Thursday, 3 December 2009

प्रथम राष्ट्रपति का गांव



भारत राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, "सच्ची स्वतंत्रता के लिए अपनी जरूरतों को कम करना चाहिए।" उन्होंने अपने जीवन में जरूरतों को इतना कम कर लिया कि उनके बारे में यह आम धारणा बन गई कि वे गरीब परिवार से आए थे। वास्तव में वे अमीरी में जन्मे थे। उनके बड़े दादा चौधुरलालजी करीब 25-30 वर्ष तक हथुआ राज में दीवान रहे थे। दीवान होने के अलावा उन्होंने उस जमाने में सात-आठ हजार रूपए की जमींदारी खरीदी थी, जिसकी कीमत समय के साथ बढ़ी। जीरादेई गांव में राजेंद्र बाबू का जैसा बड़ा मकान है, वैसा उस इलाके में दूसरा नहीं है। जब वे छपरा में पढ़ रहे थे, तब उनकी सेवा के लिए नौकर और रसोइए रहा करते थे। यह भी सच है कि उन जैसा सादगी पसंद राष्ट्रपति दूसरा कोई नहीं हुआ। कपड़े की सिलाई उधड़ी, तो सूई-धागा हाथ में लेने से परहेज नहीं किया। महात्मा गांधी ने राजेंद्र प्रसाद ही नहीं, उनके पूरे परिवार को सादगी पसंद बना दिया था। गांधीजी के प्रभाव में देश में असंख्य लोगों ने सादगीभरा जीवन अपनाया, इसलिए वे त्याग कर पाए, इसीलिए वे देश के लिए संघर्ष कर पाए और इसीलिए हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

उनका गांव

उत्तरी बिहार के सीवान शहर के रेलवे स्टेशन से पश्चिम की ओर जीरादेई रेलवे स्टेशन है, लेकिन वास्तव में यह स्टेशन ठेपहां गांव में है। स्टेशन से बाहर निकलते ही, जहां राजेंद्र बाबू की प्रतिमा होनी चाहिए, वह ऊंचा चबूतरा खाली है। जिस देश में मामूली नेताओं के स्मारकों के लिए भी अरबों रूपए बेशर्मी से बहाए जा रहे हों, वहां प्रथम राष्ट्रपति की प्रतिमा के लिए धन का टोटा है? स्टेशन इतना उपेक्षित कि वेटिंग हॉल नहीं। रात के समय अंधेरा पसर जाता है। स्टेशन से पच्चीस कदम दूर आकर सड़क खोजना पड़ती है। दाहिने हाथ की ओर पतली धूलभरी कच्ची सड़क पर दो सौ मीटर चलने के बाद पक्की सड़क नसीब होती है। उसी सड़क पर लगभग चार किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में जीरादेई व जमापुर दो गांव हैं। स्वयं राजेंद्र बाबू ने लिखा है कि यह जानना मुश्किल है कि जीरादेई कहां खत्म होता है और जमापुर कहां शुरू होता है। गांव में विकास वैसे ही बेतरतीब हुआ है, जैसे बाकी देश में। प्रथम राष्ट्रपति के गांव में कोई इंटर कॉलेज नहीं, अस्पताल नहीं, थाना है, तो उधार के कमरों में। बिजली का हाल ऎसा बुरा कि ना पूछिए। धन्य हैं इस इलाके के नेता, संविधान लेखक का नहीं, कम से कम संविधान का ही सम्मान करते, तो जीरादेई आदर्श गांव हो गया होता। इसका जीरादेई को पूरा हक था, लेकिन यह हक मारा गया, क्योंकि जिम्मेदार लोगों और यहां के बाहुबली नेताओं ने अपनी जरूरतों को इतना बढ़ाया कि दूसरों की जरूरत, गांव, प्रदेश, देश की जरूरत गौण हो गई।

उनका घर

राजेंद्र बाबू के विशाल हवेलीनुमा घर को तो सरकार ने ठीक करवाया है। एक सूचना पट्ट भी लगा है कि यह देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ। राजेंद्र प्रसाद का जन्मस्थल है, लेकिन अंदर जाकर निराशा हाथ लगती है। लगता है अच्छे लोग चले गए, केवल इमारत, उसकी दीवारें और ढेर सारा सन्नाटा बचा है। चार कमरों में राजेंद्र बाबू के परिवार द्वारा प्रयुक्त होने वाले सामान, अलमारियां, संदूक, कुर्सियां, पलंग, चौकियां, मेज, बेंच इत्यादि इस तरह से ठूंसे गए हैं, मानो कूड़े में जाने हों। प्रथम राष्ट्रपति के साथ उनके अपने घर में ऎसा सुलूक किया गया है कि किसी भी संवेदनशील भारतीय की आंखों में आंसू आ जाएं। घर देखने लायक है, लेकिन किसी भी कमरे के बारे में कोई सूचना नहीं लिखी है। आप खुद घूमकर दीवारों से बात कर लीजिए। एक जगह दलान में सहेजी गई चीजों में एक बड़ी चौकी और लकड़ी की दो सोफेनुमा बेंच हैं। वहीं ऊपर लिखा है : यहां महात्मा गांधी 1927 में 16 जनवरी से 18 जनवरी की सुबह तक ठहरे थे।" ऎसा स्मारक किस काम का? कम से कम राजेंद्र बाबू की कुछ किताबें, जीवनी व संविधान से संबंघित किताबें रख दी जातीं, कुछ फोटोग्राफ, कुछ पत्र इत्यादि लगाए जाते। क्या देश के प्रथम राष्ट्रपति के साथ अन्याय इसलिए हुआ, क्योंकि वे गांव में जन्मे? काश! वे भी इलाहाबाद या दिल्ली में पैदा होते।

राजस्थान से सम्बन्ध

वे राजस्थान से बड़ा स्नेह करते थे। सुखद संयोग है कि उन्होंने आत्मकथा लिखने की शुरूआत सीकर में की थी और समापन भी यहीं राजस्थान के पिलानी में किया। 1940 में उनका स्वास्थ्य खराब हुआ था और सेठ जमनालाल बजाज उन्हें अपने साथ सीकर ले आए थे। जमनालाल बजाज जीरादेई भी गए थे, जब राजेंद्र बाबू का परिवार उनके बड़े भाई महेंद्र प्रसाद के निधन की वजह से कर्ज में डूब गया था। जमनालालजी ने न केवल ऋण प्रबंधन, बल्कि राजेंद्र बाबू के परिवार की बची हुई जमींदारी का प्रबंधन स्वयं किया। जमींदारी बेचने के बावजूद कर्ज की राशि इतनी ज्यादा थी कि जमनालालजी को घनश्यामदास बिड़ला से भी सहयोग लेना पड़ा। राजेंद्र बाबू का मकान बिक जाता, लेकिन जमनालालजी ने सूझबूझ से उसे बचाया लिया। वे जमनालालजी को बड़ा भाई मानते थे, जिनकी कृपा से वे ज्यादा से ज्यादा समय राष्ट्र को दे पाए। न कोई दिखावा, न राजनीतिक जोड़तोड़। मेहनत करते रहे, फल मिलता गया। अत्यंत मेधावी छात्र रहे राजेंद्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में यह भी बताया है कि वे सभी परीक्षाओं में टॉप कैसे करते थे। मेहनत, तैयारी और ईमानदारी ने उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर भी पहुंचा दिया। वाकई युवा पीढ़ी भी उनसे काफी कुछ सीख सकती है।
( मेरा यह लेख राजस्थान पत्रिका मे ३ दिसंबर को प्रकाशित हो चुका है )

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अफसोस

३ दिसंबर को राजेन्द्र बाबू की १२५ वी जयंती थी लेकिन भारत सरकार ने उनके लिए एक सेन्टीमीटर विज्ञापन भी जारी नहीं किया। आप ख़ुद सोचिये, क्या यह ठीक है ?

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