(1 जून को नरगिस दुनिया में आई थीं और 3 मई को विदा हुई थीं)
राज कपूर की सफलता का श्रेय उन्हें अकेले देना ठीक नहीं होगा और राज कपूर ने भी कभी यह नहीं माना कि ‘आई एम द बॉस’। यह अपने आप में एक बड़ी बात है। उनका भाव यह था कि सफलता तो टीम के सदस्यों की है, मैंने तो सिर्फ यह देखा है कि कितना, क्या होना चाहिए। राज कपूर ने एक बार कहा था, ‘गायक और गीत मेरे लिए जिंदगी की प्रेरणा हैं। गायिका लता मंगेशकर, गायक मुकेश, मोहम्मद रफी, इनका मेरा काफी लंबे समय से साथ रहा है। संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, शंकर, जयकिशन का क्या कहूं, राम गांगुली का क्या कहंू, इन सबसे मैंने बहुत कुछ पाया है, गीतकार शैलेन्द्र, हसरत, मैंने इन सबसे बहुत कुछ पाया है, जितना भी इस रस में इन लोगों का हिस्सा है, उतना मेरा नहीं है। मेरा सिर्फ यह है कि जैसे कंडक्टर एक सिम्फनी को कंडक्ट करता है, किस वक्त जोर से बजना है और किस वक्त धीमे-धीमे बजना है, बस मेरा यही करना (काम) रहा है, मैं तो सिर्फ कंडक्टर हूं।’
वाकई बिना मजबूत टीम के शो मैन नहीं बना जा सकता। फिल्म या सिनेमा टीम वर्क है, बड़ा कुछ करना है, तो अच्छी और बड़ी टीम चाहिए। यह राज कपूर की खूबी ही मानी जाएगी कि उन्होंने कुशल लोगों को पहचाना, मौका दिया और अपने साथ बनाए रखा। राज कपूर को याद करते हुए ऐसे लोगों को भी साथ में याद कर लेना चाहिए, जो राज कपूर को शो मैन बनाने में बहुत निकट से सहायक रहे हैं। कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं - नरगिस, शंकर, जयकिशन, ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मुकेश।
नरगिस (फातिमा रशीद) : ( 1929 -1981) : राज कपूर ने नरगिस के साथ करीब 16 फिल्में की थीं। नरगिस ने राज कपूर को बनाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। राज कपूर के पास जब पैसे कम पड़ते थे, तब वे दूसरे निर्माताओं की फिल्मों में काम करके पैसे जुटाती थीं, ताकि आर.के. बैनर तले फिल्में बन सकें। नरगिस परंपरा, परिवार, समाज, दुनिया से लड़ गई थीं। बहुत जरूरी होता, तभी दूसरे निर्देशकों-निर्माताओं के साथ काम करती थीं। यह कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है। राज कपूर के पीछे नरगिस ही वह महिला थीं, जिनके योगदान की कोई तुलना संभव नहीं है। नरगिस के प्रभाव में ही फिल्म दुनिया में आर.के. बैनर की खास छवि निर्मित हुई। राज कपूर की फिल्मों में सौंदर्य, सकारात्मकता और आधुनिकता का स्पर्श नरगिस के जरिये ही होता था। अपने हाव-भाव और व्यवहार में वे आधुनिक महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। उनके चेहरे का भाव, उनकी हंसी, मुस्कराहट और यहां तक कि उनके रोने या दुखी होने का अंदाज भी बहुत सहजता से लोगों को प्रभावित करता था। वे नाटकीय नहीं थीं, वे अभिनय में सरल थीं। यह कभी नहीं लगता था कि वे मेहनत के साथ अभिनय कर रही हैं, इस मामले में वे स्वाभाविक अभिनेत्री थीं। वे अभिनय की दुनिया में राज कपूर से ज्यादा अनुभवी थीं। जब राज कपूर नए स्टार थे या जब स्टार बनने की प्रक्रिया में थे, तब नरगिस फिल्म दुनिया में अपने लिए स्थान बना चुकी थीं। उनके अभिनय में क्षमता, समर्पण और अनुभव, तीनों ही झलकता है। उनके अभिनय में जितनी गंभीरता थी, उतना ही मस्तमौलापन भी। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि फिल्म दुनिया में अभिनय के लिए राज कपूर से ज्यादा नरगिस की मांग रहती थी।
यह बात गौर करने की है कि नरगिस जब साथ थीं, तब राज कपूर पुरुष चरित्र के वर्चस्व वाली फिल्में बना रहे थे। महिला चरित्र के वर्चस्व वाली फिल्मों का निर्माण तो राज कपूर ने नरगिस से बिछडऩे के बाद ही शुरू किया। यह कहा जाता है कि राज कपूर के स्टूडियो में नरगिस की भूमिका जैसे-जैसे बढ़ती गई, फिल्मों में वैसे-वैसे घटती गई। अंतत: नरगिस ने राज कपूर से किनारा कर लिया। दोनों का साथ करीब 9 -10 बरस का रहा, लेकिन नरगिस के जाने तक राज कपूर अपने आर.के. बैनर को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा तक पहुंचा चुके थे। नायिका के चरित्र को नरगिस ने ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था। वे अपने आप में स्कूल हैं। प्रेम, रोमांस को अपनी आंखों, पलकों, होंठो के जरिये जाहिर करने की कला में उन्हें विशेषज्ञ माना जा सकता है। उन्होंने अपने बाद की नायिकाओं या अभिनेत्रियों के काम को बहुत आसान बना दिया। अगर वे दूसरे निर्देशकों के साथ काम करना जारी रखतीं, तो वे और भी ऊंचाई तक जा पातीं। यह राज कपूर के लिए अफसोस की बात रहेगी कि नरगिस का बेहतरीन अभिनय उनकी फिल्मों में नहीं, बल्कि दूसरों द्वारा निर्देशित फिल्मों में पुरस्कृत किया गया। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’(1957) के लिए नरगिस को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर और सत्येन बोस के निर्देशन में ‘रात और दिन’ (1967) में अभिनय के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। ‘मदर इंडिया’ के समय नरगिस 26-27 साल की थीं, इस उम्र में एक बूढ़ी मां का किरदार अदा करके उन्होंने इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ तक पहुंचा दिया था। इन दोनों ही फिल्मों में नरगिस की भूमिका बहुत चुनौतीपूर्ण थी। खासकर ‘रात और दिन’ में मल्टीपल पर्सनालिटी डिसऑर्डर से ग्रस्त युवती की भूमिका में नरगिस ने कमाल कर दिया। वे अभिनय से अलग हुईं, लेकिन हमेशा फिल्मों के आसपास ही रहीं। उन्होंने समाज सेवा के लिए भी बहुत काम किए। वे 1980 में राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हुई थीं, हालांकि वहां वे ज्यादा समय नहीं रह सकीं। 1981 में पेनक्रियाटिस कैंसर से उनका निधन हुआ। हमारा सिनेमा उद्योग नरगिस को कभी भुला नहीं सकता।
नरगिस (फातिमा रशीद) : ( 1929 -1981) |
वाकई बिना मजबूत टीम के शो मैन नहीं बना जा सकता। फिल्म या सिनेमा टीम वर्क है, बड़ा कुछ करना है, तो अच्छी और बड़ी टीम चाहिए। यह राज कपूर की खूबी ही मानी जाएगी कि उन्होंने कुशल लोगों को पहचाना, मौका दिया और अपने साथ बनाए रखा। राज कपूर को याद करते हुए ऐसे लोगों को भी साथ में याद कर लेना चाहिए, जो राज कपूर को शो मैन बनाने में बहुत निकट से सहायक रहे हैं। कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं - नरगिस, शंकर, जयकिशन, ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मुकेश।
नरगिस (फातिमा रशीद) : ( 1929 -1981) : राज कपूर ने नरगिस के साथ करीब 16 फिल्में की थीं। नरगिस ने राज कपूर को बनाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। राज कपूर के पास जब पैसे कम पड़ते थे, तब वे दूसरे निर्माताओं की फिल्मों में काम करके पैसे जुटाती थीं, ताकि आर.के. बैनर तले फिल्में बन सकें। नरगिस परंपरा, परिवार, समाज, दुनिया से लड़ गई थीं। बहुत जरूरी होता, तभी दूसरे निर्देशकों-निर्माताओं के साथ काम करती थीं। यह कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है। राज कपूर के पीछे नरगिस ही वह महिला थीं, जिनके योगदान की कोई तुलना संभव नहीं है। नरगिस के प्रभाव में ही फिल्म दुनिया में आर.के. बैनर की खास छवि निर्मित हुई। राज कपूर की फिल्मों में सौंदर्य, सकारात्मकता और आधुनिकता का स्पर्श नरगिस के जरिये ही होता था। अपने हाव-भाव और व्यवहार में वे आधुनिक महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। उनके चेहरे का भाव, उनकी हंसी, मुस्कराहट और यहां तक कि उनके रोने या दुखी होने का अंदाज भी बहुत सहजता से लोगों को प्रभावित करता था। वे नाटकीय नहीं थीं, वे अभिनय में सरल थीं। यह कभी नहीं लगता था कि वे मेहनत के साथ अभिनय कर रही हैं, इस मामले में वे स्वाभाविक अभिनेत्री थीं। वे अभिनय की दुनिया में राज कपूर से ज्यादा अनुभवी थीं। जब राज कपूर नए स्टार थे या जब स्टार बनने की प्रक्रिया में थे, तब नरगिस फिल्म दुनिया में अपने लिए स्थान बना चुकी थीं। उनके अभिनय में क्षमता, समर्पण और अनुभव, तीनों ही झलकता है। उनके अभिनय में जितनी गंभीरता थी, उतना ही मस्तमौलापन भी। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि फिल्म दुनिया में अभिनय के लिए राज कपूर से ज्यादा नरगिस की मांग रहती थी।
यह बात गौर करने की है कि नरगिस जब साथ थीं, तब राज कपूर पुरुष चरित्र के वर्चस्व वाली फिल्में बना रहे थे। महिला चरित्र के वर्चस्व वाली फिल्मों का निर्माण तो राज कपूर ने नरगिस से बिछडऩे के बाद ही शुरू किया। यह कहा जाता है कि राज कपूर के स्टूडियो में नरगिस की भूमिका जैसे-जैसे बढ़ती गई, फिल्मों में वैसे-वैसे घटती गई। अंतत: नरगिस ने राज कपूर से किनारा कर लिया। दोनों का साथ करीब 9 -10 बरस का रहा, लेकिन नरगिस के जाने तक राज कपूर अपने आर.के. बैनर को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा तक पहुंचा चुके थे। नायिका के चरित्र को नरगिस ने ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था। वे अपने आप में स्कूल हैं। प्रेम, रोमांस को अपनी आंखों, पलकों, होंठो के जरिये जाहिर करने की कला में उन्हें विशेषज्ञ माना जा सकता है। उन्होंने अपने बाद की नायिकाओं या अभिनेत्रियों के काम को बहुत आसान बना दिया। अगर वे दूसरे निर्देशकों के साथ काम करना जारी रखतीं, तो वे और भी ऊंचाई तक जा पातीं। यह राज कपूर के लिए अफसोस की बात रहेगी कि नरगिस का बेहतरीन अभिनय उनकी फिल्मों में नहीं, बल्कि दूसरों द्वारा निर्देशित फिल्मों में पुरस्कृत किया गया। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’(1957) के लिए नरगिस को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर और सत्येन बोस के निर्देशन में ‘रात और दिन’ (1967) में अभिनय के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। ‘मदर इंडिया’ के समय नरगिस 26-27 साल की थीं, इस उम्र में एक बूढ़ी मां का किरदार अदा करके उन्होंने इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ तक पहुंचा दिया था। इन दोनों ही फिल्मों में नरगिस की भूमिका बहुत चुनौतीपूर्ण थी। खासकर ‘रात और दिन’ में मल्टीपल पर्सनालिटी डिसऑर्डर से ग्रस्त युवती की भूमिका में नरगिस ने कमाल कर दिया। वे अभिनय से अलग हुईं, लेकिन हमेशा फिल्मों के आसपास ही रहीं। उन्होंने समाज सेवा के लिए भी बहुत काम किए। वे 1980 में राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हुई थीं, हालांकि वहां वे ज्यादा समय नहीं रह सकीं। 1981 में पेनक्रियाटिस कैंसर से उनका निधन हुआ। हमारा सिनेमा उद्योग नरगिस को कभी भुला नहीं सकता।
एक कसर रह गई कसक की तरह
प्यार तो हुआ, पर इकरार न हुआ। नरगिस और राज कपूर का प्यार दुनिया को पता था। दोनों के प्यार के किस्से खूब किताबों में आए हैं। उनके प्यार के चर्चे आज भी होते हैं और शायद हमेशा होंगे। उस दौर में ऐसी कोई जोड़ी नहीं थी। दोनों ही जवान थे, युवा थे, राज कपूर बहुत कम उम्र में निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के रूप में जमने लगे थे। नरगिस ने भी राज कपूर को खूब चाहा, लेकिन इससे आगे बढक़र नरगिस शादी करना चाहती थीं। राज कपूर उन्हें दूसरी पत्नी भी बना लेते, तो वह तैयार हो जातीं, लेकिन राज कपूर पर शायद परिवार, खानदान का दबाव था। पिता पृथ्वीराज कपूर का कठोर अनुशासन था, जो राज कपूर को एक शादी से बाहर सोचने से रोक रहा था।
नरगिस को भी परिवार चाहिए था, बच्चे चाहिए थे, घर-गृहस्थी चाहिए थी। यह बात सब जानते हैं कि राज कपूर जब पहली फिल्म ‘आग’ की तैयारी में लगे थे, तब वे नरगिस की मां जद्दन बाई से मिलने गए थे। जद्दन भाई गायिका, निर्देशक, निर्माता थीं, उनकी अपनी फिल्म कंपनी थे। घर पर जद्दन बाई नहीं थीं, नरगिस थीं, उन्होंने दरवाजा खोला, बेसन सने हाथों से बालों को चेहरे से हटाया, बिल्कुल यही दृश्य राज कपूर ने ‘बॉबी’ में फिल्माया। पहली मुलाकात में नरगिस पर खास प्रभाव नहीं हुआ था, लेकिन राज कपूर नरगिस के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उनके लिए ‘आग’ में एक भूमिका लिखी गई। अगली फिल्म ‘बरसात’ में वह राज कपूर की नायिका बनीं। तब तक प्यार का मामला आगे बढ़ चुका था। जद्दन बाई का जब 1949 में निधन हुआ, तो राज कपूर ही नरगिस के लिए भावनात्मक सहारा बने। आर.के. स्टूडियो के कॉटेज में ही नरगिस रहने लगी थीं और फिल्मों के लिए निरंतर चलने वाली बहसों में नरगिस भागीदार हुआ करती थीं। वे स्टूडियो में बॉस की तरह रहती थीं। जाहिर है, वे स्टूडियो को अपना मानकर चलती थीं और यह भी मानती थीं कि राज कपूर एक दिन उनके हो जाएंगे। राज कपूर अपने बैनर के अलावा दूसरे निर्देशकों के लिए भी नरगिस के साथ काम करते थे। काम और नाम कम नहीं था, दुनिया में दोनों की ख्याति थी। रूस इत्यादि देशों में तो लोग यह मानते थे कि नरगिस ही मिसेज राज कपूर हैं। किताबों में यह भी दर्ज कि नरगिस हिन्दू मैरिज एक्ट बना रहे विद्वान नेता मोरारजी देसाई (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने) से मिलने के लिए पहुंच गई थीं कि क्या वे राज कपूर से विवाह कर सकती हैं। देसाई ने एक तरह से उन्हें फटकार दिया था। आजाद भारत में जो हिन्दू मैरिज एक्ट बन रहा था, उसके अनुसार हिन्दुओं के लिए केवल एक ही विवाह वैध था। परंपरा अनुसार, एक से ज्यादा विवाह करने की छूट मुस्लिमों को मिलनी थी, हिन्दुओं को नहीं।
राज कपूर के मन में प्रेम था, वे मात्र उसी से संचालित हो रहे थे। वे शायद नरगिस की दुविधा को समझ नहीं पा रहे थे। लोगों और नरगिस के सौतेले भाई अख्तर हुसैन ने नरगिस को बार-बार समझाया कि वे राज कपूर के पीछे समय बर्बाद कर रही हैं। करियर चौपट कर रही हैं। धीरे-धीरे नरगिस को भी अहसास हुआ कि वह समय बर्बाद कर रही हैं, जो उन्हें चाहिए, वह राज कपूर से कभी नहीं मिलेगा। फिर वह दिन आ ही गया और 1955 में नरगिस अलग रास्ते पर चल पड़ीं। दूसरे निर्माताओं की कुछ फिल्मों को उन्होंने स्वीकार किया। एक फिल्म ‘मदर इंडिया’ थी, जिसने नरगिस को अभिनय और शोहरत की नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का मौका दिया। राज कपूर हमेशा बेवफाई का आरोप लगाते रहे। लौटने के लिए मनाते रहे। दोनों की आखिरी मुलाकात बर्लिन में 6 जुलाई 1957 को हुई थी। दोनों ने साथ भोजन किया, एक दूसरे को शुभकामनाओं के साथ दोनों विदा हुए। नरगिस आगे बढ़ गईं, जब उन्होंने पलटकर देखा था, तो राज कपूर की आंखों में आंसू थे।
नरगिस के लिए राज कपूर के आंसू कभी नहीं सूखे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिससे नरगिस की शादीशुदा जिंदगी में खलल पड़े। नरगिस ने पलटकर कभी राज कपूर के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने खुद को आदर्श पत्नी साबित किया। पति सुनील दत्त का करियर बनाने और उन्हें स्टार बनाने में नरगिस का योगदान अतुलनीय है। नरगिस वाकई बड़ी कलाकार व सशक्त महिला थीं, सिनेमा की दुनिया में राज कपूर और सुनील दत्त दो ऐसे बड़े नाम हैं, जिनके पीछे नरगिस की ताकत अपने पूरे हठ के साथ शामिल है।
स्पष्ट है, राज कपूर पिता की मर्जी के खिलाफ जा नहीं सकते थे। वे एक आदर्श पुत्र थे। उन्होंने एकतरफा प्यार करना भी नहीं छोड़ा और पारिवारिक मर्यादाओं की भी हमेशा पालना की। हालांकि कई बार वे नरगिस पर बेवफाई का जो आरोप लगाते थे, वह लोगों को अच्छा नहीं लगता था। नरगिस पहले राज कपूर के लिए प्लस प्वाइंट थीं, लेकिन बाद में राज कपूर ने उन्हें अपना माइनस प्वाइंट बना दिया या बनने दिया। उन्होंने अनेक साक्षात्कारों में यह कहा है कि नरगिस ने उन्हें धोखा दिया, जबकि यह बात सही नहीं है। नरगिस में नाम या पैसा कमाने की कोई बहुत महत्वाकांक्षा नजर नहीं आती है। उन्होंने बचपन से देखा था कि उनकी मां ने जिंदगी कैसे काटी, लोग कैसी-कैसी बातें करते थे, किस निगाह से देखते थे।
यह गौर करने की बात है कि नरगिस की मां जद्दन बाई अपने दौर की दबंग व सशक्त महिला थीं। उन्होंने कुल तीन शादियां की थीं, जिनमें से दो पति हिन्दू थे, लेकिन उन्होंने धर्म बदलकर ही जद्दन बाई से निकाह किया था। नरगिस के पिता हिन्दू थे - मोहन बाबू, लेकिन निकाह के लिए वे अब्दुल रशीद हो गए थे, इसलिए नरगिस का वास्तविक नाम फातिमा रशीद था। मां का जीवन सामान्य नहीं था, लेकिन बेटी अपने लिए सामान्य जीवन की तलाश में थी। नरगिस अपनी मां से ज्यादा विद्वान और वास्तविक अर्थों में सेकुलर थीं। वह सामान्य जिंदगी में लौटना चाहती थीं, घर-परिवार, पति, बच्चे। वह कामयाब रहीं। उनके नाम से भारत सरकार एक पुरस्कार देती है। समाजसेवा से वह राज्यसभा तक पहुंचीं। जब उनका जनाजा निकला, तो राज कपूर भी एक किनारे जा खड़े हुए थे, उन्होंने तब भी आगे बढक़र कोई विवाद खड़ा नहीं किया। वे सुनील दत्त के लिए भी कोई परेशानी खड़ा करना नहीं चाहते थे।
राज कपूर के मन में नरगिस की छवि हमेशा जीवित रही। राज कपूर कहते थे कि कृष्णा उनके बच्चों की मां और नरगिस उनके फिल्मों की मां। ‘बॉबी’ में उन्होंने डिंपल कपाडिय़ा को मौका दिया। तब डिंपल ठीक वैसी ही दिखती थीं, जैसी 1945-46 में नरगिस दिखती थीं। ‘हुमायू’ फिल्म की नरगिस और ‘बॉबी’ की डिंपल में सबसे ज्यादा साम्यता है।
यह कोई नई बात नहीं है कि भारतीय समाज पर्दे पर प्यार को पसंद करता है, लेकिन धरातल पर प्यार की परख दूसरे तरीके से होती है। फिल्म सितारों के बीच पनपने वाला अवैध या असामान्य प्यार राज कपूर के जमाने में भी लोगों को नापसंद था और आज भी लोग पसंद नहीं करते। राज कपूर शायद नरगिस को अपनी राधा बनाए रखना चाहते थे, लेकिन आधुनिक दुनिया में यह संभव नहीं था। कृष्ण की दुनिया में लगभग सब कुछ कृष्ण के मुताबिक हुआ था, लेकिन राज कपूर की दुनिया में सब कुछ राज कपूर के मुताबिक नहीं हो सकता था। इसी दुनिया में दस तरह के सवाल थे, कई तरह की निगाहें थीं, जो परेशान करती थीं। नरगिस ने जो किया, वह किसी भी तरह से गलत नहीं था। उन्हें अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक था, वे अपने अतीत के अंधकार से भाग रही थीं। पूरा उजाला राज कपूर के यहां नहीं मिला, लेकिन सुनील दत्त के यहां मिल गया। सुनील दत्त वाकई बहुत भले इंसान थे, इतने भले इंसान फिल्म दुनिया में दुर्लभ हैं। नरगिस ने अपनी दुविधा से निकलकर एक भला आदमी खोजा। यहां धर्म कोई मायने नहीं रखता था। मां की तरह उन्होंने अपने पति का धर्म नहीं बदला।
यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि राज कपूर ने ही नहीं, बल्कि नरगिस ने भी इस प्रेम की कीमत अदा की। दोनों अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंचे, लेकिन एक कसर, एक कसक रह गई। दोनों के सिनेमाई और वास्तविक प्रेम में भारतीय समाज और सिनेमा समाज के लिए अनेक संदेश छिपे हैं, जिन्हें पढक़र-समझकर ही अनावश्यक दर्द और विवादों से बचा जा सकता है। राज कपूर का दर्शन यह कहता है कि प्यार में ही भलाई है, लेकिन कहीं न कहीं यह भी उतना ही सच है कि प्यार पर किसी का जोर नहीं चलता, लेकिन हर आदमी अपनी भलाई तो सोच ही सकता है। प्यार करना चाहिए और प्यार करते हुए भविष्य के बारे में सोचना भी चाहिए। प्रेम सम्बंध तभी चलते हैं, जब सोच की दिशा एक होती है। सोच भटकती भी है, तो परस्पर प्रेम और विश्वास उसे रास्ते पर ले आता है।
राज कपूर और नरगिस के रास्ते अलग हो गए, लेकिन इस जोड़ी को सदा याद किया जाएगा। यह हिन्दी फिल्मों की पहली बड़ी जोड़ी है, जिसे आज भी एक-दूजे के साथ ही याद किया जाता है। यह पहली जोड़ी है, जिसने भारत में सिनेमाई आधुनिकता की नींव रखी। यह पहली जोड़ी है, जिसने प्रेम के तनाव और रोमांस की खूबसूरती को पर्दे पर नई ऊर्जा के साथ बखूबी पेश किया। यह पहली जोड़ी है, जिसने (शायद वास्तविक) प्रेम और संगीत के जरिये सिनेमाई प्रेम की नई परिभाषा का सृजन किया। यह जोड़ी आने वाली तमाम जोडिय़ों के लिए मानक मानी जा सकती है।
राज कपूर के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनके हाथ से उनकी सच्ची प्रेमिका निकल गई थी, जिसे वे हर जगह ढूंढ़ रहे थे। यह खोज कई बार बहुत खुलकर सामने आई। उन्होंने हर नायिका में अपनी पुरानी प्रेमिका की मौजूदगी की कल्पना की। जब हम गहराई से विवेचना करते हैं, तो राज कपूर की बाद की पांच में से चार फिल्में महिलाओं को केन्द्र में रखते हुए भी न केवल पुरुष वर्चस्व को सामने लाती हैं, बल्कि उनमें एक तरह का पर-पीड़ा-आनंद भी महसूस होता है। उनका कैमरा स्त्री शरीर के उन इलाकों पर भी फोकस कर रहा था, जिसकी जरूरत शायद नहीं थी। स्त्री शरीर पर जितना फोकस राज कपूर ने अपनी शुरुआती फिल्मों में किया है, उतना पर्याप्त था। नरगिस अपने समय में पर्दे पर ‘इरोटिक’ नायिका के किरदार को सबसे ज्यादा बेहतर तरीके से पेश कर रही थीं, देह प्रदर्शन वहां भी था, उस दौर के हिसाब से ज्यादा भी था, लेकिन तब भी नरगिस में वह क्षमता थी कि उन्होंने ‘इरोटिक’ रहते हुए भी अपने व्यक्तित्व में ‘वल्गेरिटी’ यानी अश्लीलता का तनिक भी स्पर्श नहीं होने दिया। हम कह सकते हैं, राज कपूर अगर ज्वार थे, तो नरगिस उस ज्वार का मजबूत तट थीं, लेकिन जब नरगिस चली गईं, तो राज कपूर के लिए मुश्किल खड़ी हो गई। राज कपूर की फिल्मों में कैमरा उन नायिकाओं को देखने लगा, जो उसे दिखने लगीं। जो नायिकाएं दिखने लगीं, उनमें वह क्षमता नहीं थी कि वे कैमरे को हावी होने से रोक पातीं, कैमरे को सूरत पर नहीं, सीरत पर फोकस करने के लिए मजबूर कर पातीं। ऐसा लगता है कि राज कपूर हर नई नायिका में अपनी पुरानी प्रेमिका को खोज रहे थे। नरगिस तो राज कपूर से मुलाकात के पहले से ही कुशल अभिनेत्री थीं। नरगिस जैसी ही डिंपल कपाडिय़ा मिलीं, लेकिन एक फिल्म से पहले ही शादी करके घर में बैठ गईं। राज कपूर ने ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ में जीनत अमान को आजमाया, ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी को, दोनों ही नई थीं। जीनत के बारे में अगर चालू शब्दावली में कहें, तो वे ‘सेक्स सिम्बल’ के रूप में पहचान बनाने में सफल रहीं, लेकिन मंदाकिनी में तो वह क्षमता भी नहीं थी। अपेक्षाकृत साफ-सुथरी फिल्म ‘प्रेम रोग’ में काम करने वाली पद्मिनी कोल्हापुरे एक बेहद समर्थ अभिनेत्री हैं, लेकिन उनमें भी नरगिस वाली बात नहीं थी। राज कपूर की बाद की फिल्मों ने नरगिसी-प्रभाव को बहुत ‘मिस’ किया है। (सिनेमा पर शोध के राज कपूर अध्याय के दो अंश)
प्यार तो हुआ, पर इकरार न हुआ। नरगिस और राज कपूर का प्यार दुनिया को पता था। दोनों के प्यार के किस्से खूब किताबों में आए हैं। उनके प्यार के चर्चे आज भी होते हैं और शायद हमेशा होंगे। उस दौर में ऐसी कोई जोड़ी नहीं थी। दोनों ही जवान थे, युवा थे, राज कपूर बहुत कम उम्र में निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के रूप में जमने लगे थे। नरगिस ने भी राज कपूर को खूब चाहा, लेकिन इससे आगे बढक़र नरगिस शादी करना चाहती थीं। राज कपूर उन्हें दूसरी पत्नी भी बना लेते, तो वह तैयार हो जातीं, लेकिन राज कपूर पर शायद परिवार, खानदान का दबाव था। पिता पृथ्वीराज कपूर का कठोर अनुशासन था, जो राज कपूर को एक शादी से बाहर सोचने से रोक रहा था।
नरगिस को भी परिवार चाहिए था, बच्चे चाहिए थे, घर-गृहस्थी चाहिए थी। यह बात सब जानते हैं कि राज कपूर जब पहली फिल्म ‘आग’ की तैयारी में लगे थे, तब वे नरगिस की मां जद्दन बाई से मिलने गए थे। जद्दन भाई गायिका, निर्देशक, निर्माता थीं, उनकी अपनी फिल्म कंपनी थे। घर पर जद्दन बाई नहीं थीं, नरगिस थीं, उन्होंने दरवाजा खोला, बेसन सने हाथों से बालों को चेहरे से हटाया, बिल्कुल यही दृश्य राज कपूर ने ‘बॉबी’ में फिल्माया। पहली मुलाकात में नरगिस पर खास प्रभाव नहीं हुआ था, लेकिन राज कपूर नरगिस के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उनके लिए ‘आग’ में एक भूमिका लिखी गई। अगली फिल्म ‘बरसात’ में वह राज कपूर की नायिका बनीं। तब तक प्यार का मामला आगे बढ़ चुका था। जद्दन बाई का जब 1949 में निधन हुआ, तो राज कपूर ही नरगिस के लिए भावनात्मक सहारा बने। आर.के. स्टूडियो के कॉटेज में ही नरगिस रहने लगी थीं और फिल्मों के लिए निरंतर चलने वाली बहसों में नरगिस भागीदार हुआ करती थीं। वे स्टूडियो में बॉस की तरह रहती थीं। जाहिर है, वे स्टूडियो को अपना मानकर चलती थीं और यह भी मानती थीं कि राज कपूर एक दिन उनके हो जाएंगे। राज कपूर अपने बैनर के अलावा दूसरे निर्देशकों के लिए भी नरगिस के साथ काम करते थे। काम और नाम कम नहीं था, दुनिया में दोनों की ख्याति थी। रूस इत्यादि देशों में तो लोग यह मानते थे कि नरगिस ही मिसेज राज कपूर हैं। किताबों में यह भी दर्ज कि नरगिस हिन्दू मैरिज एक्ट बना रहे विद्वान नेता मोरारजी देसाई (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने) से मिलने के लिए पहुंच गई थीं कि क्या वे राज कपूर से विवाह कर सकती हैं। देसाई ने एक तरह से उन्हें फटकार दिया था। आजाद भारत में जो हिन्दू मैरिज एक्ट बन रहा था, उसके अनुसार हिन्दुओं के लिए केवल एक ही विवाह वैध था। परंपरा अनुसार, एक से ज्यादा विवाह करने की छूट मुस्लिमों को मिलनी थी, हिन्दुओं को नहीं।
राज कपूर के मन में प्रेम था, वे मात्र उसी से संचालित हो रहे थे। वे शायद नरगिस की दुविधा को समझ नहीं पा रहे थे। लोगों और नरगिस के सौतेले भाई अख्तर हुसैन ने नरगिस को बार-बार समझाया कि वे राज कपूर के पीछे समय बर्बाद कर रही हैं। करियर चौपट कर रही हैं। धीरे-धीरे नरगिस को भी अहसास हुआ कि वह समय बर्बाद कर रही हैं, जो उन्हें चाहिए, वह राज कपूर से कभी नहीं मिलेगा। फिर वह दिन आ ही गया और 1955 में नरगिस अलग रास्ते पर चल पड़ीं। दूसरे निर्माताओं की कुछ फिल्मों को उन्होंने स्वीकार किया। एक फिल्म ‘मदर इंडिया’ थी, जिसने नरगिस को अभिनय और शोहरत की नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का मौका दिया। राज कपूर हमेशा बेवफाई का आरोप लगाते रहे। लौटने के लिए मनाते रहे। दोनों की आखिरी मुलाकात बर्लिन में 6 जुलाई 1957 को हुई थी। दोनों ने साथ भोजन किया, एक दूसरे को शुभकामनाओं के साथ दोनों विदा हुए। नरगिस आगे बढ़ गईं, जब उन्होंने पलटकर देखा था, तो राज कपूर की आंखों में आंसू थे।
नरगिस के लिए राज कपूर के आंसू कभी नहीं सूखे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिससे नरगिस की शादीशुदा जिंदगी में खलल पड़े। नरगिस ने पलटकर कभी राज कपूर के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने खुद को आदर्श पत्नी साबित किया। पति सुनील दत्त का करियर बनाने और उन्हें स्टार बनाने में नरगिस का योगदान अतुलनीय है। नरगिस वाकई बड़ी कलाकार व सशक्त महिला थीं, सिनेमा की दुनिया में राज कपूर और सुनील दत्त दो ऐसे बड़े नाम हैं, जिनके पीछे नरगिस की ताकत अपने पूरे हठ के साथ शामिल है।
स्पष्ट है, राज कपूर पिता की मर्जी के खिलाफ जा नहीं सकते थे। वे एक आदर्श पुत्र थे। उन्होंने एकतरफा प्यार करना भी नहीं छोड़ा और पारिवारिक मर्यादाओं की भी हमेशा पालना की। हालांकि कई बार वे नरगिस पर बेवफाई का जो आरोप लगाते थे, वह लोगों को अच्छा नहीं लगता था। नरगिस पहले राज कपूर के लिए प्लस प्वाइंट थीं, लेकिन बाद में राज कपूर ने उन्हें अपना माइनस प्वाइंट बना दिया या बनने दिया। उन्होंने अनेक साक्षात्कारों में यह कहा है कि नरगिस ने उन्हें धोखा दिया, जबकि यह बात सही नहीं है। नरगिस में नाम या पैसा कमाने की कोई बहुत महत्वाकांक्षा नजर नहीं आती है। उन्होंने बचपन से देखा था कि उनकी मां ने जिंदगी कैसे काटी, लोग कैसी-कैसी बातें करते थे, किस निगाह से देखते थे।
यह गौर करने की बात है कि नरगिस की मां जद्दन बाई अपने दौर की दबंग व सशक्त महिला थीं। उन्होंने कुल तीन शादियां की थीं, जिनमें से दो पति हिन्दू थे, लेकिन उन्होंने धर्म बदलकर ही जद्दन बाई से निकाह किया था। नरगिस के पिता हिन्दू थे - मोहन बाबू, लेकिन निकाह के लिए वे अब्दुल रशीद हो गए थे, इसलिए नरगिस का वास्तविक नाम फातिमा रशीद था। मां का जीवन सामान्य नहीं था, लेकिन बेटी अपने लिए सामान्य जीवन की तलाश में थी। नरगिस अपनी मां से ज्यादा विद्वान और वास्तविक अर्थों में सेकुलर थीं। वह सामान्य जिंदगी में लौटना चाहती थीं, घर-परिवार, पति, बच्चे। वह कामयाब रहीं। उनके नाम से भारत सरकार एक पुरस्कार देती है। समाजसेवा से वह राज्यसभा तक पहुंचीं। जब उनका जनाजा निकला, तो राज कपूर भी एक किनारे जा खड़े हुए थे, उन्होंने तब भी आगे बढक़र कोई विवाद खड़ा नहीं किया। वे सुनील दत्त के लिए भी कोई परेशानी खड़ा करना नहीं चाहते थे।
राज कपूर के मन में नरगिस की छवि हमेशा जीवित रही। राज कपूर कहते थे कि कृष्णा उनके बच्चों की मां और नरगिस उनके फिल्मों की मां। ‘बॉबी’ में उन्होंने डिंपल कपाडिय़ा को मौका दिया। तब डिंपल ठीक वैसी ही दिखती थीं, जैसी 1945-46 में नरगिस दिखती थीं। ‘हुमायू’ फिल्म की नरगिस और ‘बॉबी’ की डिंपल में सबसे ज्यादा साम्यता है।
यह कोई नई बात नहीं है कि भारतीय समाज पर्दे पर प्यार को पसंद करता है, लेकिन धरातल पर प्यार की परख दूसरे तरीके से होती है। फिल्म सितारों के बीच पनपने वाला अवैध या असामान्य प्यार राज कपूर के जमाने में भी लोगों को नापसंद था और आज भी लोग पसंद नहीं करते। राज कपूर शायद नरगिस को अपनी राधा बनाए रखना चाहते थे, लेकिन आधुनिक दुनिया में यह संभव नहीं था। कृष्ण की दुनिया में लगभग सब कुछ कृष्ण के मुताबिक हुआ था, लेकिन राज कपूर की दुनिया में सब कुछ राज कपूर के मुताबिक नहीं हो सकता था। इसी दुनिया में दस तरह के सवाल थे, कई तरह की निगाहें थीं, जो परेशान करती थीं। नरगिस ने जो किया, वह किसी भी तरह से गलत नहीं था। उन्हें अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक था, वे अपने अतीत के अंधकार से भाग रही थीं। पूरा उजाला राज कपूर के यहां नहीं मिला, लेकिन सुनील दत्त के यहां मिल गया। सुनील दत्त वाकई बहुत भले इंसान थे, इतने भले इंसान फिल्म दुनिया में दुर्लभ हैं। नरगिस ने अपनी दुविधा से निकलकर एक भला आदमी खोजा। यहां धर्म कोई मायने नहीं रखता था। मां की तरह उन्होंने अपने पति का धर्म नहीं बदला।
यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि राज कपूर ने ही नहीं, बल्कि नरगिस ने भी इस प्रेम की कीमत अदा की। दोनों अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंचे, लेकिन एक कसर, एक कसक रह गई। दोनों के सिनेमाई और वास्तविक प्रेम में भारतीय समाज और सिनेमा समाज के लिए अनेक संदेश छिपे हैं, जिन्हें पढक़र-समझकर ही अनावश्यक दर्द और विवादों से बचा जा सकता है। राज कपूर का दर्शन यह कहता है कि प्यार में ही भलाई है, लेकिन कहीं न कहीं यह भी उतना ही सच है कि प्यार पर किसी का जोर नहीं चलता, लेकिन हर आदमी अपनी भलाई तो सोच ही सकता है। प्यार करना चाहिए और प्यार करते हुए भविष्य के बारे में सोचना भी चाहिए। प्रेम सम्बंध तभी चलते हैं, जब सोच की दिशा एक होती है। सोच भटकती भी है, तो परस्पर प्रेम और विश्वास उसे रास्ते पर ले आता है।
राज कपूर और नरगिस के रास्ते अलग हो गए, लेकिन इस जोड़ी को सदा याद किया जाएगा। यह हिन्दी फिल्मों की पहली बड़ी जोड़ी है, जिसे आज भी एक-दूजे के साथ ही याद किया जाता है। यह पहली जोड़ी है, जिसने भारत में सिनेमाई आधुनिकता की नींव रखी। यह पहली जोड़ी है, जिसने प्रेम के तनाव और रोमांस की खूबसूरती को पर्दे पर नई ऊर्जा के साथ बखूबी पेश किया। यह पहली जोड़ी है, जिसने (शायद वास्तविक) प्रेम और संगीत के जरिये सिनेमाई प्रेम की नई परिभाषा का सृजन किया। यह जोड़ी आने वाली तमाम जोडिय़ों के लिए मानक मानी जा सकती है।
राज कपूर के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनके हाथ से उनकी सच्ची प्रेमिका निकल गई थी, जिसे वे हर जगह ढूंढ़ रहे थे। यह खोज कई बार बहुत खुलकर सामने आई। उन्होंने हर नायिका में अपनी पुरानी प्रेमिका की मौजूदगी की कल्पना की। जब हम गहराई से विवेचना करते हैं, तो राज कपूर की बाद की पांच में से चार फिल्में महिलाओं को केन्द्र में रखते हुए भी न केवल पुरुष वर्चस्व को सामने लाती हैं, बल्कि उनमें एक तरह का पर-पीड़ा-आनंद भी महसूस होता है। उनका कैमरा स्त्री शरीर के उन इलाकों पर भी फोकस कर रहा था, जिसकी जरूरत शायद नहीं थी। स्त्री शरीर पर जितना फोकस राज कपूर ने अपनी शुरुआती फिल्मों में किया है, उतना पर्याप्त था। नरगिस अपने समय में पर्दे पर ‘इरोटिक’ नायिका के किरदार को सबसे ज्यादा बेहतर तरीके से पेश कर रही थीं, देह प्रदर्शन वहां भी था, उस दौर के हिसाब से ज्यादा भी था, लेकिन तब भी नरगिस में वह क्षमता थी कि उन्होंने ‘इरोटिक’ रहते हुए भी अपने व्यक्तित्व में ‘वल्गेरिटी’ यानी अश्लीलता का तनिक भी स्पर्श नहीं होने दिया। हम कह सकते हैं, राज कपूर अगर ज्वार थे, तो नरगिस उस ज्वार का मजबूत तट थीं, लेकिन जब नरगिस चली गईं, तो राज कपूर के लिए मुश्किल खड़ी हो गई। राज कपूर की फिल्मों में कैमरा उन नायिकाओं को देखने लगा, जो उसे दिखने लगीं। जो नायिकाएं दिखने लगीं, उनमें वह क्षमता नहीं थी कि वे कैमरे को हावी होने से रोक पातीं, कैमरे को सूरत पर नहीं, सीरत पर फोकस करने के लिए मजबूर कर पातीं। ऐसा लगता है कि राज कपूर हर नई नायिका में अपनी पुरानी प्रेमिका को खोज रहे थे। नरगिस तो राज कपूर से मुलाकात के पहले से ही कुशल अभिनेत्री थीं। नरगिस जैसी ही डिंपल कपाडिय़ा मिलीं, लेकिन एक फिल्म से पहले ही शादी करके घर में बैठ गईं। राज कपूर ने ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ में जीनत अमान को आजमाया, ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी को, दोनों ही नई थीं। जीनत के बारे में अगर चालू शब्दावली में कहें, तो वे ‘सेक्स सिम्बल’ के रूप में पहचान बनाने में सफल रहीं, लेकिन मंदाकिनी में तो वह क्षमता भी नहीं थी। अपेक्षाकृत साफ-सुथरी फिल्म ‘प्रेम रोग’ में काम करने वाली पद्मिनी कोल्हापुरे एक बेहद समर्थ अभिनेत्री हैं, लेकिन उनमें भी नरगिस वाली बात नहीं थी। राज कपूर की बाद की फिल्मों ने नरगिसी-प्रभाव को बहुत ‘मिस’ किया है। (सिनेमा पर शोध के राज कपूर अध्याय के दो अंश)
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