Wednesday, 27 November 2013

बदलता देश, दशक और फिल्मी नायक

(महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की पत्रिका बहुवचन के सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित मेरा एक शोध लेख - जो सिनेमा के १०० साल पर एक दृष्टि डालने का प्रयास कि कैसे देश बदला है, कैसे दशक और कैसे फिल्म नायक)

- ज्ञानेश उपाध्याय -
हम मनुष्य जब गर्भ में रहते हैं, तब भी हमारे पास दिल होता है धडक़ता हुआ। तब हमारे पास दिमाग भी होता है, लेकिन सुप्त-सा। छोटी-सी बंद और दबी-दबी-सी, गीली और रिसती हुई-सी जगह पर हम सब नौ महीने बिताते हैं। उन नौ महीनों की बातें किसी को याद नहीं रहतीं। ये नौ महीने तो ऐसे रहते हैं कि हमारी जिंदगी में जोडऩे लायक भी नहीं समझे जाते, लेकिन हम जब गर्भ से निकलकर खुले में आते हैं, तब हमारे दिन जुडऩे लगते हैं, हमारा इतिहास शुरू हो जाता है, लेकिन किसी को भी अपना शुरुआती इतिहास याद नहीं रहता। क्या यह संयोग नहीं है कि शुरुआती दौर की बहुत कम फिल्में हमें याद हैं। बताया जाता है कि मूक दौर में १२८८ फिल्में बनी थीं, लेकिन उनमें से मात्र १३ फिल्में ही राष्ट्रीय अभिलेखागार में मिलती हैं। बाकी को हम भूल गए या भुला दिया। कहा जाता है कि गर्भकाल और शिशुकाल बहुत परतंत्र और कष्टमय होता है, इसलिए यह बेहतर है कि उसे भुला दिया जाए। प्रकृति ने कुछ ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि हम स्वत: अपने बीज और शिशु दौर को भूल जाते हैं। वैसे उन दिनों में जो फिल्में आईं, उनके नाम और परिचय तो हमें मिलते ही हैं और उनके दम पर भी हिन्दी फिल्मों का इतिहास बनता है।
कुछ लोग मानते हैं कि भारत में फीचर फिल्म का जन्म १९१२ में ही 'पुंडलिक' नामक फिल्म से हो गया था, लेकिन सर्वस्वीकार्य रूप से भारतीय फीचर फिल्मों का जन्म १९१३ में माना गया है। यह वही वर्ष था, जब महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिला था। उसके बाद साहित्य भले ही खूब रचा गया, लेकिन किसी भी भारतीय साहित्यकार को नोबेल नहीं मिला, दूसरी ओर, सिनेमा ने भी बहुत विकास किया, लेकिन कोई भी सम्पूर्ण भारतीय फिल्म सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान - ऑस्कर नहीं जीत सकी। अब इस पर बहस हो सकती है कि भारतीय सिनेमा और भारतीय साहित्य कितना परिपक्व हुआ है। इसी के साथ हम एक बहस यह भी जोड़ लेते हैं कि भारतीय नायक कितना परिपक्व हुआ है। यह तो दुनिया के परिप्रेक्ष्य में एक दृष्टि हो गई, लेकिन वास्तव में अगर मुख्य धारा की भारतीय फिल्मों की बात करें, तो उनमें अभी भी काफी बचपना है। सौ की उम्र पार करने के बाद भी फिल्मों में कमी खोजी जा सकती है, बचपना खोजा जा सकता है। सिनेमा, साहित्य और नायक, तीनों में यह बचपना बरकरार है। ऐसा नहीं है कि पश्चिमी सिनेमा, साहित्य या नायक एकदम परिपक्व हो गए हैं या उनमें बचपना नजर नहीं आता, लेकिन वहां तुलनात्मक रूप से परिपक्वता और तार्किकता ज्यादा है और तभी वह सिनेमा पूरी दुनिया को अपील करता है, जबकि मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा की अपनी एक सीमा है। जैसे भारत, भारतीय समाज और भारतीय आधुनिक मन की एक सीमा है।
देश बदलता रहा है और उसके साथ-साथ फिल्में भी कुछ-कुछ बदलती रही हैं और साथ में उनके नायक भी बदलते रहे हैं। आज के देश, सिनेमा और नायक में हर दौर का कुछ न कुछ शामिल है। एक ही साथ अलग-अलग समय के दृश्य, प्रतीक, गुण और दोष चल रहे हैं। थोड़ा बचपन, थोड़ा किशोरपन, थोड़ी जवानी, थोड़ी प्रौढ़ता और थोड़ा बुढ़ापा, मानो मिलजुलकर कभी थोड़ा-तो कभी ज्यादा साथ-साथ चल रहे हैं। वैसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा जब जवानों की तरह बात करता है, तो उसे अपवाद स्वरूप लिया जाता है, ठीक वैसे ही जवानी में बचपन के लक्षण को अपवाद स्वरूप ही लिया जाता है। बचपन वास्तव में बचपन है और जवानी वास्तव में जवानी। इस बात को ध्यान में रखते हुए मोटे तौर पर समय और उसके प्रभावों को लेकर हम एक रोचक अध्ययन यह कर सकते हैं कि बदलते देश में बदलते दशक के साथ फिल्मी नायक कैसे बदलता चला गया।
दशक वार अगर हम देखें, तो नायक कुछ यों नजर आते हैं।
बीज नायक : 1910 का दशक
शिशु नायक : 1920 का दशक
किशोर नायक : 1930 का दशक
वयस्क नायक : 1940 का दशक
आदर्श नायक : 1950 का दशक
प्रेमी नायक : 1960 का दशक
असंतुष्ट नायक : 1970 का दशक
यथार्थवादी नायक : 1980 का दशक
प्रवासी नायक : 1990 का दशक
विलासी नायक : 2000 का दशक
भ्रमित नायक : 2010 का दशक
भारतीय फिल्मों के शुरुआती दो दशक बीज नायक और शिशु नायक को समर्पित रहे। हम जीना और चलना सीख रहे थे। हमें ठोकर लग रही थी, हम गिर रहे थे, फिर उठकर चल रहे थे। फिल्मों ने भी पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियां सुनकर-सुनाकर बचपन बिताया। हमें यह अहसास नहीं था कि हम समाज से भी नायक उठा सकते हैं, तो हमने लगभग सभी नायक अपने पुराणों और इतिहास से उठाए। भारतीय सिनेमा ने पौराणिक कथाओं के साथ ही शुरुआत की और यह कहा जाता है कि शुरुआती वैचारिक बुनियाद तो बचपन में ही बनती है, हमें बचपन में जो संस्कार मिलते हैं, उनसे ही हमारा मानस बनता है। तो कोई आश्चर्य नहीं, आज भी भारतीय फिल्मों की ज्यादातर कहानियां पौराणिक कथाओं-महाभारत-रामायण के कथा-ढांचे से बाहर नहीं आ पाई हैं। दर्शकों को नायक और खलनायक के संघर्ष में आज भी बहुत आनंद आता है। ज्यादातर आधुनिक भारतीय फिल्मों ने भी यह आनंद लेना और देना नहीं छोड़ा है। अच्छे-अच्छे निर्देशक यह ढांचा तोडऩे की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर को फिर पारंपरिक ढांचे में आकर काम करना पड़ता है। यानी भारतीय फिल्मों के बीज और शिशु नायक ने आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा है।
यह वही दौर था, जब भारत की आजादी के नायक सिर उठा रहे थे, उनके सब्र का बांध टूटने लगा था, उन्हें समझ में आने लगा था कि देश की मुक्ति के लिए खड़ा होना पड़ेगा। यह कहा जाता है कि बिना मांगे कुछ नहीं मिलता और बिना रोए मां दूध नहीं पिलाती, तो यह वह दौर था, जब फिल्मों ने रोना और मांगना शुरू किया।  
क्रमश:

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