Tuesday 1 July, 2008

जाति के जर्रे



जाति कहीं हमारे संस्कारों में शामिल है, लेकिन मैंने ईमानदार आत्मसमीक्षा के बाद यह महसूस किया है कि मेरे दिल में भी जाति के कुछ जर्रे विद्यमान हैं, हालांकि वे प्रभावी कभी नहीं रहे। जब वे जर्रे जोर मारते हैं, तो मैं दलितों की दुर्दशा का ध्यान करने लगता हूं। एक सहज उपाय यह है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा `जूठन´ पढ़ लेता हूं और धरातल पर आ जाता हूं। `जूठन´ के बारे में यह कहना चाहूंगा कि यह रचना हर उस सवर्ण मानसिकता वाले व्यक्ति को पढ़नी चाहिए, जिसे अपनी श्रेष्ठता का गुमान है । `जूठन´ को पढ़ते हुए कम से कम तीन-चार जगहों पर मेरी आंखों में आंसू छलक आते हैं, दिल रोता है, एक अजीब-सा अपराध बोध जागता है। हालांकि मैंने अपने गांव (शीतलपुर बाजार, जिला : छपरा) में जातिवाद के वैसे दृश्य नहीं देखे हैं, जैसे दृश्य `जूठन´ में सामने आते हैं। `जूठन´ का जो दौर है, वह 1960 के दशक का है। हालांकि अभी भी कई गांवों में `जूठन´ का दौर जारी होगा, लेकिन बेगार यानी मुफ्त में काम लेने की परंपरा लगभग खत्म होने के कगार पर होगी। दलितों के पक्ष में बने कानूनों ने बहुत प्रशंसनीय काम किया है, उसका दुरुपयोग हुआ है, लेकिन अगर सवर्णों द्वारा किए गए अन्यायी अत्याचार के संदर्भ में देखें, तो इन दुरुपयोगों ने भी समाज की बेहतरी की दिशा में काम किया है। दलितों के शोषण के प्रति एक भय आया है, इस भय का स्वागत है। मैं लालू प्रसाद यादव और मायावती का आलोचक हूं, क्योंकि इनका आर्थिक विकास की राजनीति से कोई सरोकार नहीं है, लेकिन मैं इन जैसे नेताओं का इस बात के लिए ऋणी हूं कि इन्होंने मेरे समाज को लोकतांत्रिक बनाने में योगदान दिया है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश (पश्चिमी उत्तर प्रदेश को छोड़कर), बिहार में दलित, चूहड़े, चमार, डोम इत्यादि को भी समान अधिकार रखने वाला इनसान मानने का संस्कार जड़ें जमाने लगा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में हालात सुधरे हैं, लेकिन `जूठन´ वाला दौर अभी पूरी तरह से बीता नहीं है।


क्रमश:

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