Friday 12 February, 2010

कुम्भ में हम


अगर आपने कुंभ नहीं देखा, तो आप यह नहीं जान पाएंगे कि मेला क्या होता है? मेला केवल टिक्की, चाट, समोसे, जलेबी, पिज्जा, बर्गर, झूला, बैलून, चरखी बिकने का स्थान नहीं है। मेला तो व्यापक है। मेला तो जितना बाह्य है, उससे कहीं ज्यादा आन्तरिक है। जो मेला पावन तपस्वियों की ह्रदय परिधि में पहले लगता है और बाह्य व्यवस्थाएं बाद में बनती हैं, वही सच्चा मेला है, वही अच्छा मेला है और बस वही काम का मेला है।
मेरी बड़ी इच्छा थी, कुंभ मेला देखूं। जन्म कुछ सार्थक करूं, तो इस बार 5 फरवरी को हरिद्वार गया। सोचा था, साधुओं के रामानन्द आश्रम में रहूंगा, लेकिन आश्रम में केवल साधु विराजमान थे। तरह-तरह के साधु। हर उम्र के साधु। भभूत लपटते, ध्यान करते, धूनी रमाते वैरागी अर्चनालीन, रामभक्त रामानन्दी सीधे-सादे साधु। परिवार मेरे साथ था। साधुओं को अटपटा लगता, तो आश्रम के सामने ही एक होटल में साधुओं ने ही ठहरवा दिया। आश्रम के प्रमुख महामण्डलेश्वर श्री भगवानदास जी का यह आदेश था। आश्रम में ठहरने की इच्छा अधूरी रही, मन थोड़ा भारी हुआ। खैर, सुबह ही हम कमरे से निकल जाते थे। भोजन का समय होता, तो साधु अपने चेलों को हमें बुलाने भेजते थे। ठीक साढ़े आठ बजे रात घंटी बजती थी, साधुओं को भोजन-प्रसाद का समय बताती। मेरी भी इच्छा थी, एक बार मैं भी भोजन प्रसाद ग्रहण करूं। तो सात फरवरी की रात पात में बैठे सैकड़ों साधुओं के समीप मैं भी जा बैठा सपरिवार। पत्तल आया, गिलास आया। फिर आई बहुत ही स्वादिष्ट खिचड़ी, पत्ता गोभी की सब्जी और चपाती, अचार। जितना मन करे, उतना छकिए, कोई रोक नहीं। आनन्द हो गया। शायद कोई सुकर्म फलीभूत हुआ हो, वर्ना साधुओं के हाथ का बना प्रसाद साधुओं के हाथों से प्राप्त करना कहां-कितनों को सम्भव होता है?
महात्मा रामानन्द जी कण-कण में राम देखते थे, आज भी परंपरा जीवित है। कोई भी बैठे पात में प्रसाद सबको मिलेगा, न जात पूछी जाएगी, न पन्थ। स्वभाव में इतनी निर्मलता कि रामानन्दी साधु एक दूसरे को महात्मा या सीताराम कहकर संबोधित करते हैं। अरे महात्मा ये क्या कर रहे हैं, नल तो बन्द कीजिए। लगता है सीताराम सो गए हैं। ऐसे मीठे वाक्य सुनकर आज भी यादें गदगद हैं।
निस्सन्देह, अब मैं सबको बता सकूंगा कि कुंभ से मैंने क्या पहला श्रेष्ठ अनुभव प्राप्त किया।

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

अच्छा संस्मरण! बस ऐसे ही बताते जाइए!