Monday, 30 December 2019

स्कूल ने निकाला तो हुनर याद आया

रिचर्ड ब्रेंसन 
(मशहूर उद्यमी)


पढ़ाई उस लड़के के लिए एक ऐसा मुश्किल पहाड़ थी, जिस पर चढ़ना नामुमकिन था। पढ़ाई में आलम ऐसा था कि हर राह-मंजिल पर डांट-फटकार बरसती रहती थी। गणित देखकर दिमाग पैदल हो जाता, विज्ञान सिर के ऊपर से निकल जाता, भाषा ऐसे लंगड़ाती कि पूरे ‘रिजल्ट’ को बिठा देती। कई बार ऐसी पिटाई की नौबत आन पड़ती कि अपना भूगोल ही खतरे में पड़ जाता। हाथ भले पढ़ाई में तंग था, लेकिन दिमाग में बदमाशियां इफरात थीं। हरकतें ऐसी थीं कि एक दिन प्रिंसिपल साहब ने यहां तक कह दिया, ‘यह लड़का या तो जेल पहुंचकर मानेगा या फिर करोड़पति बन जाएगा।’ शिक्षकों ने बहुत पढ़ाया-समझाया, प्रिंसिपल ने भी लाख कोशिशें कीं, लेकिन पढ़ाई उस लड़के के पल्ले नहीं पड़ी, और अंतत: वह दिन आ गया, जब वह लड़का स्कूल से बाहर कर दिया गया। उम्र महज 15 साल थी, मैट्रिक का मुकाम भी दूर रह गया। पढ़ाई छूट गई, अब क्या होगा? मां बैले डांसर थीं और कभी एयर होस्टेस रही थीं। पिता काम लायक भी कामयाब नहीं थे। ऐसे में घर का बड़ा लड़का ही पटरी से उतर गया। जो लोग पढ़ाई के लिए कहते थे, वही पूछने लगे कि अब यह लड़का क्या करेगा? 

एक दिन वह लड़का उसी छूटे स्कूल के बाहर बैठकर सोच रहा था। बाकी लड़के स्कूल जा रहे थे। उनमें से कुछ शायद मुस्करा भी रहे थे। दुनिया में ऐसे लोग बहुत हैं, जो सिर्फ किसी की नाकामी का इंतजार करते हैं, घात लगाए बैठे रहते हैं कि कब किसी को नाकामी का घाव लगे और उस पर नमक छिड़का जाए। ऐसी निर्मम दुनिया में स्कूल ने उसे ऐसे ठुकरा दिया था कि किसी दूसरे स्कूल में दाखिले की सोचना भी फिजूल था। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? वह क्यों न पढ़ सका? कहां कमी रह गई? क्या जिंदगी में आज तक हर काम बुरा ही किया है? वहां बैठे-बैठे पहले तो वह लड़का अपनी तमाम बुरी यादों से गुजरा। बीते लम्हों के हादसों के तमाम मंजर जब खर्च हो गए, तब सोच की सही लय लौटी। दिलो-दिमाग में सवाल पैदा हुआ, क्या आज तक की जिंदगी में कभी उसे तारीफ मिली है? वह कौन-सा काम था, जिसके लिए उसे तारीफ मिली थी? आखिर ऐसा कोई तो काम होगा? फिर उसे याद आया कि उसने एक बार स्कूल की पत्रिका के प्रकाशन में शानदार योगदान दिया था, जिसके लिए उसे सबसे तारीफ हासिल हुई थी। जिसके हाथ में भी वह पत्रिका गई थी, लगभग सभी ने उसेबधाई दी थी।

पत्रिका का प्रकाशन अकेला ऐसा काम था, जिससे उस लड़के को कुछ समय के लिए ही सही, स्कूल में शोहरत नसीब हुई थी। लड़के ने अपना हुनर खोज लिया था, उसे अपनी काबिलियत दिख गई थी। उसे लग गया था कि यही वह काम है, जो वह सबसे बेहतर कर सकता है। वह उठा, पूरे जोश के साथ स्कूल के अंदर गया और अभिवादन के बाद प्रिंसिपल से बोला, ‘सर, आप कहते हैं, मैं कुछ नहीं कर सकता, लेकिन एक काम है, जो मैं बेहतर कर सकता हूं, जिसके लिए मुझे आपसे तारीफ भी मिल चुकी है। मैं छात्रों के लिए एक अच्छी पत्रिका निकालूंगा। आपसे मदद की उम्मीद रहेगी।’ प्रिंसिपल भी उसका जोश देख खुश हो गए। उन्होंने लड़के को मदद के आश्वासन और शुभकामनाओं के साथ विदा किया। फिर क्या था, वह लड़का दिन-रात पत्रिका की तैयारी में जुट गया। पैसा, संसाधन, सामग्री, सहयोग इत्यादि वह जुटाता गया। छात्रों को ही नहीं, उनके अभिभावकों को भी अपने शीशे में उतारने में वह लड़का इतना माहिर था कि सभी ने मिलकर उसकी मदद की और सवा साल की बेजोड़ मेहनत के बाद उसकी पत्रिका स्टूडेंट  का पहला अंक 1 जनवरी, 1968 को बाजार में आ गया। वह पत्रिका छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के बीच हाथों-हाथ ऐसी बिकी कि सबने उस 17 साल के लड़के रिचर्ड ब्रेंसन को सिर-आंखों पर बिठा लिया। 

ब्रेंसन बहुत कम उम्र में दूसरों के लिए नजीर बन गए। वह समझ गए थे, जिंदगी में वही काम करना चाहिए, जो हम सबसे बेहतर कर सकते हैं या जिसमें हम सबसे ज्यादा हुनरमंद हैं या जिसके लिए लोग हमारी तारीफों के पुल बांधते हों। ब्रेंसन के एक हुनर ने उनके लिए आगे बढ़ने की ऐसी राह बना दी कि उन्होंने कभी पलटकर नहीं देखा। आज वह वर्जिन ग्रुप की 400 से ज्यादा सफल कंपनियों के मालिक हैं और दुनिया के मशहूर अमीरों में उनकी गिनती होती है। नाकामियों से निकलने के लिए अपने गिरेबां में कैसे झांकना पड़ता है, रिचर्ड ब्रेंसन इसकी बेहतरीन मिसाल हैं। गौर कीजिएगा, जिस लड़के को कभी स्कूल से निकाल दिया गया था, उस लड़के की कामयाबी आज दुनिया के तमाम सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। -

जीते जी छप गई मौत की खबर

अल्फ्रेड नोबेल (वैज्ञानिक-उद्यमी)


जिंदगी है, तो इम्तिहान भी हैं। एक इम्तिहान खत्म, तो दूसरा शुरू। इस बेरहम दुनिया में इम्तिहान मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते। अच्छा है, आदमी ऐसे चला जाता है कि फिर नहीं लौटता यह देखने कि दुनिया ने उसे आखिरी इम्तिहान में पास किया या फेल? लेकिन यहां तो अजीब ही वाकया हो गया। आदमी जिंदा था और अखबार में उसकी मौत की सुर्खियां थीं। आदमी अपनी ही मौत की खबर पढ़ रहा था। खबर का शीर्षक था, ‘मौत के सौदागर की मौत।’ खबर ऐसे लिखी गई थी, मानो दुनिया उसकी मौत के इंतजार में बैठी थी और उसकी मौत से सबने राहत का एहसास किया। उस आदमी को लग रहा था कि दुनिया उसका आखिरी इम्तिहान ले चुकी है, जिसमें उसे फेल कर दिया गया है और उसे ढंग से शोक संवेदना भी नसीब नहीं हो रही है।  

वह आदमी कोई और नहीं, बल्कि अल्फ्रेड नोबेल थे, जिनकी दौलत और नाम से आज दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान दिया जाता है। दरअसल, 13 अप्रैल, 1888 को छपी वह खबर गलत थी। मौत अल्फ्रेड नोबेल की नहीं, बल्कि उनके बड़े भाई लडविग नोबेल की हुई थी। नोबेल बंधुओं में सबसे कामयाब लडविग दुनिया के चुनिंदा अमीरों में एक थे, पर अल्फ्रेड के लिए गुस्सा इस कदर था कि उनकी मौत की खबर छप गई। उस लम्हे ने अल्फ्रेड को हिलाकर रख दिया, क्या दुनिया उसके बारे में इतना खराब सोचती है? अल्फ्रेड आजीवन अकेले रहे थे। पूरी जिंदगी वैज्ञानिक जुनून और तिजारत पर कुर्बान थी। अरब-खरब में दौलत थी, पर कुल जमा जिंदगी का निचोड़ यह कि ‘मौत के सौदागर की मौत।’

उन लम्हों में बड़े भाई की मौत का गम तो था ही, पर छोटे भाई एमिल की मौत भी ख्यालों में उमड़ने लगी। एमिल नोबेल परिवार में कॉलेज जाने वाले पहले सदस्य थे। प्रयोगों में बड़े भाई अल्फ्रेड की मदद करते थे। उन दिनों नाइट्रोग्लिसरीन से ताकतवर और इस्तेमाल के काबिल विस्फोटक बनाने की जद्दोजहद जारी थी। इस खोज की कमान अल्फे्रड के हाथों में थी। ऐसे तरल विस्फोटक को मुकम्मल रूप दिया जा रहा था, जिसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना ज्यादा आसान हो। उस दिन न जाने क्या कमी रह गई, प्रयोगशाला में भयंकर विस्फोट हुआ। वह दिन था,  3 सितंबर, 1864, इस हादसे में छोटा भाई चार सहयोगियों के साथ शहीद हो गया। महज इत्तफाक था कि तब अल्फ्रेड वहां मौजूद नहीं थे। तब भी अखबारों ने इस खोज के खिलाफ बहुत छापा, पर अल्फ्रेड पर कोई असर नहीं हुआ। अपने सबसे छोटे बेटे को खोकर पिता तो इतने गमजदा हुए कि इस खोज से ही पीछे हट गए, लेकिन उन दिनों अल्फ्रेड पर मानो जुनून सवार था। वह हादसे भुलाकर आगे बढ़े और लगभग तीन साल की मेहनत से एक मुकम्मल विस्फोटक डायनामाइट ईजाद करने में कामयाब हो गए।

अल्फ्रेड को विस्फोटक और हथियार बनाने का ऐसा चस्का था कि वह लगातार अपनी धुन में लगे रहे। कभी पलटकर नहीं सोचा कि दुनिया उनके बारे में क्या सोचती है। खदानों और पत्थर तोड़ने में तो डायनामाइट और अन्य विस्फोटक काम आते ही थे, जंगों में भी उनके विस्फोटक लोगों की मौत का सामान बनने लगे थे। सबसे बढ़कर यह कि अल्फ्रेड को अपने ऐसे आविष्कारों पर बड़ा गुरूर था। सोचने का ढंग ही अलहदा था। वह आसानी से दूसरों को नाराज कर देते थे। सच बोलने वालों से एक बार ऐसी चिढ़ हुई कि कह दिया, सच्चा आदमी आमतौर पर झूठा होता है। उम्मीद को सच की नग्नता छिपाने का परदा मानते थे। 

आगे बढ़ने के लिए अल्फ्रेड ने किसी की परवाह नहीं की थी। अपनी मौत की खबर पढ़कर उस दिन निर्मम-निराशावादी इंसान का सामना पहली बार इस बात से हुआ था कि दुनिया उससे नफरत करती है। जब भी दुनिया में उसके बनाए विस्फोटकों से कोई मारा जाता है, लोग उसे कोसते हैं। विस्फोटकों ने युद्ध को बदल दिया है। अब युद्ध में वीरता की नहीं, धोखे की जीत होने लगी है। जो पहले डायनामाइट बिछा गया, वह जीत गया। उस फ्रेंच अखबार ने उस दिन बिना रियायत यह भी लिखा था, ‘यह वही आदमी है, जो पहले से ज्यादा तेजी से अधिक लोगों को मारने के तरीके खोजकर अमीर हुआ है।’ 

उस दिन अल्फ्रेड की जिंदगी तो नहीं बदली, लेकिन उनकी सोच के ढांचे दरक गए। वह छवि सुधार की कोशिशों में लग गए, ताकि दुनिया उन्हें अच्छे रूप में भी याद करे, और आखिरकार अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने देशों की सीमाओं से परे दुनिया के योग्यतम लोगों को नोबेल सम्मान देने का फैसला किया। उनकी ही दौलत से नोबेल सम्मान बंटते 118 साल बीत चुके हैं। सभ्य दुनिया में अब कोई नहीं कहता कि अल्फ्रेड नोबेल मौत का सौदागर 

डर को धूल चटाकर जीता आसमान



सबिहा गोचेन (पहली महिला फाइटर पायलट)


क्रांति होती है, देश आजाद होता है, तो सारे लड़के एक साथ आजाद हो जाते हैं, लेकिन क्या लड़कियां भी वैसे ही आजाद होती हैं? दुनिया में लड़कियों को क्यों अनसुना कर दिया जाता है? लड़कों की किस्मत में सब कुछ है और लड़कियों की किस्मत में सिर्फ रसोई, गुलामी और सबकी सेवा? और ऊपर से यह सवाल भी कि लड़कियां आखिर करती क्या हैं? लड़कों की जिंदगी बढ़ती है, लेकिन लड़कियों की ठहरी-सी रहती है, जैसी मेरी ठहरी है? तुर्की देश के बुर्सा शहर में 12-13 साल की अनाथ लड़की सबिहा के मन में ऐसे ही ख्याल उमड़ते रहते थे। नए गणराज्य तुर्की में जश्न का माहौल था, लेकिन सबिहा की जिंदगी गम के स्याह अंधेरे में थी। अर्मेनिया नरसंहार में मां की गोद छिन गई, पिता का साया न रहा, तो किस्मत ने अनाथालय ला पटका, जहां खैरात से टुकड़ा भर रोटी और टुकड़ा भर पढ़ाई नसीब होने लगी थी। उस बच्ची की जिंदगी में सब कुछ टुकड़ा-टुकड़ा था, सिवाय गम के। वह दूसरे बच्चों को सज-धजकर अच्छे स्कूलों में जाते देखती, तो उसके आंसू बह निकलते। काश! मैं भी अच्छे स्कूल जाती, अच्छे कपड़े पहनती, अच्छी जगह रहती। 

संयोग की बात है, उन्हीं दिनों तुर्की गणराज्य के संस्थापक राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा बुर्सा आए हुए थे। जहां वह ठहरे थे, वहां उन्हें आते-जाते सबिहा रोज दूर से देखती थी। मिलने की इच्छा जागती। अब पूरे देश के पिता मुस्तफा क्या एक अनाथ, लाचार, गरीब और अकेली लड़की की सुनेंगे? कई बार उसके कदम उठते, लेकिन फिर ठहर जाते। कभी डर का बोझ बढ़कर बैठा देता, तो कभी हिचक पांव में बेड़ियां डाल देती। कुछ दिन ऐसे ही चला। पता नहीं कब, राष्ट्रपति राजधानी अंकारा के लिए निकल जाएंगे? अभी मिल पाने की थोड़ी गुंजाइश है, लेकिन बाद में हो सकता है, उन्हें देखना भी नामुमकिन हो जाए। लेकिन एक दिन, हिचक और डर को दरकिनार कर सबिहा चल पड़ी, जो होगा, देखा जाएगा, कोशिश तो करूं कि जिंदगी में आगे कोई अफसोस न रहे। वह बढ़ती गई, सुरक्षा घेरों को बेहिचक-बेरोक पार करती गई। उसने महसूस किया कि जब कोई आत्म-विश्वास से भरपूर चलता है, तो दुनिया भी नहीं टोकती। उसने आगे बढ़कर राष्ट्रपति का अभिवादन किया और कहा, ‘मुझे आपसे बात करनी है?’ राष्ट्रपति ने गौर किया, एक छोटी लड़की कुछ कहना चाहती है, ‘क्या बात है?’

‘मदद मांगने आई हूं। आप सबके लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगे? मेरा कोई नहीं है, अनाथ हूं, गरीब हूं, लेकिन मैं बोर्डिंग स्कूल में पढ़ना चाहती हूं। हिम्मत जुटाकर आपके पास बहुत आस लिए आई हूं, मेरे लिए कुछ कीजिए..।’ देखने वाले चकित थे, कहां से आ गई यह लड़की,  लेकिन वह तो सिर्फ राष्ट्रपति को देख रही थी, तब दुनिया को क्या देखना? वर्षों बाद जो शख्स गौर से दुखड़ा सुन रहा था, उसे निडर होकर लड़की सुनाए जा रही थी। पूरी बातें सुनने के बाद राष्ट्रपति ने उस अनाथ के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘अब तुम अनाथ नहीं हो, आज से मैं तुम्हारा पिता हूं। चलो उस घर, जहां तुम्हारा यह पिता रहता है।’ अनाथालय से राष्ट्रपति भवन के बीच यही वह छोटा-सा लम्हा था, जिसने हिचक और डर को धूल चटाकर सबिहा की जिंदगी को आमूल-चूल बदल दिया। वह राष्ट्रपति भवन में अकेली नहीं थीं, उनकी करीब तेरह बहनें और एक भाई साथ रहते थे। सबको राष्ट्रपति ने गोद ले रखा था, लेकिन इन सभी में सबसे खास निकली सबिहा। अच्छी पढ़ाई, अच्छी संगत में जिंदगी संवर गई। जब वह 21 की हुई, परंपरागत पढ़ाई पूरी होने वाली थी, तब पिता ने नाम दिया, सबिहा गोचेन। गोचेन का अर्थ है- आसमानी अर्थात आकाश का।

इस नाम ने सबिहा को नई ऊर्जा से भर दिया। पिता एक बार वायु सेना के करतब दिखाने ले गए। सबिहा के दिमाग में पायलट बनने का जुनून सवार हो गया। पिता ने हामी भर दी। फिर शुरू हुई पुरुषों में अकेली महिला पायलट की ट्रेनिंग। सीखते-सीखते सबिहा दुनिया की पहली महिला फाइटर पायलट बन गईं। दुश्मनों पर बम बरसाने और कामयाब लौटने का उनका रिकॉर्ड दुनिया भर में पायलटों और महिलाओं को प्रेरित करता है। सबिहा की जिंदगी आज भी साबित करती है कि लड़कियां डर और हिचक के पार निकल जाएं, तो शक्ति बन जाती हैं। सबिहा जैसी बेटियों और माताओं ने ही मुस्तफा को प्रेरित किया और महिलाओं को मताधिकार देने वाला तुर्की दुनिया का अग्रणी देश बना। सबिहा हमेशा मिसाल रहेंगी। उनके जिंदा रहते ही तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में विशाल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बना, जिसका नाम रखा गया : सबिहा गोचेन इंटरनेशनल एयरपोर्ट। 

प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय

साहबी ऐसे छूटी कि फिर न लौटी


राजेंद्र प्रसाद, आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति


बाबू साहबों का वहां बड़ा जलवा था। एक से बढ़कर एक बाबू साहब! उनकी गिनती के लिए उनके डेरों से कुछ दूर बैठना पड़ता था। सुबह से रात तक चूल्हों से उठते धुएं की लड़ियां गिनने से पता चल जाता था, जितने चूल्हे जल रहे हैं, उतने ही बाबू साहब लोग आराम फरमा रहे हैं। आज से 102 साल पहले अंग्रेजों के गुलाम भारत के चंपारण में यही तो हो रहा था, जिसे मोहनदास करमचंद गांधी नाम के वकील सहन नहीं कर पा रहे थे। खास तो यह कि वे सभी बड़े साहब या बड़का बाबू लोग भी वकील थे। नील उत्पादक किसानों को न्याय दिलाने की लड़ाई में शामिल होने गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण आए थे। ऐसे-ऐसे वकील कि उस जमाने में महज सलाह देने के 10 हजार रुपये तक वसूल लेते थे। क्या मजाल कोई एक रुपये की भी रियायत ले जाए। 


देश के योग्य और विद्वान वकील ऐसे बिखरे हुए थे, तो देश के आम लोग कितने बिखरे हुए होंगे? एक दिन रहा नहीं गया, तो गांधीजी ने वकीलों को फटकारा, यहां हम आठ-दस अपनी ही मंडली के साथी साथ भोजन नहीं कर सकते, सबका भोजन साथ पक नहीं सकता, तो क्या हम करोड़ों देशवासियों को एकजुट कर पाएंगे? हम आंदोलन के लिए आए हैं, लेकिन यहां किसानों और अंग्रेजों को क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यहां हम यह बताने आए हैं कि हम कितने बंटे हुए हैं, हमारा दाना-पानी भी साथ संभव नहीं है?


गांधीजी की इस फटकार ने स्तब्ध कर दिया। शानदार कपड़े और रहन-सहन के शौकीन मालदार वकीलों के लिए यह फटकार बिल्कुल नई बात थी। वकील मंडल में हर एक का अपना रसोइया था और हर एक की अलग रसोई। वे 12 बजे रात तक भोजन करते, मनमाना खाना खाते, लेकिन उस दिन गांधीजी की अकाट्य दलील के आगे सारे वकील निरुत्तर हो गए। उन्हीं वकीलों में 33 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे, जो जाति-पांति के भेद को मुस्तैदी से मानते आए थे। ब्राह्मण छोड़कर किसी दूसरी जाति के आदमी का छुआ दाल-भात इत्यादि, जिसे कच्ची रसोई भी कहते हैं, कभी नहीं खाते थे। राजेंद्र प्रसाद सामंती सुविधाओं में रचे-बसे थे। स्कूल-कॉलेज के दिनों में ही छपरा से कलकत्ता (अब कोलकाता) तक, उनके साथ विशेष नौकर-चाकर रहते थे। आदत से मजबूर, वह चंपारण में आंदोलन करने गए, तो वहां भी नौकर और रसोइया ले गए। सच है कि गांधीजी ने उस दिन बुरी तरह डांटा था, सहयोगी वकील साथ छोड़ जाएंगे, ऐसा खतरा था। संकेत स्वयं गांधीजी की जीवनी में है, उन्होंने संभलते-संभालते लिखा है, ‘मेरे और मेरे साथियों के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गई थी कि हममें कभी गलतफहमी हो ही नहीं सकती थी। वे मेरे शब्दबाणों को प्रेम-पूर्वक सहते थे।’ 


बेशक विद्वान वही है, जो किसी अनुभवी की फटकार से भी सीखता हो। गांधीजी की यह बात राजेंद्र प्रसाद के मन में बैठ गई, ‘जो लोग एक काम में लगे हैं, मान लो कि वे सब एक जाति के हैं।’ गांधी जी की फटकार के बाद तमाम रसोइयों की विदाई हो गई थी। भोजन संबंधी नियम बने, जिनका पालन अनिवार्य कर दिया गया। सब निरामिषहारी नहीं थे, लेकिन तब भी दो रसोई की सुविधा नहीं रखी गई। एक ही रसोई रह गई, जिसमें मात्र निरामिष भोजन पकता था। भोजन सादा रखने का आग्रह था, इससे आंदोलन के खर्च में भी बड़ी बचत होने लगी। काम करने की शक्ति बढ़ी और समय की भी बचत हुई। राजेंद्र प्रसाद के चिंतन और जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। लगभग सप्ताह भर की सोचकर चंपारण गए थे, लेकिन वहां आंदोलन और समाज सेवा का काम ऐसे फैला कि महीनों बीत गए। जब लौटे, तो पटना में घर पर नौकर-चाकर सब यथावत इंतजार में थे, लेकिन उनका मजा पहले जैसा नहीं रह गया था। वह पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर, सहज और सरल बन गए थे। तीसरे दर्जे में सफर की आदत पड़ गई थी। जहां तक हो सके, पैदल ही चलकर पहुंचने लगे थे। 


चंपारण के उन लम्हों को याद करते हुए उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है, ‘हम सब लोग एक-दूसरे की बनाई रसोई खाने लगे, जबकि हममें कई जातियों के लोग थे। जिंदगी में सादगी भी बहुत आ गई। अपने हाथों से कुएं से पानी भरना, नहाना, कपड़े साफ कर लेना, अपने जूठे बर्तन धोना, रसोई घर में तरकारी बनाना, चावल धोना इत्यादि सब काम हम खुद किया करते।’ 


अपने सारे काम खुद करने वाले राजेंद्र प्रसाद आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। वह तमाम वैभवों से घिरे देश के सर्वोच्च पद पर रिकॉर्ड 12 
साल रहे, लेकिन चंपारण में ‘साहबी’ ऐसे छूटी कि फिर ख्वाब में भी न लौटी।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

Sunday, 10 November 2019

पूरब देश उड़ चला परिंदा

इब्न बतूता, यायावर
भय से बुरा हाल था। आसमान में तेज हवाओं के बीच भी पसीने का आलम था। एक बहुत बड़ा परिंदा अपने पंख फैलाए पूरब की ओर उड़े जा रहा था और उसके पंखों में फंसा इंसान मजबूर था। फर्र-फर्र करते पंखों के बीच थर्र-थर्र कांपते इंसान के हाथ में कुछ नहीं था। कूदकर भागना तो दूर, नीचे देखना भी दुश्वार था। आसमान में खूब ऊंचाई पर पक्षी कभी इधर मुड़ता, कभी उधर मुड़ता, लेकिन कुल सफर तो पूरब की ओर ही था। एक बेहतर इंसान उम्मीद की डोर से बंधा होता है, यही सोचता है कि कभी न कभी तो यह परिंदा मुझे जमीन पर उतारेगा या यह भी हो सकता है, थोड़ा नीचे आए, तो मैं ही कूद भागूं। खूब देर तक परिंदा उड़ता गया और पूरब की ओर एक सघन हरे-भरे अनूठे देश पर उड़ने लगा और फिर धीरे से जमीन पर आकर उसने उस इंसान को उतरने दिया। इंसान के उतरते ही परिंदा फिर उड़ चला। इंसान की मुसीबतें कभी खत्म नहीं होतीं, एक मुसीबत गई, तो दूसरी सताने लगी कि परिंदा तो छोड़कर जा रहा है। घबराया इंसान जोर-जोर से पुकारने लगा, ओ परिंदे, ओ यायावर सुनो, रुको, मुझे यहां अनजाने इलाके में न छोड़ जाओ... रुको... ठहरो...।
...और वह इंसान उठ-बैठा, ख्वाब टूट गया। आज से करीब 700 साल पहले जिसने यह ख्वाब देखा था, दुनिया आज उसे इब्न बतूता के नाम से पहचानती है। इधर कुछ दिनों से यही होता आया था, जब भी नींद आती, यही ख्वाब लौट आता और जब ख्वाब टूटता, तो नींद उड़ जाती। यह क्यों आता है? खैर, उस रात यह ख्वाब मिस्र के अलेक्जेंड्रिया में तब आया था, जब इब्न बतूता एक सूफी शेख मुर्शीदी के डेरे की छत पर आराम फरमा रहे थे। कहते हैं, अच्छे संत इसलिए जागते हैं कि दुनिया ढंग से सो सके। जब ख्वाब टूटा, तब भी शेख मुर्शीदी जाग रहे थे, उन्हें हलचल-सी लगी, तो उन्होंने आवाज लगाकर बतूता से पूछा, ‘क्या हुआ? सब ठीक तो है?’ बतूता भी मानो इंतजार में थे। बार-बार आने वाले ख्वाब का किस्सा सिलसिलेवार सुना डाला और पूछा, ‘हुजूर, मतलब बताइए, यह क्या ख्वाब है?’ शेख मुर्शीदी ने लाजवाब मुस्कान के साथ कहा, ‘तुम्हें पूरब देश जाना है। उस ओर तुम्हारे कदम और पड़ाव तुम्हारी किस्मत में दर्ज हैं?’ बतूता की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘पूरब, मतलब एशिया... भारत...?’ शेख ने मुस्कराकर कहा, ‘नहीं जाओगे, तो शायद तुम्हारा ख्वाब और तुम्हारे ख्वाब का र्पंरदा तुम्हें चैन नहीं लेने देगा।’
गौर करने की बात है, उन्हीं दिनों बतूता को अलेक्जेंड्रिया में ही एक और सूफी संत बुरहम-अल-दीन मिल गए। चर्चा चली, तो पूरब देश पहुंच गई। पूरब की चर्चा करते संत की आंखों में चमक बेमिसाल हो गई। वह पूरा पूरब घूम चुके थे। संत ने बतूता से कहा, ‘लगता है, तुम्हें दूर देश घूमने का बड़ा शौक है। तो सुनो, जब तुम सिंध पहुंचना, तो मेरे भाई रुकोनुद्दीन से मिलना, भारत में भाई फरीदुद्दीन से मिलना और जब चीन पहुंच जाओ, तो वहां तुम्हारी मुलाकात भाई बुरहानुद्दीन से होगी। इनको मेरा हाल सुनाना, कहना, मैं बहुत याद करता हूं।’ 
बतूता का मन खुशी से झूम उठा कि क्या लाजवाब संत है, दुनिया देख रखी है और दुआ कर रहा है कि मैं भी दुनिया देखूं। जिंदगी को मानो मकसद मिल गया। 1304 ई. में इब्न बतूता तेंजियर, मोरक्को में जन्मे थे। 1325 में वह हज के लिए घर से निकले। लगभग एक साल में 3,500 किलोमीटर का सफर तय कर वह अलेक्जेंड्रिया पहुंचे थे, अभी मक्का-मदीना काफी दूर थे। कभी गधे पर, कभी घोड़े, कभी ऊंट, कभी नाव से और कभी पैदल ही, कभी अकेले, कभी किसी कारवां के साथ बढ़ते रहे। वह मक्का-मदीना पहुंचे, तो वहीं दो-तीन साल रह गए, लेकिन अलेक्जेंड्रिया के वो लम्हे, वो संत उन्हें हमेशा पूरब की ओर जाने के लिए उकसाते रहे और एक दिन वह निकल पड़े। ठीक वैसे ही, जैसे इधर-उधर मुड़ता पक्षी पूरब देश में उतरा था। उनके पैरों में मानो पंख लगे थे। 1332 के आसपास भारत पहुंच गए। यह वही देश था, जहां ख्वाब वाला परिंदा उन्हें बार-बार उतार जाता था। वह बहुत अच्छे खानदानी काजी थे। दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में काजी हो गए। यहां उनकी जिंदगी के आठ बेहतरीन साल बीते और फिर यहां से वह चीन के लिए निकल गए, वैसे ही इधर-उधर मुड़ते-घूमते। आखिरकार करीब 30 साल यायावरी के बाद घर लौटे। उन्होंने 44 देशों को देखा और 1,20,000 किलोमीटर से भी ज्यादा का सफर तय किया। मोरक्को के सुल्तान के हुक्म पर वह अपने लंबे सफर का पूरा किस्सा करीब दो वर्ष तक सुनाते रहे, जिसे इब्न जूजे ने लिखा। किताब बनी- रेहला अर्थात सफर, जिसमें दर्ज हैं सूफी संत और ख्वाब का वह परिंदा।
As published in Hindustan - 21 sept, 2019

उस सजा-ए-मौत ने पीछा नहीं छोड़ा

लियो टॉलस्टॉय
हमें सभ्य होने में सदियां लगी हैं। इन सदियों में खून, पसीने और आंसुओं की अनगिन बूंदें बही हैं, तभी मानवता की मजबूत धारा चली है। मानवता की ऐसी ही धारा में फ्रांस का शहर पेरिस आज दुनिया के शालीनतम शहरों में शुमार है, लेकिन कभी पेरिस भी बर्बरता का गढ़ था। वहां उस सुबह एक खुली जगह पर करीब 15,000 दर्शकों की भीड़ जुटी थी। कभी सन्नाटा पसर जाता, तो कभी कोलाहल। नजरें बार-बार उस युवक की ओर उठ जाती थीं, जिसे घेरे सिपाही खड़े थे। भीड़ में रुक-रुककर फुसफुसाहट फैलती थी कि लुटेरा है, हत्यारा है, शक्ल से सामान्य लगता है, लेकिन कर्म बुरे हैं, तो सिपाही पकड़ लाए हैं। जज ने फैसला सुना दिया है और सजा का तमाशा देखने भीड़ जुटी है।

एकाएक सन्नाटा गहरा हो जाता है, एक तीखी चीख गूंजती है, धारदार तलवार चलती है और उस युवक का सिर धड़ से अलग जमीन पर जा गिरता है। कुछ लोग देख पाते हैं, कुछ नजरें चुरा लेते हैं, तो कुछ तत्क्षण निकल पड़ते हैं। उसी भीड़ में नौजवान लियो टॉलस्टॉय भी हैं, बुरी तरह स्तब्ध। पल भर में गर्दन नीचे उतर आई! नीचे उतरकर भी आंखें कुछ देर देखती रहीं, धड़ ढेर होकर कुछ देर पूर्णता को तड़पता रहा। क्या यही इंसानियत है? क्या इन्हीं लोगों को इंसान कहते हैं? क्या इन्हीं का पाप अपने माथे लेकर ईसा मसीह सूली चढ़ गए थे?  एक अजीब-सा दर्द लियो की

नसों में उतरकर ठहर गया। दिल बार-बार पूछने लगा, क्या यही तमाशा दिखाने लाए थे? दिमाग सांत्वना देता, ऐसी सजा का तमाशा कभी देखा नहीं था, इसीलिए आए, तजुर्बा तो हुआ। दिल पूछता, माना कि वह अपराधी था, लेकिन किसी का पुत्र, भाई, पति या पिता भी तो होगा। दिमाग अड़ जाता, कानून अंधा होता है और अपराध करने वाला मात्र अपराधी। दिल तड़पता, यह तो असभ्यता है, ऐसी सजा और वह भी खुलेआम? दिमाग समझाता, ताकि सब देखें, सबक सीखें। उस दिन भीड़ तो तमाशा देखकर निकल गई, लेकिन लियो मानो वहीं ठहर गए। पता नहीं, तमाशा बार-बार लौटता था या लियो खुद उस तमाशे में बार-बार लौट आते थे। कुल मिलाकर, वह सजा-ए-मौत ऐसे साथ लगी कि फिर न छूटी। 

वह वर्ष 1857 का कोई दिन रहा होगा, 28 वर्षीय लियो के दिल और दिमाग में मानवता और तार्किकता की जो जंग शुरू हुई, उसने दुनिया को एक बेहतरीन दानी, समाजसेवी इंसान और साहित्यकार दिया। लियो तो रूसी सैनिक थे, युद्ध लड़ चुके थे। हालांकि उनका मन युद्ध के लिए बना ही नहीं था। युद्ध से छूटे, तो यूरोप घूमने निकले, पेरिस पहुंच गए, बर्बर तमाशा देखा। लियो उस लुटेरे-हत्यारे का नाम भी नहीं भूल पाए, उसका नाम था फ्रांसिस रिचेक्स। लियो ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘मैं सात बजे सुबह उठ गया और एक सरेआम सजा-ए-मौत देखने गया। एक तगड़े, श्वेत, ऊंची गर्दन और तनी हुई छाती वाले व्यक्ति ने एक धार्मिक ग्रंथ को चूमा और फिर... मौत।

कितना संवेदनहीन...? मुझे इसके पीछे कोई मजबूत धारणा नहीं मिली। मैं राजनीति का आदमी नहीं हूं। नैतिकता और कला, प्यार और समझ का मुझे पता है। गिलोटिन (सिर कलम करने का एक तरीका) ने मेरी नींद उड़ा दी और बरबस मेरे दिमाग में लौटती रही। उस तमाशे ने मुझ पर ऐसी छाप छोड़ी कि मैं भुला नहीं पाऊंगा। मैंने युद्ध में कई बार भयावहता देखी है। युद्ध में अगर मेरी मौजूदगी में एक आदमी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता, तो यह उतना खतरनाक नहीं होता, लेकिन यहां तो सरल और सुरुचिपूर्ण व्यवस्था के तहत उन्होंने एक मजबूत, स्वस्थ आदमी को पल भर में मार डाला।... न्यायिक लोग ईश्वर के नियम को निभाने की ढीठ और अभिमानी इच्छा रखते हैं। न्याय उन वकीलों द्वारा तय किया जाता है, जिनमें से हर एक खुद को सम्मान, धर्म और सच्चाई पर खरा मानता है। आदमी के बनाए ऐसे कई नियम बकवास हैं। सच्चाई यह है कि राज्य न केवल शोषण के लिए है, बल्कि मुख्य रूप से अपने नागरिकों को भ्रष्ट करने की एक साजिश भी है।... मेरे लिए राजनीति के नियम-कायदे भयानक झूठ हैं।... मेरी यह मान्यता कम से कम कुछ हद तक मुझे राहत दिलाती है। आज के बाद ऐसी कोई चीज न मैं देखने कभी जाऊंगा और न मैं कभी किसी सरकार की सेवा करूंगा।’ 

वह समाजसेवा को समर्पित हो गए। किताब लिखकर जो भी कमाते थे, दान कर देते थे। राजनीति के प्रति लियो के ऐसे दर्द से ही प्रेरित होकर महात्मा गांधी और अनेक दिग्गज नेताओं ने सत्य-प्रेम-अहिंसा की राजनीति से सभ्यता का नया इतिहास लिख दिया। फ्रांस में 1939 में ही ऐसी सजा का तमाशा थम गया और अब कानून की किताबें भी ऐसी बर्बरता से अपना दामन छुड़ा चुकी हैं।

As Published In Hindustan - 15 Spt- 2019

Monday, 28 October 2019

अच्छा होता, तुम भी सो गए होते

शेख सादी शिराजी

उस दिन ईरान के शिराजी शहर में आसमान पर चांद भरपूर नुमाया था। हवा थोड़ी ठंडक लिए बह चली थी। वैसे भी रेगिस्तान में दिन जहन्नुम-सा तपता है, तो रात जन्नत-सी सजती है। चांद की रोशनी में मानो इल्मो ईमान जाग जाता है। लोग एक दूजे के करीब जुट आते हैं। बालक सादी का कुनबा भी ऐसी रातों में लगभग रोज एक जगह जुट जाता था। अब्बाजान, सारे चचाजान, सगे-चचेरे भाईजान करीब आ जाते थे। फिर शुरू होता पाक कुरान  का पाठ और उस पर चर्चा का दौर। उस दिन भी एक चचाजान जोर-जोर से कुराने पाक का पाठ कर रहे थे। बालक सादी भी अपने पिता के पास बैठकर सुन रहा था। उसने गौर किया कि सुनते-सुनते ज्यादातर चाचा और भाई सोने लगे हैं। कुछ तो गहरी नींद में उतर गए हैं। सादी को बहुत अजीब लग रहा था और एक गर्व भी हो रहा था कि वह खुदा के लिए जग रहा है। सादी ने शायद पूरे बचपने के साथ कहा, ‘अब्बा देखो, सब सो रहे हैं। इन दर्जनों लोगों में से कोई भी पैगंबर के लफ्जों को नहीं सुन रहा है। ऐसे सोएंगे, तो ये लोग कभी अल्लाह तक नहीं पहुंच पाएंगे।’ 

अचंभित पिता अब्दुल्ला शिराजी ने घूरकर देखा कि पुत्र ने तो अपना फैसला ही सुना दिया है। पिता बहुत गुणी थे, वह बहुत नाराज नहीं हुए। उन्होंने प्यार से समझाया, ‘मेरे प्यारे बेटे, अपने ईमान और यकीन के साथ अपनी राह की खुद तलाश करो और दूसरों को अपना ख्याल खुद रखने दो। आखिर कौन जानता है, शायद ये सब सो जाने के बाद अपने सपनों में अल्लाह से बात कर रहे होंगे या अल्लाह को ही देख रहे होंगे। यकीन करो, तुम्हारी बात पर मुझे गम हो रहा है। मुझे ज्यादा अच्छा लगता, अगर तुम भी इन्हीं के साथ सो गए होते, कम से कम तुम्हारे मुंह से फैसले और मजम्मत के इतने बेरहम अल्फाज तो नहीं सुनने पड़ते।’ 
पिता और पुत्र की बातचीत चल रही थी। सोने वाले सो रहे थे, लेकिन बालक सादी मानो किसी नींद से झटके से जाग गया। पिता ने अफसोस भरी नजरों से ऐसे देखा था कि बालक सादी की रूह कांप गई थी। यह नसीहत हमेशा के लिए दिल में उतर गई कि वह कौन होता है, दूसरों का ठेकेदार? अल्लाह ने सबको अलग-अलग बनाया, सब अलग-अलग ही दुनिया में आए, सब अलग-अलग ही रुखसत होंगे। सबकी अपनी अलग राह होगी, तो फिर दूसरे की राह और जिंदगी पर फैसला देने वाला मैं कौन? 

उस लम्हे ने सादी की पूरी जिंदगी और सोच की दशा-दिशा को बदल दिया। उस दिन सादी को शर्म भी बहुत आई थी कि कोई रिश्तेदार अगर उसकी बातों को सुन लेता, तो क्या सोचता? कौन नहीं चाहेगा कि उसके नाते-रिश्तेदार जन्नत जाएं, अल्लाह से बात करें? तब वह महज 11 वर्ष के रहे होंगे, उस रात के कुछ ही दिन बाद पिता का इंतकाल हो गया। पिता के रूप में सादी का सबसे अच्छा उस्ताद भी दुनिया से चला गया, लेकिन दुनिया को इल्म, इश्क, ईमान से लबरेज इंसानियत का एक सच्चा रहनुमा दे गया। दिन-साल गुजर गए, लेकिन सादी उन लम्हों और अपनी उस खता के लिए ताउम्र माफी मांगते रहे। 

आज इल्म की दुनिया में शायद ही कोई होगा, जो शेख सादी शिराजी (1210-1291) को न जानता हो, जो उनकी अनमोल लोकोक्तियों, रुबाइयों को न जानता हो, जो उनकी विश्व प्रसिद्ध रचनाओं बोस्तान  और गुलिस्तान  को न जानता हो। जिंदगी के करीब 25 साल इल्म हासिल करने में गुजारने के बाद 30 साल यायावर के तौर पर दुनिया घूमते रहे। वह अरब, सीरिया, तुर्की, मिस्र, मोरक्को, मध्य एशिया और शायद भारत भी आए थे। पिता ने ऐसा सहिष्णु इंसान बना दिया था कि वह जहां भी जाते, हरदिल अजीज हो जाते। बादशाहों, सरदारों के दरबारों में उनके लिए जगह निकल आती। शेख सादी को उन लम्हों ने इतना विनम्र बना दिया था कि वह किसी भी तरह की बेरहमी, बहस से आसानी से बच निकलते थे। कभी इल्म का घमंड हुआ भी, तो वो लम्हे याद आ गए। कभी कहीं बहस हुई भी, तो उन लम्हों को याद करके खामोश हो गए। 

कई बार अपनी तकरीरों में वह उन लम्हों की कहानी लोगों के सामने दोहराते थे और बताते थे कि कैसे खेल-खेल में ही सहजता से इल्मो अदब की रोशनी फैल जाती है, जैसे उस रात फैल गई थी। शेख सादी फारसी के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं। उनकी जिंदगी का वो लम्हा मुकम्मल गवाह है कि मुस्लिम दुनिया में सकारात्मक सोच का वह स्वर्णकाल कैसा था। कई मुस्लिम वैज्ञानिकों, अदीबों ने दुनिया को कुछ न कुछ देते रहने का सिलसिला-सा बना लिया था। फिरकापरस्तों की दुनिया से अलग वह ऐसी लाजवाब दुनिया बन गई थी, जहां इंसान का कत्ल तो भूल ही जाइए, किसी के ख्वाब-ख्याल का कत्ल भी हराम था।

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एक ख्वाब जिसे दुनिया पहनती है

एलिअस होव, सिलाई मशीन के आविष्कारक

एक भयावह दरबार लगा है, जहां बर्बर राजा के सामने लोग घसीटकर लाए जाते हैं। थर्र-थर्र कांपते, रहम की गुहार में बिलखते। रक्त की प्यासी निगाहें घात लगाए टिकी हैं, शातिर मुस्कान से इस्तकबाल करतीं। मुझे भी घसीटकर लाया जाता है और पटक दिया जाता है। मुकदमा पेश होता है, ‘माय लॉर्ड, ये दोषी मैकेनिक, बता नहीं पा रहा कि सुई की आंख कहां होनी चाहिए।’  मैं घुटनों पर बैठ गिड़गिड़ाया, ‘माय लॉर्ड, मैं दिन-रात बहुत कोशिश कर रहा हूं कि सुई की आंख खोज लूं, लेकिन...’

राजा ने बीच में ही रोककर फरमान सुना दिया, ‘बस बहुत हो गया, महज 24 घंटे का समय दिया जाता है। ये आदमी सुई की आंख नहीं खोज पाए, तो इसे आदमखोरों को सौंप दिया जाए।’ जब आखिरी फरमान ही आ गया, तो फिर फरियाद की गुंजाइश कहां थी? मुझे पकड़कर छोटी प्रयोगशाला में धकेल दिया गया। मरता क्या न करता? मैं फिर खोज में जुट गया।

आखिरी बार युद्ध स्तर पर, बहुत सोचा, तरह-तरह से प्रयोग किए। सुई में जगह-जगह छेदकर देखा कि सही सिलाई में कामयाबी मिल जाए। उंगलियां लहूलुहान हो गईं। बेरहम समय पल-पल रिस रहा था। प्रयोग में बेकार हुई सुइयों का ढेर लग गया। दिमाग ने काम करना मानो बंद कर दिया। बाद में तो घायल उंगलियां हिल भी नहीं पा रही थीं। बीतना ही था, समय बीत गया। फिर क्या, मुझे आदमखोरों को सौंप दिया गया, जो मुझे कहीं निर्जन इलाके में घसीट ले गए। उन आदमखोरों ने मुझे बांध दिया। मेरी ओर अपने भाले दिखा-दिखाकर डराने लगे। देर तक भाले से डराने का दौर चला। भाले जब मेरी देह में चुभे, तब हठात् वह डरावनी दुनिया ओझल हो गई।

यह एक ख्वाब था, जो टूट गया। एक ख्वाब, जो अमेरिकी शहर स्पेंसर के एक कारीगर एलिअस होव देख रहे थे। त्रासद ख्वाब से गुजरकर पसीने से लथपथ वह सोचने लगे कि यह सपना आखिर क्या था? चूंकि वह एक सिलाई मशीन का आविष्कार करने में दिलोजान से जुटे थे, तो सोते-जागते हर समय उन्हें सिलाई के औजार ही दिखते थे। सिलाई से जुड़ा औजार है सुई और सुई जैसा ही भाला। अचानक ख्वाब में दिखे भालों पर उनका ध्यान गया। भाले कैसे थे? क्या उनकी नोक में छेद था? यह खयाल आते ही एलिअस होव बिस्तर से उछलकर उठे। सुबह के चार बज रहे थे। तत्काल अपनी प्रयोगशाला में घुसे और एक सुई की नोक में उन्होंने छेद किया। उसे सिलाई मशीन में लगाया और धागा लगाकर आजमाया। सुई धागे को बहुत सफाई से कपड़े के नीचे ले जाती और सिलकर ऊपर आ जाती। सिलाई भी निखर उठी।

कामयाबी एलिअस के कदमों में आ गई। जब सुई को आंख मिल गई, तब वह कहां रुकने वाली थी। वह ऐसी ही सुई की तलाश में पिछले तीन वर्ष से लगे थे। तमाम प्रयोग-प्रयास के बावजूद उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही थी। मन हारने लगा था, तभी वह ख्वाब आया। अगर उन्हें वह ख्वाब न आता, यदि उन्हें ख्वाब में राजा सजा न सुनाते, यदि उन्हें आमदखोर अपने उन खास भालों से न डराते, तो शायद सिलाई मशीन को मुकम्मल सुई के लिए और कई वर्ष-दशक इंतजार करना पड़ता। यह आज से करीब पौने दो सौ साल पहले की बात है। शिल्प क्रांति के दौर में बड़े-बड़े कारखानों में कपड़े बनने लगे थे, लेकिन दुनिया एक कारगर सिलाई मशीन के लिए तरस रही थी। बताते हैं, उस दौर में वैसी सिलाई मशीन बनाने की कोशिश में 60 से ज्यादा आविष्कारक या मैकेनिक लगे थे, लेकिन वह ख्वाब, वो लम्हा तो एलिअस होव को ही नसीब हुआ। होव यह मानते थे कि जीवन में कड़े संघर्ष की वजह से ही उन्हें वह ख्वाब आया। करीब 48 की उम्र उन्हें नसीब हुई और उनका लगभग पूरा जीवन संघर्षमय रहा।

उन्होंने वर्ष 1846 में उस सुई का पेटेंट करा लिया था, लेकिन अपनी मशीन बेचने में कामयाबी नहीं मिली, तो अमेरिका से इंग्लैंड चले गए। लेकिन वहां तो गरीबी ने घेर लिया, फिर अमेरिका लौटे और देखा कि उनकी सुई का सिक्का सिलाई बाजार में चल निकला है। सिलाई मशीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी खूब चांदी कूट रही है। उन्होंने पेटेंट दिखाकर दावा पेश किया। वर्ष 1854 में वह पेटेंट का मुकदमा जीत गए। कहते हैं, उन्हें इतना धन मिला कि वह अमेरिका के दूसरे सबसे अमीर आदमी हो गए थे। दुनिया में कहीं भी कोई सिलाई मशीन या सिलाई की सुई बिकती थी, तो एलिअस की तिजोरी बड़ी हो जाती थी। कौन कहता है, ख्वाब का वो लम्हा वहीं थम गया, उसका तमाशा तो दुनिया डेढ़ सौ साल से पहने घूम रही है और हमेशा घूमेगी।

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Monday, 23 September 2019

फिर कोई धोखे की सोच न सका


पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट

हमारी मातृभूमि ने अनगिनत वीर दिए हैं, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, लेकिन उनमें चंद वीर ऐसे भी हैं, जिन्हें दुनिया वीरों का वीर मानती है। ऐसे ही एक महावीर बाजी राव बल्लाल भट्ट को तीन सौ साल बाद भी हम भूल नहीं पाए हैं। 18 अगस्त, 1700 को जन्मे बाजी राव का सामरिक ज्ञान विदेशी सैन्य संस्थानों में भी पढ़ाया जाता है। युद्ध कौशल का बखान करने वाली किताबों में उनकी ‘संपूर्ण संग्राम शैली’ या ‘स्कोच्र्ड अर्थ वारफेयर’ को सबसे कारगर माना जाता है।
अपने जीवन में पचास से ज्यादा युद्धों-अभियानों में हिस्सा लेने वाले प्रसिद्ध ब्रिटिश फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ वारफेयर  में लिखा है कि बाजी राव संभवत: भारत में अब तक के सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेनापति थे। उनकी शैली का प्रयोग अमेरिका में गृह युद्ध का अंत करने के लिए भी किया गया और आज भी अनेक सैन्य कमांडर उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। उनके जीवन का ‘वो लम्हा’ जानने से पहले हमें इस सर्वज्ञात तथ्य को ताजा कर लेना चाहिए कि बाजी राव ने कुल 39 वर्ष के जीवन में करीब आठ बड़े, 32 छोटे युद्ध लड़े और पराजय की हवा भी उन्हें कभी छूकर नहीं निकली। युद्ध अर्थात संपूर्ण युद्ध, उसमें कोताही की नोंक बराबर आशंका भी नहीं। युद्ध में रणनीतिक गतिशीलता इतनी तेज कि दुश्मन को पलक झपकाने का मौका न मिले। उसके संचार, परिवहन, आपूर्ति, उद्योग, जनजीवन, सबको ऐसे प्रचंड आक्रमण से बाधित कर देना कि दुश्मन जल्द से जल्द घुटने टेक दे। देश के एक शानदार शहर पुणे की नींव रखने वाले बाजी राव के जीवन में आखिर ‘वो लम्हा’ क्या था, जिसने महावीर बाजी राव को जन्म दिया?

उस दिन किशोर बाजी राव बहुत खुश था, क्योंकि मराठा योद्धा पिता बालाजी विश्वनाथ भी आश्वस्त थे। जिस मराठा ताल्लुकेदार दामाजी थोरट को काबू करने राजा छत्रपति साहू जी महाराज ने भेजा था, वह बिना लडे़ ही समझौते के लिएमान गया था। मराठा एकता का विस्तार होना था, तो बाजी राव अपने पिता के साथ दामाजी के हिंगनगांव स्थित मजबूत छोटे किले में सहर्ष कदम रखते बढ़ रहे थे। तभी वह बात हो गई, जो केवल दामाजी के शातिर दिमाग में थी। घात लगाकर विश्वासघात किया गया, बाप-बेटे को बंदी बना काल कोठरी में डाल दिया गया। मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से प्रताड़ना का दौर चला। घोड़ों के मुंह पर चारे का जो झोला बांधा जाता है, वैसे ही झोले में राख भरकर पिता-पुत्र के मुंह पर बांध दिया जाता। पीड़ा पहुंचाने का क्रम दिनोंदिन तेज होता जा रहा था। दामाजी कहने को तो मराठा सरदार था, लेकिन अपनी पूरी नीचता पर उतर आया था। अव्वल दर्जे का लालची, धूर्त और धन के लिए किसी भी स्तर तक गिर जाने वाला। ऐसे निंदनीय व्यक्ति के शिकंजे में फंसे पिता तो उम्मीद छोड़ चुके थे। चौथ-लगान के लुटेरे दामाजी ने राजा छत्रपति के सामने फिरौती की मांग रखी। राजा छत्रपति चूंकि बालाजी विश्वनाथ को बहुत मानते थे, इसलिए उन्होंने फिरौती देकर बला टालना स्वीकार कर लिया।

महज 11-12 साल के रहे बाजी राव के दिलो-दिमाग पर इस घटना का गहरा असर हुआ। बाजी राव ने हिंगनगांव की दुखद-निर्मम कैद से निकलकर शुद्ध युद्ध कौशल पर काम किया। उनकी अपनी नीति बन गई कि यदि युद्ध के लिए निकले हो, तो किसी पर विश्वास नहीं करो। पिता ने यही गलती की थी। जब बंदी बनाकर उन्हें दामाजी के सामने पेश किया गया, तब पिता ने पूछा, ‘दामाजी, तुमने तो बेल वृक्ष और हल्दी के नाम पर शपथ ली थी कि छल नहीं करोगे, किंतु यह क्या किया?’ थोराट ने कुटिल हंसी के साथ कहा था, ‘तो इसमें क्या है? बेल आखिर एक पेड़ ही तो है और हल्दी तो हम रोज ही खाते हैं।’ 

उस लम्हे या झटके ने बाजी राव को आमूलचूल बदल दिया। एक वर्ष बाद तो वह स्वयं युद्ध पर जाने लगे। वह किसी भी तरह की विपरीत स्थिति पैदा होने पर प्रहार के लिए इतने चौकस और तैयार रहते थे कि उनके विरोधी और दुश्मन उनसे मिलने में भी डरते थे। ऐसी युद्धनीतियां रचने लगे, जिनमें घोखा खाने या हारने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं होती थी। मात्र 20 की उम्र में मराठा साम्राज्य के पेशवा (प्रधानमंत्री-सेनापति) बन गए। जब बाजी राव ने दक्खन के नवाब-निजाम को घेरकर झुकने को मजबूर कर दिया, तब शपथ दिलाने की बारी आई। बाजी राव ने कुरान  मंगवाई और कहा, ‘ईमान वाले हो, तो पाक कुरान  पर हाथ रखकर कायदे से कसम खाओ कि मुगलों और मराठों की लड़ाई में कभी नहीं पड़ोगे।’ तब निजाम ने बाजी राव की बहादुरी और चतुराई के आगे सिर झुका दिया था, और दुनिया तो आज भी झुकाती है।

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Tuesday, 17 September 2019

मेरा खेल खत्म हो गया था


मुस्तफा कमाल पाशा, तुर्की गणराज्य के संस्थापक

मानो सब कुछ खत्म हो गया था। उस्मानी सल्तनत के सिपाही घात लगाए बैठे थे। तुर्की के इस्तांबुल शहर के उस फ्लैट पर 24 वर्षीय सैन्य कप्तान को पहुंचते ही पकड़ लिया गया। सामान्य किसान परिवार से आए उस वीर युवा के सैन्य करियर पर शुरुआत में ही अंत की मुहर लग गई। कैद से निकलने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं थी। अरब दुनिया में, और वह भी सुल्तान व खलीफा के दौर में रहम की उम्मीद कौन कर सकता था? निष्ठा पर शक की सुई जरा भी घूम जाए, तो सीधे मौत की सजा दी जाती थी या किसी देश या मोर्चे पर मरने भेज दिया जाता था।
उस दिन सुल्तान के सिपाही जिस युवा को बहुत आसानी से पकड़कर ले जा रहे थे, वह था भावी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सैन्य कमांडर, राजनीतिज्ञ मुस्तफा कमाल पाशा, जिन्हें पूरी दुनिया ने अतातुर्क के नाम से जाना। उस समय युवा मुस्तफा की आंखों के आगे वे दृश्य बार-बार उभर रहे थे, जब एक रात फेथी नाम का पुराना दोस्त फटेहाल मिलने पहुंचा था। सेना से बर्खास्त हो चुके फेथी ने गिड़गिड़ाकर कहा था, ‘मेरे पास न तो पैसे हैं और न कहीं सिर छिपाने की जगह।’ साथियों ने फेथी को उसी फ्लैट में रख लिया, जिसे मुस्तफा ने विचार-विमर्श के लिए किराये पर ले रखा था। दो दिन बाद जब फिर मिलने का मौका आया, तो गाज गिर गई। बाकी साथी पहले ही पकड़ लिए गए थे। फेथी ने दगा किया था, वह सल्तनत का गुप्तचर निकला।
सैन्य कॉलेज से साथ पढ़कर निकले मुस्तफा और उनके साथी तो देश की बेहतरी पर चिंतन करते थे, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उन पर नजर रखी जा रही है। उस्मानी सल्तनत की अदालत में कड़ी पूछताछ होती और फिर अंधेरे कमरों में धकेल दिया जाता। वे बहुत भारी, ठहरे हुए उदास दिन थे। कभी मां, कभी बहन, तो कभी प्यारे गृहनगर सलोनिका की याद आती, कभी देश सेवा के अधबने सपने सताते, कभी सेना में बने-बनाए करियर की मौत नजर आती।
मुस्तफा कमाल पाशा ने बाद में खुद बताया, ‘वो लम्हा मेरी जिंदगी का ऐसा मोड़ था, जिसने मेरे काम करने और सोचने के तरीके को पूरी तरह से बदलकर रख दिया।’ उन्होंने गहराई से सोचा कि नीति-रणनीति में गलती कहां हुई? उन्होंने तभी फैसला कर लिया था कि यदि कैद से निकलकर फिर जिंदगी मिली, तो एक भी गलती नहीं दोहराएंगे, मगर करेंगे वही, जो अपने और अपने वतन तुर्की के लिए बेहतर होगा।
खैर, कुछ महीने की कैद के बाद उनकी जिंदगी में नई सुबह हुई। हालात ऐसे बने कि उस्मानी सल्तनत को जंग के लिए कई मोर्चों पर प्रशिक्षित कमांडरों की जरूरत पड़ी। कैद से निकालकर मुस्तफा को राजधानी से बहुत दूर सीरिया के सैन्य मोर्चे पर भेज दिया गया। उसके बाद नित नई जंग और बेमिसाल हौसले का सिलसिला चला। मुस्तफा को सुल्तान के करीबी कमांडरों ने देश के सबसे कठिन मोर्चों पर भेजना शुरू किया। साजिश तो यही होती कि किसी मोर्चे पर मुस्तफा शहीद हो जाएं। मुस्तफा यह जानते थे, उन्होंने स्वयं कहा है, ‘मैं अक्सर मौखिक या लिखित आलोचना कर देता। इससे विशेष रूप से बूढ़े कमांडर आहत हो जाते थे। दंडस्वरूप ही मुझे कमांडर बना दिया गया, पर उनके गुस्से को मैंने आशीर्वाद में बदल दिया। जब मैं कमांडर बना, तो सारी यूनिटें मेरे साथ अभ्यास में शामिल होने लगीं। मुझे सुनने अफसर जुटने लगे।’
वह गिरफ्तारी और कैद के उन लम्हों में किया गया चिंतन ही था कि मुस्तफा जिंदगी में फिर कभी जासूसों या दुश्मनों के हाथ नहीं आए। देश के लिए लड़ी गई एक भी जंग नहीं हारे। संयोग है कि आज से सौ साल पहले, यानी 7 अगस्त, 1919 को वह नेशनलिस्ट कांग्रेस के चेयरमैन बनाए गए थे। संगठन-प्रबंधन की खूबियों से भरे मुस्तफा जिस भी काबिल कमांडर या विद्वान से मिलते, उसे हमेशा के लिए अपना बना लेते। अपनी लकीर इतनी लंबी करते गए कि दुश्मनों की लकीरें बौनी होती गईं। अपने ईद-गिर्द उन्होंने ऐसा मजबूत घेरा बना लिया कि जब एक दफा सुल्तान ने उनकी गिरफ्तारी का हुक्म दिया, तो कोई कमांडर हुक्म बजाने आगे नहीं आया। वह पुलिस तो शर्म से गड़ रही थी, जो कभी मुस्तफा के लिए घात लगाए बैठी थी। 5 अगस्त, 1921 को नेशनल असेंबली ने उन्हें बुलाकर देश का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया। 24 की उम्र में जिस नौजवान का अंत होने वाला था, वह 42 की उम्र में तुर्की गणराज्य का पहला राष्ट्रपति बन गया। मुस्तफा के नेतृत्व में एक दिन वह भी आया, जब सुल्तान और खलीफा का अंत हुआ। उनका तुर्की गणराज्य सबसे आधुनिक, सबसे प्रगतिशील देश के रूप में हमेशा के लिए मिसाल बन गया। यह मंजिल शायद उन्हें न मिली होती, अगर एक दोस्त की दगाबाजी ने उन्हें जेल न पहुंचा दिया होता।

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खबरदार, मेरा बेटा फेरीवाला, कभी नहीं

एंड्रयू कारनेगी, प्रसिद्ध उद्योगपति







हां, मां भगवान का रूप होती है। उस दिन यही रूप अपलक देख रहा था 12 वर्षीय बच्चा एंड्रयू। अचंभित और कुछ भयभीत। मां से लगकर खड़ा चार वर्षीय भाई टॉम तो और भी सशंकित था। डनफर्मलाइन, स्कॉटलैंड से पलायन कर पिट्सबर्ग, अमेरिका आए गरीब परिवार के लिए वे कड़ी परीक्षा के दिन थे। जुलाहे पिता विलियम का काम कभी ऐसे मंदा पड़ जाता कि रोटियों के लाले पड़ जाते। ऐसे में, एक रिश्तेदार ने सुझाव दिया था, ‘एंड्रयू को घूम-घूमकर सजावटी सामान बेचने के काम में लगा दो, कुछ कमाई हो जाया करेगी।’
इसी सलाह पर मां मार्गरेट भड़क उठी थीं। मां का वह रौद्र रूप दुर्लभ था। परेशानी के बावजूद वह पूरे दर्प से गरजी थीं, ‘क्या, मेरा बेटा फेरीवाला बनेगा? असभ्य लोगों के बीच जाकर घाटों पर सजावटी सामान बेचेगा? खबरदार, मेरा बेटा फेरी नहीं लगाएगा, कभी नहीं। इससे अच्छा तो मैं उसे अलेघेनी नदी में फेंक दूं।’ सलाहकार की एक न चली, मुंहतोड़ जवाब मिल गया। उन्होंने साफ कर दिया था कि उनके बेटे पराए देश में जूझते बेरोजगारों की भीड़ में कतई शामिल नहीं होंगे, वे किसी अच्छी जगह दिमाग लगाएंगे। सम्मानजनक काम ही करेंगे।
यही वो लम्हा है, जब एंड्रयू को लग गया कि जीवन में मां जैसा कोई नहीं मिलेगा। पिता खूब जूझकर भी विफल हो जाते, लेकिन मां सूझ-बूझ से सफल हो जातीं। ऐसी मां के सशक्त साये में एंड्रयू बढ़ते गए और एक दिन इतने बड़े हो गए कि दुनिया उन्हें सबसे अमीर इंसान एंड्रयू कारनेगी (1835-1919) के रूप में देखने-पहचानने लगी, लेकिन वह अपने दिल से वो लम्हा कभी नहीं भुला पाए। जब भी किस्मत गिराती, चुनौतियों की बौछार होती, तो मां बचाव में खड़ी नजर आतीं और उनके वे शब्द गूंजने लगते, ‘खबरदार, मेरा बेटा...फेरीवाला...कभी नहीं।’ अदम्य साहस, श्रेष्ठता, नवाचार और परिश्रम पर भरोसे से भरपूर मां, जिसने पराए देश अमेरिका आकर भी अपने बच्चों को कभी दर-दर भटकने न दिया, देर रात तक जगकर जूते गांठती थीं, ताकि बच्चों पर कोई आंच न आए। रिश्तेदार को फटकारने के बाद मां ने उसी दिन बच्चों को साफ हिदायत दी थी, ‘लक्ष्य सबसे ऊंचा रखना।’ इस सलाह को कारनेगी ताउम्र दिलो-दिमाग से लगाए रहे। मां ने गरीबी के बावजूद अपने बच्चों को हमेशा अच्छे कपड़े पहनाए, ताकि उनमें हीनता बोध न आए। बचत और निवेश में माहिर मां ने उन्हीं लम्हों में बच्चों को चेता दिया था, ‘तुम कौड़ी का ध्यान रखो, अशर्फी अपना ध्यान खुद रख लेगी।’
बेशक, कारनेगी कौड़ी-कौड़ी से होते हुए ही दुनिया के सबसे बड़े खजाने के मालिक बने। कपड़े के कारखाने में छोटी नौकरी से शुरू करते हुए संसार की सबसे बड़ी इस्पात कंपनी के मालिक बनने तक की उनकी यात्रा में वो लम्हा कदम-दर-कदम काम आया। उसी लम्हे से जुड़ा एक और लम्हा भी है, जो उन्हें रह-रहकर याद आ जाता था। उन्होंने मां से कहा था, ‘मां, एक दिन जब मैं अमीर हो जाऊंगा, तब हम चार घोड़ों वाली गाड़ी पर सवारी करेंगे।’ तब किशोर बेटे के सपने में मां ने अपना सपना जोड़ते हुए कहा था, ‘यहां वैसा होने से क्या फायदा, अगर डनफर्मलाइन का कोई शख्स हमें वैसे न देख सके?’
तो संघर्ष से एक दिन वह भी आया, जब दुनिया के चंद बड़े अमीरों में शुमार हो चुके कारनेगी अपनी मां को पूरी तैयारी के साथ अपने जन्मस्थान डनफर्मलाइन ले गए। अपने धरती पुत्र के उद्यम और दौलत का कीर्तिमान देखने मानो पूरा इंग्लैंड उमड़ पड़ा। इंग्लैंड का यह वही शहर था, जहां से कारनेगी परिवार परेशान होकर अमेरिका गया था। उन गलियों और इलाकों से गुजरते हुए मां मार्गरेट भाव-विभोर थीं। वह एक आराधना के सफल होने की खुशी थी, जो उनकी आंखों से बार-बार छलक रही थी। करीब 33 साल पहले जहां से फटेहाल निकले थे, ठीक वहीं मां-बेटे का शाही स्वागत हो रहा था। एंड्रयू कारनेगी लंबे समय तक अमेरिका ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे अमीर इंसान रहे। कमाने में अव्वल आए, तो दान-पुण्य में भी अव्वल रहे। लोक-उपकार के न जाने कितने संस्थान उन्होंने शुरू किए, जो आज भी चल रहे हैं।
वह अपनी सच्ची शक्ति मां को कभी खोना नहीं चाहते थे। मां और मां की सेवा में ऐसी श्रद्धा थी कि उनके जीवित रहते, बेटे ने विवाह नहीं किया। मां जब छोड़ गईं, तब 51 की उम्र में विवाह हुआ और जो इकलौती बेटी हुई, तो उसे उन्होंने वही नाम दिया, जो मां का नाम था- मार्गरेट। उस दिन मां यदि अपने बेटे को फेरीवाला बन जाने देतीं, तो एंड्रयू कारनेगी की जिंदगी न जाने किधर मुड़कर खो गई होती।

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Monday, 8 July 2019

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे

 बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
मिर्जा ग़ालिब जब दिल्ली थे, तब यहां करीब तीन लाख लोग रहते थे, आज तीन करोड़ के करीब रहते हैं। उनके सामने ही दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल) थी, जहां रात-दिन तमाशा होता था। आज भी होता है, जब ग़ालिब नहीं हैं। लाल किले के ठीक सामने चांदनी चौक रोड पर चलते हुए बायीं ओर पडऩे वाले सीसगंज साहिब गुरुद्वारा और परांठेवाली गली से आगे बढ़ते बायीं ओर ही वल्लीमारान गली या चरखीवाली गली में मुड़ जाइए। कुछ और चलिए, दायीं ओर गली सादिक जान में घुसते हुए बायीं ओर मिर्जा ग़ालिब की हवेली है। हवेली के नाम पर आधा आंगन, आधी दालान और बिना खिड़कियों वाला अंधेरा-सा एक कमरा भर है। कमरे के बाहर ही मोटरसाइकिल की पार्किंग है, एक धूल सज्जित मोटरसाइकिल कमरे के दरवाजे को आधा छेके खड़ी है। सबको मालूम है, ग़ालिब पार्किंग को लेकर कोई तमाशा नहीं खड़ा करेंगे। ग़ालिब ने दिल्ली के तमाशे देखे, तो सवाल भी खड़े किए और जवाब भी दे गए...
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे 
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे।  
खैर, वहां उनकी फोटो, मूर्तियां, किताबें, शाइरी देख रहा हूं। एक दौर के दौरे पर निकल पड़ा हूं और कानों में बज रहा है...  
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका, तो लहू क्या है।



वहां स्पीकर लगे हैं, उन्हें देखता हूं, लेकिन देखरेख करने वाले साहब आगे बढक़र बताते हैं, साउंड सिस्टम खराब पड़ा है। सुनकर झेंप-सी होती है और तत्काल अहसास होता है, साउंड सिस्टम वल्लीमारान या दिल्ली वालों का खराब होगा, ग़ालिब का सिस्टम तो बिल्कुल ठीक है, जो मेरे जैसे न जाने कितने करोड़ों के अंदर बज रहा है। वल्लीमारान में कुछ-कुछ दूर पर मस्जिदें गुलजार हैं। दोपहर ढल रही है। नमाज-ए-जुह्र का समय है। अजान चल रही है - अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लअल्लाह...। सुनकर अच्छा लग रहा है, चल पड़े हैं लोग ज्यादा से ज्यादा एक साथ, एकजुट और मजबूत दिखने। ग़ालिब की गली सादिक जान में हलचल है। ग़ालिब के कमरे के बाहर पुराने सोफे पर बैठकर सोचता हूं, यहां सुबह की नमाज भी होती होगी, जिसमें लोगों को रोज नींद से जगाया जाता होगा। कहा जाता होगा कि नींद से बेहतर है नमाज - अस्सलातु खैरूं मिनन नउम...। 
नींद का मतलब ही है चैन की नींद। चैन की नींद तभी आती है, जब चैन की जगह हो। चांदनी चौक में आज जैसी भीड़भाड़ होती, तो शायद नहीं आते ग़ालिब आगरे से यहां रहने। आश्चर्य होता है, कलाकारों के इस मुहल्ले में एक से एक उम्दा कारीगर हैं। एक से एक खूबसूरत चीजें बनाकर बेचते हैं, क्या गज़ब का सौंदर्यबोध है। यह तो सब जानते है कि चांदनी चौक हो या बनारस, हर जगह शादी की बैंड पार्टी हो या साड़ी, चूड़ी, शृंगार के सामान इत्यादि में से ज्यादातर बनाता कौन है। ग़ालिबों, मीरों के पुराने मुहल्लों के घरों, दुकानों, गलियों में वह सौंदर्यबोध क्यों नजर नहीं आता? सुल्तान और अली के बैंड बाजे में मास्टर साहब जब बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है...बजाते हैं, तो धुन की एक मात्रा नहीं छोड़ते हैं, उसमें एकाध शानदार मोड़ अलग से फूंककर चार चांद ऐसे लगा देते हैं कि सुनने को पैर अटल हो जाते हैं। लेकिन उनकी अपनी गली में रुकना भी क्यों मुहाल है? अपनी पूरी भागमभाग में भी ठहर गया है चांदनी चौक। कहते हैं, बदबू तभी उठती है, जब कुछ ठहर जाता है। ठहरे हुए को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। कभी समाज को ग़ालिब भी बर्दाश्त नहीं थे, तभी तो ग़ालिब ने कहा था... 
हर एक बात पे कहते हो कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है। 



यदि ग़ालिब की चलती, तो दुनिया का एक शानदार शहर होता चांदनी चौक। यहां अपनी हवेली में जितना बच गए हैं ग़ालिब, उतना ही बचा है चांदनी चौक। नीचे से दौड़ रही है मेट्रो लगातार, चावड़ी बाजार, चांदनी चौक होते हुए, लेकिन ऊपर पार्किंग के झगड़े खत्म नहीं हुए हैं। घर या दिल हो, ग़ालिब के पास जगह खूब थी और सबसे बड़ी बात किसी के घर के आगे लगा देने के लिए मोटरसाइकिल नहीं थी। वो तो देश की राजधानी कोलकाता में जब पेंशन अटकी, तो घोड़े से ही गए थे। अब चांदनी चौक में नहीं के बराबर घोड़े हैं, लेकिन मोटरें और मोटरसाइकिलें बेहिसाब हैं। अव्वल तो चांदनी तभी सलामत खिलेगी, जब चौक वाहनों की चपेट से बचेगा। चौक और चांदनी कैसे बचेगी, सबको सोचना होगा। यहां टहलते हुए कई युगों में एक साथ टहलने का अहसास होता है। गलियों की विरासत बेमिसाल है, ये वो लोग हैं, जो पाकिस्तान नहीं गए। इसी मिट्टी में जन्मे थे, यहीं रह गए। देश के बंटवारे से ७८ साल पहले ही ग़ालिब अल्ला को प्यारे हो गए थे। यह सोचने का विषय है, यदि ग़ालिब की चलती, तो क्या पाकिस्तान की जरूरत पड़ती। ऐसा सोचते हुए खुद ग़ालिब ही याद आते हैं...
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।

Thursday, 2 May 2019

मैं न रहूंगी, तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां...

(1 जून को नरगिस दुनिया में आई थीं और 3 मई को विदा हुई थीं)


नरगिस (फातिमा रशीद) : ( 1929 -1981)
राज कपूर की सफलता का श्रेय उन्हें अकेले देना ठीक नहीं होगा और राज कपूर ने भी कभी यह नहीं माना कि ‘आई एम द बॉस’। यह अपने आप में एक बड़ी बात है। उनका भाव यह था कि सफलता तो टीम के सदस्यों की है, मैंने तो सिर्फ यह देखा है कि कितना, क्या होना चाहिए। राज कपूर ने एक बार कहा था, ‘गायक और गीत मेरे लिए जिंदगी की प्रेरणा हैं। गायिका लता मंगेशकर, गायक मुकेश, मोहम्मद रफी, इनका मेरा काफी लंबे समय से साथ रहा है। संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, शंकर, जयकिशन का क्या कहूं, राम गांगुली का क्या कहंू, इन सबसे मैंने बहुत कुछ पाया है, गीतकार शैलेन्द्र, हसरत, मैंने इन सबसे बहुत कुछ पाया है, जितना भी इस रस में इन लोगों का हिस्सा है, उतना मेरा नहीं है। मेरा सिर्फ यह है कि जैसे कंडक्टर एक सिम्फनी को कंडक्ट करता है, किस वक्त जोर से बजना है और किस वक्त धीमे-धीमे बजना है, बस मेरा यही करना (काम) रहा है, मैं तो सिर्फ कंडक्टर हूं।’
वाकई बिना मजबूत टीम के शो मैन नहीं बना जा सकता। फिल्म या सिनेमा टीम वर्क है, बड़ा कुछ करना है, तो अच्छी और बड़ी टीम चाहिए। यह राज कपूर की खूबी ही मानी जाएगी कि उन्होंने कुशल लोगों को पहचाना, मौका दिया और अपने साथ बनाए रखा। राज कपूर को याद करते हुए ऐसे लोगों को भी साथ में याद कर लेना चाहिए, जो राज कपूर को शो मैन बनाने में बहुत निकट से सहायक रहे हैं। कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं - नरगिस, शंकर, जयकिशन, ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मुकेश।
नरगिस (फातिमा रशीद) : ( 1929 -1981) : राज कपूर ने नरगिस के साथ करीब 16 फिल्में की थीं। नरगिस ने राज कपूर को बनाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। राज कपूर के पास जब पैसे कम पड़ते थे, तब वे दूसरे निर्माताओं की फिल्मों में काम करके पैसे जुटाती थीं, ताकि आर.के. बैनर तले फिल्में बन सकें। नरगिस परंपरा, परिवार, समाज, दुनिया से लड़ गई थीं। बहुत जरूरी होता, तभी दूसरे निर्देशकों-निर्माताओं के साथ काम करती थीं। यह कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है। राज कपूर के पीछे नरगिस ही वह महिला थीं, जिनके योगदान की कोई तुलना संभव नहीं है। नरगिस के प्रभाव में ही फिल्म दुनिया में आर.के. बैनर की खास छवि निर्मित हुई। राज कपूर की फिल्मों में सौंदर्य, सकारात्मकता और आधुनिकता का स्पर्श नरगिस के जरिये ही होता था। अपने हाव-भाव और व्यवहार में वे आधुनिक महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। उनके चेहरे का भाव, उनकी हंसी, मुस्कराहट और यहां तक कि उनके रोने या दुखी होने का अंदाज भी बहुत सहजता से लोगों को प्रभावित करता था। वे नाटकीय नहीं थीं, वे अभिनय में सरल थीं। यह कभी नहीं लगता था कि वे मेहनत के साथ अभिनय कर रही हैं, इस मामले में वे स्वाभाविक अभिनेत्री थीं। वे अभिनय की दुनिया में राज कपूर से ज्यादा अनुभवी थीं। जब राज कपूर नए स्टार थे या जब स्टार बनने की प्रक्रिया में थे, तब नरगिस फिल्म दुनिया में अपने लिए स्थान बना चुकी थीं। उनके अभिनय में क्षमता, समर्पण और अनुभव, तीनों ही झलकता है। उनके अभिनय में जितनी गंभीरता थी, उतना ही मस्तमौलापन भी। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि फिल्म दुनिया में अभिनय के लिए राज कपूर से ज्यादा नरगिस की मांग रहती थी।
यह बात गौर करने की है कि नरगिस जब साथ थीं, तब राज कपूर पुरुष चरित्र के वर्चस्व वाली फिल्में बना रहे थे। महिला चरित्र के वर्चस्व वाली फिल्मों का निर्माण तो राज कपूर ने नरगिस से बिछडऩे के बाद ही शुरू किया। यह कहा जाता है कि राज कपूर के स्टूडियो में नरगिस की भूमिका जैसे-जैसे बढ़ती गई, फिल्मों में वैसे-वैसे घटती गई। अंतत: नरगिस ने राज कपूर से किनारा कर लिया। दोनों का साथ करीब 9 -10 बरस का रहा, लेकिन नरगिस के जाने तक राज कपूर अपने आर.के. बैनर को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा तक पहुंचा चुके थे। नायिका के चरित्र को नरगिस ने ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था। वे अपने आप में स्कूल हैं। प्रेम, रोमांस को अपनी आंखों, पलकों, होंठो के जरिये जाहिर करने की कला में उन्हें विशेषज्ञ माना जा सकता है। उन्होंने अपने बाद की नायिकाओं या अभिनेत्रियों के काम को बहुत आसान बना दिया। अगर वे दूसरे निर्देशकों के साथ काम करना जारी रखतीं, तो वे और भी ऊंचाई तक जा पातीं। यह राज कपूर के लिए अफसोस की बात रहेगी कि नरगिस का बेहतरीन अभिनय उनकी फिल्मों में नहीं, बल्कि दूसरों द्वारा निर्देशित फिल्मों में पुरस्कृत किया गया। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’(1957) के लिए नरगिस को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर और सत्येन बोस के निर्देशन में ‘रात और दिन’ (1967) में अभिनय के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। ‘मदर इंडिया’ के समय नरगिस 26-27 साल की थीं, इस उम्र में एक बूढ़ी मां का किरदार अदा करके उन्होंने इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ तक पहुंचा दिया था। इन दोनों ही फिल्मों में नरगिस की भूमिका बहुत चुनौतीपूर्ण थी। खासकर ‘रात और दिन’ में मल्टीपल पर्सनालिटी डिसऑर्डर से ग्रस्त युवती की भूमिका में नरगिस ने कमाल कर दिया। वे अभिनय से अलग हुईं, लेकिन हमेशा फिल्मों के आसपास ही रहीं। उन्होंने समाज सेवा के लिए भी बहुत काम किए। वे 1980 में राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हुई थीं, हालांकि वहां वे ज्यादा समय नहीं रह सकीं। 1981 में पेनक्रियाटिस कैंसर से उनका निधन हुआ। हमारा सिनेमा उद्योग नरगिस को कभी भुला नहीं सकता।


एक कसर रह गई कसक की तरह 
प्यार तो हुआ, पर इकरार न हुआ। नरगिस और राज कपूर का प्यार दुनिया को पता था। दोनों के प्यार के किस्से खूब किताबों में आए हैं। उनके प्यार के चर्चे आज भी होते हैं और शायद हमेशा होंगे। उस दौर में ऐसी कोई जोड़ी नहीं थी। दोनों ही जवान थे, युवा थे, राज कपूर बहुत कम उम्र में निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के रूप में जमने लगे थे। नरगिस ने भी राज कपूर को खूब चाहा, लेकिन इससे आगे बढक़र नरगिस शादी करना चाहती थीं। राज कपूर उन्हें दूसरी पत्नी भी बना लेते, तो वह तैयार हो जातीं, लेकिन राज कपूर पर शायद परिवार, खानदान का दबाव था। पिता पृथ्वीराज कपूर का कठोर अनुशासन था, जो राज कपूर को एक शादी से बाहर सोचने से रोक रहा था। 
नरगिस को भी परिवार चाहिए था, बच्चे चाहिए थे, घर-गृहस्थी चाहिए थी। यह बात सब जानते हैं कि राज कपूर जब पहली फिल्म ‘आग’ की तैयारी में लगे थे, तब वे नरगिस की मां जद्दन बाई से मिलने गए थे। जद्दन भाई गायिका, निर्देशक, निर्माता थीं, उनकी अपनी फिल्म कंपनी थे। घर पर जद्दन बाई नहीं थीं, नरगिस थीं, उन्होंने दरवाजा खोला, बेसन सने हाथों से बालों को चेहरे से हटाया, बिल्कुल यही दृश्य राज कपूर ने ‘बॉबी’ में फिल्माया। पहली मुलाकात में नरगिस पर खास प्रभाव नहीं हुआ था, लेकिन राज कपूर नरगिस के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उनके लिए ‘आग’ में एक भूमिका लिखी गई। अगली फिल्म ‘बरसात’ में वह राज कपूर की नायिका बनीं। तब तक प्यार का मामला आगे बढ़ चुका था। जद्दन बाई का जब 1949 में निधन हुआ, तो राज कपूर ही नरगिस के लिए भावनात्मक सहारा बने। आर.के. स्टूडियो के कॉटेज में ही नरगिस रहने लगी थीं और फिल्मों के लिए निरंतर चलने वाली बहसों में नरगिस भागीदार हुआ करती थीं। वे स्टूडियो में बॉस की तरह रहती थीं। जाहिर है, वे स्टूडियो को अपना मानकर चलती थीं और यह भी मानती थीं कि राज कपूर एक दिन उनके हो जाएंगे। राज कपूर अपने बैनर के अलावा दूसरे निर्देशकों के लिए भी नरगिस के साथ काम करते थे। काम और नाम कम नहीं था, दुनिया में दोनों की ख्याति थी। रूस इत्यादि देशों में तो लोग यह मानते थे कि नरगिस ही मिसेज राज कपूर हैं। किताबों में यह भी दर्ज कि नरगिस हिन्दू मैरिज एक्ट बना रहे विद्वान नेता मोरारजी देसाई (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने) से मिलने के लिए पहुंच गई थीं कि क्या वे राज कपूर से विवाह कर सकती हैं। देसाई ने एक तरह से उन्हें फटकार दिया था। आजाद भारत में जो हिन्दू मैरिज एक्ट बन रहा था, उसके अनुसार हिन्दुओं के लिए केवल एक ही विवाह वैध था। परंपरा अनुसार, एक से ज्यादा विवाह करने की छूट मुस्लिमों को मिलनी थी, हिन्दुओं को नहीं। 
राज कपूर के मन में प्रेम था, वे मात्र उसी से संचालित हो रहे थे। वे शायद नरगिस की दुविधा को समझ नहीं पा रहे थे। लोगों और नरगिस के सौतेले भाई अख्तर हुसैन ने नरगिस को बार-बार समझाया कि वे राज कपूर के पीछे समय बर्बाद कर रही हैं। करियर चौपट कर रही हैं। धीरे-धीरे नरगिस को भी अहसास हुआ कि वह समय बर्बाद कर रही हैं, जो उन्हें चाहिए, वह राज कपूर से कभी नहीं मिलेगा। फिर वह दिन आ ही गया और 1955 में नरगिस अलग रास्ते पर चल पड़ीं। दूसरे निर्माताओं की कुछ फिल्मों को उन्होंने स्वीकार किया। एक फिल्म ‘मदर इंडिया’ थी, जिसने नरगिस को अभिनय और शोहरत की नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का मौका दिया। राज कपूर हमेशा बेवफाई का आरोप लगाते रहे। लौटने के लिए मनाते रहे। दोनों की आखिरी मुलाकात बर्लिन में 6 जुलाई 1957 को हुई थी। दोनों ने साथ भोजन किया, एक दूसरे को शुभकामनाओं के साथ दोनों विदा हुए। नरगिस आगे बढ़ गईं, जब उन्होंने पलटकर देखा था, तो राज कपूर की आंखों में आंसू थे। 
नरगिस के लिए राज कपूर के आंसू कभी नहीं सूखे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिससे नरगिस की शादीशुदा जिंदगी में खलल पड़े। नरगिस ने पलटकर कभी राज कपूर के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने खुद को आदर्श पत्नी साबित किया। पति सुनील दत्त का करियर बनाने और उन्हें स्टार बनाने में नरगिस का योगदान अतुलनीय है। नरगिस वाकई बड़ी कलाकार व सशक्त महिला थीं, सिनेमा की दुनिया में राज कपूर और सुनील दत्त दो ऐसे बड़े नाम हैं, जिनके पीछे नरगिस की ताकत अपने पूरे हठ के साथ शामिल है। 
स्पष्ट है, राज कपूर पिता की मर्जी के खिलाफ जा नहीं सकते थे। वे एक आदर्श पुत्र थे। उन्होंने एकतरफा प्यार करना भी नहीं छोड़ा और पारिवारिक मर्यादाओं की भी हमेशा पालना की। हालांकि कई बार वे नरगिस पर बेवफाई का जो आरोप लगाते थे, वह लोगों को अच्छा नहीं लगता था। नरगिस पहले राज कपूर के लिए प्लस प्वाइंट थीं, लेकिन बाद में राज कपूर ने उन्हें अपना माइनस प्वाइंट बना दिया या बनने दिया। उन्होंने अनेक साक्षात्कारों में यह कहा है कि नरगिस ने उन्हें धोखा दिया, जबकि यह बात सही नहीं है। नरगिस में नाम या पैसा कमाने की कोई बहुत महत्वाकांक्षा नजर नहीं आती है। उन्होंने बचपन से देखा था कि उनकी मां ने जिंदगी कैसे काटी, लोग कैसी-कैसी बातें करते थे, किस निगाह से देखते थे। 
यह गौर करने की बात है कि नरगिस की मां जद्दन बाई अपने दौर की दबंग व सशक्त महिला थीं। उन्होंने कुल तीन शादियां की थीं, जिनमें से दो पति हिन्दू थे, लेकिन उन्होंने धर्म बदलकर ही जद्दन बाई से निकाह किया था। नरगिस के पिता हिन्दू थे - मोहन बाबू, लेकिन निकाह के लिए वे अब्दुल रशीद हो गए थे, इसलिए नरगिस का वास्तविक नाम फातिमा रशीद था। मां का जीवन सामान्य नहीं था, लेकिन बेटी अपने लिए सामान्य जीवन की तलाश में थी। नरगिस अपनी मां से ज्यादा विद्वान और वास्तविक अर्थों में सेकुलर थीं। वह सामान्य जिंदगी में लौटना चाहती थीं, घर-परिवार, पति, बच्चे। वह कामयाब रहीं। उनके नाम से भारत सरकार एक पुरस्कार देती है। समाजसेवा से वह राज्यसभा तक पहुंचीं। जब उनका जनाजा निकला, तो राज कपूर भी एक किनारे जा खड़े हुए थे, उन्होंने तब भी आगे बढक़र कोई विवाद खड़ा नहीं किया। वे सुनील दत्त के लिए भी कोई परेशानी खड़ा करना नहीं चाहते थे। 
राज कपूर के मन में नरगिस की छवि हमेशा जीवित रही। राज कपूर कहते थे कि कृष्णा उनके बच्चों की मां और नरगिस उनके फिल्मों की मां। ‘बॉबी’ में उन्होंने डिंपल कपाडिय़ा को मौका दिया। तब डिंपल ठीक वैसी ही दिखती थीं, जैसी 1945-46 में नरगिस दिखती थीं। ‘हुमायू’ फिल्म की नरगिस और ‘बॉबी’ की डिंपल में सबसे ज्यादा साम्यता है।  
यह कोई नई बात नहीं है कि भारतीय समाज पर्दे पर प्यार को पसंद करता है, लेकिन धरातल पर प्यार की परख दूसरे तरीके से होती है। फिल्म सितारों के बीच पनपने वाला अवैध या असामान्य प्यार राज कपूर के जमाने में भी लोगों को नापसंद था और आज भी लोग पसंद नहीं करते। राज कपूर शायद नरगिस को अपनी राधा बनाए रखना चाहते थे, लेकिन आधुनिक दुनिया में यह संभव नहीं था। कृष्ण की दुनिया में लगभग सब कुछ कृष्ण के मुताबिक हुआ था, लेकिन राज कपूर की दुनिया में सब कुछ राज कपूर के मुताबिक नहीं हो सकता था। इसी दुनिया में दस तरह के सवाल थे, कई तरह की निगाहें थीं, जो परेशान करती थीं। नरगिस ने जो किया, वह किसी भी तरह से गलत नहीं था। उन्हें अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक था, वे अपने अतीत के अंधकार से भाग रही थीं। पूरा उजाला राज कपूर के यहां नहीं मिला, लेकिन सुनील दत्त के यहां मिल गया। सुनील दत्त वाकई बहुत भले इंसान थे, इतने भले इंसान फिल्म दुनिया में दुर्लभ हैं। नरगिस ने अपनी दुविधा से निकलकर एक भला आदमी खोजा। यहां धर्म कोई मायने नहीं रखता था। मां की तरह उन्होंने अपने पति का धर्म नहीं बदला।   
यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि राज कपूर ने ही नहीं, बल्कि नरगिस ने भी इस प्रेम की कीमत अदा की। दोनों अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंचे, लेकिन एक कसर, एक कसक रह गई। दोनों के सिनेमाई और वास्तविक प्रेम में भारतीय समाज और सिनेमा समाज के लिए अनेक संदेश छिपे हैं, जिन्हें पढक़र-समझकर ही अनावश्यक दर्द और विवादों से बचा जा सकता है। राज कपूर का दर्शन यह कहता है कि प्यार में ही भलाई है, लेकिन कहीं न कहीं यह भी उतना ही सच है कि प्यार पर किसी का जोर नहीं चलता, लेकिन हर आदमी अपनी भलाई तो सोच ही सकता है। प्यार करना चाहिए और प्यार करते हुए भविष्य के बारे में सोचना भी चाहिए। प्रेम सम्बंध तभी चलते हैं, जब सोच की दिशा एक होती है। सोच भटकती भी है, तो परस्पर प्रेम और विश्वास उसे रास्ते पर ले आता है। 
राज कपूर और नरगिस के रास्ते अलग हो गए, लेकिन इस जोड़ी को सदा याद किया जाएगा। यह हिन्दी फिल्मों की पहली बड़ी जोड़ी है, जिसे आज भी एक-दूजे के साथ ही याद किया जाता है। यह पहली जोड़ी है, जिसने भारत में सिनेमाई आधुनिकता की नींव रखी। यह पहली जोड़ी है, जिसने प्रेम के तनाव और रोमांस की खूबसूरती को पर्दे पर नई ऊर्जा के साथ बखूबी पेश किया। यह पहली जोड़ी है, जिसने (शायद वास्तविक) प्रेम और संगीत के जरिये सिनेमाई प्रेम की नई परिभाषा का सृजन किया। यह जोड़ी आने वाली तमाम जोडिय़ों के लिए मानक मानी जा सकती है। 
राज कपूर के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनके हाथ से उनकी सच्ची प्रेमिका निकल गई थी, जिसे वे हर जगह ढूंढ़ रहे थे। यह खोज कई बार बहुत खुलकर सामने आई। उन्होंने हर नायिका में अपनी पुरानी प्रेमिका की मौजूदगी की कल्पना की। जब हम गहराई से विवेचना करते हैं, तो राज कपूर की बाद की पांच में से चार फिल्में महिलाओं को केन्द्र में रखते हुए भी न केवल पुरुष वर्चस्व को सामने लाती हैं, बल्कि उनमें एक तरह का पर-पीड़ा-आनंद भी महसूस होता है। उनका कैमरा स्त्री शरीर के उन इलाकों पर भी फोकस कर रहा था, जिसकी जरूरत शायद नहीं थी। स्त्री शरीर पर जितना फोकस राज कपूर ने अपनी शुरुआती फिल्मों में किया है, उतना पर्याप्त था। नरगिस अपने समय में पर्दे पर ‘इरोटिक’ नायिका के किरदार को सबसे ज्यादा बेहतर तरीके से पेश कर रही थीं, देह प्रदर्शन वहां भी था, उस दौर के हिसाब से ज्यादा भी था, लेकिन तब भी नरगिस में वह क्षमता थी कि उन्होंने ‘इरोटिक’ रहते हुए भी अपने व्यक्तित्व में ‘वल्गेरिटी’ यानी अश्लीलता का तनिक भी स्पर्श नहीं होने दिया। हम कह सकते हैं, राज कपूर अगर ज्वार थे, तो नरगिस उस ज्वार का मजबूत तट थीं, लेकिन जब नरगिस चली गईं, तो राज कपूर के लिए मुश्किल खड़ी हो गई। राज कपूर की फिल्मों में कैमरा उन नायिकाओं को देखने लगा, जो उसे दिखने लगीं। जो नायिकाएं दिखने लगीं, उनमें वह क्षमता नहीं थी कि वे कैमरे को हावी होने से रोक पातीं, कैमरे को सूरत पर नहीं, सीरत पर फोकस करने के लिए मजबूर कर पातीं। ऐसा लगता है कि राज कपूर हर नई नायिका में अपनी पुरानी प्रेमिका को खोज रहे थे। नरगिस तो राज कपूर से मुलाकात के पहले से ही कुशल अभिनेत्री थीं। नरगिस जैसी ही डिंपल कपाडिय़ा मिलीं, लेकिन एक फिल्म से पहले ही शादी करके घर में बैठ गईं। राज कपूर ने ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ में जीनत अमान को आजमाया, ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी को, दोनों ही नई थीं। जीनत के बारे में अगर चालू शब्दावली में कहें, तो वे ‘सेक्स सिम्बल’ के रूप में पहचान बनाने में सफल रहीं, लेकिन मंदाकिनी में तो वह क्षमता भी नहीं थी। अपेक्षाकृत साफ-सुथरी फिल्म ‘प्रेम रोग’ में काम करने वाली पद्मिनी कोल्हापुरे एक बेहद समर्थ अभिनेत्री हैं, लेकिन उनमें भी नरगिस वाली बात नहीं थी। राज कपूर की बाद की फिल्मों ने नरगिसी-प्रभाव को बहुत ‘मिस’ किया है। (सिनेमा पर शोध के राज कपूर अध्याय के दो अंश)

Monday, 18 February 2019

रहते इकबाल, तो देखते ये दिन...

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा 
यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से 
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा 
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी 
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा।
अल्लामा इकबाल ने हिन्दुस्तान के लिए क्या खूब लिखा है, लेकिन वह दक्षिण एशिया के लिए कोई सद्भावी कवि नहीं थे। उनकी कथनी और करनी में बड़ा भेद था, उन्होंने लिखा कि मजहब बैर करना नहीं सिखाता, लेकिन खुद ही मजहब के आधार पर खार खाए बैठ गए। बताते हैं कि इकबाल ने सद्भाव की बातें केवल अपनी तीन ही गीत-कविताओं में की, बाकी तो उन्होंने जो भी लिखा उस पाकिस्तान के लिए लिखा, जिसके चिंतन-साहित्य की गोद में हिन्दुस्तान को मिटाने के ख्वाब पले। यह हिन्दुस्तान की खूबी है कि हमने कभी अपने बच्चों को यह नहीं बताया कि सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा... लिखने वाला कवि कट्टर मजहबी व्यक्ति था। इकबाल के ये दो गीत हम गाते रहे हैं और गाते रहेंगे। 
भारत आज भी भारत है इस बात के साथ कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी... 
लेकिन पाकिस्तान आज भी अपने होने का मतलब तलाश रहा है। वह आतंकवाद में पाकिस्तान खोज रहा है, वह मजहबी कट्टरपन में पाकिस्तान खोज रहा है। वह लोकतंत्र व लोकलाज के विपरीत जाकर पाकिस्तान खोज रहा है। उनका देश उन्हें मुबारक हो। हम अपनी सोचें... 
कश्मीर हमसे कौन छीन सकता है? पहले जितना चला गया, उसे तो छोटे भाईजान (पाकिस्तान) और बड़े भाईजान (चीन) ने आपस में बांट लिया है, उसकी तमन्ना तो रहेगी, लेकिन ज्यादा बेहतर यह होगा कि हम अपने हिस्से के कश्मीर को आदर्श बनाएं। पुलवामा के बाद युद्ध होता भी है, तो उसके बावजूद कुछ ऐसे कदम हैं, जो हमें आंतरिक स्तर पर उठाने पड़ेंगे। या यह भी संभव है कि ये कुछ कदम कड़ाई से उठाए जाएं, तो युद्ध की जरूरत ही न पड़े। 
पहला कदम - कश्मीर के उन इलाकों को चिन्हित करना, जो समस्याग्रस्त हैं। जम्मू-कश्मीर की कुल आबादी 1.44 करोड़, जबकि अकेले दिल्ली में उससे लगभग दोगुने लोग रहते हैं। आतंकवाद की आधारभूत समस्या वाले करीब 16 जिले जम्मू-कश्मीर में हैं, जिनकी कुल आबादी करीब 90 लाख है। जाहिर है, यह कोई छोटी संख्या नहीं है, लेकिन पूरे 90 लाख कश्मीरियों का ब्रेनवॉश हो गया हो, यह संभव नहीं है। एक तिहाई कश्मीरियों का भी ब्रेनवॉश हो गया है, तो उनके इलाके कौन-से हैं, वे चिन्हित हों, ताकि उनके लिए अलग नीतियां बनें। इन इलाकों में कौन-सी सुविधाएं मिलेंगी और कौन-सी नहीं मिलेंगी, यह तय हो। एक नीति यह भी हो सकती है कि विशेष रूप से ऐसे ब्रेनवॉश लोगों को देश में कहीं और जाने से रोका जाए। जिस देश से प्यार नहीं, उस देश में घूमने की आजादी क्यों?  पहले भारत जैसे देश में रहने के काबिल होइए, फिर आइए। भारत में रहकर पाकिस्तान के सपने वही देख सकता है, जो इतिहास नहीं जानता। 
दूसरा कदम - पाकिस्तान को भूल जाइए। एक मरा हुआ देश सबको कब्र में देखना चाहता है। इधर हमें सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान या अलगाववाद के स्थानीय छुटभैय्यों दलालों को किसी भी तरह की सुविधा न मिले। तमाम अलगाववादी नेताओं को चिन्हित कर लेना चाहिए, ऐसे नेता दलाल न केवल कश्मीर में, बल्कि बाकी देश में भी फैले हुए हैं। ये लोग भारत में कश्मीर का सपना ठीक वैसे ही देख रहे हैं, जैसे कभी पाकिस्तान का सपना देखा गया था। ऐसे कथित धर्म आधारित अपवित्र सपनों का कोई अर्थ नहीं है। भारत कोई बार-बार टूटने के लिए नहीं बना है। भारत सेकुलर होने की प्रतिबद्धता की वजह से कब तक टूटता रहेगा? जितना टूट गया, बहुत है, अब तो तोडऩे का सपना देखने वालों को तोडक़र रख देना चाहिए। 
तीसरा कदम - कश्मीर को अपराध के विरुद्ध शून्य असहिष्णुता का क्षेत्र घोषित करना होगा। भारत धर्म को न देखे। यह हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई नहीं है, यह एक जिम्मेदार देश और अपराधियों की लड़ाई है। भारत केवल अपराध को देखे और उसे खत्म करे। आज आतंकवाद जघन्य अपराध है। जिस दौर में लोगों को वोट देने का अधिकार न था, जिस दौर में शासन-प्रशासन अत्याचारी हुआ करता था, उस दौर में आतंकवाद या उग्रवाद की बात समझ में आती है, किन्तु भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में वो तमाम लोग बहुत बड़े अपराधी हैं, जो लोकतंत्र की बजाय बंदूक से सत्ता पाना चाहते हैं। अपराधी या आतंकवादी वो लोग भी हैं, जो कई तरह की लूट-खसोट में लगे हैं। खाए-पिए-अघाए उन अफसरों से भी कश्मीर को छुटकारा दिलाना होगा, जो हिंसा की आंच पर मोटी-मोटी रोटियां सेंकते रहे हैं। ऐसे अफसर वहां तैनात करने होंगे, जो जमीनी स्तर पर प्रशासन में बदलाव लाएंगे। 
चौथा कदम - पूरा देश विशेष, हर नागरिक समान। कश्मीर को जो विशेष सुविधाएं मिली हुई हैं, वो कश्मीरियों के अहंकार को बढ़ाती रही हैं। वे स्वयं को बाकी भारतवासियों से श्रेष्ठ मानते हैं। अहंकार और श्रेष्ठता बोध की इसी उर्वर जमीन पर पाकिस्तान आतंकवाद की फसलें ले रहा है। एक-एक कर इन सुविधाओं, विशेषताओं को खत्म करना होगा। आप प्रशासन और शासन को ईमानदार बनाइए, तो आप ऐसा कर पाएंगे, यह असंभव नहीं है। ऐसे कार्य में चीन (बड़े भाईजान) विशेषज्ञ है, उनसे हमें जरूर सीखना चाहिए। कश्मीर में जमीन खरीदने का अधिकार सबको होना चाहिए, इससे कश्मीर का ही फायदा है। कश्मीर को दुनिया से अलग-थलग नहीं रखा जा सकता। कश्मीर को दुनिया की उसी मुख्यधारा में लाना होगा, जिसमें पंजाब या उत्तर प्रदेश या तमिलनाडु है। 
पांचवा कदम - एक और मामले में हमें चीन का अनुकरण करना चाहिए, जैसे चीन हमारा पानी रोक रहा है, ठीक उसी तरह से हमें भी पाकिस्तान का पानी रोकना चाहिए। जो जल संधियां पहले हुई हैं, उन्हें रखिए किनारे और घोषित कर दीजिए, शैतानों के इलाके में नहीं जाएंगी नदियां। पहले इंसान बनो, तब नदियों का मतलब समझ में आएगा। पांडव यदि धर्मराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में चलते, तो कतई नहीं जीतते, कृष्ण के नेतृत्व में ही महाभारत का शानदार समापन हुआ था। एक नए समाज की नींव रखी गई थी। 
छठा कदम - अंतरराष्ट्रीय घेराबंदी। पाकिस्तान को सुधरने के लिए मजबूर करने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए। एक शांत और लोकतांत्रिक पाकिस्तान हमारे लिए वरदान होगा। पाकिस्तान को सुधारने में ही दुनिया की भलाई है। चीन तो व्यावसायिकता में धूर्तता और निर्ममता दोनों का ही परिचय दे रहा है। भारत को यह बात समझ लेनी चाहिए कि चीन हमारा शुभचिंतक नहीं है। ठीक से समझ लीजिए, भारत के खिलाफ आतंकवाद केवल पाकिस्तान का एजेंडा नहीं है, चीन का भी एजेंडा है। हम उससे युद्ध भले न करें, लेकिन उसके साथ झूला झूलने का कोई मौका नहीं आने दें। चीन हमें खोखला कर रहा है, उससे व्यावसायिक तरीके से ही जवाब देना होगा। दूसरी ओर, वो तमाम देश, जो पाकिस्तान से पीडि़त हैं या नाराज हैं या शत्रुता भाव वाले हैं, उन्हें अपने साथ लाना होगा। पाकिस्तान के स्याह चेहरे से नकाब हटाने के लिए बड़े-बड़े शिखर सम्मेलन करने होंगे। हर दुष्ट का हर स्तर पर अपमान तब तक होना चाहिए, जब तक उसकी दुष्टता ठिकाने न लग जाए। 
सातवां कदम - विदेशी आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों और देशी ठिकानों का अंत। भारत इस मामले में स्वयं पहल करे या फिर इजराइल जैसे किसी कुशल साथी को साथ लेकर आतंकवादियों पर सीधे सीमा पार प्रहार करे। घोषणा हो जाए, हमारी लड़ाई पाकिस्तान से नहीं, आतंकवादियों से है। पाकिस्तान को बार-बार याद दिलाएं कि उसने कब कब क्या क्या वादे किए थे। कोई देश कब तक झूठ बोल सकता है, उसे कभी तो सच बोलना ही होगा। 
भारत चूंकि उदार और क्षमाशील देश है, इसलिए हम अपने दुश्मनों को बहुत आसानी से भूल जाते हैं, जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए। कृष्ण ने आतंकवादी कृत्य करने वाले अश्वत्थामा के सिर से मणि निकालकर उसे जीवित छोड़ दिया था, लेकिन अब वह समय नहीं है, जब हम किसी अश्वत्थामा को चिरंजीवी बनाकर छोड़ दें। आतंकवाद का समापन होना चाहिए। भारत सरकार अगर ठान ले, तो यह कतई असंभव नहीं है। 

Friday, 25 January 2019

अब आओ... तो न जाओ

कांग्रेस की नई महासचिव प्रियंका गांधी का राजनीति में आना तभी सार्थक होगा, जब वह चुनाव के बाद भी राजनीति में डटी रहेंगी। किसी के वस्त्र चयन पर चुप ही रहना सभ्यता है, लेकिन जब राजनीति में कोई साड़ी पहनकर आए और पैंट पहनकर लौटता दिखे, तो दुख होता है। देश ने पहले ऐसा देखा है। राजनीति में पहनावा अब बदलना चाहिए, लेकिन अभी लोगों का जो मिजाज है, उसमें साड़ी से वोट बढ़ते हैं और पैंट से घट जाते हैं, ऐसा खुद नेता मानते हैं। 
तो जैसे भी आओ... आओ और अब न जाओ। लोगों के साथ रुको, उनकी समस्याओं के साथ ठहरो, वंचितों के साथ खड़े होकर शोषकों को ललकारो, लेकिन लगातार, तभी हालात बदलेंगे। 
बेशक, राहुल गांधी को तो हमेशा जरूरत रही है और कांग्रेस के अंदर भी पुकार उठती रही है। इसमें कोई बुरी बात नहीं, किसी भी पार्टी को चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि कांग्रेस आंदोलन से खड़ी होने वाली पार्टी है। केवल चुनाव के समय इसे अगर खड़ा किया जाएगा, तो फिर सिमटती चली जाएगी। तो पहला आश्वासन प्रियंका गांधी को यही देना होगा कि मैं आपके साथ हूं और इस बार नहीं जाऊंगी। लोगों ने आपको आते-जाते इतनी बार देखा है कि उन्हें आश्वस्त करने में ही आपकी सबसे बड़ी सफलता है। 
अब रही बात पूर्वी उत्तर प्रदेश या 33 सीटों की जिम्मेदारी की। पता नहीं, राहुल गांधी कैसे गिन रहे हैं। यह ठीक है कि इस तरह से सीट जितवाने की राजनीतिक जिम्मेदारी या ठेकेदारी विधानसभा चुनावों में कुछ सफल रही, लेकिन प्रियंका गांधी को ऐसी किसी सीमा में नहीं बांधना चाहिए था। बहन की सीमा बांधकर राहुल गांधी ने पहला संकेत ही यह दे दिया कि बहन के पास राजनीति या चुनाव के लिए ज्यादा समय नहीं है। अभी समय है, कांग्रेस सुधार कर ले, तो फायदा ही है।
दूसरी बात, क्या पूर्वी उत्तर प्रदेश की 33 सीटों पर अकेले कांग्रेस ही चुनाव लड़ेगी? राहुल गांधी तो अभी भी बसपा और सपा के साथ गठबंधन के पक्ष में दिखते हैं। गठबंधन हुआ, तो ये सभी 33 सीटें क्या कांग्रेस को मिलेंगी? गठबंधन हुआ, तो 33 में से 10 सीटें भी कांग्रेस को लडऩे के लिए मिल जाएं, तो बड़ी बात है। 
यही सही है कि कांग्रेस को प्रधानमंत्री देने वाला यह क्षेत्र पार्टी के लिए गढ़ जैसी अहमियत रखता है और इस गढ़ पर फिर कब्जे की जिम्मेदारी राहुल गांधी ने बहन को सौंपी है। संकेत यह भी है कि यह गढ़ जीत लेंगे, तो देश जीत लेंगे। प्रियंका पर भारी जिम्मेदारी है, उन्हें यहां मोदी और योगी, दोनों को हराना होगा, बाकी देश जीतने राहुल गांधी निकल जाएंगे, लेकिन जीतेंगे कैसे? क्या आगे की लड़ाई आसान है? क्या नरेन्द्र मोदी की टीम समर्पण कर देगी? कतई नहीं, फिल्म अभी बाकी है।  
एक विवरण सुनिए - विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा के एक मंत्री जी एक जगह मिले, जोर देकर पूछा कि भाजपा कैसे जीतेगी।  मैंने संकोच के साथ कहा, आप लोग देखिए कि आपने किस किसको नाराज कर रखा है? 
ठीक इसी तरह से कांग्रेस के एक महासचिव मिल गए। इधर-उधर की जरूरी बातें हुईं, फिर जोर देकर पूछ बैठे कि कांग्रेस का बेड़ा कैसे पार होगा। मैंने फिर बहुत संकोच के साथ कहा, छोटी बातों से क्या होगा, आप देखिए कि आपके पास ऐसा क्या है जनता को देने के लिए, जो भाजपा सरकार नहीं दे पाई है।  
वास्तव में लोग या मतदाता अब बहुत मतलबी हो गए हैं, इसमें कोई शक नहीं। नेताओं ने अपनी बातों और व्यवहार से जो समाज बनाया है, वो समाज सुनना चाहता है कि किस नेता-पार्टी के पास उसे देने के लिए ज्यादा अच्छा उपहार या पैकेज है। ऐसा वादा करो, बड़ा ही सही, जो जनता को ज्यादा फायदेमंद नजर आए। अब तक केवल नेता ही अपना आर्थिक फायदा देखा करते थे, लेकिन अब मतदाता भी सीधे अपना आर्थिक फायदा देखने लगा है। मतदाताओं को कोरे भाषण नहीं चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अगर किसानों को सीधे धन देने वाली कोई योजना ला सकते हैं, यदि युवाओं को हजार या दो हजार बेरोजगारी भत्ता दे सकते हैं, तो चुनावी संग्राम उनके हाथ में है।  
अभी कांग्रेस के पास क्या है? क्या वह भाजपा के सपनों से बड़े सपने मतदाताओं को दिखा सकती है? गौर कीजिएगा, देश बदल चुका है, हर किसी को तथ्य, तर्क और पैकेज चाहिए, ये देने के मामले में जो बेहतर होगा, वह वोट जुटा लेगा। 
लेन-देन की हलचल की शुरुआत पूर्वी उत्तर प्रदेश की 33 सीटों से हो चुकी है, लेकिन वहां भी प्रियंका गांधी को सोचना होगा कि उनके पास ‘ऑफर’ करने के लिए ऐसा क्या है, जो अब तक किसी ने ‘ऑफर’ नहीं किया। इसी ‘ऑफर’ में उनकी सफलता छिपी है।