Tuesday, 1 July 2008

जाति के जर्रे - २


मेरा गांव यानी शीतलपुर बाजार एकमा रेलवे स्टेशन (सिवान और छपरा के बीच) से करीब चार किलोमीटर दूर पड़ता है, यहां दलितों में पर्याप्त जागृति आई है। जिन परिवारों में अक्षर का प्रवेश हुआ है, उन्होंने तरक्की की है और सुखी हैं, उन्हें कोई नहीं छेड़ता, लेकिन जिन परिवारों ने पढ़ाई का मोल नहीं समझा, उनकी हालत खराब है। मेरे गांव में एक अच्छी बात यह है कि पीडि़त जातियों को पढ़ाई से रोकने का दुस्साहस किसी में नहीं है। गांव के स्कूल में मास्टर भी हर जाति वर्ग से आते हैं, अत: वहां भेदभाव की गुंजाइश न के बराबर है। बिहार गरीबी के लिए बदनाम है, लेकिन जितने भी दिन मुझे गांव में रहने का मौका मिलता है, भयानक किस्म की गरीबी नजर नहीं आती। अभाव जरूर है, लेकिन भूख से किसी की मौत मैंने नहीं सुनी। हालांकि हमारे यहां जब जनेऊ, शादी जैसे अवसर आते हैं, तब मैंने ध्यान दिया है, ढेर सारे गरीब भी अंधेरे में आकर बैठ जाते हैं। बचपन में मुझे आश्चर्य होता था, इतने सारे गरीब कहां से आ जाते हैं, मैं बाबूजी (बड़े पिताजी) से पूछता था, जवाब मिलता था, `ये आसपास के गांव से भी आते हैं। अपने लिए और परिवार के लिए खाना ले जायेंगे ´। जवानों को तो नहीं, लेकिन गरीब बुजुर्गों और बच्चों को मैंने भोजन की प्रत्याशा में बैठे देखा है। हालांकि जूठन की प्रत्याशा में कोई नहीं होता, उन्हें ताजा भोजन ही मिलता है। मुझे ऐसा लगता है, बड़ जातियों को सम्मानजनक रूप से भोजन करते देखने और जल्दी से जल्दी भोजन प्राप्त करने के लिए जमीन पर बैठे उत्सुक लोग जाति से कम और गरीबी से ज्यादा मजबूर होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्राह्मण व अन्य सवर्णों में जो गरीब होते हैं, वे भी सम्मानजनक रूप से भोजन करते हैं और उनमें श्रेष्ठता का गुरूर कुछ ज्यादा ही होता है। गरीब सवर्ण बहुत मुस्तैदी से अपनी जाति का अहसास कराता है। उसे लगता है, गरीबी के बावजूद जाति ही है, जो उसके श्रेष्ठता बोध को बचाती है और गरीब दलितों से ऊपर रखती है। नए दौर में जाति अमीरों की जरूरत नहीं रही, लेकिन यह सवर्ण गरीबों की जरूरत है।

क्रमश :

2 comments:

सतीश पंचम said...

जूठन से ओमप्रकाश वालम्कि के उपन्यास की याद आ गई, ऐकदम आपके बताऐ घटनाक्रम से मेल खाता, अच्छा लेख लिखा।

Gyanesh upadhyay said...

satish jee sukriya