएगी, लेकिन भंडारकर ब्रांड की फिल्म यह नहीं है। आजकल एक ट्रेंड है कि किसी फिल्म में एक साथ अनेक कहानियां चलती हैं। दिल तो बच्चा है जी में भी तीन या चार-पांच प्रेम कहानियां चलती हैं, लेकिन तीनों ही प्रेम कहानियां एकतरफा प्रेम या प्रेम की गलतफहमी की कहानियां हैं। गीत नीलेश मिश्र ने लिखे हैं, जो हिन्दुस्तान टाइम्स में पत्रकार हैं, एक गीत को छोड़ दीजिए, तो फिल्म में गीत-संगीत मामूली ही है, भंडारकर जैसे निर्देशक इस बात को नजरअंदाज कर गए कि प्रेम कहानी या कहानियों पर आधारित फिल्मों में गीत-संगीत आला दर्जे का होना चाहिए। भारतीय समाज में प्रेम और संगीत का चोली-दामन का साथ है। भारतीय फिल्मों में आज भी बिना गीत-संगीत के प्रेम असंभव, अप्रभावी व अनाकर्षक है।
मैंने दूसरी फिल्म ७ खून माफ देखी। ख्यात निर्देशक विशाल भारद्वाज की यह फिल्म रस्किन बांड की कहानी पर आधारित है और भारद्वाज ने एक अमरीकी स्क्रीन प्ले राइटर की मदद से फिल्म भी ठीक-ठाक बनाई है। निर्देशन अच्छा है, लेकिन अंधेरा कुछ ज्यादा है। कई बार फिल्म अपनी मूल धारा से भटक जाती है। अब लगभग सब जानते हैं, फिल्म की नायिका सुजन्ना बारी-बारी से परिस्थितिवश अपने छह पतियों का खून करती है, उसका सातवां पति ईश्वर है। फिल्म अभिनय के लिहाज से शानदार है। प्रियंका चोपड़ा के लिए यह फिल्म यादगार होगी। नील नितिन मुकेश, अन्नू कपूर खास तौर पर प्रभावी हैं, जबकि इरफान खान और नसरुद्दीन शाह ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। इन चरित्रों में जरूरत से ज्यादा कोण या झोल हैं, जिसकी वजह से यह फिल्म आम दर्शकों के सिर के ऊपर से निकल सकती है। हुआ भी यही, कोटा के नटराज सिनेमा में, ९ बजे के बाद के शो में बामुश्किल २५ लोग थे।फिल्म पर जो चर्चा हुई, उसमें यह बात सामान्य तौर पर उभरी है कि यह बिगाडऩे वाली फिल्म है। साथी या जीवन साथी बारबार बदलने को उकसाने वाली फिल्म है, लेकिन मेरी नजर में इस फिल्म में जो अंत है, उससे गहरा अध्यात्मिक बोध पैदा होता है। यह फिल्म स्थापित करती है कि भोग या काम से ज्यादा महत्वपूर्ण है संयम और मोक्ष। जहां तक मेरा मानना है, यह फिल्म यह भी संदेश देती है कि अगर आप बिगड़े हुए हों, विचलित हों, तो या तो आप मार दिए जाओगे या फिर आप किसी को मार डालोगे। सुजन्ना किसी आम महिला की तरह मारी नहीं जाती, बल्कि मारती है। यह शायद उत्तरआधुनिक नारीवाद है, या बदला या एक तरह का जयघोष है, एक तरह की खोज है, जिसे यह फिल्म मुकाम तक पहुंचाती है। वाकई, यह याद रह जाने वाली फिल्म है।