छपरा से बलिया के बीच रिवीलगंज नामक एक स्टेशन पड़ता है, इसे गौतम स्थान भी कहते हैं। किसी समय यहां गौतम ऋषि का आश्रम हुआ करता था, आज यहां उनका एक मंदिर है। यही वह जगह है, जहां राम ने पाषाण बनी ऋषि पत्नी अहल्या का उद्धार किया था। हनुमान का भी जन्म यहीं हुआ बताया जाता है। बहुत ऐतिहासिक स्थान है। कभी यहां खूब अंग्रेज रहा करते थे, अब एक भी अंग्रेज नहीं बचा। यहां से पांच किलोमीटर दूर स्थित छपरा में किसी समय बड़ी संख्या में डच और फुर्तगीज भी रहे थे। यहाँ बड़े पैमाने पर टैक्स वसूली होती थी, रिविलगंज एक टाउन है और यहां नगरपालिका की स्थापना बहुत पहले हो गई थी। मैं 29 मई की उस गर्म दोपहर को ट्रेन में बैठा-बैठा रिविलगंज की खास बातों को याद कर रहा था और सोच रहा था कि यह स्थान कितना उपेक्षित रह गया। अगर यह स्थान बिहार से बाहर होता, तो रिविलगंज एक चर्चित पर्यटन स्थल में परिवर्तित हो गया होता। खैर, बिहार में कदम-कदम पर इतिहास बिखरा पड़ा है, अफसोस, समेटने वाला कोई नहीं है।
बहरहाल, रिविलगंज स्टेशन के आउटर पर जब गरीब नवाज एक्सप्रेस रुकी, तो मैं यह देखकर दंग रह गया कि छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां ताड़ी बेच रहे थे। जैसे रेल में चाय बिकती है, चाय लीजिए चाय... की आवाज के साथ, ठीक उसी तरह वहां ताड़ी लीजिए ताड़ी की आवाज के साथ ताड़ी बिक रही थी। ताड़ के पेड़ का यह रस नशीला होता है, पानी मिले दूध के रंग का, छपरा और बिहार के अनेक इलाकों में लोग इसे नशे के लिए पीते हैं। आज भी बिहार के अच्छे घरों में ताड़ी का नाम लेना वर्जित है। पहले एक खास जाति पासी के जिम्मे यह काम था, लेकिन अब कई अन्य निम्न जातियों के लोग भी इस धंधे से जुड़ गए हैं। पांच रुपये प्रति लोटे के हिसाब से ताड़ी बिक रही थी। लोग पानी की बोतलों में ताड़ी ले रहे थे। पास ही एक चाट ठेला भी खड़ा हो गया था, तो चखने या स्नेक्स की भी समस्या हल हो गई थी। कइयों ने ट्रेन से उतरकर छककर पीया। गोलगप्पे और चाट खाए, जब वहां ट्रेन ज्यादा देर रुकी, तो लोगों में यह भी चर्चा हुई कि ट्रेन के ड्राइवरों ने भी ताड़ी-पान किया है।
सवाल है , जिन यात्रियों ने यहां ताड़ी-पान किया, उन्होंने किस नजर से रिविलगंज को देखा होगा? अब जब भी उनकी ट्रेन यहाँ से गुजरेगी, तो वे शायद ताड़ी की ही उम्मीद लगाएंगे। गौतम ऋषि, हनुमान जी और राम जी को तो उनमें से शायद ही कोई याद करेगा।
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ताड़ से विकास की राह
बिहार के कई इलाकों में बड़ी संख्या में ताड़ के पेड़ हैं, जिनसे केवल ताड़ी और पेड़ के बहुत पुराने होने पर लकड़ी का इंतजाम होता है। इसके पत्ते से झाड़ू और हाथ-पंखे भी बनाए जाते हैं। ताड़ का व्यावसायिक उपयोग बिहार में किया जा सकता है। अगर जगह-जगह पॉम ऑयल इंडस्ट्री का विकास किया जाए, तो ताड़ से ज्यादा कमाई की जा सकती है। इससे ताड़ी का नशे के लिए उपभोग भी कम हो जाएगा और लोगों को रोजगार भी मिलेगा। इस दिशा में बिहार सरकार को सोचना चाहिए।
एक और बात...
बिहार में बड़ी संख्या में तंबाकू उत्पादन होता है, लेकिन तंबाकू के प्रसंस्करण व पैकेजिंग का काम ज्यादातर मध्यप्रदेश में होता है, अगर प्रसंस्करण इकाइयां बिहार में ही लग जाएं, तो भी बिहार में रोजगार पैदा हो सकता है। फिलहाल ताड़ हो या तंबाकू, दोनों से बिहार को केवल नशा मिलता है और कुछ नहीं।
5 comments:
जो राज्य और उसका नेतृत्व गन्ने और चीनी उत्पादन जैसी बहुमूल्य थाती को नहीं सहेज सकी उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है. अगर गन्ने और चीनी उत्पादन को आगे बढाया गया होता तो राज्य के किसानों को और किसी विकल्प के बारे में कभी सोचना भी नहीं होता. अपने सारण जिले में स्थित मरहौरा चीनी मिल राज्य का सबसे पुराना मिल था और इलाके के किसानों की खुशाली का एक बड़ा कारण भी था. लेकिन उसे किसी ने सहेजने की कोशिश नहीं की और ये हजारों लोगों के पलायन का कारण बना. बड़े-बड़े नेता हुए अपने यहाँ से लेकिन किसी ने इस काम को करना अपनी प्राथमिकता में शामिल नहीं किया और न ही हमारे यहाँ की जनता इन चीजों को चुनावी मुद्दा बना सकी. उन्हें जात-पात की बातों से फुर्सत ही कहाँ है...
ताड़ हो या तंबाकू, दोनों से बिहार को केवल नशा मिलता है और कुछ नहीं। बहुत सही कहा आपने।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अच्छा लिखा है आपने, लेकिन बिहार को लेकर इस किस्म की बातें बहुत सुनाई देती हैं कि इस राज्य में सही मायने में कोई नीति निर्माता ही नहीं है और न ही कोई आपकी तरह विकल्पों के बारे में सोचता है. दुर्भाग्य है यह इस देश का और बिहार का.
vaah bhai ghyanesh tum yhan miloge socha na tha.to taadi waadi to theek hai apne bare mein mail jroor kro bhai. balak ko pyar.
Gyanvardak
lagi aapki TAADI
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