Sunday 10 November, 2019

उस सजा-ए-मौत ने पीछा नहीं छोड़ा

लियो टॉलस्टॉय
हमें सभ्य होने में सदियां लगी हैं। इन सदियों में खून, पसीने और आंसुओं की अनगिन बूंदें बही हैं, तभी मानवता की मजबूत धारा चली है। मानवता की ऐसी ही धारा में फ्रांस का शहर पेरिस आज दुनिया के शालीनतम शहरों में शुमार है, लेकिन कभी पेरिस भी बर्बरता का गढ़ था। वहां उस सुबह एक खुली जगह पर करीब 15,000 दर्शकों की भीड़ जुटी थी। कभी सन्नाटा पसर जाता, तो कभी कोलाहल। नजरें बार-बार उस युवक की ओर उठ जाती थीं, जिसे घेरे सिपाही खड़े थे। भीड़ में रुक-रुककर फुसफुसाहट फैलती थी कि लुटेरा है, हत्यारा है, शक्ल से सामान्य लगता है, लेकिन कर्म बुरे हैं, तो सिपाही पकड़ लाए हैं। जज ने फैसला सुना दिया है और सजा का तमाशा देखने भीड़ जुटी है।

एकाएक सन्नाटा गहरा हो जाता है, एक तीखी चीख गूंजती है, धारदार तलवार चलती है और उस युवक का सिर धड़ से अलग जमीन पर जा गिरता है। कुछ लोग देख पाते हैं, कुछ नजरें चुरा लेते हैं, तो कुछ तत्क्षण निकल पड़ते हैं। उसी भीड़ में नौजवान लियो टॉलस्टॉय भी हैं, बुरी तरह स्तब्ध। पल भर में गर्दन नीचे उतर आई! नीचे उतरकर भी आंखें कुछ देर देखती रहीं, धड़ ढेर होकर कुछ देर पूर्णता को तड़पता रहा। क्या यही इंसानियत है? क्या इन्हीं लोगों को इंसान कहते हैं? क्या इन्हीं का पाप अपने माथे लेकर ईसा मसीह सूली चढ़ गए थे?  एक अजीब-सा दर्द लियो की

नसों में उतरकर ठहर गया। दिल बार-बार पूछने लगा, क्या यही तमाशा दिखाने लाए थे? दिमाग सांत्वना देता, ऐसी सजा का तमाशा कभी देखा नहीं था, इसीलिए आए, तजुर्बा तो हुआ। दिल पूछता, माना कि वह अपराधी था, लेकिन किसी का पुत्र, भाई, पति या पिता भी तो होगा। दिमाग अड़ जाता, कानून अंधा होता है और अपराध करने वाला मात्र अपराधी। दिल तड़पता, यह तो असभ्यता है, ऐसी सजा और वह भी खुलेआम? दिमाग समझाता, ताकि सब देखें, सबक सीखें। उस दिन भीड़ तो तमाशा देखकर निकल गई, लेकिन लियो मानो वहीं ठहर गए। पता नहीं, तमाशा बार-बार लौटता था या लियो खुद उस तमाशे में बार-बार लौट आते थे। कुल मिलाकर, वह सजा-ए-मौत ऐसे साथ लगी कि फिर न छूटी। 

वह वर्ष 1857 का कोई दिन रहा होगा, 28 वर्षीय लियो के दिल और दिमाग में मानवता और तार्किकता की जो जंग शुरू हुई, उसने दुनिया को एक बेहतरीन दानी, समाजसेवी इंसान और साहित्यकार दिया। लियो तो रूसी सैनिक थे, युद्ध लड़ चुके थे। हालांकि उनका मन युद्ध के लिए बना ही नहीं था। युद्ध से छूटे, तो यूरोप घूमने निकले, पेरिस पहुंच गए, बर्बर तमाशा देखा। लियो उस लुटेरे-हत्यारे का नाम भी नहीं भूल पाए, उसका नाम था फ्रांसिस रिचेक्स। लियो ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘मैं सात बजे सुबह उठ गया और एक सरेआम सजा-ए-मौत देखने गया। एक तगड़े, श्वेत, ऊंची गर्दन और तनी हुई छाती वाले व्यक्ति ने एक धार्मिक ग्रंथ को चूमा और फिर... मौत।

कितना संवेदनहीन...? मुझे इसके पीछे कोई मजबूत धारणा नहीं मिली। मैं राजनीति का आदमी नहीं हूं। नैतिकता और कला, प्यार और समझ का मुझे पता है। गिलोटिन (सिर कलम करने का एक तरीका) ने मेरी नींद उड़ा दी और बरबस मेरे दिमाग में लौटती रही। उस तमाशे ने मुझ पर ऐसी छाप छोड़ी कि मैं भुला नहीं पाऊंगा। मैंने युद्ध में कई बार भयावहता देखी है। युद्ध में अगर मेरी मौजूदगी में एक आदमी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता, तो यह उतना खतरनाक नहीं होता, लेकिन यहां तो सरल और सुरुचिपूर्ण व्यवस्था के तहत उन्होंने एक मजबूत, स्वस्थ आदमी को पल भर में मार डाला।... न्यायिक लोग ईश्वर के नियम को निभाने की ढीठ और अभिमानी इच्छा रखते हैं। न्याय उन वकीलों द्वारा तय किया जाता है, जिनमें से हर एक खुद को सम्मान, धर्म और सच्चाई पर खरा मानता है। आदमी के बनाए ऐसे कई नियम बकवास हैं। सच्चाई यह है कि राज्य न केवल शोषण के लिए है, बल्कि मुख्य रूप से अपने नागरिकों को भ्रष्ट करने की एक साजिश भी है।... मेरे लिए राजनीति के नियम-कायदे भयानक झूठ हैं।... मेरी यह मान्यता कम से कम कुछ हद तक मुझे राहत दिलाती है। आज के बाद ऐसी कोई चीज न मैं देखने कभी जाऊंगा और न मैं कभी किसी सरकार की सेवा करूंगा।’ 

वह समाजसेवा को समर्पित हो गए। किताब लिखकर जो भी कमाते थे, दान कर देते थे। राजनीति के प्रति लियो के ऐसे दर्द से ही प्रेरित होकर महात्मा गांधी और अनेक दिग्गज नेताओं ने सत्य-प्रेम-अहिंसा की राजनीति से सभ्यता का नया इतिहास लिख दिया। फ्रांस में 1939 में ही ऐसी सजा का तमाशा थम गया और अब कानून की किताबें भी ऐसी बर्बरता से अपना दामन छुड़ा चुकी हैं।

As Published In Hindustan - 15 Spt- 2019

No comments: