एंड्रयू कारनेगी, प्रसिद्ध उद्योगपति
हां, मां भगवान का रूप होती है। उस दिन यही रूप अपलक देख रहा था 12 वर्षीय बच्चा एंड्रयू। अचंभित और कुछ भयभीत। मां से लगकर खड़ा चार वर्षीय भाई टॉम तो और भी सशंकित था। डनफर्मलाइन, स्कॉटलैंड से पलायन कर पिट्सबर्ग, अमेरिका आए गरीब परिवार के लिए वे कड़ी परीक्षा के दिन थे। जुलाहे पिता विलियम का काम कभी ऐसे मंदा पड़ जाता कि रोटियों के लाले पड़ जाते। ऐसे में, एक रिश्तेदार ने सुझाव दिया था, ‘एंड्रयू को घूम-घूमकर सजावटी सामान बेचने के काम में लगा दो, कुछ कमाई हो जाया करेगी।’
इसी सलाह पर मां मार्गरेट भड़क उठी थीं। मां का वह रौद्र रूप दुर्लभ था। परेशानी के बावजूद वह पूरे दर्प से गरजी थीं, ‘क्या, मेरा बेटा फेरीवाला बनेगा? असभ्य लोगों के बीच जाकर घाटों पर सजावटी सामान बेचेगा? खबरदार, मेरा बेटा फेरी नहीं लगाएगा, कभी नहीं। इससे अच्छा तो मैं उसे अलेघेनी नदी में फेंक दूं।’ सलाहकार की एक न चली, मुंहतोड़ जवाब मिल गया। उन्होंने साफ कर दिया था कि उनके बेटे पराए देश में जूझते बेरोजगारों की भीड़ में कतई शामिल नहीं होंगे, वे किसी अच्छी जगह दिमाग लगाएंगे। सम्मानजनक काम ही करेंगे।
यही वो लम्हा है, जब एंड्रयू को लग गया कि जीवन में मां जैसा कोई नहीं मिलेगा। पिता खूब जूझकर भी विफल हो जाते, लेकिन मां सूझ-बूझ से सफल हो जातीं। ऐसी मां के सशक्त साये में एंड्रयू बढ़ते गए और एक दिन इतने बड़े हो गए कि दुनिया उन्हें सबसे अमीर इंसान एंड्रयू कारनेगी (1835-1919) के रूप में देखने-पहचानने लगी, लेकिन वह अपने दिल से वो लम्हा कभी नहीं भुला पाए। जब भी किस्मत गिराती, चुनौतियों की बौछार होती, तो मां बचाव में खड़ी नजर आतीं और उनके वे शब्द गूंजने लगते, ‘खबरदार, मेरा बेटा...फेरीवाला...कभी नहीं।’ अदम्य साहस, श्रेष्ठता, नवाचार और परिश्रम पर भरोसे से भरपूर मां, जिसने पराए देश अमेरिका आकर भी अपने बच्चों को कभी दर-दर भटकने न दिया, देर रात तक जगकर जूते गांठती थीं, ताकि बच्चों पर कोई आंच न आए। रिश्तेदार को फटकारने के बाद मां ने उसी दिन बच्चों को साफ हिदायत दी थी, ‘लक्ष्य सबसे ऊंचा रखना।’ इस सलाह को कारनेगी ताउम्र दिलो-दिमाग से लगाए रहे। मां ने गरीबी के बावजूद अपने बच्चों को हमेशा अच्छे कपड़े पहनाए, ताकि उनमें हीनता बोध न आए। बचत और निवेश में माहिर मां ने उन्हीं लम्हों में बच्चों को चेता दिया था, ‘तुम कौड़ी का ध्यान रखो, अशर्फी अपना ध्यान खुद रख लेगी।’
बेशक, कारनेगी कौड़ी-कौड़ी से होते हुए ही दुनिया के सबसे बड़े खजाने के मालिक बने। कपड़े के कारखाने में छोटी नौकरी से शुरू करते हुए संसार की सबसे बड़ी इस्पात कंपनी के मालिक बनने तक की उनकी यात्रा में वो लम्हा कदम-दर-कदम काम आया। उसी लम्हे से जुड़ा एक और लम्हा भी है, जो उन्हें रह-रहकर याद आ जाता था। उन्होंने मां से कहा था, ‘मां, एक दिन जब मैं अमीर हो जाऊंगा, तब हम चार घोड़ों वाली गाड़ी पर सवारी करेंगे।’ तब किशोर बेटे के सपने में मां ने अपना सपना जोड़ते हुए कहा था, ‘यहां वैसा होने से क्या फायदा, अगर डनफर्मलाइन का कोई शख्स हमें वैसे न देख सके?’
तो संघर्ष से एक दिन वह भी आया, जब दुनिया के चंद बड़े अमीरों में शुमार हो चुके कारनेगी अपनी मां को पूरी तैयारी के साथ अपने जन्मस्थान डनफर्मलाइन ले गए। अपने धरती पुत्र के उद्यम और दौलत का कीर्तिमान देखने मानो पूरा इंग्लैंड उमड़ पड़ा। इंग्लैंड का यह वही शहर था, जहां से कारनेगी परिवार परेशान होकर अमेरिका गया था। उन गलियों और इलाकों से गुजरते हुए मां मार्गरेट भाव-विभोर थीं। वह एक आराधना के सफल होने की खुशी थी, जो उनकी आंखों से बार-बार छलक रही थी। करीब 33 साल पहले जहां से फटेहाल निकले थे, ठीक वहीं मां-बेटे का शाही स्वागत हो रहा था। एंड्रयू कारनेगी लंबे समय तक अमेरिका ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे अमीर इंसान रहे। कमाने में अव्वल आए, तो दान-पुण्य में भी अव्वल रहे। लोक-उपकार के न जाने कितने संस्थान उन्होंने शुरू किए, जो आज भी चल रहे हैं।
वह अपनी सच्ची शक्ति मां को कभी खोना नहीं चाहते थे। मां और मां की सेवा में ऐसी श्रद्धा थी कि उनके जीवित रहते, बेटे ने विवाह नहीं किया। मां जब छोड़ गईं, तब 51 की उम्र में विवाह हुआ और जो इकलौती बेटी हुई, तो उसे उन्होंने वही नाम दिया, जो मां का नाम था- मार्गरेट। उस दिन मां यदि अपने बेटे को फेरीवाला बन जाने देतीं, तो एंड्रयू कारनेगी की जिंदगी न जाने किधर मुड़कर खो गई होती।
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