Wednesday, 23 December 2009
फिर अधर में नतीजे
न महंगाई मुद्दा रही न भ्रष्टाचार। तभी तो मधु कोड़ा की पत्नी चुनाव जीत गयी और सोरेन मुख्यमंत्री पद के लिए लालायित हैं। देश चिंता जनक दौर में है लोगों की मानसिकता समझ से परे जा रही है। ऐसा लगता हैं की भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं रहा। जिस समाज को भ्रष्टाचारियों को डंडे लेकर खदेड़ देना चाहिए वह सामाज विवादस्पद व भ्रष्ट नेताओं को बार-बार बचा ले रहा है। शायद झारखण्ड को फिर जोड़-तोड़ वाला एक भ्रष्ट मुख्मंत्री ही मिलेगा। बेशक यह दौर कांग्रेस का है, क्या वह उम्मीदों पर खरी उतरेगी ? क्या वह आम आदमी को वास्तविक रहत देने के प्रयास करेगी ? क्या अच्छी योजनाओं में भ्रष्टाचार कम होगा? क्या गरीबों का पैसा गरीबों तक पहुंचेगा ?
Friday, 18 December 2009
सिंपल की स्पेशल यादें
किशोरवय में देखी गई फिल्में, अभिनेता व अभिनेत्रियां जिंदगी भर याद आते हैं। पिछले दिनों मेरी एक प्रिय अभिनेत्री सिंपल कपाडिया का निधन हो गया। सिंपल वाकई सिंपल थीं, अपनी बहन डिंपल की ग्लैमरस इमेज से बिल्कुल अलग। डिंपल में एक उच्च्वार्गियता थी, आज भी है, लेकिन सिंपल ने हमेशा मध्यवर्गीयता का ही प्रतिनिधित्व किया। जैसे मध्य वर्ग को निर्णायक मौके कम मिलते हैं, ठीक उसी तरह सिंपल को भी कम मिले। जितना भी काम किया, अच्छा किया, सच्चा किया। खूब बतियाती शरारती आंखें, चेहरे पर दूसरों को सहज ही अपना बना लेने का भाव। सिंपल के जमाने में अभिनेत्रियों को जीरो फीगर का सपना नहीं आता था, अभिनेत्रियां खाते-पीते घरों की हुआ करती थीं। गौर कीजिए, तो पहले की अभिनेत्रियां स्वस्थ्य नजर आती हैं, यह बात नई अभिनेत्रियों के साथ नहीं है। शायद इसीलिए पहले की अभिनेत्रियां याद रह जाती हैं और अब की अभिनेत्रियों को बीतते समय नहीं लगता। सिंपल भी स्वस्थ्य थीं, सुंदर थीं।
तब मैं दस-ग्यारह का बच्चा था। शायद 1985-86 की बात है। पिता जी वेस्टन का रंगीन टीवी 1984 में ही खरीद चुके थे। बचपन में हम सिनेमा हॉल तो कम ही गए। बामुश्किल तीन फिल्में मैंने बचपन में सिनेमा हॉल में देखीं। पहली फिल्म मैंने दीपक टॉकीज, राउरकेला में नूरी देखी थी, दूसरी फिल्म मासूम और तीसरी दर्द का रिश्ता कोणार्क टॉकीज में देखी। हां, सामुदायिक भवनों के पास खुले में पर्दा टांगकर प्रोजेक्टर से दिखाई जाने वाली कुछ फिल्मों की यादें हैं, जैसे डॉन, मां, धर्मात्मा, रास्ते का पत्थर इत्यादि। बहरहाल, सिंपल का जो चेहरा सर्वाधिक ध्यान में आता है, वह अनुरोध फिल्म का है, जो मैंने घर में टीवी पर देखी थी। राजेश खन्ना गायक हैं। सफेद कोट पर नीली-लाल धारियां। खड़े होकर झूमते हुए रेडियो पर गा रहे हैं - आते जाते खूबसूरत आवरा सड़कों पर....। दूसरी ओर, सिंपल, नीली साड़ी, नीला ब्लाउज, खुले बाल, खिला-खिला, मुस्कराता, लजाता मादक चेहरा। पांच मिनट के इस गाने के फिल्मांकन में शक्ति सामंत के निर्देशन की शक्ति भी चरम पर है। रेडियो के शीशे पर सिंपल का ठिठका हुआ चेहरा उभरता है। और गीत जारी है - ...किस कदर ये हसीन खयाल मिला है, राह में एक रेशमी रुमाल मिला है, जो गिराया था किसी ने जानकर, जिसका हो ले जाए वो पहचानकर...। मुझे अच्छे से याद है, इस गीत के समय कोई हिल भी नहीं रहा था। सब मोहित थे। मैंने तब अहसास किया था कि मेरे जीवन में कुछ विशेष घट रहा है। वह गीत खत्म हो गया, लेकिन जो गीत मेरे अंदर शुरू हुआ, वह अभी भी जारी है। इसी गीत की एक पंक्ति मुझे बार-बार याद आती है - काश फिर कल रात जैसी बरसात हो, और मेरी उसकी कहीं मुलाकात हो, मुलाकात हो।
अफसोस, केवल यादें रह जाएंगी, न वैसी बरसात होगी, न मुलाकात होगी। जब भी दिल या दिल के बाहर यह गीत बजेगा, यही ध्यान आएगा कि सिंपल अब संसार में नहीं रहीं।
Thursday, 3 December 2009
प्रथम राष्ट्रपति का गांव
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Wednesday, 14 October 2009
बेमिसाल अमिताभ
( yah sambhavtah amitabh bachchan ke janmdin par likha gaya akela prakashit sampadkeey hai )
उम्र के 68वें साल में प्रवेश कर चुके अमिताभ ऐसी बेमिसाल हस्ती हैं, जिन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। भारत में शायद किसी भी जीवित हस्ती के जन्मदिन पर इतना धूमधड़ाका नहीं होता है। गैर-सरकारी स्तर पर ही सही, अमिताभ का जन्मदिन साल दर साल खास बनता जा रहा है। केवल फिल्म उद्योग ही नहीं, बल्कि पूरी मनोरंजन की दुनिया में अमिताभ का कोई सानी नहीं है। कालिया फिल्म में अमिताभ का एक संवाद, - हम जहां पे खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती हैं, - बेहद अर्थपूर्ण है। मनोरंजन की दुनिया में उनके द्वारा शुरू की गई लाइनें दिनों-दिन लंबी होती जा रही हैं। फिल्म सात हिदुस्तानीं से लेकर रियलिटी शो बिग बॉस-तृतीय तक अमिताभ द्वारा शुरू की गई लाइनों, प्रतिमानों और शैलियों का कोई अंत नहीं है। भारत में सबसे ज्यादा नकल अगर किसी हस्ती की हुई होगी, तो वो अमिताभ ही हैं। हर छोटा-बड़ा कलाकार कभी न कभी उनकी किसी शैली को आजमाने की कोशिश करता है। बेशक, उनके आलोचक भी हैं, लेकिन जिस देश में राष्ट्रपिता का दर्जा प्राप्त हस्ती की आलोचना हो सकती है, वहां अमिताभ आलोचना से कैसे बच सकते हैं। हालांकि कई मौके आते हैं, जब अमिताभ अपने विशाल कद से आलोचकों को बौना बना देते हैं।
आखिर क्या है अमिताभ बच्चन होना? हम उनसे क्या सीख सकते हैं? पहली बात, परिवार के प्रति अमिताभ का प्रेम अनुकरणीय है। उनके माता-पिता को लंबा जीवन मिला, क्योंकि अमिताभ ने अपने माता-पिता को वह स्थान और वह जरूरी आजादी दी, जो आजकल की सफल संतानें अपने अभिभावकों से छीन लेती हैं। पिता की चरणों में जगह खोजने वाले पुत्र के रूप में, अपने बेटे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते पिता के रूप में वे आदर्श हैं। हॉलीवुड के कई महान अभिनेता अपनी शादियों की वजह से भी जाने गए हैं, लेकिन अमिताभ यहां भी आदर्श हैं।
उनकी दूसरी बड़ी खूबी है, हमेशा कुछ नया करने की कोशिश। एंग्री यंगमैन की नई धारा, कमाई के पैसे के उचित निवेश का तरीका, चुनावी राजनीति में अभिनेताओं के लिए द्वार खोलने की जिम्मेदारी, राजनीति से पल्ला झाड़ने एवं फिर न लौटने का वचन, हर संभव चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं, बड़े परदे से छोटे परदे पर पदार्पण, सक्रिय ब्लॉग लेखन और अब बिग बॉस- तृतीय में मेजबान की भूमिका, अमिताभ ने हमेशा नया करने की कोशिश की है, खतरे उठाए हैं। एकाध विफलताओं को छोड़ दीजिए, तो वे आज सफलतम हस्ती हैं। त्रिशूल फिल्म में उनका एक संवाद है, सही बात सही वक्त पे की जाए, तो उसका मजा ही कुछ और है और मैं सही वक्त का इंतजार करता हूं। - यह हमारे जीवन प्रबंधन में भी बड़े काम का वाक्य है।
अमिताभ की तीसरी बड़ी खूबी है कठोर परिश्रम।
चौथी बड़ी खूबी है वक्त का सम्मान । उनके जीवन में एक-एक मिनट मायने रखता है और सेट पर समय पर पहुंचने के लिए भी जाने जाते हैं।
पांचवी खूबी, उन्होंने हमेशा भारतीयता का आदर किया है। हॉलीवुड की दादागिरी उनके सामने बेदम हो जाती है और भारतीय बॉलीवुड पूरी मजबूती से उभरता है। आज उन जैसे खांटी अरबपति भारतीय दुर्लभ हैं। भारतीय संस्कृति ही नहीं, राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति उनका सहज समर्पण दूर देश तक लोगों को हिन्दी सीखने के लिए प्रेरित करता आया है।
अमिताभ की छठी खूबी है वो मुंबई मे रहकर भी इलाहाबादी हैं। लोग बड़े शहरों मे जाकर अपने गाँव, बोली , लहजे को भुला देते हैं लेकिन इस मोर्चे पर भी अमिताभ एक मिसाल हैं.
अमिताभ अकसर दूसरों को शतायु होने का आशीर्वाद देते हैं, आइए हम दुआ करें कि वे स्वयं भी शतायु हों।
Sunday, 27 September 2009
नवमी पर मां के लिए
लड़कियां और नदियां
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उनके मन में डर की सीढ़ियां हैं
जो हर बार
कुछ ऊंची हो जाती हैं
उन्हीं पर चढ़ती-उतरती रहती हैं
लड़कियां
उनके रास्तों में बांधों की ऊंचाइयां हैं
जो हर बार
कुछ बढ़ जाती हैं,
उन्हीं ऊंचाइयों से
ढहती-सिमटती रहती हैं
नदियां
२
लड़कियां हंसना चाहती हैं
वे हंसने नहीं देते,
वे चाहती हैं बदलाव
वे होने नहीं देते,
मन से जी जीने नहीं देते
हर बार रचते हैं नया व्यूह।
नदियां बहना चाहती हैं निर्बाध
वे रोकते हैं, जोड़ते-बढ़ाते हैं पहाड़
वे नदी की राह में बार-बार
बिछाते हैं जल योजनाओं की बिसात
३
छोटी-छोटी खुशियों
कटी-छंटी आजादियों
से संजोकर जीवन
लड़की होना
जैसे
छोटी-पतली धाराओं
बहते-सूखते झरनों
से सहेजकर प्रवाह
नदी होना
मुश्किल है
मात्र स्नेह से लड़की होना
मात्र पानी से नदी होना
बहुत मुश्किल है
मुकम्मल होना।
४
उम्र के हर पड़ाव पर
रखी हैं भयदायी बेडियाँ
कुछ-कुछ दूर पर बंधे हैं बांध
कहते हैं लड़कियों का हंसना
और नदियों का बहना मना है,
कहते हैं इनकी किस्मत में है गुलामी
कहते हैं काबू में रहेंगी,
तभी काम आएंगी
कहते हैं छूट दो तो
हाथ से निकल जाएंगी,
कहते हैं उन्हीं से पाप होता है,
भुल जाते हैं
उन्हीं से पाप धुलता है।
५
बार-बार टोको
तो अंदर कहीं मुरझा जाता है
लड़की होना
बार-बार बांधो
तो अंदर कहीं ठिठक जाता है
नदी होना
बांधो तो बांझ हो जाती हैं
नदियां और लड़कियां
फिर वहीं गरियाते हैं उन्हें
जिनमें मर चुकी लड़की,
जिनमें सूख चुकी है नदी
वाकई जिनमें पानी नहीं
उनमें लड़की नहीं
6
एक-सी हैं सहेलियां
लड़कियां और नदियां
इधर लड़कियों पर बंधते हैं बांध
होती है समाज की सिंचाई
कटती हैं फसलें
लूटते हैं धन बल धारी
होती हैं लड़ाइयां,
खुदती हैं पतन की खाइयां
उधर नदियों की शादी होती है जबरन
मरती हैं नदियों की इच्छाएं
एक कल्लू कई नदियों को
एक साथ बांध लेता है बेहया।
हर दिन हर बांध के पीछे
ढलता है सूरज
और मिटती है कोई लड़की
या कोई नदी
सरस्वती।
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Sunday, 20 September 2009
हमारे मिलने से
वे दूर-दूर तक नहीं थे,
पल भर पहले,
अचानक आते, घुमड़ते,चमकते,
गरजते और बरसते हैं बादल
दम धरती है धरती
चैन लेता है मौसम
हमारे मिलने से
गौर करो, बहुत कुछ होता है।
देह पर तन आती छाया
बहार की मोहक माया
झूमते पेड़, बलखाती डालियां,
आनंद से कांपती पत्तियां
अपनी महक से चहकते फूल
हाथ आते झुक जाते रसीले फल
हमारे मिलने से
याद करो , बहुत कुछ खिलता है।
दूसरों से मिले धोखे,
दम तोड़ते कुछ भरोसे,
कभी मन दिखाते
कभी मन मसोसते
सुख पर शक
और दुख पर चुप्पी,
हो जाते हैं कई बोझ हलके
हमारे मिलने से
दर्ज करो, बहुत कुछ घटता है।
आते हो, पर्दा हटाते,
गली साफ नजर आती है,
जीने के लिए जरूरी
बेशर्मी उभर आती है,
न मिलते, न चेतते,
तो मारे जाते हम,
हवा भी बेखौफ हो जाती है
हमारे मिलने से
वाकई , बहुत कुछ होता है।
Sunday, 23 August 2009
रियलिटी शो - इतिहास, नक़ल और बाज़ार
दुनिया में रियलिटी शो से जुडे़ कुछ महत्वपूर्ण वर्ष व दास्तान
1948 - दुनिया का पहला रियलिटी शो अमेरिका में एलन फन्ट द्वारा निर्मित हुआ, जिसका नाम कैंडिड कैमरा था। यह एक तरह से प्रेंक रियलिटी शो था, जो पूर्व में कैंडिड माइक्रोफोन के नाम से रेडियो पर प्रसारित किया जाता था।
1973 - एन अमेरिकन फैमिली आधुनिक सन्दर्भों में दुनिया का पहला रियलिटी टीवी शो था। इसमें एक ऐसे परिवार को केन्द्र में रखा गया था, जो तलाक के दौर से गुजर रहा था।
1974 - ब्रिटेन में एन अमेरिकन फैमिली की नकल से द फैमिली की शुरुआत हुई।
1977-78 - द डेटिंग गेम, द न्यूलीवेड गेम इत्यादि रियलिटी शो की शुरुआत हुई।
1996 - ब्रिटिश टीवी शो चेंजिंग रूम से आत्म विकास और बदलाव वाले रियलिटी शो की शुरुआत हुई।
1997 - स्वीडिश रियलिटी शो एक्सपीडिशन रोबिनसन से रियलिटी शो में कायदे से कंपीटिशन और एलिमिनेशन की शुरुआत हुई। सर्वाइवर व सिलेब्रिटी सर्वाइवर जैसे रियलिटी शो इसे से निकले।
1998 - ब्रिटेन में हू वांट्स टु बी मिलिनेयर शुरू हुआ, तो पूरी दुनिया में तहलका मच गया। यह अब तक का सबसे पॉपुलर रियलिटी शो है। 100 से ज्यादा देशों में लोगों ने इसे देखा है, इस कार्यक्रम की फ्रेंचाइजी दुनिया भर में बिकी है।
2002 - अमेरिकन आइडल की शुरुआत हुई, जिससे गीत-संगीत आधारित रियलिटी टीवी शो की दुनिया में एक क्रांति आई।
---भारत की कहानी---
1994 - जीटीवी ने सबसे पहले अंताक्षरी के तौर पर प्रतियोगिता शुरू की थी, जिसे देश का पहला टीवी रियलिटी शो कहा जा सकता है।
1995 - सारेगामापा जैसे टैलेंट हंट शो की शुरुआत हुई।
1996 - दूरदर्शन ने भी इसी तर्ज पर मेरी आवाज सुनो प्रतियोगिता करवाई। कार्यक्रम सफल रहा।
2000 - भारत में अमिताभ बच्चन के संचालन में कौन बनेगा करोड़पति शुरू हुआ। इस रियलिटी गेम शो ने टीवी की भूमिका को बदलकर रख दिया। उसके बाद रियलिटी शो की बाढ़ सी आ गई।
2004 - इंडियन आइडल की शुरुआत से रियलिटी शो को एक सकारात्मक दिशा मिली। यह शो बहुत कामयाब रहा।
2006 - बिग बॉस शुरू हुआ, जिसमें कुछ नामचीन लोगों को एक घर में कई दिनों तक रखा गया, जो आखिर तक रहा, जिसे ज्यादा वोट मिले, वह जीता। शो चर्चित हुआ।
2009 - यह साल भारत में रियलिटी शोज की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा। कई शो शुरू हुए, सर्वाधिक चर्चा राखी का स्वयंवर और सच का सामना की हुई। कुछ भारतीय सेलीब्रिटी क्वइस जंगल से मुझे बचाओं जैसे रियटिली शो के लिए विदेश अथाüत मलयेशिया के जंगल में पहुंच गए।
----कुछ ही मौलिक---
भारत में कुछ ही रियलिटी शो मौलिक हैं और हम लोकप्रियता के लिहाज से बात करें, तो सबसे पहले अंताक्षरी, बूगी-वूगी, सारेगामापा, तोल-मोल के बोल, सांप-सीढ़ी का नाम लिया जा सकता है। भारत में ज्यादातर रियलिटी टीवी शो नकल हैं या किसी विदेश शो से प्रेरित हैं। नकल करके बनाए गए लोकप्रिय रियलिटी कार्यक्रमों इस प्रकार हैं
- कौन बनेगा करोड़पति - हू वांट्स टू बी ए मिलिनेयर
- इंडियन आइडल - अमेरिकन आइडल
- बिग बॉस - बिग ब्रदर
- सच का सामना - मोमेंट ऑफ ट्रूथ
- क्या आप पांचवी पास से तेज हैं - आर यू स्मार्टर देन फिफ्थ ग्रेडर
- दस का दम - पावर ऑफ टेन
- सरकार की दुनिया - सरवाइवर
- झलक दिखला जा - डांसिंग विद स्टार्स
- राखी का स्वयंवर - द बेचलरेट
- इस जंगल से मुझे बचाओ - आई एम ए सेलीब्रिटी ज् गेट में आउट ऑफ हीयर
- छुपा रुस्तम - हाइडिंग कैमरा
- पति, पत्नी और वो - बेबी बोरोअर्स
--बढ़ता बाजार---
आज टीवी का 20 प्रतिशत समय रियलिटी शोज के हवाले है। पिछले दो वर्ष में काफी तेजी से लोकप्रियता बढ़ी है। रियलिटी शो का हिस्सा बढ़ने की शुरुआत वर्ष 2000 में अमिताभ द्वारा प्रदर्शित कौन बनेगा करोड़पति से हुई थी। आज रियलिटी शो अज्छी कमाई कर रहे हैं, इसलिए उनका हिस्सा बढ़ रहा है। टीवी चैनल की टीआरपी भी इन्हीं से तय होने लगी है। धारावाहिकों से ऊबे हुए लोग रियलिटी की ओर रुख कर रहे हैं, तो तरह-तरह के रियलिटी शो शुरू होने वाले हैं। फिलहाल देश में पचास से ज्यादा रियलिटी शो चल रहे हैं। किसी धारावाहिक की एक कड़ी के निर्माण पर 5 से 6 लाख रुपये खर्च होते हैं, जबकि रियलिटी शो की एक कड़ी पर अधिकतम 15 से 20 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। लेकिन तब भी रियलिटी शो बनाना फायदे का धंधा है। प्राइम टाइम की अगर हम बात करें, तो धारावाहिक के समय विज्ञापन प्रसारण की कीमत अधिकतम एक लाख रुपये प्रति दस सेकंड होती है, जबकि रियलिटी शो के दौरान विज्ञापन प्रसारण से प्रति दस सेकंड दो लाख रुपये तक कमाई होती है। जाहिर है, रियलिटी में पैसा बरस रहा है।
Sunday, 16 August 2009
फिर जिन्ना पर आया प्यार
Tuesday, 7 July 2009
चाणक्य की कोरी यादें
लेकिन दुख की बात है कि प्रणव मुखर्जी महत्वाकांक्षी विकास योजनाओं को विफल करने वाले तंत्र पर कुछ नहीं बोले, उनका तंत्र वही है, जिसने ज्यादातर गांवों में नरेगा के तहत 100 दिन की बजाय लोगों को केवल 10-12 दिन का रोजगार प्रदान किया है। प्रणव अपने बजट भाषण में बार-बार कौटिल्य या चाणक्य का जिक्र कर रहे थे, लेकिन उन्होंने चाणक्य की नीतियों के बारे में कुछ खास नहीं कहा। उन्होंने यह नहीं बताया कि नरेगा या अन्य योजनाओं का धन खाने वाले भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों या अधिकारियों के लिए बारे में चाणक्य ने क्या कहा था। उन्होंने यह नहीं बताया कि चाणक्य के समय भ्रष्ट लोगों के साथ क्या सलूक होता था। उन्होंने कहा कि आयकर की नई संहिता 45 दिन में आ जाएगी, वित्त आयोग की रिपोर्ट अक्टूबर तक आ जाएगी, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि भ्रष्टाचार पर रोक के लिए संहिता कब आएगी। राहुल गांधी ने भी भ्रष्टाचार पर उंगली उठाई थी, लेकिन प्रणव मुखर्जी योजनाओं में ईमानदारी और पारदर्शिता संबंधी किसी भी घोषणा से बच निकले। गरीबों को तीन रुपये प्रति किलो चावल देने की घोषणा कर दीजिए, बजट में अरबों-खरबों आवंटित कर दीजिए, चाणक्य का बार-बार नाम ले लीजिए, लेकिन जब तक बेईमानी है, तब तक बजट बनते रहेंगे और नतीजों के इंतजार में आंखें पथराती रहेंगी।
Saturday, 4 July 2009
रेलवे में भी मजहब की पूछ?
मुस्लिम विद्वान इस रियायत को किस आधार पर जायज व समानता आधारित ठहराएंगे? सभी भारत को हिन्दू प्रधान देश कहते हैं, लेकिन क्या यहां गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्रों को कभी रेलवे से रियायत मिली है? भारत की अपनी भाषा संस्कृत की सेवा में लगे बच्चों को रियायत के बारे में कोई नहीं सोचता, लेकिन मदरसा छात्रों को खुश करने की कोशिश क्यों होती है? अगर सरकार को मदरसों का भला ही करना है, तो वह मदरसों की डिगि्रयों को देश की मुख्य धारा की डिगि्रयों के समकक्ष क्यों नहीं मान लेती? हर बार मदरसों के लिए कुछ न कुछ घोषणा बजट में होती है, लेकिन इस बार रेलवे ने भी मेहरबानी की है। क्या ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर अभी से तुष्टिकरण के महत्वपूर्ण काम में लग गई हैं?
ये नेता नहीं जानते कि मदरसे में पढ़ाई कितनी मुश्किल होती है? मदरसों में पढ़ने-पढ़ाने वालों के घरों में चूल्हे कैसे जलते हैं? उन्हें व्यापक भारतीय समाज में कितनी इज्जत नसीब होती है? उन्हें नौकरी कहां-कहां मिलती है? मदरसों में पढ़कर निकले कितने लोगों को ममता बनर्जी के विभाग ने नौकरी दी है? मदरसों से पढ़कर निकले कितने युवाओं को राहुल गांधी ने भारत के भविष्य के लिए चुना है? ऐसी उम्मीद भाजपा से कोई नहीं कर सकता, लेकिन कांग्रेस से सबको उम्मीद रहती है? लेकिन वह भी मुस्लिमों के विकास के लिए कृत्रिम उपाय करती रहती है, तो आइए, मन मसोस कर नई रियायत का इस्तकबाल करें और उम्मीद करें कि रियायत पाकर पढ़े बच्चे भी कभी लाखों रुपये कमाएंगे।
Sunday, 28 June 2009
कोई नहीं तुम जैसा
मेरा man तैयार नहीं हो रहा था कि अपनी एक प्रिय संगीत हस्ती पर लिखे शब्दों को ब्लॉग पर दूँ , जब से ब्लॉग शुरू किया सोचता ही रहा माइकल पर लिखूंगा, लेकिन लिखा तब जब माइकल नहीं रहे और वह भी सम्पादकीय के लिए, देर से ही सही सम्पादकीय के कुछ अंश यहाँ पेश हैं
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पॉप के बादशाह माइकल जैक्सन का दुनिया से जाना न केवल संगीत जगत, बल्कि पूरे मनोरंजन जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। जिसे दुनिया भर में पॉपुलर कल्चर कहा जाता है, माइकल लगभग तीस साल तक उसके आइकन बने रहे। दुनिया में पॉप, रॉक, हिप हॉप और आर एंड बी (रीदम एंड ब्लू) के दीवानों के दिलोदिमाग पर माइकल का ऐसा नशा चढ़ा था कि वे माइकल-मय हो गए थे। भारत के छोटे शहरों और कस्बों में अल्विस प्रिस्ले, बीटल्स जैसे पश्चिमी संगीत के पुरोधा के नाम नहीं पहुंच सके, लेकिन माइकल जैक्सन का नाम पहुंच गया। उनकी छाप इतनी प्रभावी रही कि उनकी नकल करने वालों को भी खूब नाम-दाम मिला। भारत में अराजक नृत्य शैली डिस्को के दिन लद गए, ब्रेक डांस और अफ्रीकी-अमेरिकी शैली आर एंड बी का एक दौर चल गया। उनकी खास मूनवॉक शैली तो लाजवाब रही। वे दौलत व ख्याति के शीर्ष पर पहुंचे। एक समय उनकी सालाना कमाई 5 अरब 62 करोड़ रुपये हो गई थी। उनका अलबम थ्रिलर दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने वाला अलबम है, उसकी 11 करोड़ 90 लाख से ज्यादा रिकॉर्ड, कैसेट या सीडियां बिक चुकी हैं। वाकई उन्होंने संगीत की दुनिया में जो नए सुरूर, सलीके व साहस का दौर शुरू किया, उसे अब कभी खत्म नहीं किया जा सकेगा।
दुर्भाग्य की ही बात है कि माइकल संगीत की दुनिया में जितने सफल हुए, उससे कहीं ज्यादा विफल वे अपनी जिंदगी में रहे। उनके पास सबकुछ था, लेकिन जिंदगी ने उन्हें हर कदम पर रुलाया। पिता के अत्याचार को सहते होश संभाला, अंत तक किसी न किसी अत्याचार-विवाद से गुजरते रहे। एक समय दौलत इतनी थी कि बसने के लिए 11 वर्ग किलोमीटर जमीन खरीद ली थी, लेकिन अंतिम सांसें लीं, तो किराये के मकान में। दो शादियां, कई रिश्ते, अपने तीन बच्चे, यौन शोषण के आरोप, ड्रग्स की लत, सुंदर दिखने की कोशिश में तन से कृत्रिम खिलवाड़, कई बीमारियां, माइकल ने जीवन में क्या नहीं देखा? लोग तो उनके जीवन का केवल उज्ज्वल पक्ष ही देख पाते थे, लेकिन पचास की उम्र में ही माइकल शरीर से इतने मजबूर हो गए थे कि पलभर के लिए धूप भी उनके नसीब में न थी। उन पर अकूत धन वर्षा हुई, उन्होंने दान कर्म में भी कीर्तिमान बनाया। अपने मुकदमों को सुलझाने में जरूरत से ज्यादा लुटाया, दिवालिया हुए, लेकिन तब भी हारे नहीं थे। 13 जुलाई से प्रस्तावित अपने अंतिम वल्र्ड टूर की तैयारी कर रहे थे, लेकिन ईश्वर ने अपने इस प्रतिभावान पुत्र को अंतिम बार स्टेज पर आने का मौका नहीं दिया।
तो क्या यही है, पॉप कल्चर का नतीजा? क्या यह बढ़िया संगीत और खराब संगति का मामला है? वास्तव में पॉप कल्चर में जाना आसान है, लेकिन उसमें जीना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि पॉप या हिप्पी कल्चर में फिसलन से बचा नहीं जा सकता, जरूरत संयम और सोच में बदलाव की है। गौर कीजिए, मशहूर गायिका-कलाकार मैडोना पॉप कल्चर को अच्छी तरह से संभाल रही हैं, लेकिन माइकल नाकाम हुए। वे चले गए, लेकिन अपने पीछे जो अथाह संगीत, शैलियां व कलात्मकता छोड़ गए हैं, बस वही रह जाएगा उनके दीवानों के साथ।
२६ जून २००९
Sunday, 14 June 2009
ताड़ी लीजिए...ताड़ी..?
छपरा से बलिया के बीच रिवीलगंज नामक एक स्टेशन पड़ता है, इसे गौतम स्थान भी कहते हैं। किसी समय यहां गौतम ऋषि का आश्रम हुआ करता था, आज यहां उनका एक मंदिर है। यही वह जगह है, जहां राम ने पाषाण बनी ऋषि पत्नी अहल्या का उद्धार किया था। हनुमान का भी जन्म यहीं हुआ बताया जाता है। बहुत ऐतिहासिक स्थान है। कभी यहां खूब अंग्रेज रहा करते थे, अब एक भी अंग्रेज नहीं बचा। यहां से पांच किलोमीटर दूर स्थित छपरा में किसी समय बड़ी संख्या में डच और फुर्तगीज भी रहे थे। यहाँ बड़े पैमाने पर टैक्स वसूली होती थी, रिविलगंज एक टाउन है और यहां नगरपालिका की स्थापना बहुत पहले हो गई थी। मैं 29 मई की उस गर्म दोपहर को ट्रेन में बैठा-बैठा रिविलगंज की खास बातों को याद कर रहा था और सोच रहा था कि यह स्थान कितना उपेक्षित रह गया। अगर यह स्थान बिहार से बाहर होता, तो रिविलगंज एक चर्चित पर्यटन स्थल में परिवर्तित हो गया होता। खैर, बिहार में कदम-कदम पर इतिहास बिखरा पड़ा है, अफसोस, समेटने वाला कोई नहीं है।
बहरहाल, रिविलगंज स्टेशन के आउटर पर जब गरीब नवाज एक्सप्रेस रुकी, तो मैं यह देखकर दंग रह गया कि छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां ताड़ी बेच रहे थे। जैसे रेल में चाय बिकती है, चाय लीजिए चाय... की आवाज के साथ, ठीक उसी तरह वहां ताड़ी लीजिए ताड़ी की आवाज के साथ ताड़ी बिक रही थी। ताड़ के पेड़ का यह रस नशीला होता है, पानी मिले दूध के रंग का, छपरा और बिहार के अनेक इलाकों में लोग इसे नशे के लिए पीते हैं। आज भी बिहार के अच्छे घरों में ताड़ी का नाम लेना वर्जित है। पहले एक खास जाति पासी के जिम्मे यह काम था, लेकिन अब कई अन्य निम्न जातियों के लोग भी इस धंधे से जुड़ गए हैं। पांच रुपये प्रति लोटे के हिसाब से ताड़ी बिक रही थी। लोग पानी की बोतलों में ताड़ी ले रहे थे। पास ही एक चाट ठेला भी खड़ा हो गया था, तो चखने या स्नेक्स की भी समस्या हल हो गई थी। कइयों ने ट्रेन से उतरकर छककर पीया। गोलगप्पे और चाट खाए, जब वहां ट्रेन ज्यादा देर रुकी, तो लोगों में यह भी चर्चा हुई कि ट्रेन के ड्राइवरों ने भी ताड़ी-पान किया है।
सवाल है , जिन यात्रियों ने यहां ताड़ी-पान किया, उन्होंने किस नजर से रिविलगंज को देखा होगा? अब जब भी उनकी ट्रेन यहाँ से गुजरेगी, तो वे शायद ताड़ी की ही उम्मीद लगाएंगे। गौतम ऋषि, हनुमान जी और राम जी को तो उनमें से शायद ही कोई याद करेगा।
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ताड़ से विकास की राह
बिहार के कई इलाकों में बड़ी संख्या में ताड़ के पेड़ हैं, जिनसे केवल ताड़ी और पेड़ के बहुत पुराने होने पर लकड़ी का इंतजाम होता है। इसके पत्ते से झाड़ू और हाथ-पंखे भी बनाए जाते हैं। ताड़ का व्यावसायिक उपयोग बिहार में किया जा सकता है। अगर जगह-जगह पॉम ऑयल इंडस्ट्री का विकास किया जाए, तो ताड़ से ज्यादा कमाई की जा सकती है। इससे ताड़ी का नशे के लिए उपभोग भी कम हो जाएगा और लोगों को रोजगार भी मिलेगा। इस दिशा में बिहार सरकार को सोचना चाहिए।
एक और बात...
बिहार में बड़ी संख्या में तंबाकू उत्पादन होता है, लेकिन तंबाकू के प्रसंस्करण व पैकेजिंग का काम ज्यादातर मध्यप्रदेश में होता है, अगर प्रसंस्करण इकाइयां बिहार में ही लग जाएं, तो भी बिहार में रोजगार पैदा हो सकता है। फिलहाल ताड़ हो या तंबाकू, दोनों से बिहार को केवल नशा मिलता है और कुछ नहीं।
Friday, 12 June 2009
ये किसकी बदबू है?
वो कौन-सी परिस्थितियां हैं, जो मानव को पशु समान जीने को मजबूर कर रही हैं? सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और बिहार के अन्य बेहद पिछड़े इलाकों में किन कमीनों ने विकास के पहियों को जाम कर रखा है? अव्वल तो इस ट्रेन का नाम ही अपने आप में मजाक है, यह कैसी जनसेवा हो रही है? गरीबों को गाय-गोरू के समान सफर करने पर मजबूर किया जा रहा है?
मेरी आंखों के सामने सीवान स्टेशन पर एक गरीब मजदूर का परिवार चढ़ने में नाकाम हो रहा था। तब दो कुली उन्हें चढ़ाने के लिए आगे आए। आपातकालीन खिड़की में मोटा लट्ठ घुसेड़कर एक कुली ने कुछ जगह तैयारी की, दूसरे कुली ने मजदूरों के दोनों बच्चों को पहले चढ़ाया, फिर मजदूर को चढ़ाया गया, अंदर जिंदगियां ठसाठस हो रही थीं, ट्रेन चलने की सीटी बजा चुकी थी, लगा कि मजदूर की बीवी छूट जाएगी। लट्ठ वाले कुली ने एक बार फिर खिड़की के अंदर लट्ठ घुसेड़कर जौहर दिखाया, तब किसी तरह से दूसरे कुली ने मजदूर की पत्नी को उठाकर खिड़की से अंदर टांग दिया, तभी ट्रेन चल पड़ी। कुछ गरीब प्लेटफार्म पर दौड़ते रह गए कि दरवाजे पर ठसे मजदूरों को दया आ जाए, तो कुछ कमजोर मजदूरों की आंखों की कगार पर आंसू आ गए कि ट्रेन फिर छूट गई।
अब मैं और दावे के साथ कह सकता हूं। हां, मैंने देखी है गरीबी। अब मुझे एक सवाल बहुत परेशान कर रहा है कि वह बदबू किसकी थी? जनसेवा एक्सप्रेस की या बिहार की या देश की या देश के निकम्मे अंधे तंत्र की?
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बिहार यात्रा की कुछ और बातें आगे
Sunday, 17 May 2009
नतीजों की गूँज
Friday, 8 May 2009
वो हमें धोखा देंगे
नेता अपनी-अपनी मूंछें दुरुस्त कर रहे हैं और उनके पैरों में विचारधारा औंधेमुंह गिरी पड़ी है। छोटे दल विचारधारा को गदगद भाव के साथ बुरी तरह कुचल रहे हैं और बड़े दल भी मौका खोज रहे हैं, सत्ता करीब नजर आए, तो विचारधारा को दुलत्ती जमाकर कुर्सी पर विराजमान हो जाएं। जितनी बड़ी पार्टी है, उतना बड़ा जाल, मछलियों का न तो प्रकार देखा जा रहा है और न आकार। जाल में जो भी आ जाए, स्वागत है। लोकतांत्रिक योग्यता की चर्चा मत कीजिए। कायदा तो यह बोलता है कि पहले सीटों के आंकड़े तो आ जाएं, लेकिन नेताओं में धैर्य कहां? बड़ी पार्टियाँ अभी से छोटी पार्टियों को बुक कर लेना चाहती हैं, ताकि बहुमत के इंतजाम में आसानी हो। सोनिया गांधी जब राजनीति में सक्रिय हुई थीं, तब पचमढ़ी में कांग्रेस ने किसी से गठबंधन न करने का फैसला किया था, लेकिन आज उस फैसले को खुद सोनिया याद नहीं करना चाहेंगी। अब कांग्रेस ने गठबंधन धर्म को अपना परम धर्म मान लिया है। देश की सबसे बड़ी पार्टी की नई पीढ़ी से आप विचारधारा की उम्मीद नहीं कर सकते। राहुल गांधी को सरकार बनाने के लिए त्रृणमूल कांग्रेस के साथ-साथ वामपंथियों का भी साथ चाहिए। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वामपंथी कांग्रेस के बारे में क्या-क्या कह रहे हैं। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस का गठबंधन है और यह गठबंधन पश्चिम बंगाल में लाल झंडे-डंडे को उखाड़ने के लिए बना है। यह कैसी नई राजनीति है? राहुल का बयान तब आया, जब पश्चिम बंगाल में मतदान बाकी था। अब ममता बनर्जी कसमसा रही हैं। कांग्रेस की ढुलमुल नीति की वजह से ही वाम खेमा मजबूत हुआ है। उधर, तमिलनाडु में कांग्रेस को करुणानिधि के साथ-साथ जयललिता का भी समर्थन चाहिए। क्या यह संभव है?
कांग्रेस बिहार में लालू के साथ-साथ नीतीश कुमार पर डोरे डाल रही है। बिहार की राजनीति में फिलहाल नीतीश और लालू दो विपरीत ध्रुव हैं। और तो और, कांग्रेस को अपने धुर विरोधी चंद्रबाबू नायडू का भी समर्थन चाहिए। यह आला दर्जे की मौकापरस्ती गठबंधन युग की अगली पीढ़ी के दिमाग की उपज है, जिसने सत्ता को सबकुछ समझ लिया है। पहले के चुनावों के समय नेता सीधे जनता से मेल बढ़ाते थे, सीधे जनता से अपील करते थे, लेकिन चुनाव 2009 में जितनी बेचैनी सभाओं में नहीं है, उससे ज्यादा बेचैनी नेताओं के मंच पर देखी जा रही है। परदे के पीछे ही नहीं, परदे के सामने भी राजनीतिक जोड़तोड़ का स्वरूप इतना विशाल है कि चुनाव भी बौना नजर आ रहा है। आम आदमी सवालों से भरा हुआ है और नेता परस्पर सेटिंग में जुटे हैं। चुनाव में एक ही राज्य में एक दूसरे का बाजा बजाने के इरादे से गाली-गलौज तक कर चुके नेता अगर केन्द्र में सत्ता के लिए सेटिंग कर लें, तो क्या लोकतंत्र मजबूत होगा? लालू, पासवान यूपीए की एकता को ठेंगा दिखाकर कांग्रेस को औकात बताने के बाद भी कह रहे हैं कि कांग्रेस हमारे साथ है, हम यूपीए में हैं और सरकार हमारी बनेगी। कांग्रेस भी कभी लालू को हां बोल रही है, तो कभी ना। यह जनता के साथ धोखा नहीं, तो और क्या है? आप पार्टी नंबर 1 के खिलाफ पार्टी नंबर तीन को वोट देते हैं, लेकिन वह पार्टी केन्द्र में पहुंचकर पार्टी नंबर 1 से ही सेटिंग कर लेती है, यह आपके साथ चार सौ बीसी नहीं, तो और क्या है? अपने देश में मामूली ठगी पर धारा 420 लागू हो सकती है, लेकिन करोड़ों लोगों को धोखा देकर पाला बदलने वालों के खिलाफ धारा 420 क्यों नहीं लगाई जाती? ऐसा नहीं है कि ऐसी राजनीतिक चार सौ बीसी पहली बार हो रही है, लेकिन संभवत 2009 का लोकसभा चुनाव ऐसा पहला चुनाव है, जब बीच चुनाव में पार्टियों ने एक दूसरे पर जमकर डोरे डाले हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि सब जानते हैं, दो-तीन परितियों के बलबूते सरकार नहीं बनने वाली, सरकार बनाने के लिए आठ दस पार्टियों की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस के रणनीतिकार चतुर हैं, वे पहले बुकिंग करके भाजपा की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। वैसे भाजपा भी अपने पूर्व सहयोगियों के संपर्क में है। उसके रणनीतिकारों ने भी फार्मूले तैयार कर रखे हैं, जिन पर अमल 16 मई से शुरू होगा। भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी कोई विचारधारा आधारित नहीं है। अभी पिछले दिनों राजग के संयोजक शरद यादव अपनी पार्टी के प्रत्याशी के प्रचार के लिए जयपुर आए थे और भाजपा को जनविरोधी नीतियों वाली पार्टी बताया था। तो यह है शरद यादव की ईमानदारी? वे जयपुर के लोगों को बरगला रहे थे या सीधे कहें, तो ठग रहे थे। उधर, बाला साहेब की शिव सेना आडवाणी को कितना सम्मान देती है, यह हम देख चुके हैं, गठबंधन के मुखिया आडवाणी को मिलने तक का समय नहीं दिया गया था। समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में अलग-अलग राजनीतिक सेनाएं एक ही मैदान में इस तरह गडमड होकर खड़ी हो गई हैं कि कौन रथी किस ओर है और किस ओर जाएगा, कहना मुश्किल है। तय है, केन्द्र में जो गठबंधन की सरकार बनेगी, उसमें विचारधारा को औंधेमुंह गिरे रहने दिया जाएगा। मतदाताओं के साथ धोखा होगा, उनके जनप्रतिनिधि अपने दुश्मनों के साथ ही दोस्ती गांठ लेंगे। सत्ता का शामियाना तनता देख सभी ललचाएंगे, खिंचे चले आएंगे। चुनाव की मंझधार में ही जब बेमेल गठबंधन की बातें हो सकती हैं, तो फिर नेताओं के घाट पर उतरते ही मतदाताओं के साथ घात को कौन टाल सकता है? चिंता जब केवल आंकड़े जुटाकर सरकार बनाने की है, तो फिर जनता से जुड़े मुद्दों की अवहेलना क्यों न हो? भारतीय राजनीति के लिए यह खतरनाक संकेत है। नेताओं के मन में यह भावना प्रबल होने लगी है कि बहुमत लायक पूरे वोट तो मिलते नहीं हैं, गठबंधन करना पड़ता है, तो क्यों न पूरा जोर वोट की बजाय गठबंधन गठन पर दिया जाए, ज्यादा से ज्यादा पार्टियों को पक्ष में पटाने पर दिया जाए। नेताओं की बिरादरी बहुमत न जुटने से दुखी है, वह अपने दुख के उपचार में लगी है, उसका जनता के दुख से सरोकार कम होता जा रहा है। दुख इसका नहीं है कि लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हो रही हैं, दुख इसका है कि बहुमत नहीं मिल रहा। आज लालू जैसे नेता तो यही कहेंगे कि गरीबी, आतंकवाद की बात बाद में करेंगे, पहले सरकार तो बना लें। एक बार जब सरकार बन जाएगी, तो बस सारा ध्यान उसे बचाने की ओर लग जाएगा। दिग्वजय सिंह जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब एक कार्यक्रम में बच्चों ने उनसे पूछा था, आप खाली समय में क्या करते हैं, तो उन्होंने बताया था, खाली समय में अपनी कुर्सी बचाने के बारे में सोचता हूं।
अब आप सोच लीजिए, एक अकेली पार्टी का मुख्यमंत्री जब यह कह सकता है, तो फिर कई पार्टियों की मदद से चुना गया प्रधानमंत्री कुर्सी बचाने के बारे में क्या कहेगा? दूसरी ओर, आम लोगों में यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि सब नेता एक जैसे हैं, किसी के आने या जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण खत्म नहीं होने वाला। सब नेता एक ही तरह से बात कर रहे हैं, तो काम भी एक ही तरह से करते हैं। नेताओं की जात एक है, उनमें से ज्यादातर किसी विचारधारा से चिपक कर नहीं रहने वाले। अनीस अंसारी का एक शेर नेताओं को संबोधित है
बात तुम्हारी सुनते-सुनते ऊब गए हैं हम बाबा।
अपनी जात से बाहर झांको, बाहर भी हैं गम बाबा।
Wednesday, 29 April 2009
एक दलाल पर फिर मेहरबानी
ओतावियो के को गैर-जमानती वारंट से मुक्ति न केवल शर्मनाक, बल्कि हमारे देश की कानून-व्यवस्था पर एक तमाचा है। बोफोर्स सौदे में 64 करोड़ की दलाली लेने संबंधी आरोप कभी राजीव गांधी पर ढंग से नहीं चिपका, जनता उन्हें आज भी एक साफ नेता के रूप में याद करती है, लेकिन इस सौदे में क्वात्रोच्ची की भूमिका पर हर जागरूक भारतीय को शक रहा है। अब सीबीआई ने इंटरपोल को पत्र लिखकर निवेदन किया है कि क्वात्रोच्ची को मोस्ट वांटेड की सूची से हटा दिया जाए। इस सूची से हटते ही क्वात्रोच्ची आजाद हो जाएगा। क्वात्रोच्ची पर अभी भी मुकदमा चल रहा है, मुख भारत आने से बच रहा है क्वात्रोच्ची को मुक्ति देना क्यों जरूरी हो गया था? कांग्रेस को अब अनेक सवालों का जवाब देना होगा।
दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट के निशाने पर आए नरेन्द्र मोदी ने भी यूपीए सरकार को निशाने पर ले लिया है, मोदी पूछ रहे हैं, `मोदी को जेल और विदेशी को बेल? कांग्रेस क्या जवाब देगी? कांग्रेस शायद यही कहेगी कि क्वात्रोच्ची को भारत नही लाया जा सकता, इसलिए उसे छोड़ देना चाहिए, कांग्रेस यह भी कह रही है कि सीबीआई आजाद संस्था है, लेकिन सब जानते हैं कि सीबीआई की छवि कितनी खराब हो चुकी है। अभी विगत दिनों ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को सीबीआई के नाम से धमका रहे थे। अब भाजपा ने सीबीआई को नया नाम दिया है, उसे अब `कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशनं कहा जा रहा है। बीच चुनाव में कांग्रेस ने एक निंदनीय कदम उठाया है, इसका बचाव नहीं किया जा सकता।
क्वात्रोच्ची के प्रति यूपीए सरकार की नरमी पहले से ही जाहिर थी। कभी न चुनाव लड़ने वाले गांधी परिवार के समर्पित सेवक व केन्द्रीय विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज अनेक मौकों पर क्वात्रोच्ची को रियायत पहुंचाते दिखे हैं। भारद्वाज के मंत्रालय ने ही क्वात्रोच्ची के दो विवादित खातों पर से रोक हटवाने का फैसला किया था। ये वो दो खाते थे, जिनमें बोफोर्स दलाली की रकम जमा बताई गई थी। भारद्वाज ने सीबीआई को भी नहीं बताया था। खातों पर से रोक हटते ही क्वात्रोच्ची ने दोनों खातों से धन निकाल लिया। एक और उदाहरण, क्वात्रोच्ची फरवरी 2007 में अर्जेंटीना में इंटरपोल की गिरफ्त में आ गया था, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने पूरे 16 दिन तक इस खबर को देशवासियों और यहां तक कि कोर्ट से भी छिपाए रखा था। यही वह समय था, जब भारत में क्वात्रोच्ची का पुत्र अपने पिता के बचाव के लिए नई दिल्ली में मौजूद था। सुबूतों के अभाव में क्वात्रोच्ची को फिर मुक्ति मिल गई। अब अपने कार्यकाल के आखिरी महीने में यूपीए सरकार ने क्वात्रोच्ची को सबसे बड़ी राहत का तोहफा दिया है। हमारे देश को ठगने के आरोपी दलाल क्वात्रोच्ची से कांग्रेस की दोस्ती एक मिसाल बन गई है। किसी अन्य देश में किसी इतने बड़े आरोपी के प्रति ऐसी रियायत असंभव है। सीबीआई अब एक मजाक बनकर रह गई है। उसके सम्मान की वापसी मुश्किल है। उसमें काम करने का लोकतांत्रिक तरीका खत्म हो चुका है, उसे बिल्कुल राजशाही तौर-तरीकों से चलाया जा रहा है। कांग्रेस के विज्ञापनों में आजकल लालबहादुर शास्त्री भी नजर आते हैं, लेकिन शास्त्री जी ने जिस मकसद से सीबीआई को खड़ा किया था, उस मकसद को सत्ता लील चुकी है। केन्द्रीय सत्ता में बैठे और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेताओं से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी।
बीच चुनाव में कांग्रेस ने यह कदम सोच समझ कर उठाया है, कदम अगर चुनाव से पहले उठाया गया होता तो कांग्रेस को ज्यादा नुकसान होता, खैर ऐसा लग रहा है, कांग्रेस को सत्ता से जाने का अहसास होने लगा है,
Wednesday, 22 April 2009
क्या- क्या बेचेगी पुलिस ?
हमारी पुलिस में भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ गया है कि पुलिस सुरक्षा का अहसास कराने की बजाय भय का अहसास कराने लगी है। जयपुर में एक सिपाही ने ड्यूटी लगाने के बदले रुपये लेने के गोरखधंधे का भंडाफोड़ कर दिया है। पुलिस में ड्यूटी का बिकना जितना शर्मनाक, उतना ही दुखद है। ड्यूटी का बिकना किसी बड़े अपराध से कम नहीं है। मालदार ड्यूटियों पर लगने के लिए पुलिस वाले ड्यूटी लगाने के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों को रुपये देते हैं। जिम्मेदार अधिकारियों ने ड्यूटी के प्रकार और उससे होने वाली कमाई के लिहाज से उसकी कीमत तय कर रखी है। चूंकि मंत्रियों और बड़े अफसरों के यहां गार्ड की ड्यूटी करने के अपने मजे हैं, इसलिए इस ड्यूटी के लिए 4 से 15 हजार रुपये एकमुश्त अदा करने पड़ते हैं। योग्यता का यहां भी कोई अर्थ नहीं है। यह घूसखोरी है, दलाली है या चौथ वसूली, तीनों ही स्थितियों में ड्यूटी का बिकना पुलिस के नाम पर धब्बा है। पुलिस के आला अधिकारियों को शर्म आनी चाहिए। क्या उन्हें यह पता नहीं होगा? आला अधिकारियों ने इसे रोकने के लिए क्या किया? पुलिस वाले खुद पुलिस वालों से चौथ वसूली कर रहे हैं, क्या यह किसी को दिख नहीं रहा है? पुलिस वाले खुलेआम दारू पीकर अपनी वरदी का मखौल उड़ा रहे हैं, क्या यह नहीं दिख रहा है? चेतक मतलब पीसीआर वैन पर ड्यूटी लगवाने के लिए पैसे लिए-दिए जा रहे हैं, क्या यह भी नहीं दिख रहा? अब रात हो या दिन चेतक को देखकर लोगों को डरना चाहिए या सुरक्षित महसूस करना चाहिए? चेतक पर सवार कई पुलिस वाले क्या-क्या करते हैं, क्या इसकी पड़ताल की जाती है? क्या पुलिस महकमा अपनी सफाई और सुधार का इच्छुक नहीं है? क्या राज्य सरकार को इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए?
कोई पुलिस वाला यह बोल सकता है, `हम तो अपनों को ही बिना लिए नहीं छोड़ते हैं, तो दूसरों को क्यों छोड़ दें? मलाईदार पोस्टिंग के लिए पुलिस में रुपये की लेन-देन कोई नई बात नहीं है। मलाईदार थानें बिकते रहे हैं। कई शिकायतें हैं, पुलिस की नौकरी भी बिकती रही है। नौकरी खरीदने वाला कोई पुलिसवाला अगर ड्यूटी खरीद रहा है, तो फिर इसमें आश्चर्य वाली कोई बात नहीं है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे महकमे में यह तो होना ही है। पुलिस में बामुश्किल सौ में से 20 काम ईमानदारी से होते होंगे, वरना रिपोर्ट लिखाने से लेकर कार्रवाई करने तक के पैसे लिए जाते हैं। जयपुर में ही शिकायतें दर्ज होती रही हैं। कोई कार्रवाई करवाने के लिए पैसे देता है, तो कोई कार्रवाई रुकवाने के लिए पैसे देता है। पुलिस की पोल केवल अदालतें खोलती रहती हैं और कोई नहीं? राजनेताओं के लिए तो शायद पुलिस का भ्रष्ट होना ही फायदेमंद है। नेताओं, आला अफसरों और अमीरों के काम समय पर हो जाएं, बाकी सबको पुलिस एक ही डंडे से हांकने में सक्षम है। बेशर्मी तो यह कि पुलिस खुद को ही हांकने लगी है। खुद को हांकते हुए न जाने किस रसातल में जाएगी? कहा जाता है, बेहतर समाज और देश के लिए हमें एक दूसरे के काम आना चाहिए। आज किसी की, तो कल आपकी बारी होगी, लेकिन कई पुलिस वाले तो कल का इंतजार करना नहीं चाहते, आज जितना हाथ में आ जा रहा हो, उसे समेटने में लगे हैं। अपने सम्मान के प्रति लापरवाह होकर बेचने-खरीदने में लगे हैं। यह सिलसिला अगर चलता रहा, तो पुलिस खुद अपना अहित करेगी। अब समय आ गया है, न केवल जयपुर बल्कि देश की पूरी पुलिस व्यवस्था के कामकाज में आमूलचूल परिवर्तन किया जाए। उसे जवाबदेह और ईमानदार बनाया जाए, वरना देश में कानून-व्यवस्था का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
Sunday, 29 March 2009
यादों को किसने रोका है
ताउम्र हमको इक यही अफसोस रहेगा
कि हम न मुस्कुरा सके आपकी तरह।
सुरों और गीतों का अंबार था लगा,
पर हम न गुनगुना सके आपकी तरह।
(मुझे अपने कुछ पुराने शेर याद आ गए, जो कॉलेज के अंतिम दिनों में लिखे गए थे। उसे मैंने अब यों पूरा किया है -
आज भी बातें पुरानी जर्रा-जर्रा याद हैं,
हम कुछ नहीं भुला सके आपकी तरह।
करते-करते कोशिश थक गए हैं हम
दिल को न समझा सके आपकी तरह।
Sunday, 22 March 2009
आईपीएल क्यों नहीं?
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आईपीएल टूर्नामेंट विदेश में कराने का जो फैसला लिया है, वह अभी अंतिम भले न हो, लेकिन आयोजन विदेश में होता है, तो भारत के लिए दुखद होगा। जब तमाम देशों के क्रिकेट खिलाड़ी भारत में खेलते हैं, तो जाहिर है, देश का सम्मान बढ़ता है। क्रिकेट जगत में भारत के महाशक्ति होने का अहसास होता है, लेकिन जब आईपीएल टूर्नामेंट किसी पराए देश में आयोजित होगा, तब हमारे क्रिकेटीय अभिमान पर नकारात्मक असर पड़ेगा। यह हमारी सरकारों की नाकामी है। सरकार चुनाव की वजह से आईपीएल को सुरक्षा देने की स्थिति में नहीं है। पहले केन्द्र सरकार ने रोड़ा लगाया, फिर राज्य सरकारों ने एक-एक कर मजबूरियों का बखान कर दिया। केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने क्रिकेट प्रेमियों को निराश किया है। चिदंबरम के इशारे पर तीन बार आईपीएल टूर्नामेंट के कार्यक्रम को बदला गया, लेकिन इसके बावजूद बात नहीं बनी। अंततः चिदंबरम ने कह दिया, `चिंता केवल मतदान तिथियों पर होने वाले आईपीएल मैचों की नहीं है, चिंता समग्र सुरक्षा की है।ं अब दुनिया भर के क्रिकेट प्रेमी भारत में सुरक्षा को लेकर चिंतित हो जाएंगे। सरकार को सुरक्षा के मद्देनजर हाथ खड़े करते देखना दुखद है। इस स्थिति के लिए शुद्ध रूप से सरकार दोषी है।
दरअसल, भारत में नेताओं की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। पुलिस बहुत हद तक केवल नेताओं की सुरक्षा के लिए ही तैनात की जाती है। ऐसे-ऐसे नेता हैं, जिनके पीछे सौ-सौ पुलिस वाले डोलते हैं। कटु सत्य है, चुनावी मौसम में सरकारें केवल नेताओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं, जनता की सुरक्षा की परवाह अगर हमारी सरकारों को होती, तो सुरक्षा बलों और पुलिस बल में निर्धारित पद खाली न पड़े होते। हमारे सुरक्षा इंतजाम इतने पुख्ता होते कि चुनाव के साथ-साथ आईपीएल टूर्नामेंट भी होता।
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, एक लाख लोगों की सुरक्षा के लिए 222 पुलिस वाले होने चाहिए, लेकिन भारत में महज 143 पुलिस वाले हैं। आंकड़े बताते हैं, सशस्त्र पुलिस बलों 13.८ प्रतिशत और नागरिक पुलिस बल में 9.8 प्रतिशत पद खाली हैं। निर्धारित पद भी जरूरत से कम हैं। नेता चाहें, तो अपने सुरक्षा में सौ-सौ पुलिसकर्मी रखें, लेकिन कृपया जनता को भगवान भरोसे न छोड़ें। बात सुरक्षा-रक्षा की हो रही है, तो बताते चलें कि थल सेना में 23.8 प्रतिशत, नौसेना में 16.7 प्रतिशत और वायु सेना में 12 प्रतिशत अफसरों के पद खाली हैं।
चिंता क्रिकेट की नहीं है, क्योंकि क्रिकेट की लोकप्रियता पर लगाम लगाना सरकार के वश में नहीं है। चिंता तो सुरक्षा की है, जिसकी वजह से क्रिकेट का एक रंगारंग आयोजन खटाई में पड़ने वाला है। पुलिसकर्मी कम हैं और उनके पास उपलब्ध संसाधनों का तो और भी बुरा हाल है। आतंकी हमलों से विचलित सरकार रिस्क लेना नहीं चाहती, तो न ले, लेकिन सुरक्षा के मोर्चे पर उसकी पोल फिर एक बार खुल गई है।
Saturday, 21 March 2009
माइक पाण्डेय और विश्व जल दिवस
Friday, 13 March 2009
जम्हूरियत की किरकिरी
Sunday, 22 February 2009
वाह सोना वाह
(प्रति 10 ग्राम
31/3/1925 : 18 रु 12 आने
31/3/1940 : 36 रु 8 आने
31/3/1951 : 98 रु
31/3/1960 : 111 रु 14 आने
31/3/1975 : 540 रु।
31/3/1980 : 1330 रु।
31/3/1990 : 3209 रु
31/3/1995 : 4675 रु।
21/2/ 2009 : 15780 रु
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भारत का स्वर्ण प्रेम
भारत सोने का सबसे बड़ा ग्राहक है। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के अनुसार वर्ष 2001 में भारत में 843.2 टन सोने की मांग थी, जो विश्व की कुल मांग का 26.2 फीसदी थी। यहां प्रतिवर्ष 600 से 700 टन तक सोने की मांग रहती है, जबकि भारत स्वयं मात्र करीब 2 टन सोने का उत्पादन करता रहा है। यह कुछ अजीब ही है कि दुनिया में भारत को गरीब देश के नजरिए से देखा जाता है, लेकिन यहां 11 हजार टन से भी अधिक सोना मौजूद है। भारत की 70 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है और 65 से 70 फीसदी ग्रामीण ही सोने की खरीदारी करते हैं।
Sunday, 15 February 2009
कुछ अर्थनीति की बात
महंगाई क्यों?
- मांग का बढ़ना, लेकिन उसके अनुसार आपूर्ति न हो पाना।
- मानसून और मौसम के प्रतिकूल रहने से उत्पादन का प्रभावित होना
- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के भाव का बढ़ाना
- व्यवसाय में मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति का निरंकुश हो जाना
- आर्थिक नीतियों का अभावग्रस्त लोगों के अनुकूल न होना
मंदी क्यों?
- अमेरिका में सब-प्राइम फेक्टर व बैंकों की गलत नीतियां
- औकात से ज्यादा कर्ज लेने और न लौटाने की प्रवृत्ति
- दुनिया के बड़े इलाके में खाद्यान्न संकट का बढ़ना
- बड़ी आबादी के आय में कमी से मांग का घटना
- जिनके पास पैसा है, वे खर्च करने से बच रहे हैं
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लोकसभा चुनाव में आर्थिक मुद्दे
- मुद्रास्फीति काबू में है, तो महंगाई को विपक्षी दल बड़ा मुद्दा नहीं बना पाएंगे।
- पेट्रोलियम उत्पादों और रसोई गैस की कीमत में कमी से कांग्रेस को फायदा।
- वैट की विसंगतियों से व्यापारी वर्ग नाराज है, जिसे विपक्षी दल भुनाएंगे।
- रोजगार गारंटी योजना गांवों में कांग्रेस को वोट दिलाने का काम करेगी।
- ज्यादातर विपक्षी दल सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार की बात करेंगे।
- सत्यम घोटाला और कुछ अन्य आर्थिक घोटालों पर भी चर्चा होगी।
- यूपीए के दल छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का श्रेय लेंगे।
- आयकर स्लैब घटाने और किसानों की कर्ज माफी की चर्चा होगी।
Tuesday, 3 February 2009
लालू पर लट्टू लोग?
मुझे यह बात कहने में कोई हिचक नहीं कि जो लोग बिहार को नहीं जानते, वही लालू प्रसाद यादव के बड़े प्रशंसक हो सकते हैं। लालू ने बिहार पर 15 साल तक राज किया, लेकिन उनके नेतृत्व में बिहार कितना आगे गया, इसका उत्तर लालू बेहतर जानते होंगे। लालू के अनेक प्रशंसक हैं, जो बिहारियों को गालियां देते हैं। केरल और तमिलनाडु और यहां तक कि मुंबई में रहने वाले भी लालू की मुस्कान, हेयर स्टाइल, संवाद शैली के दीवाने हैं। लालू जब मुंह खोलते हैं, तो प्रियदर्शन की कॉमेडी फिल्मों से भी ज्यादा मनोरंजन करते हैं।
रेलवे में लालू के काम को खूब सराहा जाता है, लेकिन रेलवे की बदइंतजामी पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ट्रेनों में करीब आधे टिकटों को लालू तत्काल श्रेणी में बेच रहे हैं। 300 रुपये का टिकट 450 रुपये में बेचकर रेलवे को लाभ नहीं होगा, तो क्या होगा? ज्यादातर ट्रेनों में अगर आप आरक्षण करवाने में दस-बारह दिन की देरी कर दें, तो आपको तत्काल में टिकट लेने का इंतजार करना होगा। लालू का वश चले, तो वे रेलवे के मुनाफे के लिए 90 फीसदी टिकट को तत्काल श्रेणी में डलवा दें। ट्रेनें खूब लेट चलती हैं, रोज हजारों लोगों की ट्रेन छूट जाती है, लेकिन रेलवे कितनों के पैसे वापस करता है, शायद लालू ने इस पर कभी गौर नहीं फरमाया। जैसे तत्काल में जरूरत से ज्यादा पैसे वसूलना लूट है, वैसे ही छूटी हुई ट्रेनों के पैसे न लौटाना भी लूट है। लालू ने रेलवे का जितना दोहन किया है, उतना किसी ने नहीं किया, ऐसे में, मुनाफा भी खूब हुआ है। कहां गया लालू का चूकड़ अभियान, मतलब मिट्टी के पात्र में चाय परोसने का फरमान?
शुरू में प्रबंधन संस्थान भी लालू पर लट्टू थे, लेकिन लालू की पोल खुलते देर नहीं लगी, अब उन्हें कोई नहीं बुलाता। लालू का प्रबंधन बिहार भुगत चुका है। तरक्की की दौड़ में लालू का बिहार आज कहां है, यह भी तो देखना चाहिए। लालू पर फिदा लोगों को कृपया बिहार के किसी ऐसे गांव में जाकर रहना चाहिए, जहां न सड़क है, न बिजली, न साफ पेयजल, जहां खुले में फारिग होना पड़ता है। जहां रात के भयानक अंधेरे में कुछ-कुछ देर बाद `जाग... हो´ -जागते रहो - की डरावनी गूंज उठती है। जहां चोरों, डकैतों को पकड़ा नहीं जाता। रात के अंधेरे में डकैत लूटते हैं और उसके बाद जांच और पेट्रोल-पानी के नाम पर पुलिस दिनदहाड़े लूटती है। पहाड़ खोदने का नाटक किया जाता है और एक चूहिया भी बरामद नहीं होती। पुलिस अपने इलाके के गुंडों पर हाथ धरने से बचती है कि न जाने किस गुंडे को लालू, पासवान या नीतीश जैसे नेता चुनाव में टिकट देकर खड़ा कर देंगे।
तो कृपया, लालू को प्रेम प्रस्ताव करने से पहले एक बार बिहार का मजा अवश्य लें, तभी लालू जी की कामयाब मुस्कान का मतलब समझ में आएगा।
Friday, 16 January 2009
अमिताभ की नाराजगी और कुछ यादें
चलते-चलते बताते चलें कि जिन दिनों अमर उजाला में मेरी लिखी समीक्षा छपी थी, उन दिनों मैं अमर उजाला छोड़ चुका था। बाद में उसके मानदेय वाला लिफाफा अत्यंत सीधे-सज्जन-कुशल बॉस गोविन्द सिंह जी की कृपा से बड़ी मुश्किल से यहां-वहां होता हुआ, नए शहर में मुझ तक पहुंचा था।
एक और बात, जिन दिनों मैं उस किताब को पढ़ रहा था, उस पर लिख रहा था, उन दिनों एक गाना मेरे दिमाग में बार-बार गूंजता था कि
हम न समझे थे, बात इतनी-सी
ख्वाब शीशे के, दुनिया पत्थर की।
---क्या यह गाना राम मोहम्मद थॉमस पर सटीक नहीं बैठता है?
Friday, 9 January 2009
गुरुमूर्ति की बातें - खंड एक
आज अमेरिका इतनी भयानक मंदी में फंस गया है कि अगर वह कर्ज न ले, तो वहां कर्मचारियों को वेतन नहीं मिलेगा। अमेरिका पहले ऐसा नहीं था, वहां के लोग पहले ज्यादा मेहनत और कम खर्च किया करते थे। वह पहले दौलत पैदा करने वाला देश था, लेकिन आज वह दौलत खर्च करने वाला देश है। वहां के लोग मानते हैं कि धन खर्च करने के लिए धन कमाने की जरूरत नहीं है। किसी और से धन लेकर भी खर्च किया जा सकता है, चुकाने की जरूरत नहीं है। धन वापस न चुकाने की वजह से ही वहां मंदी का हाहाकार मचा हुआ है। पहले अमेरिका दुनिया के अन्य देशों को धन दिया करता था, लेकिन 1980-85 के बीच अमेरिका में कर्ज लेने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। 1980 में अमेरिका में बामुश्किल पांच-छह प्रतिशत परिवारों ने ही शेयर बाजार में पैसा लगाया था, लेकिन आज वहां के 55 प्रतिशत परिवारों का पैसा शेयरों में लगा है। जब वहां शेयर के भाव गिरेंगे, तो जाहिर है, आर्थिक तबाही ही होगी।हम भारत की जब बात करते हैं, तो यहां अभी कुल बचत का 2।2 प्रतिशत पैसा ही शेयरों में लगा है, अत: यहां शेयर भाव गिरने पर जो हल्ला किया जाता है, वह उचित नहीं है। सेंसेक्स के गिरने से भारत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आखिर अमेरिकियों ने शेयरों में क्यों धन लगाया? उन्होंने पैसा बचाया क्यों नहीं? उन्हें आज उधार पर क्यों जीवन काटना पड़ रहा है। इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अमेरिका में ज्यादातर परिवार राष्ट्रीय परिवार हो चुके हैं, मतलब बच्चों की जिम्मेदारी सरकारें संभाल रही हैं। बूढ़ों की फिक्र सरकार को है। वयस्क आबादी बेफिक्र हो चुकी है। बच्चा जब स्कूल जाता है, तो उसे एक फोन नंबर दे दिया जाता है और बता दिया जाता है कि कोई परेशानी हो, तो इस नंबर पर फोन करे। मतलब अगर माता-पिता परेशान करें, तो बच्चा फोन करे, अगर शिक्षक क्रोध करे, तो बच्चा फोन करे और निश्चिंत हो जाए, सरकार माता-पिता या डांटने वाले शिक्षक की खबर लेगी। बच्चों को एक तरह से बदतमीजी सिखाई जा रही है, अभद्रता ही हद तक निडर बनाया जा रहा है। इधर भारत में आज भी बच्चे को यही बताया जाता है कि माता-पिता को प्रणाम करके स्कूल जाना है, गुरुजनों को देवतुल्य मानना है।तो अमेरिका में लोग यह देख रहे हैं कि बच्चों की जिम्मेदारी सरकार उठा रही है, तो फिर आखिर धन वे किसके लिए बचाएं। एक दौर था, जब अमेरिका में बैंक डिपोजिट पर बीस प्रतिशत ब्याज मिला करता था, तो आखिर लोग शेयर जैसे जोखिम भरे निवेश में पैसा क्यों लगाते, लेकिन जैसे-जैसे डिपोजिट पर ब्याज घटने लगा, त्यों-त्यों लोग शेयरों में धन लगाने लगे। और वही लोग आज मुश्किल में हैं, अगर उन्हें कर्ज न दिया जाए, तो जीवन मुश्किल में पड़ जाए। अमेरिका में वही हाल शादी का है। केवल दस प्रतिशत शादियां ही 15 साल से ज्यादा समय तक टिक पाती हैं। आधे से ज्यादा विवाह पहले पांच वषü के दौरान ही टूट जाते हैं। वहां लोगों का साथ रहना एक अल्पकालीन समझौता है। वे परिवार की तरह नहीं, बल्कि हाउसहोल्ड की तरह रहते हैं। हाउसहोल्ड में लोग कुछ समय के लिए साथ रहना स्वीकार करते हैं, उनमें भावनाओं का बहुत जुड़ाव नहीं होता है, जबकि परिवार में परस्पर लगाव होता, एक दूसरे के प्रति अत्यधिक चिंता होती है। अमेरिका में परिवार लगभग नष्ट हो चुके हैं। उसी हिसाब से खर्च भी बढ़ा है। वहां 11 करोड़ हाउसहोल्ड हैं, लेकिन उनके सदस्यों के पास 120 करोड़ क्रेडिट कार्ड हैं। लगभग हर आदमी के पास तीन-चार से ज्यादा क्रेडिट कार्ड हैं। तो अमेरिका को बिखरे हुए परिवारों ने तबाह कर दिया है, जबकि भारत जैसे देशों में परिवार और संस्कृति की वजह से ही अर्थव्यवस्था बची हुई है। क्रमश:
Tuesday, 6 January 2009
एक और फोटो
एस गुरुमूर्ति के कर कमलों से उपकृत
Thursday, 1 January 2009
उम्मीद में खुशहाल
नए बरस मे ऐसे
जैसे कोई जर्जर मकान छोड़
नए मे आता है
सुकून का अहसास संजोये
मानो छोड़ आया हो पीछे
बहुत कुछ जर्जर
ढहने को तत्पर
बेकार और लचर
---
पुरानी पतलूनों की फटी जेबें
जो सिल न सकीं
छुटी हुई नौकरियों के चिथड़े कागजात
सिफारिशों के आभाव मे हल्का और
पुराना पड़ता बायोडाटा
उड़ रहा है
जैसे उडी थी विदर्भ के अकाल मे धूल
जिसे पॅकेज से झाड़ देने की कोशिश हुई
और नाकाम हुई
जैसे नाकाम हुई कई कोशिशें
आसूं और खून के निशाँ
जो छूट न सके
बने रह गए
पड़ोसियों के हाथ खून मे
सने रह गए
साल भर संगीन
तने रह गए
---
जो भी है पुराना
सहेजने के लिए भले हो
इस्तेमाल के लिए नहीं होता
यह कलेंडर ने बताया हैं
जो सामने नुमाया है
नया साल
उम्मीद में खुशहाल
मालामाल.