मुस्तफा कमाल पाशा, तुर्की गणराज्य के संस्थापक
मानो सब कुछ खत्म हो गया था। उस्मानी सल्तनत के सिपाही घात लगाए बैठे थे। तुर्की के इस्तांबुल शहर के उस फ्लैट पर 24 वर्षीय सैन्य कप्तान को पहुंचते ही पकड़ लिया गया। सामान्य किसान परिवार से आए उस वीर युवा के सैन्य करियर पर शुरुआत में ही अंत की मुहर लग गई। कैद से निकलने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं थी। अरब दुनिया में, और वह भी सुल्तान व खलीफा के दौर में रहम की उम्मीद कौन कर सकता था? निष्ठा पर शक की सुई जरा भी घूम जाए, तो सीधे मौत की सजा दी जाती थी या किसी देश या मोर्चे पर मरने भेज दिया जाता था।
उस दिन सुल्तान के सिपाही जिस युवा को बहुत आसानी से पकड़कर ले जा रहे थे, वह था भावी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सैन्य कमांडर, राजनीतिज्ञ मुस्तफा कमाल पाशा, जिन्हें पूरी दुनिया ने अतातुर्क के नाम से जाना। उस समय युवा मुस्तफा की आंखों के आगे वे दृश्य बार-बार उभर रहे थे, जब एक रात फेथी नाम का पुराना दोस्त फटेहाल मिलने पहुंचा था। सेना से बर्खास्त हो चुके फेथी ने गिड़गिड़ाकर कहा था, ‘मेरे पास न तो पैसे हैं और न कहीं सिर छिपाने की जगह।’ साथियों ने फेथी को उसी फ्लैट में रख लिया, जिसे मुस्तफा ने विचार-विमर्श के लिए किराये पर ले रखा था। दो दिन बाद जब फिर मिलने का मौका आया, तो गाज गिर गई। बाकी साथी पहले ही पकड़ लिए गए थे। फेथी ने दगा किया था, वह सल्तनत का गुप्तचर निकला।
सैन्य कॉलेज से साथ पढ़कर निकले मुस्तफा और उनके साथी तो देश की बेहतरी पर चिंतन करते थे, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उन पर नजर रखी जा रही है। उस्मानी सल्तनत की अदालत में कड़ी पूछताछ होती और फिर अंधेरे कमरों में धकेल दिया जाता। वे बहुत भारी, ठहरे हुए उदास दिन थे। कभी मां, कभी बहन, तो कभी प्यारे गृहनगर सलोनिका की याद आती, कभी देश सेवा के अधबने सपने सताते, कभी सेना में बने-बनाए करियर की मौत नजर आती।
मुस्तफा कमाल पाशा ने बाद में खुद बताया, ‘वो लम्हा मेरी जिंदगी का ऐसा मोड़ था, जिसने मेरे काम करने और सोचने के तरीके को पूरी तरह से बदलकर रख दिया।’ उन्होंने गहराई से सोचा कि नीति-रणनीति में गलती कहां हुई? उन्होंने तभी फैसला कर लिया था कि यदि कैद से निकलकर फिर जिंदगी मिली, तो एक भी गलती नहीं दोहराएंगे, मगर करेंगे वही, जो अपने और अपने वतन तुर्की के लिए बेहतर होगा।
खैर, कुछ महीने की कैद के बाद उनकी जिंदगी में नई सुबह हुई। हालात ऐसे बने कि उस्मानी सल्तनत को जंग के लिए कई मोर्चों पर प्रशिक्षित कमांडरों की जरूरत पड़ी। कैद से निकालकर मुस्तफा को राजधानी से बहुत दूर सीरिया के सैन्य मोर्चे पर भेज दिया गया। उसके बाद नित नई जंग और बेमिसाल हौसले का सिलसिला चला। मुस्तफा को सुल्तान के करीबी कमांडरों ने देश के सबसे कठिन मोर्चों पर भेजना शुरू किया। साजिश तो यही होती कि किसी मोर्चे पर मुस्तफा शहीद हो जाएं। मुस्तफा यह जानते थे, उन्होंने स्वयं कहा है, ‘मैं अक्सर मौखिक या लिखित आलोचना कर देता। इससे विशेष रूप से बूढ़े कमांडर आहत हो जाते थे। दंडस्वरूप ही मुझे कमांडर बना दिया गया, पर उनके गुस्से को मैंने आशीर्वाद में बदल दिया। जब मैं कमांडर बना, तो सारी यूनिटें मेरे साथ अभ्यास में शामिल होने लगीं। मुझे सुनने अफसर जुटने लगे।’
वह गिरफ्तारी और कैद के उन लम्हों में किया गया चिंतन ही था कि मुस्तफा जिंदगी में फिर कभी जासूसों या दुश्मनों के हाथ नहीं आए। देश के लिए लड़ी गई एक भी जंग नहीं हारे। संयोग है कि आज से सौ साल पहले, यानी 7 अगस्त, 1919 को वह नेशनलिस्ट कांग्रेस के चेयरमैन बनाए गए थे। संगठन-प्रबंधन की खूबियों से भरे मुस्तफा जिस भी काबिल कमांडर या विद्वान से मिलते, उसे हमेशा के लिए अपना बना लेते। अपनी लकीर इतनी लंबी करते गए कि दुश्मनों की लकीरें बौनी होती गईं। अपने ईद-गिर्द उन्होंने ऐसा मजबूत घेरा बना लिया कि जब एक दफा सुल्तान ने उनकी गिरफ्तारी का हुक्म दिया, तो कोई कमांडर हुक्म बजाने आगे नहीं आया। वह पुलिस तो शर्म से गड़ रही थी, जो कभी मुस्तफा के लिए घात लगाए बैठी थी। 5 अगस्त, 1921 को नेशनल असेंबली ने उन्हें बुलाकर देश का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया। 24 की उम्र में जिस नौजवान का अंत होने वाला था, वह 42 की उम्र में तुर्की गणराज्य का पहला राष्ट्रपति बन गया। मुस्तफा के नेतृत्व में एक दिन वह भी आया, जब सुल्तान और खलीफा का अंत हुआ। उनका तुर्की गणराज्य सबसे आधुनिक, सबसे प्रगतिशील देश के रूप में हमेशा के लिए मिसाल बन गया। यह मंजिल शायद उन्हें न मिली होती, अगर एक दोस्त की दगाबाजी ने उन्हें जेल न पहुंचा दिया होता।
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