Wednesday, 27 November 2013

एक बंगला बने न्यारा

किशोर नायक : 1930 का दशक 
भाग - 2
१९३० वह वर्ष था, जब गांधी जी दांडी मार्च पर निकले थे। उन्होंने फैसला कर लिया था कि अंग्रेजों द्वारा थोपे गए उन तमाम कानूनों को तोड़ेंगे, जो अन्याय के प्रतीक हैं। इसी वर्ष गांधी जी को अन्य भारतीय नेताओं के साथ प्रथम गोलमेज बैठक के लिए लंदन बुलाया गया था। देश की आवाज सुने जाने की बुनियाद तैयार हो चुकी थी और संयोग है कि १९३१ में भारतीय फिल्मों ने भी बोलना शुरू कर दिया। फिल्मकार अर्देशर ईरानी की 'आलम आरा' रिलीज हुई। विश्व पटल पर भारत की आवाज को साफ होने में वक्त लगा, ठीक उसी तरह से १९३० के दशक में फिल्मों में आवाज को साफ होने में वक्त लगा। कई फिल्में तो १९३४ तक मूक ही बनती रहीं। जैसे एक शिशु धीरे-धीरे बोलना शुरू करता है और धीरे-धीरे ही उसकी आवाज साफ होती जाती है, ठीक उसी तरह से १९३० का दशक भारतीय फिल्मों की आवाज साफ होने का दौर है। कहा जाता है कि छोटे बच्चे खूब बोलते-गाते हैं, तो १९३२ में बनी फिल्म इंद्रसभा में ६९ गीत थे, क्या यह चौंकने वाली बात है?
इस दौर में भारत में संघर्ष के अनेक स्रोत तैयार हो रहे थे, ठीक उसी तरह से फिल्मों में भी निर्माण के स्तर पर संघर्ष के अनेक स्रोत सामने आ रहे थे। अंग्रेजी राज का फिल्मों पर साफ असर था, अंग्रेज चाहते थे कि फिल्मों में खुलापन तो हो, लेकिन आजादी या संघर्ष की गूंज न हो। ऐसे में इस दशक में भी लगभग दो तिहाई फिल्में धार्मिक चरित्रों व पौराणिक आख्यानों को आधार मानकर बनीं। पौराणिक आख्यानों पर फिल्म बनाना फिल्मकारों के लिए भी लाभ का सौदा था, क्योंकि तब तक ऐसे आख्यानों को लोगों ने किताबों में ही पढ़ा था। बोलती-भागती तस्वीरों का आनंद बढऩे लगा था, ऐसे में, लोग पर्दे पर किसी सुनी-पढ़ी कहानी को देखकर भावविभोर हो जाते थे।
वैसे इसी दशक में समकालीन सामाजिक कथाओं पर फिल्म बनाने की शुरुआत हो गई थी, जैसे मुंशी प्रेमचंद ने फिल्मकार मोहन भवनानी के लिए फिल्म लिखी थी 'द मिल', जो १९३४ में रिलीज हुई थी। बताया जाता है कि इस फिल्म का मजदूर समाज पर गहरा असर हुआ था, फिल्म देखकर मजदूर भडक़ जाते थे। प्रदर्शन के बाद दंगे जैसी स्थिति पैदा हो जाती थी, लाहौर, पंजाब, दिल्ली इत्यादि शहरों में इसे प्रतिबंधित भी किया गया था। लोगों को उद्वेलित-उत्तेजित करने वाली फिल्मों में 'द मिलÓ को भारत की पहली फिल्म माना जाता है।
इस दशक के बिल्कुल मध्य में १९३५ में वी. शांताराम की 'अमृत मंथन' रिलीज हुई थी और आगे के दशकों में एक मास्टर फिल्मकार के रूप में स्थापित हुए महबूब खान की 'जजमेंट ऑफ अल्लाह'। बताते हैं कि 'अमृत मंथन' में जूम शॉट्स की शुरुआत हुई थी, यानी चीजों पर करीब से फोकस करने की शुरुआत। १९३० के दशक में फिल्मों के बारे में यह अहसास होने लगा था कि इन्हें हंसी में नहीं उड़ाया जा सकता। देश का मानस बनाने में फिल्मों का बहुत योगदान न था, लेकिन फिल्में उस दिशा में बढऩे लगी थीं। समाज और फिल्मों के बीच सम्बंध बनने लगा था। समाज फिल्मों को समझ रहा था और फिल्में समाज को समझ रही थीं। १९३० के दशक में ही भारतीय सिनेमा की कुछ अच्छी हस्तियों की फिल्मी मानसिकता तैयार हुई। फिल्में नौटंकी, रामलीला और पारसी थियेटर से बढक़र भी कुछ हो सकती हैं, इसका अहसास होने लगा। अच्छे घरों के युवक-युवतियां भी फिल्मों में आने के बारे में सोचने लगे थे। जो लोग फिल्मों को बुरा माध्यम समझते थे, वे भी फिल्मों की उपेक्षा नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि ईश्वरीय चरित्रों, संतों, ऐतिहासिक चरित्रों इत्यादि पर ढेरों फिल्में बन रही थीं। लोग विज्ञान का जादू और धार्मिक कथा के आकर्षण में खिंचे चले आते थे। कुल मिलाकर १९३० के दशक में यह लगने लगा था कि फिल्में कुछ खास करने वाली हैं। इस दौर में के.एल.सहगल सबसे बड़े स्टार थे, वे अभिनेता से ज्यादा गायक थे। उनका अभिनय सादा और सतही-सा होता था, मानो किशोर दौर का शिशु स्तरीय अभिनय। वे ढंग से नाटकीय भी नहीं हो पाते थे। दूसरे शब्दों में कहें, तो सहगल के अभिनय में भी अलग तरह का भोलापन था, जैसे इस देश के लोग भोले थे, ठीक उसी तरह से। के.एल.सहगल न गायकी में प्रशिक्षित थे, न अभिनय में, वे अभिव्यक्ति एवं प्रदर्शन के लिए संघर्षरत थे, जैसे यह देश संघर्षरत था। जैसे देश के लिए किया जा रहा संघर्ष सबको प्रेरित कर रहा था, ठीक उसी तरह से सहगल द्वारा किया गया संघर्ष भी बहुतों को प्रभावित कर रहा था। उस दौर में अभिनेता और आम लोग सहगल की तरह गीत गाने और अभिनय करने में आनंद की अनुभूति करते थे और लगता था कि सबकुछ ऐसे ही चलेगा। १९३५ में ही पी.सी. बरुआ ने सहगल को मुख्य भूमिका में लेकर 'देवदास' का निर्माण किया था। आज अगर इस 'देवदास' को कोई देखे, तो सबकुछ बड़ा बचकाना लगेगा, लेकिन हंसने वाली कोई बात ही नहीं है, क्योंकि वाकई यह फिल्मों के लिए किशोर दौर था। फिल्में ठीक से बढऩा, बोलना और दौडऩा सीख रही थीं।
फिल्में तो अपने बचपन व किशोरवय को छोडक़र आगे बढ़ गईं, लेकिन वास्तव में देश १९३० के दौर की बहुत-सी चीजों को आज भी ढो रहा है। जैसे इसी दौर में सांप्रदायिकता और जातिवादी राजनीति भी उभरने लगी थी। १९३५ में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास हो चुका था और देश में विभिन्न स्तरों पर संघर्ष के अनेक बचकाने प्रयोग हो रहे थे, कुछ ऐसे प्रयोग आगे चलकर युवा या अधेड़ हुए, लेकिन कई प्रयोग आज भी बचकाने ही लगते हैं और वैसे ही बने हुए हैं। १९३० के दशक का अध्ययन अगर किया जाए, तो हम पाएंगे कि इस दशक में अंग्रेज देश को बांट रहे थे, भारत को ११ प्रांतों में बांट दिया गया था, बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया था। कांग्रेस में फूट पड़ गई थी। सुभाष चंद्र बोस ने अपना अलग रास्ता चुन लिया था। वैसे संयोग व दुर्भाग्य से नेताजी का यह प्रयोग भी अगले दशक में बहुत हद तक बचकाना-सा ही सिद्ध हुआ।
दूसरी ओर, यह सुखद संयोग है कि इस दशक में भारतीय राजनीति और समाज में पुख्ता रूप से कुछ हस्तियां उभरीं, ठीक उसी तरह से फिल्मों में भी के.एल. सहगल, सोहराब मोदी, मोतीलाल, अशोक कुमार, पृथ्वीराज कपूर जैसे अच्छे अभिनेता उभरे, जिन्होंने बाद की पीढिय़ों को अपने अच्छे काम से बहुत प्रभावित किया।
क्रमश:

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