कॉमरेडों का समूह यूपीए सरकार से जुदा हो गया, भावनात्मक रूप से भारतीय राजनीति के लिए यह महत्वपूर्ण क्षण हैं। आने वाले कुछ वर्षों तक कांग्रेस और कॉमरेडों के बीच तनाव बना रहेगा, क्योंकि कांग्रेस जो परमाणु करार करने जा रही है, उसे वामपंथी खेमा अच्छा नहीं मानता। वामदल फिर कब केन्द्र में सत्ता के साथ खड़े हो पाएंगे, उनका प्रभाव फिर कब केन्द्र की राजनीति पर दिखेगा, यह कहना मुश्किल है। व्यक्तिगत रूप से वामपंçथयों की समर्थन वापसी पर मुझे दुख है। वे इस करार को समझने में नाकाम रहे, वे बदलते हुए दौर को समझने में नाकाम रहे। वाम दलों को चीन की चिंता रही है, लेकिन वे चीन से कुछ भी सीखने या उसे लागू करने के इच्छुक नहीं हैं। कॉमरेडों की नीति भारत को अलग-थलग या निरपेक्ष रखने की है। चीन भी यही चाहता रहा है कि भारत निरपेक्ष रहे, अमेरिका के साथ न जाए, लेकिन हमें सोचना-समझना चाहिए, अपना हित जरूर देखना चाहिए, निरपेक्षता नए दौर में नुकसान पहुंचा सकती है। जो देश दुनिया में अमेरिका के विरोधी रहे हैं, वे कोई हमारे समर्थक नहीं हैं। अगर हम अमेरिका विरोधियों के साथ नहीं हैं, तो हमें कायदे से मुद्दों के आधार पर अमेरिका के साथ होना चाहिए, लेकिन वाम खेमा हमें अलग-थलग रखना चाहता है। अफसोस।
समर्थन वापसी एक तरह से वाम राजनीति की विफलता भी है। वे बार-बार वहीं पहुंच जाते हैं, जहां से चलना शुरू करते हैं। काश, उन्होंने पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा जैसे अपने राज्यों को आदर्श राज्य में तब्दील किया होता, तो उन्हें इस तरह उपेक्षित नहीं होना पड़ता।
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