--मोहन भाई--
मुझे लगा, इस कथा का एक शीर्षक रख लेते हैं, ताकि सुविधा हो जाए। मोहन भाई हमारे गांव से करीब दो किलोमीटर उत्तर की ओर नौतन बाजार गांव के एक अलग टोले में रहते थे। उनकी टोली अपनी जाति की वजह से गांव से बाहर एक कोने में बसाई गई थी। जहां मोहन भाई के पूर्वज बसाए गए थे, वहां एक जंगल हुआ करता था, जिसे लाला गाछी कहते थे। वहां दिन में भी अंधेरा रहता था, किसी जमाने में बाघ भी रहा करते थे। आजादी के बाद उस जंगल की कटनी शुरू हुई और आज उस जंगल का एक भी पेड़ नहीं बचा है । हम बचपन में जब एकमा रेलवे स्टेशन पर उतरकर टमटम से गांव जाया करते थे, तब भी लाला गाछी में कुछ पेड़ हुआ करते थे, बड़े-बड़े खूब घने, सड़कों पर छाए हुए, कुछ भय लगता था और एक खुशी भी कि लाला गाछी खत्म हुई, अब हमारा आम का बगीचा नजर आने लगेगा। मुझे याद पड़ता है, लाला गाछी के कुछ पेड़ों के आम मैंने चखे थे, खैर, वह जंगल या गाछी अब इतिहास है।
तो बात हो रही थी मोहन भाई की, जो उस जाति के थे, जिसके नाम के बाद का हिस्सा `मार´ है। याद है, लंबे कद के थे, चेहरे पर घनी मूंछें, सांवला रंग, हंसमुख चेहरा, तेज आवाज, मजबूत चुस्त बदन, बड़ी मीठी भोजपुरी बोलते थे। जब वे खेत जोतते थे और बैलों को आवाज देते थे, आव-आव-आव, चल जवान, तब हम देखते रह जाते थे। मोहन भाई हमें बहुत मानते थे। मेरे से बड़े वाले भाई साहब मालू अर्थात लोकेश उपाध्याय उन दिनों थोड़े शैतान हुआ करते थे, मोहन भाई को परेशान किया करते थे, तो मोहन भाई ने उनका नाम झंझट उपाध्याय रख दिया था। वे `उपाध्याय´ को `पधिया´ बोलते थे। जब हम अपने दूर स्थित खेतों से लौटते हुए थक जाते थे, छोटे-छोटे शहरी पांव जब दुखने लगते थे, कटे हुए खेतों से जब घिर जाते थे, तब मोहन भाई हमें कंधे पर बैठा लेते थे। मैं आज भी पसीने से तर-बतर मोहन भाई के ठंडे कंधे को महसूस कर सकता हूं। हमने जाति का भेद तब नहीं जाना था , हमें जाति के भेद के बारे में किसी बुजुर्ग ने बताया भी नहीं था। मुझे मोहन भाई का कंधा इतना सुरक्षित और मजबूत लगता था कि मुझे दुख होता था, यह कंधा शाम होते ही कहीं चला क्यों जाता है, हमारे घर क्यों नहीं रहता।
तब हम चारों भाई छोटे थे, शहर से गरमियों में गांव जाते थे। गांव में हमारे पांचवें बड़े भइया दिलीप उपाध्याय होते थे, पोस्ट ऑफिस में कार्यरत, आज भी नौकरी में हैं। उनके पिताजी यानी बड़े पिताजी, जिन्हें हम भी बड़े भैया की तरह की बाबूजी कहा करते हैं, अपने गांव के दक्षिण में स्थित बरेजा गांव के हाईस्कूल में भूगोल और इतिहास पढ़ाते थे। बाबूजी अर्थात शिवजी उपाध्याय अभी भी हैं, ढेर सारी शानदार पुरानी यादों से लबालब । 1986 में ही रिटायर हो चुके हैं। हार्ट के मरीज हैं। पेंशन मिलती है। समाजसेवा करते हैं। गांव के गिने-चुने अच्छे लोगों में गिने जाते हैं, लेकिन यह बात अलग है कि गांव में मनमानी करने वाले बहुसंख्य लोगों को अच्छे लोगों की कोई जरूरत नहीं रही । अच्छे लोगों की जरूरत केवल गरीबों को है, जिनके छोटे-छोटे बच्चों को बीमार पड़ने पर भी दो बूंद दूध नसीब नहीं होता, ऐसे ही लोगों के काम आते हैं बाबूजी।
खैर, 1991 की सर्दियों का समय था। दसियों दिन बाद धूप थोड़ी पसर आई थी। सुबह का समय था, मोहन भाई के छोटे भाई जवाहिर मुंह लटकाए बाबूजी के पास पहुंचे। बहुत दुखी थे, मानो कोई बड़ा आघात लगा हो। ...क्रमश:
साधु को सदा याद रहे कि वह साधु है
2 months ago
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