Wednesday, 27 November 2013

देना पड़ेगा मोहब्बत का इम्तेहान

असंतुष्ट नायक : 1970 का दशक
भाग - 6
जब यह दशक शुरू हुआ, तो लोगों में असंतोष की भावना आ चुकी थी। यह असंतोष संगीतमय ढंग से भी उभरने लगा था। १९७१ में कमाल अमरोही की फिल्म 'पाकिजा' के एक गाने की देश में बड़ी गूंज थी - इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा...  हमरी न मानो सिपहिया से पूछो, जिसने... भरी बजरिया में छीना दुपट्टा मेरा...। इस दौर का नायक व्यवस्था से निराश होने लगा था। सरकारी नीतियों और सरकारी लोगों का शिकंजा कसने लगा था। देश में लोगों और नायकनुमा तमाम लोगों को यह अहसास हो गया था कि देश की समस्याओं का समाधान उतना आसान नहीं है, जितना कि १९५० के दशक में सोचा गया था। राजनीति कोरे वादों से अपना काम चला रही थी। तत्कालीन राजनीतिक नायक सरकार के समक्ष शिकायत दर्ज कराने लगे थे। साहित्य में भी सरकार के प्रति निराशा और रोष का भाव आने लगा था। नायक विचलित होने लगे थे। ऐसे में, जब यह गाना बजा कि इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा, तो मानो यह अहसास हुआ कि देश की धरती गुहार लगा रही है, शिकायत कर रही है कि उसके साथ बहुत बुरा हो रहा है। 

इस दशक में नायक का गुस्सा धीरे-धीरे बढ़ा, 'जंजीर' आई, तब भी ठीक था, क्योंकि नायक सरकार के दायरे में ही था, वह सरकार का अंग बनकर समाधान तलाश रहा था, लेकिन उसके बाद दशक के ठीक बीच में १९७५ में 'शोले' आई, जिसमें नायक सरकार से बाहर आ चुका था, क्योंकि सरकार में रहते हुए उसे न्याय नहीं मिला था, 'शोले' का ठाकुर पहले पुलिस अधिकारी था, लेकिन जब पुलिस की नौकरी करते हुए उसका परिवार मार दिया गया, उसके हाथ काट दिए गए, तब निराश होकर उसे व्यवस्था से बाहर आना पड़ा और तब उसके सहयोगी बने दो अपराधी। सरकार की व्यवस्था से इतर एक व्यवस्था बनी, जिसने डकैतों से लोगों को मुक्ति दिलाई। एक तरफ पीडि़त पक्ष था, दूसरी तरफ खलनायक था, जिसका व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं था, तो तीसरी तरफ दो अपराधी थे, जो पैसे के लिए ही खलनायक को मारने के लिए तैयार हुए थे। देश की व्यवस्था ऐसे बिगड़ रही थी कि एक भ्रम खड़ा हो गया कि इसमें नायक कौन है। कुछ लोगों ने पीडि़त पक्ष - ठाकुर - को नायक माना, तो किसी ने अपराधी जय-वीरू को नायक माना, तो ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने खलनायक गब्बर सिंह को ही नायक मान लिया। यह कहा जाता है कि असंतोष से क्रोध होता है और क्रोध के माहौल में आदमी अंधा हो जाता है। हम यह देखते हैं कि यह भ्रम समाज में बाद के दशकों में बढ़ता चला गया, एक दौर ऐसा भी आया, जब गब्बर सिंह ही नायक मान लिया गया, 'शोले' के जय (अमिताभ बच्चन) ने गब्बर सिंह जैसा किरदार बहुत शौक से -दूसरों से छीनकर- निभाया। इसमें कोई शक नहीं कि १९७० का दशक असंतुष्ट नायकों का दौर है। तत्कालीन राजनीति पर अगर गौर करें, जहां एक ओर, प्रतिपक्ष (जयप्रकाश नारायण) में असंतोष का भाव था, वहीं दूसरी ओर, सत्ता पक्ष (इंदिरा गांधी) में देश में फैले असंतोष के प्रति रोष का भाव था। संघर्ष की स्थिति बनी, तो पीडि़त पक्ष को एक हद तक खुशी मिली, लेकिन वह वास्तविक जीत से वंचित रह गया। दोनों पक्ष के नायकों ने उसे निराश किया। सम्पूर्ण क्रांति का उत्थान और उसकी विफलता इसी दशक की घटनाएं हैं। यह असंतोष और विरोधाभास का दशक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता पक्ष ने सेंसरशिप का प्रयोग किया था, आपातकाल लगा था। अखबारों ही नहीं, फिल्मों पर भी नजर रखी जाती थी। एक फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' में सत्ता के प्रति विरोध का भाव था, तो इस फिल्म की मूल कॉपी को सत्ता पक्ष के महाबलियों ने नष्ट कर दिया था। कला से राजनीति तक चहुंओर असंतोष का भाव था।
हम यह कह सकते हैं कि इस दशक में भी निराशा, असंतोष या दुख का टोन राज कपूर ने सेट किया था। वर्ष १९७०-७१ में चर्चित रही 'मेरा नाम जोकर' फिल्म की ब्यंजना बहुत गहरी है। गरीबी और प्रेम में जब निरंतर निराशा हाथ लगती है, तब नायक जोकर बन जाता है। हम गरीब जनता ने सरकारों को चुना, बनाया, लेकिन सरकारें कहीं और समर्पित रहीं। इस फिल्म का जोकर भी तो यही करता है, अपने भोलेपन से अपने बड़े होने तक, एक के बाद एक नायिकाओं को चुनता है, चाहता है, आगे बढ़ाता है और नायिकाएं किसी और को समर्पित हो जाती हैं, तो यह अकेला, निराश आम आदमी जोकर ही तो है! वह समस्याओं से भरपूर सर्कस में खड़ा है और उसके हिस्से की तमाम खुशियां-नायिकाएं दूर चली गई हैं। वास्तव में सरकार की उपेक्षा ने आम आदमी को जोकर बनाकर रख दिया। 'मेरा नाम जोकर' को ऐसे भी देखना चाहिए। वैसी बड़े दिल वाली फिल्म बनाने का साहस फिर किसी ने नहीं किया, क्योंकि जनता जोकर दिखना नहीं चाहती। उसे तो उन सबसे बदला लेना है, जिन्होंने उसे ठगा है, लूटा है, तरह-तरह से उत्पीडि़त किया है। इस दशक में यह सिद्ध हो गया कि भारतीय नायक जोकर नहीं बनेगा, वह लड़ेगा, दुश्मनों को चुन-चुनकर मारेगा। पर्दे पर गुंडे जब पिटते थे, तब लोगों की आंखों में खुशी के आंसू आ जाते थे, आज भी आ जाते हैं। गुस्से को हिंसा से रिलीज करने का शौक भारतीय नायकों को १९७० के दशक में ही हुआ है और वे आज भी अपना यह शौक पूरा करते हैं और जनता तालियां बजाती है। १९६० के दशक का प्रेमी फॉर्मूला और १९७० के दशक की मारधाड़ - एक्शन का फॉर्मूला आज भी आजमाया जाता है और हिट होता है। सफल फिल्मी व्याकरण इस दशक में ज्यादा स्पष्ट हुआ। प्रेम, संगीत, ड्रामा, हास्य और मारधाड़, ये पांच विधाएं ऐसी थीं, जिन्होंने भारतीय फिल्मों में खुद को मजबूत कर लिया। इन विधाओं का अच्छा सम्मिश्रण आज भी हिट और सुपर हिट होता है। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस दशक के प्रतिनिधि नायक अमिताभ बच्चन हैं। इस दशक का मध्य वर्ष १९७५ बहुत महत्वपूर्ण है, अमिताभ की 'दीवार', 'शोले' और 'फरार' इसी वर्ष की फिल्में हैं, जिनमें वे एंग्री यंगमैन की भूमिका में बेहतरीन तरीके से उभरे। वैसे इस दशक में रोष को जाहिर करने वाले अभिनेताओं में धर्मेन्द्र को नहीं भुलाया जा सकता। कुत्ते, मैं तेरा खून पी जाऊंगा. . . जैसा सिनेमाई संवाद धर्मेन्द्र के अलावा और किसी पर नहीं जमा। अमिताभ समय के साथ खुद को बदलते रहे, लेकिन १९७० के दशक में गुस्से वाले आदमी के रूप में धर्मेन्द्र की जो छवि बनी, उसने उनका पीछा नहीं छोड़ा और इसका प्रभाव उनके बेटे सनी देओल की छवि पर भी पड़ा। ठीक इसी तरह से १९७० के दशक में जो हिंसक मानसिकता पैदा हुई, वह आगे की पीढिय़ों को मिलती चली गई। देश में मुखर रोष के प्रतिनिधि इस दशक ने देश और फिल्मी नायक को भी हमेशा के लिए बदल दिया। 
(क्रमश:)

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