Monday, 26 December 2011
असुरक्षित मोबाइल
देश के असंख्य भोले-भाले लोग इस बात से अत्यंत प्रसन्न हैं कि उनके हाथ में मोबाइल सेट आ गया है, अब वे कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं, लेकिन ये लोग नहीं जानते कि मोबाइल हैंडसेड से एक ऎसी इलैक्ट्रो मैग्नेटिक ऊर्जा निकलती है, जो स्वास्थ्य को बहुत नुकसान पहुंचाती है। सरकार ने स्वयं यह इंतजाम किया है कि किसी मोबाइल के विज्ञापन में बच्चे या गर्भवती महिला को नहीं दिखाया जा सकता, लेकिन सरकार को मोबाइल फोन सेवा से लोगों की सुरक्षा के लिए बहुत कुछ करना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोबाइल के मसले पर गठित अंतर्मत्रालयी समिति की ज्यादातर अच्छी अनुशंसाओं को सरकार ने नकार दिया है। कुल मिलाकर पिछले दिनों बहुत चिंताजनक संकेत उभरे हैं, कंपनियां मोबाइल टावर लगाने की आजादी में खलल नहीं चाहतीं, वे मोबाइल सेवा को सुरक्षित नहीं बनाना चाहतीं। वे न्यूनतम लागत-अघिकतम मुनाफे के पीछे भाग रही हैं, सुरक्षित तकनीक पर खर्च करना नहीं चाहतीं। ऎसी स्थिति में लोगों को ही संभलना होगा। सरकार ने भी कहा है कि फोन पर बातचीत की बजाय वह एसएमएस करने को बढ़ावा देगी, लेकिन क्या इस कदम से सरकार का कत्तüव्य पूरा हो जाता है? पूरी कीमत चुकाकर भी जब सही व सुरक्षित फोन सेवा नहीं मिल रही है, तो क्या इसके लिए भी लोगों को आंदोलन करना पड़ेगा?
As editorial in rajasthan patrika today, written by me. 26-12-2011
Sunday, 25 December 2011
आज कैसे हैं अटल बिहारी वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर संडे जैकेट तैयार करते हुए एक जिज्ञासा थी कि आज अटल जी कैसे हैं? तो पहले जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय बात हुई और उसके बाद अटल जी के प्रेस सलाहकार रह चुके श्री अशोक टंडन जी से बात हुई। जो जानकारियां मिली हैं, पेश हैं।
- अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली स्थिति अपने सरकारी मकान में रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं हैं। खासकर वर्ष २००९ के आखिर में लकवे के आघात के कारण उनका ज्यादातर समय बिस्तर पर आराम करते बीतता है। उनकी स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन वे काफी कमजोर हो गए हैं। दिन में दो बार उन्हें ब्हील चेयर पर बैठाकर घुमाया जाता है। उनके परिजन व सेवक उनकी सेवा में लगे रहते हैं।
- स्मरण शक्ति कमजोर हो गई है। कोई मिलने आता है, तो अक्सर उन्हें याद दिलाना पड़ता है। करीबियों को अच्छी तरह पहचानते हैं। डॉक्टरों की सलाह भी है कि उन्हें कम ही लोगों व करीबियों से मिलने दिया जाए। उन्हें आज भी पत्र आते हैं, जिसका जवाब उनसे पूछकर उनके सचिव देते हैं। पिछले दिनों उनकी स्मरण शक्ति में कुछ सुधार हुआ है। आज जन्मदिन पर भी कुछ ही लोग उनसे मिल सकेंगे।
- सुनाई भी कुछ कम देता है और आवाज भी भर्राती है। एक वाक्य पूरा बोलने में जोर आता है। कभी हंसी-ठट्ठा और भाषण के शौकीन रहे अटल जी के आसपास शांति पसरी रहती है। वे किताब या अखबार नहीं पढ़ते, केवल टीवी देख लेते हैं। डॉक्टरों की सलाह से रूटीन का जीवन है। संयोग की बात है कि इन दिनों अटल जी के सहयोगी रहे पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की भी लगभग ऐसी ही स्थिति है।
- पूर्व सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें पेंशन मिलती है, जिससे उनका काम चलता है। पद के जोर पर धन-वैभव अर्जित करने के प्रमाण कहीं आस-पास भी नजर नहीं आते हैं।
Monday, 19 December 2011
वाइ दिस कोलावेरी?
जब ग्रामोफोन का जमाना था, थोड़ा-बहुत रेडियो भी सुना जाने लगा था, देश आजाद भी नहीं हुआ था, १९४६ में के. एल. सहगल ने एक गीत गाया था, ‘जब दिल ही टूट गया, तो जीके क्या करेंगे . . . वह गीत उस जमाने में सुपर हिट हुआ था। साधन सीमित थे, लेकिन जिसे भी जहां भी मिला था, उसने सहगल के गीत को सुना था। जमाना बदल गया, आज गाने की वह शैली युवाओं में हंसी का मुद्दा भी बन जाती है। लेकिन के.एल. सहगल ने जब दिल ही टूट गया, गाया था, तब लोगों को वाकई महसूस हुआ था कि हां कोई दिल टूटा है, जबकि वह जमाना ऐसा था कि देश को आजादी मिलने ही वाली थी। इस गाने में ऐसा देवदासपना था कि जिसने सभी को छू लिया था। सहगल या सैगल को इस गीत के लिए हमेशा याद किया जाएगा। हां, हो सकता है, देश विभाजन के दर्द ने भी इस गीत को लोकप्रिय बनाया हो।
त्रासदी की भावना वाले सैड सांग तो बहुत बने, लेकिन शूप सांग अर्थात टूटे दिल का गीत या प्यार में विफलता का कोलावेरी जैसा गीत जब भी आया है, दुनिया ने उसे दिल से लगाया है। कई बार तो ऐसा लगता है कि दुनिया को ऐसे गीतों का इंतजार रहता है। १९६० में जब मुगल-ए-आजम आई थी, तबमुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए, गाने ने झकझोर कर रख दिया था। जहां एक ओर ‘जब प्यार किया, तो डरना क्या’ गीत था, वहीं दूसरी ओर, ‘मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए’ गाने ने न जाने कितने दिलों को सुकून दिया। इस गाने पर अनेक पैरोडियां बनीं। १९६९ में मुकेश का एक गाना ‘चांदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया, एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया’ आया, इस गीत में अमीरी गरीबी का फासला था, फिर भी इसे खूब पसंद किया गया, वह इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का दौर था। १९७० में हीर रांझा का गीत ‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं,’ गली-गली में गूंजा। रफी की आवाज ने दीवाना बना दिया था। उसके बाद जिस गीत ने युवाओं को बहुत प्रभावित किया, वह था १९७७ में आया ‘क्या हुआ तेरा वादा’। इसने रिकॉर्ड तोड़ दिए। यह गीत आज भी टूटे दिल आशिकों को सहारा बनता है।
१९८० के दशक में भी कई गीत आए, लेकिन १९९० में खासकर पाकिस्तान से एक आवाज आई, जिसने सरहद को भुला दिया। पाकिस्तानी गायक अताउल्लाह खान ने गाया, ‘अच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का, यार ने ही लूट लिया घर यार का।’ यह एक ऐसी आवाज थी, जो कोलावेरी जैसे कम से कम तीन-चार गानों को साथ लेकर थोक में आई थी। ‘इधर जिंदगी का जनाजा उठेगा, उधर जिंदगी उनकी दुल्हन बनेगी।’ और ‘इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं, किस कदर चोट खाए हुए हैं।’ वह इंटरनेट का जमाना नहीं था, लोग वीसीपी और वीसीआर से फिल्में देखते थे, मोबाइल की तो कल्पना ही नहीं थी। अताउल्लाह खान साहब खूब सुने गए, टूटे दिलों का सहारा बने। उनके गाए गीतों को सोनू निगम, मुहम्मद अजीज, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण और न जाने कितने भारतीय गायकों ने गाया। १९९४ में गुलशन कुमार ने अपने छोटे भाई साहब किशन कुमार को लेकर फिल्म भी बना डाली बेवफा सनम। उस दौर अताउल्लाह खान के बारे में कई तरह की अफवाह भी उड़ी थीं कि उन्हें उनकी प्रेमिका ने धोखा दे दिया है, प्रेमिका को मारकर वह जेल में हैं, फांसी का इंतजार कर रहे हैं और इसी इंतजार के दौरान उनके दिल से ये गीत फूटे हैं। अफवाहें आज भी फैलती हैं, लेकिन उनका निदान भी जल्दी हो जाता है, लेकिन पहले तो कानों-कान ही अफवाह फैलती थी और निदान होने में महीनों लग जाते थे। अखबार इत्यादि भी फिल्मों और गीत-संगीत में कोई खास रुचि नहीं लेते थे, पेज-३ का तो सपना भी नहीं देखा गया था। बहरहाल, अताउल्लाह खान आज भी जीवित हैं और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहुत सम्मान के साथ रह रहे हैं।
अताउल्लाह खान की जो लोकप्रियता है, धनुष उसके आधे पर भी नहीं हैं। चमके तो अल्ताफ रजा भी थे, जिन्होंने गाया था, ‘तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे’, लगता था, टूटे दिलों को आवाज मिल गई। हर तरफ अल्ताफ छा गए थे। रेडियो से टीवी और फिर सिनेमा के बड़े परदे पर भी वे परदेसी के जलवे बिखेरने लगे थे।
बहरहाल, अच्छा सिला और कोलावेरी में काफी फर्क है। कोलावेरी में कहानी तो है, लेकिन टुकड़ों में, टूटते भाव व अल्फाज में। जबकि अच्छा सिला में पूरी कहानी है। ऐसी कहानी कि जिस पर फिल्म बन गई थी।
तो देवदासपने के गाने पहले भी बनते थे, लेकिन कहना न होगा, उन्हें जन-जन का इलेक्ट्रॉनिक साथ नहीं मिलता था।
कोलावेरी के अनेक संस्करण बने हैं, लेकिन उसकी असली ख्याति की परीक्षा छह महीने बाद होगी, अगर यह गीत लोगों की जुबान पर टिक गया, अंताक्षरियों में शामिल हो गया, तो वाकई उसका लोहा मान लेना होगा। यह देखने वाली बात होगी कि यह ‘किलर रेज’ टिकती कितनी है।
Wednesday, 7 December 2011
माननीय, अब माफ कर दीजिए
विदर्भ में किसानों की आत्महत्या से ८८ वर्षीय देव आनंद की मौत की तुलना कदापि माननीय नहीं हो सकती। मौका एक ऐसे फिल्म वाले की मौत का था, जो दुर्लभ किस्म का था। एक ऐसा कलाकार जो अपने समय के समाज को अच्छी तरह समझता था। जिस दिन देव आनंद साहब का निधन हुआ, उस दिन प्रयाग शुक्ल जी मुझे बता रहे थे कि देव आनंद हिन्दी के बड़े कवि अज्ञेय जी से मिलने उनके कार्यालय आए थे। हिन्दी समाज में जो भी अज्ञेय जी से मिल चुका है, वह जानता है कि अज्ञेय से मिलना कितना मुश्किल और जटिल था। देव आनंद और उनके भाइयों के साहित्यिक सरोकार किसी से छिपे नहीं थे। आर.के. लक्ष्मण के उपन्यास गाइड पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाना कोई मामूली बात नहीं है। देव आनंद समाज से बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए थे, आपातकाल के विरोध में जिन बड़े अभिनेताओं ने आवाज उठाई, उसमें देव आनंद सबसे आगे थे। उन्होंने तो राजनीतिक पार्टी तक बना डाली। उनका जीवन अपने आप में एक सबक है। उनसे कम से कम दस गुण तो भारतीय समाज सीख ही सकता है।
ऐसे देव आनंद के निधन का समाचार अगर कोई पत्रकार पहले पृष्ठ पर नहीं छापेगा, तो बिलकुल यह माना जाना चाहिए कि उसने पत्रकारिता का ककहरा ठीक से नहीं पढ़ा है।
न्यायमूर्ति साहब के साथ शायद यह दिक्कत है कि वे हिन्दी के अखबार नहीं पढ़ते हैं, अंग्रेजी वालों की चमक-दमक में रहते हैं। हिन्दी अखबारों ने तो भारतीय सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर इतना छापा है कि समेटने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। बार-बार यह कहना कि पत्रकारों को प्राथमिकता का ध्यान नहीं है, एक बेहद हल्की टिप्पणी है और उन लोगों का अपमान भी है, जो गंभीरता से पत्रकारिता कर रहे हैं। पत्रकारिता ने कभी न्यायमूर्ति का अपमान नहीं किया होगा, क्योंकि हमारे कानूनों ने भी न्यायमूर्तियों को ‘पवित्र गाय’ मान रखा है। किन्तु माफ कीजिएगा, न्यायमूर्ति जी, पत्रकारिता या पत्रकारों के संरक्षण के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, इसलिए पत्रकारिता और पत्रकारों की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं। जिसका मन करता है, वही प्राथमिकता और पेज थ्री के नाम पर पत्रकारिता और पत्रकारों को उपदेश सुना जाता है।
उपदेश देना बहुत आसान है। मैं जानना चाहूंगा कि अच्छे पत्रकारों और अच्छी पत्रकारिता के संरक्षण के लिए न्यायमूर्ति महोदय ने आज तक क्या किया है? उस दिन देव आनंद के निधन के समाचार के अलावा भी सामाजिक और आर्थिक सरोकार के समाचार व विचार अखबारों में प्रकाशित हुए थे, लेकिन लगता है न्यायमूर्ति महोदय देव आनंद को ही देखते रहे। मुझे लगता है, वे भी एक डंडा लेकर साधारणीकरण में जुटे हैं। वे चाहते हैं कि तमाम तरह के पत्रकारों को हांक कर एक ही तबेले में पहुंचा दें, जो कि संभव नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का लक्ष्य कोई एक तबेला नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही यह है कि सबकी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति होगी और सब जरूरी नहीं हैं कि एक ही तबेले या एक ही मंजिल पर पहुंचना चाहें। न्यायमूर्ति महोदय को ऐसी साधारण वैचारिकी से बचना चाहिए। उन्होंने बड़े मुंह से छोटी बात कही है, जो शोभा नहीं देती। साधारणीकरण या जेनरलाइज करके वे वही काम कर रहे हैं, जो अधिसंख्य पत्रकारों ने किया है, हर बात को जेनरलाइज करके देखना। समाचार-विचार को साधारण और अशिक्षित व आम लोगों के अनुकुल बनाते-बनाते पत्रकारिता ने अपना भाषाई और वैचारिक स्तर गिरा लिया है, यह गिरा हुआ स्तर अचानक से ऊपर नहीं आएगा।
आपकी प्राथमिकता देव आनंद की मौत का समाचार नहीं है, तो कोई बात नहीं, करोड़ों दूसरे लोग भी हैं, जो देव आनंद को पढऩा और याद करना चाहते हैं। न्यायमूर्ति महोदय अगर यह सोच रहे हैं कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्या ही रोज प्रथम पृष्ठ पर छाई रहे, तो यह अन्याय है। अदालतों में हर तरह के मुद्दे आते हैं, क्या अदालतों ने कभी प्राथमिकता तय की है? क्या अदालतों ने कभी यह कहा है कि देखिए, पहले सारे हत्या के प्रकरणों को हम प्राथमिकता के आधार पर निपटाएंगे और चोरी के मामले को बाद में देखा जाएगा। कोई भी न्यायमूर्ति यह नहीं कहता कि छेड़छाड़ की तो सुनवाई ही भूल जाइए, पहले हत्या का मुकदमा निपटाया जाएगा। अदालतों ने कभी नहीं कहा कि पहले हम गरीबों के शोषण से निपट लेते हैं और बाद में अमीरों के आपसी झगड़े निपटाएंगे।
लगता है, न्यायमूर्ति महोदय किसी दूसरी दुनिया से आए हैं। अगर विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो क्या इसके लिए मीडिया दोषी है? न्यायमूर्ति महोदय किसानों की मौत के लिए उस सरकार को क्यों नहीं रोज सुबह उठकर गरियाते हैं, जिसने उन्हें नियुक्त किया है? किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो इसके लिए सरकारें दोषी हैं? यह काम या यह नाकामी सरकार की है, उसे कोसा जाना चाहिए। यहां मीडिया को कोसने का तो कोई मतलब ही नहीं है। मीडिया पहले कालाहांडी के लिए खूब कागद कारे कर चुका है और विदर्भ के लिए भी कर रहा है।
माफ कीजिएगा, मीडिया के लिए जन्म और मृत्यु, दोनों ही समाचार हैं। शहर में मौतें होती रहती हैं, लेकिन उनकी वजह से शादियां नहीं रुकतीं, शादियों में नाच-गाना नहीं रुकता। शायद न्यायमूर्ति जी इस बात को भूल गए हैं।
न्यायमूर्ति महोदय को गरीबों की चिंता का शानदार शहर बसाने से पहले एक बार सरकार से भी पूछ लेना चाहिए कि सरकार क्या चाहती है। सरकार तो विलास ही पसंद करेगी, क्योंकि जो सरकारें अपनी जनता को खुश नहीं कर पाती हैं, वे देश में विलास को ही बढ़ावा देती हैं। वे चाहती हैं कि लोग मनोरंजन में उलझे रहें, सरकारी विफलता व भ्रष्टाचार की बात न करें। माननीय की इच्छा व प्रयासों के अनुरूप सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकता जब पूरी तरह से छा जाएंगी, तो सबसे ज्यादा तकलीफ सरकारों को ही होगी, मीडिया तो हमेशा की तरह आलोचना झेल लेगा, लेकिन क्या न्यायमूर्ति महोदय झेल पाएंगे?
Sunday, 4 December 2011
राजेन्द्र प्रसाद की याद
Tuesday, 1 November 2011
छठ, बिहारी और देश
Thursday, 27 October 2011
उठती उंगलियों को तोड़ती सत्ता
Tuesday, 11 October 2011
जेपी के जन्मदिन पर कुछ भावुक नोट्स
इंदिरा गांधी के अलावा जयप्रकाश नारायण मास लीडर हुए, इसमें कोई शक नहीं है। देश की दिशा को बदल दिया, कई लोग कहेंगे कि उनकी सम्पूर्ण क्रांति तो युवाओं का संघर्ष थी, लेकिन जयप्रकाश नारायण के प्रतीक हुए बिना या छत्रछाया के बिना वह आंदोलन उस तरह से संभव नहीं था, जिस तरह से वह संभव हुआ। जयप्रकाश नारायण ने राजनीति की पूरी दिशा बदल दी।
उसके बाद जिस नेता का मैं नाम लूंगा, उस पर विवाद हो सकता है, लेकिन यह नाम लालकृष्ण आडवाणी का है, जिन्होंने प्रगतिशील भारत में हिन्दू नवजागरण का बिगुल बजाया। भारत की न केवल दिशा बदल गई, बल्कि भारतीय समाज की दशा बदल गई। आडवाणी ने जो राजनीतिक आंदोलन चलाया, उसी पर अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हुए। वाजपेयी जी बड़े लोकप्रिय व स्वीकार्य नेता थे, लेकिन आडवाणी अगर न होते, तो वाजपेयी प्रधानमंत्री तो कदापि नहीं बन पाते। हम इसे यों भी कह सकते हैं कि सत्ता तो आडवाणी ने हासिल की थी, और सत्ता के लिए समझौते अटल जी ने किये। या यों भी कह सकते हैं कि सत्ता तो आडवाणी के नेतृत्व में हासिल की गयी और समझौते अटल जी के नेतृत्व में किये गए. हालांकि एक सच यह भी है कि आडवाणी की रथयात्रा के पीछे गोविंदाचार्य और प्रमोद महाजन का दिमाग काम कर रहा था। यह सच है, रथ यात्रा लेकर आडवाणी ही निकले थे, राम मंदिर आंदोलन को उन्होंने ही चरम पर पहुंचाया था और १९९६ में जब सरकार बनाने का मौका मिला, तो उन्होंने अटल जी का नाम प्रस्तावित कर दिया।
पंडित नेहरू ने नींव रखी। इंदिरा गांधी ने देश की दिशा को बदला, जयप्रकाश ने भी देश को बदला और आडवाणी ने भी देश में एक रास्ता तैयार किया, हां, उस रास्ते की निंदा हो सकती है, होती ही रही है। इस बीच अनेक नेता भारत में हुए, गांधी जी तो राम मनोहर लोहिया को भविष्य का नेता मानते थे, और यह मानते थे कि उनकी विरासत को लोहिया ही संभालेंगे, लेकिन लोहिया मास लीडर नहीं बने, जयप्रकाश बन गए।
वैसे अब आडवाणी भी बूढ़े हो गए हैं। बीस साल पहले जो बात उनमें थी, वह तो अब वे चाहकर भी नहीं पैदा कर सकते। तब के आडवाणी और आज के आडवाणी में काफी फर्क है। मुझे याद है, १९९० की रथ यात्रा और जय श्रीराम के नारे। राउरकेला में ही बिलकुल मेरे सामने से गुजरा था आडवाणी का रथ, खूब भीड़ थी, जय श्रीराम का बड़ा जोर था, आडवाणी ने नमस्कार किया, हाथ हिलाया, जब जय श्रीराम का नारा जोर से लगा, तो मुझे याद है, मेरे हाथ भी आसमान की ओर उठ गए थे, मुझे लगा था कि जय श्रीराम का नारा लगा लेने में कोई बुराई नहीं है। आज जब समीक्षा करता हूं वह आंदोलन किसलिए था, क्यों था, उससे क्या मिला, तो दुख होता है, अपने देश की राजनीति और लोगों की समझ पर भी थोड़ा तरस आता है।
मैंने रामबहादुर राय जी से कहा कि मुझे याद नहीं आता कि भाजपा ने सत्ता में रहते हुए जेपी को याद किया हो, या भाजपा के मंच पर जेपी की तस्वीरें लगी हों, तो फिर अचानक आडवाणी जी को जेपी के गांव सिताब दियारा से रथयात्रा की क्यों सूझी, यह तो जेपी का दुरुपयोग है? राय साहब की यादें ताजा हो गईं। उन्होंने बताया, हां, बिल्कुल सही है, भाजपा ने सत्ता में रहते हुए जेपी को भुला दिया था। आडवाणी उप प्रधानमंत्री थे, २००२ जेपी का जन्मशती वर्ष था, हम लोगों को उम्मीद थी कि जेपी की जन्मशती ठीक उसी तरह से मनाई जाएगी, जैसे काग्रेस ने महात्मा गांधी की मनाई थी, लेकिन राजग सरकार का मन साफ नहीं था। मेनका गांधी को जन्मशती मनाने की योजना बनाने वाली समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। कहना न होगा, मेनका गांधी की आपातकाल के दौरान क्या भूमिका थी, वह किस के पक्ष में थी । जेपी तो आपातकल के खिलाफ थे, लेकिन जो आपातकाल के साथ थीं, उन्हें ही जेपी जन्मशती आयोजन के लिए बनी समिति का अध्यक्ष बना दिया गया? क्या आडवाणी इस बात को नहीं जानते थे?
जाहिर है, राजग को जेपी को याद करने की औपचारिकता का निर्वहन करना था, जो उसने बखूबी किया। आडवाणी पता नहीं किस मुंह से सिताब दियारा से रथयात्रा शुरू कर रहे हैं? जेपी का गांव जब पूछेगा कि बताओ, तुम २००२ में कहां थे, तब आडवाणी क्या जवाब देंगे? भला हो, चंद्रशेखर जेपी को याद कर लिया गया। वरना सरकारों के भरोसे अगर रहते, तो शायद जेपी का गांव गंगा-सरयू की धार में बह गया होता।
कभी-कभी बहुत दुख होता है? राजनीति इतनी गिरी हुई, निकम्मी और मौकापरस्त कैसे हो गई?
कुछ दोष राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों का भी है। लोहिया गांधी जो को बहुत प्रिय थे, जयप्रकाश तो गांधी जी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक हर तरह की मदद लेने की स्थिति में थे। लोहिया और जेपी के पास जो ऊर्जा थी, वह आज कहां है, समाज में दिखती क्यों नहीं? किताबों, भाषणों और यादों में लगातार बेवजह टहल रही है उनकी ऊर्जा। लोहिया नहीं होंगे, जेपी नहीं होंगे, तो जाहिर है, आडवाणियों की रथयात्रा निकलेगी, राजाओं-कलमाडियों की रैली निकलेगी। अन्ना जैसी जनता आकर बताएगी कि सच्ची राजनीति क्या होती है. धूर्त, चापलूस, शिथिल मंत्रियों और जरूरत से ज्यादा समय गंवाने वाले प्रधानमंत्री क्यों हैं?
इसका एक बड़ा कारण है, न तो लोहिया राजनीति में पांव जमा सके और न जेपी ने आगे आकर मोर्चा संभाला। जेपी को तो पहली केंद्र सरकार में मंत्री बनने का प्रस्ताव खुद पंडित नेहरू ने दिया था, जेपी ने २५ शर्तें थोपकर नेहरू को निराश कर दिया। जेपी को मौके कई मिले, लेकिन पीछे हट गए, पीछे हटने का एक कारण उनका समाजवादी खेमा भी रहा, जिसमे अगर पांच नेता होते, तो पांच तरह की आवाजें भी आती थीं। विचार से भारी-भरकम और संभावनाशील नेताओं ने एक दूसरे को काटते-काटते इतना हल्का बना लिया कि सत्ता का मैदान हल्के लोगों की भीड़ से बोझिल होने लगा। फिर भी जेपी के नाम से एक आंदोलन है, लेकिन लोहिया के नाम से तो वह भी नहीं है?
सिताब दियारा से आडवाणी का रथ जब निकलेगा, तो क्या जेपी की आत्मा खुश होगी, यह सवाल पूछना ही चाहिए। हममें यह कमी है कि हम पूछकर चुप हो जाते हैं, जबकि पूछना सतत प्रक्रिया है, जो जारी रहनी चाहिए। रथ लेकर निकले हर रथी से पूछना चाहिए कि बताओ, ध्वंस करोगे या निर्माण?
तेलंगाना का शीघ्र हो समाधान
आंध्र के अनेक नेता दिल्ली में हैं, केन्द्रीय नेताओं व मंत्रियों से उनकी मुलाकात हो रही है, लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि बातचीत किस दिशा में जा रही है। आंदोलन कर रहे लोगों का संयम जवाब देने लगा है। 12, 13, 14 अक्टूबर को रेल रोकने का ऎलान हो गया है। आंध्र में अगर रेलों को रोका गया, तो दक्षिण भारत व उत्तर भारत के बीच रेल संपर्क काफी हद तक बाघित हो जाएगा।
इससे जो स्थितियां बनेंगी, शायद सरकार को उनका पूरा आभास नहीं है।
जिम्मेदार नेता अभी भी तेलंगाना मामले के राजनीतिक समाधान के मूड में हैं। अतीत की तरह तेलंगाना के कितने नेताओं को मंत्री बनाया जाएगा? तेलंगाना के मसले पर अब राजनीति रूकनी ही चाहिए। जो प्रदेश कभी तेजी से आगे बढ़ रहा था, जिस हैदराबाद का पूरी दुनिया में नाम है, उस शहर के नाम पर बट्टा लग रहा है। आंदोलन की वजह से जो नुकसान हुआ है या जो नुकसान आने वाले दिनों में सरकारें होने देना चाहती हैं, उनकी भरपाई कैसे होगी? प्रधानमंत्री तेलंगाना मसले को सुलझाने के लिए कुछ समय चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि कितना समय? लोग भूले नहीं हैं, यह वही केन्द्र सरकार है, जिसने तेलंगाना गठन का मन बना लिया था और घोषणा भी कर दी गई थी, लेकिन पांव पीछे खींच लिए गए और राजनीति शुरू हो गई। बहुत दुख की बात है, अपने देश को दिनों-दिनों तक चलने वाले आंदोलनों का रोग-सा लग गया है।
आंदोलन गुर्जरों का हो, अन्ना या तेलंगाना का, जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं बहता, सरकारों के साये में कोरी बातचीत की राजनीति चलती रहती है। केन्द्र सरकार को ध्यान रखना चाहिए समस्याओं को सिर्फ संवाद में उलझाने पर समस्याएं बढ़ती हैं, घटती नहीं। सरकार और वोटों के शौकीन राजनेता क्या यह बता पाएंगे कि तेलंगाना के उन बच्चों का क्या दोष है, जो स्कूल नहीं जा पा रहे हैं? उन तेलंगानावासियों का क्या दोष है, जिन्हें दशकों से तेलंगाना का सपना दिखाया गया है? जब नए राज्य गठन के विगत अनुभव अच्छे रहे हैं, तो फिर तेलंगाना पर राज्य व देश का साधन व समय खराब नहीं करना चाहिए। समाधान जल्द होना चाहिए।
मेरे द्वारा लिखा गया एक सम्पादकीय
Monday, 26 September 2011
हृदय रोग उपचार में कैसे हुई तरक्की
• 1628 : अंग्रेज फिजिशियन विलियम हार्वी ने रक्त संचार को समझाया।
• 1706 : फ्रांसीसी एनाटोमी प्रोफेसर रेमण्ड डी वीयूसेंस ने पहली बार हार्ट चेम्बर्स और नसों के ढांचे का वर्णन किया।
• 1733 : अंग्रेज वैज्ञानिक स्टीफन हेल्स ने पहली बार रक्तचाप को मापा।
• 1816 : फ्रेंच फिजियोलॉजिस्ट टी. एच. लेन्नेक ने स्टेथोस्कोप का आविष्कार किया।
• 1903 : डच फिजियोलॉजिस्ट विल्लेम इनथोवेन ने इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ का विकास किया।
• 1912 : अमरीकी फिजिशियन जेम्स बी हेर्रिक ने बताया कि आर्टेरीज के हार्ड होने की वजह से हृदय रोग होता है।
• 1927 : पुर्तगीज फिजिशियन व न्यूरोलॉजिस्ट इगस मोनिज ने लिस्बन में सेरेब्रल (मस्तिष्कीय) एंजियोग्राम तकनीक को अंजाम देकर कोरोनरी (हृदय सम्बंधी) एंजियोग्राफी की आधारशिला रखी।
• 1929 : लिस्बन में ही रेनॉल्डो सिड डोस सेंटोस ने आर्टोग्राम का इस्तेमाल किया।
• 1938 : अमरीकी सर्जन रॉबर्ट ई. ग्रॉस ने पहली बार हार्ट सर्जरी की।
• 1951 : अमरीकी सर्जन चाल्र्स हफनेगल ने ऑर्टिक वाल्व को दुरुस्त करने के लिए प्लास्टिक वाल्व तैयार किया।
• 1951 : अमरीकी सर्जन एफ. जॉन लेविस ने ओपन हार्ट सर्जरी को अंजाम दिया।
• 1953 : सेल्डिंगर तकनीक की शुरुआत हुई, कैथेटर के जरिये हृदय के अंदर नसों को देखना संभव हुआ, एंजियोग्राफी पहले की तुलना में ज्यादा सुरक्षित व कारगर हुई।
• 1953 : अमरीकी सर्जन जॉन एच. गिबॉन ने पहली बार मैकेनिकल हार्ट और ब्लड प्यूरीफायर का उपयोग किया।
• 1960 : अमरीका में डॉक्टर रॉबर्ट गोएट्ज की टीम ने पहली सफल कोरोनरी आर्टरी बाइपास सर्जरी की
• 1961 : अमरीकी कार्डियोलॉजिस्ट जे.आर. जुडे ने हृदय को पुन: चलाने के लिए बाह्य हृदय मसाज करने वाली टीम का नेतृत्व किया।
• 1964 : इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिस्ट चाल्र्स डोट्टेर ने एंजियोप्लास्टी को अंजाम दिया, उन्हें फादर ऑफ इंटरवेंसनल रेडियोलॉजी कहा जाता है।
• 1965 : अमरीकी सर्जन माइकल डीबेकेय और एड्रियन केन्ट्रोविट्ज ने बीमार हृदय के सहयोग के लिए मैकेनिकल डिवाइस का प्रत्यारोपण किया।
• 1967 : दक्षिण अफ्रीकी सर्जन करिस्टिआन बर्नार्ड ने एक व्यक्ति से लेकर दूसरे व्यक्ति में हृदय प्रत्यारोपित किया।
• 1968 : मेल्विन जुडकिन्स की मेहनत रंग लाई, हृदय धमनियों तक आसानी से पहुंचने में सक्षम कैथेटेर निर्मित होने लगे।
• 1977 : स्विस कार्डियोलॉजिस्ट एंड्रेस ग्रुएनजिग ने मरीज के होश में रहते हुए ही एंजियोप्लास्टी की।
• 1982 : अमरीकी सर्जन विल्लेम डे व्राइज ने स्थायी कृत्रिम हृदय प्रत्यारोपित किया इस हृदय को अमरीकी फिजिशियन रॉबर्ट जारविक ने डिजाइन किया था।
• 1986 : पहली बार हृदय में एंजियोप्लास्टी के जरिये सफलतापूर्वक स्टंट लगाया गया।
दिल है, तो जान है और जान है तो जहान है।
Thursday, 22 September 2011
अपने और अपनी किताब के बारे में कुछ शब्द
मेरी किताब के बारे में अनेक अख़बारों और पत्रिकाओं में शब्द प्रकाशित हुए हैं, उनमें श्रेष्ठ प्रकाशन प्रथम प्रवक्ता का रहा है। प्रकाशन तो काफी पहले हो गया था लेकिन संकोच के कारण पोस्ट नहीं कर रहा था, खैर आप भी देखिये, जाने माने पत्रकार और शायर श्री दिनेश ठाकुर जी ने यह टिप्पणी लिखी है, उनका ह्रदय से आभार। वैसे तो मैं हमेशा ही बहुतों को उपकृत करने की स्थिति में रहा हूँ लेकिन ऐसा कभी किया नहीं, इस मामले में मैं बहुत काम का आदमी नहीं हूँ. ऐसा बहुत सारे लोग भी मानेंगे. न कभी किसी को अनुचित रूप से उपकृत किया और न कभी स्वयं अनुचित रूप से उपकृत हुआ। पत्रकारिता के प्रति गहरी ईमानदारी रही है, पत्रकारिता पर विश्वास भी गहरा रहा है इसलिए कभी अनुचित लाभ नहीं उठाया। इसका नुक्सान जरूर रहा है, लेकिन मैं अपना तरीका नहीं बदलूँगा। मेरी किताब मेरी कथनी नहीं बल्कि करनी का प्रतिफल है। उन तमाम मित्रों का आभार जो निःस्वार्थ भाव से मेरे साथ रहे हैं। अग्रज दिनेश ठाकुर जी की जितनी प्रसंशा की जाए कम है, मुझे लगा था कि मेरे जैसे किसे ब्यक्ति की किताब पर मेरे जैसा ही एक अग्रज लिखे, तो ईमानदारी ज्यादा सुनिश्चित होगी और वह हुई, आज भी हम दोनों के बीच न तो फालतू की बटरिंगबाजी है और न कोई सेटिंग, ऐसा ही बहुत कुछ है मेरे पास, जो पोलिटिकली गलत है, बाकी फिर कभी....
Wednesday, 21 September 2011
मेरी किताब पर राजेंद्र शेखर जी की टिप्पणी
शुभेच्छ
Friday, 26 August 2011
लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली
यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली, सिताब दियर, उत्तर प्रदेश का है. 29 - 10 - 2009 की दोपहर का वीडियो है. इस वीडियो में दायी और जो मंदिरनुमा निर्माण है वह संग्रहालय है, जहाँ जेपी की यादों को संजोया गया है, यह गाँव बहुत विशाल है, उसके जिस टोले में जेपी का जन्म हुआ, उसका पुराना नाम बबुरवानी और नया नाम जयप्रकाश नगर है.
Tuesday, 23 August 2011
देश के लिए कुछ शब्द
जन लोकपाल थोड़े परिवर्तन के साथ एक तार्किक कानून बन सकता है. लेकिन सरकार के सामने समस्या यह है कि यह कानून हमारी ब्यवस्था में तर्क की नयी शुरुवात कर देगा. एक मोर्चे पर जैसे ही कोई सुधार होगा वैसे ही दूसरे मोर्चों पर भी सुधार की मांग बढ़ जायेगी. कोटा सिस्टम से देश का एक बड़ा वर्ग परेशां है, कोटा सिस्टम लगातार अतार्किक होता चला गया है. इसमें जब सुधार की मांग होगी तो कोटा का लाभ उन्हें ही मिलेगा जो वास्तविक हकदार हैं. यहाँ नाम लेने की कोई जरूरत नहीं है, कई जातियां है जो कोटा के दम पर इतनी संगठित व शक्तिशाली हो चुकी हैं कि उन्हें बड़ी आसानी से नव-सवर्ण माना जा सकता है.
दलित एक्ट की बात करें तो यह भी एक कुतर्क पर आधारित है. सवर्ण अगर किसी अ-सवर्ण को गाली देता है तो शिकायत होने पर उसकी जमानत भी नहीं होती लेकिन अगर कोई अ-सवर्ण किसी सवर्ण को गाली दे दे तो कोई कानून नहीं है, जो बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाए. झूठी शिकायतें और इस कानून के दुरपयोग की बात अगर छोड़ दे तो भी इस कानून को तार्किक नहीं बताया जा सकता. गाली कोई भी दे, दंड समान होना चाहिए. आप कुछ नव-दलित चिंतकों की भाषा पर गौर कीजियेगा. वे ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहें हैं, जिसको वे स्वयं अपने लिए भी स्वीकार नहीं करेंगे. अगर कोई सवर्ण वैसी भाषा का इस्तेमाल कर दे, दलित एक्ट लागू हो जायेगा. कोई शक नहीं कोटा सिस्टम अगर तार्किक होगा तो इससे उन अ-सवर्ण जातियों को ही लाभ होगा जो वास्तविक रूप से संविधान के पैमानों पर ST या Sc या OBC हैं.
दो दिन पहले दलित चिन्तक चंद्रभान प्रसाद का एक sms आया कि God का शुक्र है मैं अन्ना नहीं हूँ. मैं उनसे पूछा, क्या मतलब है आपका? लेकिन उनका जवाब नहीं आया. कतई जरूरी नहीं है कि चंद्रभान प्रसाद जैसे दिग्गज अ-सवर्ण चिन्तक मेरे जैसे कथित सवर्ण पत्रकार को जवाब दें. यह उनकी ताकत का दौर है. अच्छी बात है. मैंने हमेशा उनका साथ दिया है, अमर उजाला में रहते हुए भी और अपने वर्तमान समाचार पत्र में रहते हुए भी मैंने उनको आमंत्रित कर उनके पीछे पड़ कर उनके लेख प्रकाशित करवाए हैं. मैं चाहता था कि वे नियमित स्तम्भ लिखें मैंने उनसे ब्यक्तिगत रूप से मिल कर निवेदन किया, आप लिखिए. बहुत मनाने के बाद उन्होंने कहा, प्रति लेख पांच हजार रूपये लूँगा. बात यही ख़त्म हो गयी. अगर जाति को सामने रख कर बात करें, तो किसी सवर्ण को भी इतना भुगतान नहीं होता है. मैंने उन्होंने मनाने की जितनी कोशिश की, उतनी कोशिश मैंने किसी को मनाने के लिए नहीं की है. मैं यहाँ यह बता दूं कि मैं उन्हें तीन हजार रूपये प्रति लेख देना चाहता था. वो तैयार नहीं हुए. उन्होंने निःस्वार्थ निवेदन का भी मान नहीं रखा. अब विचारों का लोगों तक पहुंचना महत्वपूर्ण नहीं है. अब बिज़नस और पोलिटिक्स ज्यादा महत्वपूर्ण है.
दलितों पर ईमानदारी से लिखने वालों की कमी है. राजस्थान एक ऐसा राज्य है. जहाँ कोटा सिस्टम में अतार्किकता बढती जा रही है. इस पर चरण सिंह पथिक जी ने स्वयं आगे बढ़ कर एक लेख लिखा था जो प्रकाशित भी हुआ था, लेकिन बाद में ऐसा लगा कि वे भी पीछे हट गए. बेशक तर्क से परहेज पूरे समाज का नुक्सान करेगा और फायदा केवल राजनीति को होगा.
दलित राजनीति और हिंदी पट्टी में दलित चिंतन की तर्क से दूरी लगातार बढती चली जा रही है. अन्ना की बात करें तो महाराष्ट्र के दलित उनके साथ हैं लेकिन हिंदी पट्टी के दलित उनके साथ नहीं है. गुर्जर आन्दोलन के समय कई कई दिनों तक रेल ट्रैक जाम रहता है, लोग खाते पीते वहां जमे रहते हैं, तब किसी को बुरा नहीं लगता लेकिन अन्ना के अनशन को देश घातक और भयानक बताया जाता है.
अभी बंगलुरु में अन्ना के समर्थन में एक रैली निकली बच्चे नेताओं के रूप में रैली में शामिल हुए. उनमे कोई भी अम्बेडकर बन कर नहीं आया, यह बात चंद्रभान प्रसाद जी को चुभ गयी वे ndtv prime टाइम के समय रवीश कुमार से लगातार निवेदन कर रहे थे कि रैली का footage दिखाया जाए, footage दिखाया भी गया लेकिन क्या यह सच नहीं है कि स्वयं दलित राजनीति ने अम्बेडकर की बातों को भुला दिया है. अम्बेडकर ने कोटा सिस्टम के बारे में बहुत कुछ कहा था, लेकिन उन बातों को याद करना दलित चिन्तकों को शायद राजनीतिक रूप से गलत लगता है. अम्बेडकर कभी इस भाषा में बात नहीं करते थे जिस भाषा में आज के रसूखदार दलित नेता करते हैं. लेकिन इनको यही लगता है कि अन्ना गुंडागर्दी कर रहे हैं. यह दुःख और निंदा की बात है.
आज जरूरत सिस्टम को बदलने की है. लेकिन कुछ चिन्तक यह मानते हैं कि सिस्टम बदलेगा तो कोटा सिस्टम भी बदलेगा. इसलिए सिस्टम को बदलने का विरोध हो रहा है. जो सरकार अतार्किक रूप से कोटा सिस्टम को जारी रखना चाहती है, उस सरकार के बचाव को कुछ लोगों ने अपना मकसद मान लिया है. जरूरी है सिस्टम में सुधार, अगर सिस्टम नहीं सुधरेगा, अगर वह तर्क पर आधारित नहीं होगा, तो यकीन मानिए. कोटा कांटे की तरह चुभता रहेगा. और यह काटा कितना किसको चुभ रहा है, यह वो दलित भी जानते हैं जिन्होंने कोटा का लाभ लिया है. शर्मसार वे नहीं है जो बार बार पीढ़ी दर पीढ़ी कोटा का लाभ लेते हुए सवर्णों से भी शक्तिशाली हो चुके हैं. दुखी कुंठित तो वो हैं, जो पहली बार कोटा का लाभ उठाते हुए तर्क खोज रहे हैं. दुखी तो वो हैं जिन्हें आज भी कोटा का लाभ नहीं मिला लेकिन काँटों से जिनका जिगर लहूलुहान हैं. और घूस ने हमारे समाज को कहाँ तक घुस कर मारा है, यह कहानी फिर कभी...
Thursday, 18 August 2011
पिता की मछलियाँ
मेरे बाजुओं में सिर्फ पानी है
लेकिन पिता ने पाली हैं
बाजुओं में मछलियां।
जिन पर हम भाइयों ने गुमान किया।
उन मछलियों के साए में हम पले।
पिता कभी जिम नहीं गए
खेतों-अखाड़ों में जूझकर
पाली मछलियां तगड़ी-मोटी।
लेकिन अब पिता नहीं,
दरअसल मछलियां बूढ़ी हो रही हैं।
पहले की तरह खुराक नहीं मांगतीं।
कलेवर-तेवर नहीं दिखातीं।
हम चाहते हैं खूब खाएं,
फडक़े, कसें और फैली रहीं मछलियां
लेकिन इन दिनों नहीं मानती मछलियां।
वे उतनी ही जिद्दी हैं
जितना कि वक्त।
Sunday, 24 July 2011
पिता के लिए
पिता
के
बहुत मुश्किल है
पिता को पिता लौटाना
लेकिन मुमकिन है
पिता को पुत्र लौटाना
वही सही
लौटा रहा हूं
कुछ लौटाने की कामना में
मुझे ही मिल जा रहा है
बहुत कुछ
शायद नामुमकिन है
पिता को कुछ भी लौटाना
२
गाढ़े दर्द भरी आंखों से
इशारा करते हैं पिता
जरा उठाओ तो
और पिता को उठाते
मैं खुद उठता हूं,
अपनी असामाजिकता के रद्दीखाने से
अकूत धूल झाडक़र
लंबी बेशर्म नींद तोड़
वो मुझे उठना सिखाते हैं
जागना, सहेजना
अनायास
बिना बोले पिता का मौन गुरुकुल
पीढिय़ों का उजास समेटकर
मेरी झोली में डालता है।
हाथ थामकर चलते हैं पिता
कुछ डगमग मैं होता हूं
मौन पूर्वज प्यार से चीख पड़ते हैं
पिता बिन कहे उलाहते हैं
अब तो चलना सीख लो।
बूढ़ा हो गया
चलाते-चलाते।
३
पिता की देह में कांपती हैं कमजोरियां,
मां को चुनौती देती हुई
पांच कौर पर मुंह फेर लेते हैं पिता
सातवें कौर की उम्मीद लिए बैठी रहती मैं मां।
मनुहारती है मां
बस एक और कौर दूर है मजबूती
छठा कौर किसी तरह निगलकर
मुंह सिल लेते हैं पिता
सातवां रह जाता है
मां की उंगलियों में
और आठवां थाली में।
Sunday, 3 July 2011
खेजड़ी का पेड़
जहां रूठ गया पानी
जहां उखड़ गए पेड़ों के पांव,
जहां चंद बूंदों की भीख को
रोते सूख गए पौधे।
वहां जम गया
रम गया
अकेला खेजड़ी।
खेजड़ी में देखता है मरुथल
कि कैसे होते हैं पेड़।
कितनी मीठी होती है छांव,
ठन्डे पत्ते और नर्म स्पर्श
और उनसे फूटती हवा।
क्या होता है,
जलते-तपते में वीरान में जीना।
कसम रेत की,
पांव जमाकर खेजड़ी
डालता है मरुथल के पांवों में बेडिय़ां।
और देता है गवाही
रेत के सीने में भी होती है थोड़ी मिट्टी
जैसे रूखे शरीर में दिल
थोड़ा-सा बचा हुआ।
शायद उसी के लिए,
उसी थोड़े की पूर्णता के लिए
जिन्दा है खेजड़ी।
बनी-बंधी आस
थोड़ी-थोड़ी नरमी,
जरा-जरा प्यार
छोटे-छोटे पत्ते,
छोटी-छोटी छांव से धनी खेजड़ी।
दूसरी जगह बड़ा होने से
बहुत बड़ी बात है
मरुथल में थोड़ा होना।
कुछ दूर साथ चलता है बबूल,
छोटे भाई की तरह।
कुछ आगे हारकर
ठिठक जाता है,
और देखता है
बड़े भाई को जाते
बहुत आगे
रेत के टीले दर टीले।
कभी बड़ी दया उमड़ती खेजड़ी पर,
क्या मृगमरीचिका का षड्यंत्र उसे फंसा लाया?
सीधा-सादा खेजड़ी
आगे बढ़ता चला गया।
बहुत शातिर दूसरे पेड़
पीछे रह गए
बहुत पानी में
और भोला खेजड़ी
रह गया हानि में।
गिनती की बूंदों के आते
लहलहा जाता।
बड़ा रसिया खेजड़ी।
हर आषाढ़ रचाता शादी।
तब देखो तो उसे जरा
उसके खुरदुरे तनों-अंगों पर
हर ऊपरी सिरों-छोरों पर,
पत्तों की घनी-हरी ओढऩी।
जैसे अधेड़ बींद पर
नशे-सी छाई
नई नवेली बींदणी।
(मरुभूमि में जहाँ कोई पेड़ नहीं उगता वहां उगता है खेजड़ी, यह कविता पिछले साल जयपुर से सीकर जाते समय लिखी थी , मौसम यही था, बहुत रुला कर देर से आया था मानसून, और जब कुछ ही बूंदें बरसी थीं, लहलहा उठे थे खेजड़ी के पेड़ )
Wednesday, 30 March 2011
अपनी बात
Wednesday, 9 March 2011
मेरी किताब
मीडिया पुस्तकों में सिद्धांत और पत्रकारिता का इतिहास तो पर्याप्त मिल जाता है, लेकिन व्यावहारिक समझ की बातें अधूरी रह जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो हथियार चलाना तो सिखा दिया जाता है, लेकिन युद्ध भूमि में कब किस परिस्थिति में कैसे संघर्ष करना है, यह सब नहीं बताया जाता। अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदना तो आता था, लेकिन उसे नहीं पता था कि चक्रव्यूह के अंदर विराजमान लगभग तमाम महारथी युद्ध के सारे सिद्धांतों-नियमों की धज्जियां उड़ाकर व्यावहारिक हो जाएंगे और उसका वध हो जाएगा। मीडिया जगत में महाभारत निरंतर जारी है, आज अर्जुन होने-बनने की जरूरत है, ताकि चक्रव्यूह को न केवल भेदना, बल्कि उसे जीतना भी संभव हो सके।
आधुनिक दौर में जब पूंजी का नियंत्रण बहुत बढ़ चुका है, जब गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा पत्रकारों की प्रतीक्षा कर रही है, तब यह एक स्वाभाविक सत्य है कि एक सीमा के बाद सिद्धांत नाकाम हो जाते हैं और केवल व्यावहारिक होने का विकल्प ही बचा रहता है। प्रस्तुत पुस्तक में चाहे आधार की बात हो या प्रकार की या व्यवहार की, हर जगह यह चेष्टा हुई है कि पत्रकारिता में आने को इच्छुक छात्रों, नए-पुराने पत्रकारों, मीडिया प्रबंधकों और यहां तक की पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं को भी समाधानों का व्यावहारिक संबल प्रदान किया जाए।
Monday, 7 March 2011
मुंह बाए खड़ा पक्षी
(कोटा चिडिय़ाघर में यह पक्षी विशेष मुद्रा में दिखा, तो न खुद को फोटो खींचने से रोक सका और न कविता लिखने से।)
एक पक्षी
पिजड़े की भीड़ में अकेला
नि:शब्द स्तब्ध
देर से सिर उठाए।
सीमा के अतिरेक तक मुंह बाए।
खड़ा, मानो विराम पर ठहरी दुनिया।
मानो हल होने वाला हो
पापी पेट का सवाल।
इंतजार बढ़ाता कोई दाना
या गले में अटका कोई गाना।
कोई भूला हुआ राग
या ठिठकी हुई रागिनी।
गले में फंसा सुर
या कोई गुप्त गुर।
कोई विचित्र नृत्य
या उसकी कोई विलंबित मुद्रा।
दुख में डूबा या सुख में बिसरा।
या आजादी की संभावनाओं का निकलता दम।
या टूटे सपने का सन्नाटा।
सूर्य या पृथ्वी को निगल जाने का गुमान,
या किसी फतींगे को धोखा देने की तैयारी।
आलस्य का चरम
या भूल गए हों कि मुंह खुला है
या खुले मुंह में आ गई हो नींद।
भकोल है
या बहुत भोला है
शायद नहीं जानता
छूटते प्राणों और
सिमटते जीवनों की दुनिया में
खतरनाक है यों मुंह खोले खड़े रहना।
भयावह होती दुनिया में
खुले मुंह का खतरा
जैसे आ मौत मुझे मार का आह्वान।
हे अनाम पक्षी
अभी बंद रखो मुंह,
खाक में मिलने से पहले तक
जैसे बंद रहती है लाख की मुट्ठी।
क्योंकि अंतत: उसे खुला ही रह जाना है।
Thursday, 3 March 2011
दिनों बाद दो फिल्में
बहरहाल, बहुत दिनों बाद जयपुर के पिंक स्क्वायर में मधुर भंडारकर की फिल्म 'दिल तो बच्चा है जी देखने गया। यह मेरे पौने तीन साल के बेटे द्वारा सिनेमा हॉल में देखी गई पहली फिल्म है, जो उसने जागते हुए और पॉपकॉर्न खाते हुए देखी। यह फिल्म खराब तो नहीं ही कही जाएगी, लेकिन भंडारकर ब्रांड की फिल्म यह नहीं है। आजकल एक ट्रेंड है कि किसी फिल्म में एक साथ अनेक कहानियां चलती हैं। दिल तो बच्चा है जी में भी तीन या चार-पांच प्रेम कहानियां चलती हैं, लेकिन तीनों ही प्रेम कहानियां एकतरफा प्रेम या प्रेम की गलतफहमी की कहानियां हैं। गीत नीलेश मिश्र ने लिखे हैं, जो हिन्दुस्तान टाइम्स में पत्रकार हैं, एक गीत को छोड़ दीजिए, तो फिल्म में गीत-संगीत मामूली ही है, भंडारकर जैसे निर्देशक इस बात को नजरअंदाज कर गए कि प्रेम कहानी या कहानियों पर आधारित फिल्मों में गीत-संगीत आला दर्जे का होना चाहिए। भारतीय समाज में प्रेम और संगीत का चोली-दामन का साथ है। भारतीय फिल्मों में आज भी बिना गीत-संगीत के प्रेम असंभव, अप्रभावी व अनाकर्षक है।
मैंने दूसरी फिल्म ७ खून माफ देखी। ख्यात निर्देशक विशाल भारद्वाज की यह फिल्म रस्किन बांड की कहानी पर आधारित है और भारद्वाज ने एक अमरीकी स्क्रीन प्ले राइटर की मदद से फिल्म भी ठीक-ठाक बनाई है। निर्देशन अच्छा है, लेकिन अंधेरा कुछ ज्यादा है। कई बार फिल्म अपनी मूल धारा से भटक जाती है। अब लगभग सब जानते हैं, फिल्म की नायिका सुजन्ना बारी-बारी से परिस्थितिवश अपने छह पतियों का खून करती है, उसका सातवां पति ईश्वर है। फिल्म अभिनय के लिहाज से शानदार है। प्रियंका चोपड़ा के लिए यह फिल्म यादगार होगी। नील नितिन मुकेश, अन्नू कपूर खास तौर पर प्रभावी हैं, जबकि इरफान खान और नसरुद्दीन शाह ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। इन चरित्रों में जरूरत से ज्यादा कोण या झोल हैं, जिसकी वजह से यह फिल्म आम दर्शकों के सिर के ऊपर से निकल सकती है। हुआ भी यही, कोटा के नटराज सिनेमा में, ९ बजे के बाद के शो में बामुश्किल २५ लोग थे।फिल्म पर जो चर्चा हुई, उसमें यह बात सामान्य तौर पर उभरी है कि यह बिगाडऩे वाली फिल्म है। साथी या जीवन साथी बारबार बदलने को उकसाने वाली फिल्म है, लेकिन मेरी नजर में इस फिल्म में जो अंत है, उससे गहरा अध्यात्मिक बोध पैदा होता है। यह फिल्म स्थापित करती है कि भोग या काम से ज्यादा महत्वपूर्ण है संयम और मोक्ष। जहां तक मेरा मानना है, यह फिल्म यह भी संदेश देती है कि अगर आप बिगड़े हुए हों, विचलित हों, तो या तो आप मार दिए जाओगे या फिर आप किसी को मार डालोगे। सुजन्ना किसी आम महिला की तरह मारी नहीं जाती, बल्कि मारती है। यह शायद उत्तरआधुनिक नारीवाद है, या बदला या एक तरह का जयघोष है, एक तरह की खोज है, जिसे यह फिल्म मुकाम तक पहुंचाती है। वाकई, यह याद रह जाने वाली फिल्म है।