Wednesday, 27 November 2013

अंखिया लड़ाके... चले नहीं जाना

वयस्क नायक : १९४० का दशक
भाग - 3
इस दशक में फिल्मी माहौल कुछ गंभीर होने लगा था, लडक़पन तो काफी हद तक पीछे छूट गया था। पौराणिकता के प्रति आकर्षण कम होने लगा था और फिल्में समकालीन समाज को सम्बोधित करने लगी थीं। इस दौर में फिल्मी नायक को एक पुख्ता रूप देने में जिन गंभीर फिल्मकारों का नाम लिया जा सकता है, उनमें देविका रानी, महबूब खान, नितिन बोस, वी. शांताराम, अमिय चक्रवर्ती, के.ए.अब्बास, केदार शर्मा, कमाल अमरोही और राज कपूर इत्यादि प्रमुख हैं। इनमें से कुछ फिल्मकार कहीं न कहीं इटली में उभरे फिल्मी नवयथार्थवाद से प्रभावित थे। नवयथार्थवादी फिल्में समय की मांग थीं। विश्व युद्ध से पीडि़त दुनिया, जिसमें बहुत गरीबी, बेरोजगारी और असमानता थी, वर्ग संघर्ष बढ़ गया था, आजादी की मांग बढ़ गई थी, विज्ञान भी तेज तरक्की कर रहा था, ऐसे में फिल्मों को ज्यादा समय तक समकालीन चेतना से बचाया नहीं जा सकता था। जैसे दुनिया में नवयथार्थवादी सिनेमा सशक्त होकर उभरा, वैसे ही भारत में भी ऐसे फिल्मकार होने लगे, जिनकी नजर केवल बाजार या टिकट खिडक़ी पर नहीं थी, जो समाज के बारे में भी निरंतर सोच रहे थे। हालांकि लोगों में भी मुक्ति की चाहत थी। भारत की अगर बात करें, तो आजादी की चाहत इस दशक में शिखर पर थी, समस्याओं से स्वतंत्र होने और राहत पाने की इच्छा थी। यह दुनिया में अंग्रेजों की हार का दशक था, भारतीय युवा विजेता के रूप में खड़ा हो चुका था और भारतीय फिल्मी नायक भी विजेता के रूप में पहचान बनाने लगा था। फिल्में राह दिखाने की मुद्रा में आने लगी थीं। जहां मनोरंजन करना उनका ध्येय होता था, वहीं उनमें यह प्रगतिशीलता भी गहरे बसने लगी थी कि लोगों और समाज का भी कुछ भला करना है, कोई न कोई अच्छा संदेश देना है। गांधीवादी, माक्र्सवादी या समाजवादी प्रभाव फिल्मों में स्पष्ट दिखने लगा था।
यह वही दशक है, जिसमें संगीत भी खुलकर रंग जमाने लगा। यह महज संयोग नहीं है कि संगीत का आनंद और संगीत की मनमोहक लय तभी बनी, जब देश आजाद हुआ। आजाद हवा में गीत गाने और सुनने का आनंद बढ़ गया। देश १९४७ में आजाद हुआ, तो मानो फिल्मी संगीत को कोठों और नाटकीयता के करीब पहुंच रही शास्त्रीयता से आजादी मिली। दो फिल्मों ने भारत में संगीत के व्याकरण को काफी हद तक बदल दिया और संगीत को सुगम-सुलभ-सरस बना दिया। १९४९ में ही राज कपूर की 'बरसात' फिल्म रिलीज हुई थी, जिसमें शंकर-जयकिशन ने कमाल कर दिया था। इसी वर्ष दूसरी संगीत प्रभावी फिल्म थी, कमाल अमरोही की 'महल', जिसमें संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने भी संगीत को सुगम बनाने में योगदान दिया। लता मंगेशकर के नेतृत्व में देश के ज्यादातर गायकों की आवाज भी आजाद हुई और नकल या नाक के प्रभाव से अपनी-अपनी मौलिक आवाज की ओर गायक बढ़ चले। वाकई मौलिकता ही शानदार निर्माण में कारगर होती है। देश में भी अनेक मौलिक कार्य हो रहे थे और फिल्मी दुनिया में भी अनेक मौलिक कार्य हो रहे थे। फिल्में पूरी तरह से देश का साथ देने लगी थीं। पंडित नेहरू की नीति समाजवाद की निकट थी, तो ज्यादातर फिल्में भी समाजवादी प्रभाव में थीं।
इस दशक में हम अगर कोई एक प्रतीक नायक खोजने की कोशिश करें, तो थोड़ी मुश्किल होती है, लेकिन दिलीप कुमार को हम इस दशक का प्रतिनिधि नायक मान सकते हैं। वर्ष १९४५-४६ में नितिन बोस के निर्देशन में दिलीप कुमार की भूमिका वाली फिल्म 'मिलन' आई थी। बाम्बे टॉकीज की यह फिल्म दिलीप कुमार की पहली हिट थी। इसके पहले दिलीप कुमार 'ज्वार भाटा' और 'प्रतिमा' फिल्म में काम कर चुके थे, लेकिन जब 'मिलन' आई, तो उनकी मैथड एक्टिंग या पद्धतिबद्ध अभिनय को देखकर स्पष्ट हो गया कि न केवल भारतीय फिल्मों को एक वयस्क नायक मिल गया है, बल्कि अभिनय में भी वयस्कता आ गई है। 'मिलन' के बाद दिलीप कुमार की इसी दशक में नौ और फिल्में आईं और वे प्रेमी, समर्पित नायक के रूप में हर दिल अजीज हो गए।
क्रमश:

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