यथार्थवादी नायक : 1980 का दशक
भाग - 7
दशक की शुरुआत में ही देश ने समझौता कर लिया। राजनीति में जिन नायकों को देश ने पिछले दशक में सत्ता से बाहर कर दिया था, उन्हीं लोगों को देश फिर सत्ता में ले आया यह सोचकर कि तुलनात्मक रूप से यही बेहतर नायक हैं। यानी देश ने यथार्थ या वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लिया। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस दौर में यथार्थवादी फिल्मों की बाढ़-सी आ गई। नायक का नजरिया जमीनी हकीकत की ओर मुड़ा। आदर्शवाद हो, प्रेम हो, असंतोष हो, हर जगह यथार्थ दिखाने की कोशिश होने लगी। समानांतर सिनेमा का आंदोलन इसी दौर में सशक्त होकर उभरा। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, अनुपम खेर इस दौर के चर्चित यथार्थवादी नायक-नायिका थे। यह उम्मीद एक तरह से टूट चुकी थी कि फिल्मी नायक कोई क्रांति करेंगे, फिल्मी नायक तो उसी कथा को दर्शकों के सामने परोस रहे थे, जो कथा खुद दर्शकों के बीच बिखरी हुई थी। एक होड़-सी थी कि समाज की गंदगी या कमी को कौन बेहतर ढंग से सिनेमा में पेश करेगा, भ्रष्टाचार को कौन सबसे वीभत्स रूप में पेश करेगा।
इसी दशक के बिल्कुल मध्य में १९८५ में राज कपूर ने 'राम तेरी गंगा मैली' का निर्माण किया। यह फिल्म सुपर हिट हुई। बात खुल चुकी थी, तो स्त्री शरीर बोलिए या स्त्री का सौंदर्य बोलिए, यह भी यथार्थ ही था। इस फिल्म पर अश्लील होने का आरोप लगा, तो फिर लोग क्यों इसे देखने गए? क्या यह एक यथार्थ नहीं है कि लोग अश्लीलता देखना चाहते थे, यह बात अलग है राज कपूर सौंदर्य दिखाना चाहते थे। यह बात ठीक उसी तरह से थी, मानो आपने समाज, शासन, प्रशासन का यथार्थ देख लिया, तो आप शरीर का भी यथार्थ देख लीजिए। भ्रष्टाचार, अन्याय हर किसी के साथ था, तो शरीर भी तो हर किसी के साथ था, फिर भी लोग देखना चाहते थे। पुरुष भी यथार्थ देखना चाहते थे और स्त्रियां भी। 'राम तेरी गंगा मैली' स्त्रियों के बीच भी बहुत चर्चित हुई। एक नदी या गंगा का प्रदूषण भी तो यथार्थ ही था, ...राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप ढोते-ढोते...। नदी का प्रदूषण आज भी व्यावसायिक सिनेमा का विषय नहीं बन पाया है, लेकिन १९८० का दशक ही कुछ ऐसा था कि इस दौर का सबसे बेहतरीन व्यावसायिक सिनेमा भी यथार्थवादी हथियार से लैस था।
इस दशक की प्रतिनिधि फिल्म के रूप में हम 'मशाल' फिल्म को भी देख सकते हैं। दिलीप कुमार और अनिल कपूर की भूमिका वाली इस शानदार फिल्म में बदलते और निष्ठुर होते समाज को बहुत अच्छी तरह से उकेरा गया था। समाज में लोग एक दूसरे की मदद करने से पीछे हटने लगे थे, लोग मतलबी होने लगे थे। लोग घी निकालने के लिए अपनी उंगली टेढ़ी करने लगे थे, इन सब सच्चाइयों को 'मशाल' फिल्म में बखूबी दर्शाया गया।
इस दशक में टूटते परिवारों की सच्चाई को भी बेहतरीन तरीके से पेश किया गया। फिल्मी नायक ने पारिवारिक परेशानियों से जूझने में काफी वक्त लगाया। प्रेम भी था और हिंसा भी। इस दशक में यथार्थवाद की ऐसी लहर थी कि लगता था कि फिल्में फिर कभी सपनों की ओर नहीं लौटेंगी। व्यावसायिक फिल्में परिवार और मनुष्य सम्बंधों पर केन्द्रित होकर यथार्थ दिखा रही थीं, वहीं दूसरी ओर, समानांतर फिल्में समाज का ठोस यथार्थ दिखा रही थीं। इलाज दोनों में से किसी के पास नहीं था, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि फिल्में एक तरह से पलायन की शिक्षा दे रही थीं। नायकत्व दाव पर लग गया था, क्योंकि नायक सताए जा रहे थे, दूसरे चरित्रों द्वारा संचालित होने लगे थे।
देश की राजनीति में भी ठीक ऐसा ही हो रहा था, देश की राजनीति के नायक भी दूसरों के हाथों की कठपुतलियों-से बन गए थे। उन्हें तरह-तरह की चौकडिय़ां घेरने लगी थीं। नेताओं को मजबूर किया जा रहा था कि वे भ्रष्टाचार, गरीबी, भाई-भतीजावाद, सांप्रदायिकता जैसी सच्चाइयों को स्वीकार कर लें। इस दशक में नायक सांप्रदायिकता की ओर मुड़े, बड़े घोटाले हुए, उच्च स्तरीय धोखेबाजी हुई। असंतोष का इलाज न हुआ, तो आतंकवाद की भी जमीन तैयार हुई। इस दशक में देश का यथार्थ खुलकर सामने आ गया, हम भारतीय भले ही गंगा की पूजा करते हों, लेकिन हम स्वयं अपने हाथों से गंगा का गला घोंट रहे हैं। हम यह कह सकते हैं कि यह भारतीय नायकत्व के ढहने का दशक था। कोई भी नायक नैतिकता के पैमाने पर ज्यादा टिक नहीं पा रहा था, समझौते करने पड़ रहे थे। फिल्मी नायकों ने भी खूब समझौते किए। समाज को समझौतावादी और पलायनवादी बनाने में इस दशक के नायकों का सर्वाधिक योगदान है।
कोरा सच बहुत कम लोगों को अच्छा लगता है, इसलिए जो फिल्में ज्यादा यथार्थवादी थीं, उनको खरीदने वाला कोई न था। विडंबना है कि नायकत्व की हत्या करके स्वयं नायक के रूप में उभरने वाला समानांतर सिनेमा रोजी-रोटी के लिए तरसने लगा था। इस दशक में समाजवादी और कलावादी, दोनों ही तरह के नायक उभरे, इन दोनों को ही व्यावसायिकता पसंद नहीं थी। हालांकि यह भी बड़ा सच है कि दोनों ही तरह के नायक अपने सिद्धांतों पर मुस्तैदी से टिक नहीं सके, दोनों ने ही कम या ज्यादा, देर या सबेर व्यावसायिकता का लाभ लिया।
इस दशक के अनेक प्रतिनिधि नायक-अभिनेता हैं - अनिल कपूर, ऋषि कपूर, जैकी श्रॉफ, सनी देओल, संजय दत्त, नसीरुद्दीन शाह इत्यादि। अनिल कपूर विशेष रूप से टपोरी वाला अंदाज लेकर आए। टपोरीपना भी अपने समय का एक सच था, जो बाद के दशकों में भी साथ-साथ चलता रहा।
(क्रमश:)
भाग - 7
दशक की शुरुआत में ही देश ने समझौता कर लिया। राजनीति में जिन नायकों को देश ने पिछले दशक में सत्ता से बाहर कर दिया था, उन्हीं लोगों को देश फिर सत्ता में ले आया यह सोचकर कि तुलनात्मक रूप से यही बेहतर नायक हैं। यानी देश ने यथार्थ या वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लिया। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस दौर में यथार्थवादी फिल्मों की बाढ़-सी आ गई। नायक का नजरिया जमीनी हकीकत की ओर मुड़ा। आदर्शवाद हो, प्रेम हो, असंतोष हो, हर जगह यथार्थ दिखाने की कोशिश होने लगी। समानांतर सिनेमा का आंदोलन इसी दौर में सशक्त होकर उभरा। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, अनुपम खेर इस दौर के चर्चित यथार्थवादी नायक-नायिका थे। यह उम्मीद एक तरह से टूट चुकी थी कि फिल्मी नायक कोई क्रांति करेंगे, फिल्मी नायक तो उसी कथा को दर्शकों के सामने परोस रहे थे, जो कथा खुद दर्शकों के बीच बिखरी हुई थी। एक होड़-सी थी कि समाज की गंदगी या कमी को कौन बेहतर ढंग से सिनेमा में पेश करेगा, भ्रष्टाचार को कौन सबसे वीभत्स रूप में पेश करेगा।
इसी दशक के बिल्कुल मध्य में १९८५ में राज कपूर ने 'राम तेरी गंगा मैली' का निर्माण किया। यह फिल्म सुपर हिट हुई। बात खुल चुकी थी, तो स्त्री शरीर बोलिए या स्त्री का सौंदर्य बोलिए, यह भी यथार्थ ही था। इस फिल्म पर अश्लील होने का आरोप लगा, तो फिर लोग क्यों इसे देखने गए? क्या यह एक यथार्थ नहीं है कि लोग अश्लीलता देखना चाहते थे, यह बात अलग है राज कपूर सौंदर्य दिखाना चाहते थे। यह बात ठीक उसी तरह से थी, मानो आपने समाज, शासन, प्रशासन का यथार्थ देख लिया, तो आप शरीर का भी यथार्थ देख लीजिए। भ्रष्टाचार, अन्याय हर किसी के साथ था, तो शरीर भी तो हर किसी के साथ था, फिर भी लोग देखना चाहते थे। पुरुष भी यथार्थ देखना चाहते थे और स्त्रियां भी। 'राम तेरी गंगा मैली' स्त्रियों के बीच भी बहुत चर्चित हुई। एक नदी या गंगा का प्रदूषण भी तो यथार्थ ही था, ...राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप ढोते-ढोते...। नदी का प्रदूषण आज भी व्यावसायिक सिनेमा का विषय नहीं बन पाया है, लेकिन १९८० का दशक ही कुछ ऐसा था कि इस दौर का सबसे बेहतरीन व्यावसायिक सिनेमा भी यथार्थवादी हथियार से लैस था।
इस दशक की प्रतिनिधि फिल्म के रूप में हम 'मशाल' फिल्म को भी देख सकते हैं। दिलीप कुमार और अनिल कपूर की भूमिका वाली इस शानदार फिल्म में बदलते और निष्ठुर होते समाज को बहुत अच्छी तरह से उकेरा गया था। समाज में लोग एक दूसरे की मदद करने से पीछे हटने लगे थे, लोग मतलबी होने लगे थे। लोग घी निकालने के लिए अपनी उंगली टेढ़ी करने लगे थे, इन सब सच्चाइयों को 'मशाल' फिल्म में बखूबी दर्शाया गया।
इस दशक में टूटते परिवारों की सच्चाई को भी बेहतरीन तरीके से पेश किया गया। फिल्मी नायक ने पारिवारिक परेशानियों से जूझने में काफी वक्त लगाया। प्रेम भी था और हिंसा भी। इस दशक में यथार्थवाद की ऐसी लहर थी कि लगता था कि फिल्में फिर कभी सपनों की ओर नहीं लौटेंगी। व्यावसायिक फिल्में परिवार और मनुष्य सम्बंधों पर केन्द्रित होकर यथार्थ दिखा रही थीं, वहीं दूसरी ओर, समानांतर फिल्में समाज का ठोस यथार्थ दिखा रही थीं। इलाज दोनों में से किसी के पास नहीं था, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि फिल्में एक तरह से पलायन की शिक्षा दे रही थीं। नायकत्व दाव पर लग गया था, क्योंकि नायक सताए जा रहे थे, दूसरे चरित्रों द्वारा संचालित होने लगे थे।
देश की राजनीति में भी ठीक ऐसा ही हो रहा था, देश की राजनीति के नायक भी दूसरों के हाथों की कठपुतलियों-से बन गए थे। उन्हें तरह-तरह की चौकडिय़ां घेरने लगी थीं। नेताओं को मजबूर किया जा रहा था कि वे भ्रष्टाचार, गरीबी, भाई-भतीजावाद, सांप्रदायिकता जैसी सच्चाइयों को स्वीकार कर लें। इस दशक में नायक सांप्रदायिकता की ओर मुड़े, बड़े घोटाले हुए, उच्च स्तरीय धोखेबाजी हुई। असंतोष का इलाज न हुआ, तो आतंकवाद की भी जमीन तैयार हुई। इस दशक में देश का यथार्थ खुलकर सामने आ गया, हम भारतीय भले ही गंगा की पूजा करते हों, लेकिन हम स्वयं अपने हाथों से गंगा का गला घोंट रहे हैं। हम यह कह सकते हैं कि यह भारतीय नायकत्व के ढहने का दशक था। कोई भी नायक नैतिकता के पैमाने पर ज्यादा टिक नहीं पा रहा था, समझौते करने पड़ रहे थे। फिल्मी नायकों ने भी खूब समझौते किए। समाज को समझौतावादी और पलायनवादी बनाने में इस दशक के नायकों का सर्वाधिक योगदान है।
कोरा सच बहुत कम लोगों को अच्छा लगता है, इसलिए जो फिल्में ज्यादा यथार्थवादी थीं, उनको खरीदने वाला कोई न था। विडंबना है कि नायकत्व की हत्या करके स्वयं नायक के रूप में उभरने वाला समानांतर सिनेमा रोजी-रोटी के लिए तरसने लगा था। इस दशक में समाजवादी और कलावादी, दोनों ही तरह के नायक उभरे, इन दोनों को ही व्यावसायिकता पसंद नहीं थी। हालांकि यह भी बड़ा सच है कि दोनों ही तरह के नायक अपने सिद्धांतों पर मुस्तैदी से टिक नहीं सके, दोनों ने ही कम या ज्यादा, देर या सबेर व्यावसायिकता का लाभ लिया।
इस दशक के अनेक प्रतिनिधि नायक-अभिनेता हैं - अनिल कपूर, ऋषि कपूर, जैकी श्रॉफ, सनी देओल, संजय दत्त, नसीरुद्दीन शाह इत्यादि। अनिल कपूर विशेष रूप से टपोरी वाला अंदाज लेकर आए। टपोरीपना भी अपने समय का एक सच था, जो बाद के दशकों में भी साथ-साथ चलता रहा।
(क्रमश:)
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