Tuesday 28 February, 2012

श्री अरविन्द और महात्मा



मुझे नहीं पता था कि अचानक पांडिचेरी जाना पड़ेगा। जब ७ फरवरी को यह फैसला लिया गया कि मुझे पीआईबी और केन्द्र सरकार द्वारा आयोजित ऑल इंडिया एडिटर्स कांफ्रेंस में जाना है, आने-जाने के लिए प्लेन के टिकट की व्यवस्था हुई। ९ फरवरी की दोपहर जब जयपुर में चेन्नई के लिए उड़ान भर रहे प्लेन में बैठा, तो ऑफिस की रोजमर्रा की चिंताओं से हटकर मैं सोचने लगा कि पांडिचेरी में मुझे क्या-क्या करना है। सबसे पहले मेरे दिमाग में यह सोचकर खुशी हुई कि पांडिचेरी में श्री अरविंद आश्रम जाने का मौका मिलेगा। किशोर वय का था, तो मेरे दिमाग पर महात्मा गांधी का दर्शन छाया हुआ था, लेकिन उनके बाद जिस महानविभूति ने मेरे मानस को झकझोर कर रख दिया, वे श्री अरविन्द थे। अरविन्द घोष, राजनेता अरविन्द घोष, संत अरविन्द घोष, विचारक-चिंतक अरविन्द घोष। मुझे बड़ा हर्ष हुआ। महात्मा गांधी को जानने के बाद श्री अरविन्द या श्री अरोबिन्दो को जानना अचंभित, स्तब्ध और प्रेरित करता है। जो श्री अरविन्द को पहले पढ़ेंगे, उन्हें संभवत: गांधी जी अच्छे नहीं लगेंगे।
गांधी जी ने केवल वकालत की पढ़ाई ब्रिटेन में की थी, श्री अरविन्द की तो लगभग पूरी स्कूलिंग ही ब्रिटेन में हुई थी। यह कहा जाता है, गांधी जी का दर्शन ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में ईसाइयों के बीच तैयार हुआ। उन्होंने प्रेम के साथ अहिंसा की वकालत की। एक गाल पर मार खाने के बाद दूसरे गाल को आगे कर देने की हद तक की अहिंसा का मत ईसाई दर्शन में तो पुख्ता रूप से है, लेकिन सनातन मत में मोटे तौर पर अहिंसा के लिए अहिंसा और हिंसा के लिए हिंसा की वकालत की गई है। ध्यान दीजिएगा, हमारे कोई भी देवी या देवता बिना अस्त्र या शस्त्र के नहीं हैं, गांधी जी के रास्ते पर अगर आगे चला जाए, तो संभव है, अस्त्र और शस्त्र हाथ से छूट जाएंगे, इसलिए गांधी सनातन संस्कृति की महिमा का गुणगान करने के बावजूद वैचारिक रूप से विराधाभास भी खड़े करते हैं। निस्संदेह गांधी प्रभावित करते हैं, लेकिन वे कई बार बहुत विचलित भी करते हैं।
महात्मा गांधी की विराटता से अभिभूत होने के बावजूद मैं यह बात नहीं भूल पाता हूं कि श्री अरविन्द ने राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए सर्वाधिक और शुरुआती काम किए, बहिष्कार का सिद्धांत उन्हीं का है। अंग्रेज लॉर्ड मिंटो से लेकर सर एडवर्ड बेकर तक अनेक ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि भारत में राष्ट्रद्रोही (अंग्रेजी शासन के खिलाफ) सिद्धांत फैलाने में अगर किसी एक व्यक्ति का सर्वाधिक योगदान है, तो वे अरविन्द हैं। वे क्रांतिकारियों के अपने विचारक थे, मई १९०८ से मई १९०९ तक वे जेल में रहे थे, तब गांधी जी का भारतीय राजनीति में पदार्पण भी नहीं हुआ था। वे क्रांतिकारी थे, पुलिस उनके पीछे पड़ी रहती थी, अध्यात्म व साधना में मुश्किल आती थी, इसलिए वे ब्रिटिश भारत को छोडक़र फ्रांसीसी उपनिवेश पांडिचेरी में जा बसे। अध्यात्म व साहित्य में रचना प्रक्रिया व साधना लंबी चली, बताते हैं, वे चालीस साल तक पांडिचेरी से बाहर नहीं निकले। भारत और दुनिया भर से उनके पास लोग आते रहे, उनका कारवां बढ़ता चला गया और आज जब वे नहीं हैं, तब भी बढ़ता चला जा रहा है।
वे मानते थे कि राष्ट्रवाद राजनीति नहीं, बल्कि एक धर्म है, एक सिद्धांत है, एक विश्वास है। वे गांधी जी के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते, वे कहते हैं, ‘अहिंसा सुरक्षा नहीं कर सकती, उससे व्यक्ति केवल मर सकता है।’ यह संयोग है, श्री अरविन्द के इस कथन के करीब आठ साल बाद अहिंसा के पुजारी गांधी जी की भी हत्या ही हुई। बहुत बाद में कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को भगाया गया, लेकिन श्री अरविन्द ने आजादी से पहले २१ जून १९४० को ही कह दिया था, ‘कश्मीर में हिन्दुओं का पूरा एकाधिकार था। अब यदि मुस्लिम मांगों को स्वीकार कर लिया जाता है, तो हिन्दुओं का सफाया कर दिया जाएगा।’
खैर १९३६ में श्री अरविन्द ने गांधी जी के विचारों के संदर्भ टिप्पणी की, ‘महात्मा ने जो दृष्टि अपनाई है, वह हिन्दू की अपेक्षा ईसाई ही है। एक ईसाई के लिए आत्मावनति, दीनता, मानवता अथवा ईश्वर की सेवा के लिए निम्न स्थिति को स्वीकार कर लेना ऐसी चीजें हैं, जो उत्कृष्ट रूप से आध्यात्मिक और आत्मा का गौरवशाली विशेषाधिकार हैं।’
श्री अरविन्द ने लगातार गांधी जी के दर्शन के सामने अपने दर्शन को सशक्त रूप से रखा और एक बड़ी जमात थी, क्रांतिकारियों के अलावा, जो उन्हें पंसद करती थी। उन्होंने गांधी जी के बारे में १९२६ में ही लिखा था, ‘उनके सारे उपदेश ईसाई धर्म से लिए गए हैं और यद्यपि बाह्य वेष भारतीय है, तो भी मूल भावना ईसाई है। वे ईसा मसीह न भी हों, तो भी वे हर हालत में उसी आवेग की परंपरा में आते हैं। वे टॉल्सटॉय, बाइबिल से बहुत अधिक प्रभावित हैं और उनकी शिक्षाओं में सुदृढ़ जैनी रंगत है, कम से कम भारतीय शास्त्रों, उपनिषदों अथवा गीता से कहीं अधिक, जिसकी व्याख्या उन्होंने अपनी धारणाओं के प्रकाश में ही की है।’
श्री अरविन्द तर्क के धनी थे और उन्होंने बहुत शालीनता से अपनी बातों को रखा और प्रमाणित किया, जबकि वे यह मानते थे कि गांधी जी तर्क संगत नहीं थे। उन्होंने कांग्रेस के पतन व भ्रष्टाचार का भी घोर विरोध किया, गांधी जी ने तो इस पर बाद में बोलना शुरू किया। वे एक मुखर भारत के समर्थक थे, दब्बू भारत के निर्माण का उन्होंने सदैव विरोध किया। हम अगर गौर करेंगे, तो भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस को उनके ज्यादा करीब पाएंगे और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वे वही करना चाहते थे, जो सनातन धर्म कहता है, जो वेद कहता है, जो हमारी अपनी संस्कृति कहती है। वे पश्चिम की नकल के घोर विरोधी थे। दूसरी ओर, गांधी जी ने पश्चिम का विरोध भी किया और पश्चिम को सराहा भी।
जो लोग केवल गांधी जी को जानते हैं, उन्हें श्री अरविन्द को भी जरूर जानना चाहिए। गांधी जी मानवतावाद की बात करते हैं, जबकि श्री अरविन्द आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करते हैं। दोनों को पढऩे से भारतीयता का सम्पूर्णता में न केवल आभास होता है, बल्कि सोचने-समझने की शक्ति भी बढ़ती है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ है, गांधी जी को पढ़ते हुए मैं जितना द्रवित हुआ, उससे ज्यादा भावुक मैं श्री अरविन्द को पढऩे पर हुआ। गांधी जी केवल जगाते हैं, जबकि अरविन्द झकझोर कर रख देते हैं। गांधी जी थकाते हैं, जबकि श्री अरविन्द नींद उड़ा देते हैं।
श्री अरविन्द को जब आप जानेंगे, तो संभव है, गांधी जी से आपको खीज हो। वैसे भी नेताजी सुभाष बोस और भगत सिंह के संदर्भ में गांधी जी से खीजने वालों की इस देश में कमी नहीं है। गांधी जी जब थे, तो उनके विरोधी उनके स्वयं के परिवार में भी थे। उनके दोनों बड़े बेटों, हरिलाल, मणिलाल, खासकर हरिलाल जी ने तो गांधी जी का जमकर विरोध किया। किन्तु यह सुखद संयोग है, जब अपनी खराब आदतों व अनुशासनहीनता के लिए बुरी तरह बदनाम हो चुके पिता विरोधी हरिलाल जी श्री अरविन्द के पास पांडिचेरी पहुंचे थे, तब श्री अरविन्द ने उन्हें सुधारने का प्रयास किया था और वचन लिया था कि हरिलाल आगे जीवन में सत् आचरण करेंगे। पांडिचेरी से हरिलाल जी ने अपनी मां बा को पत्र भी लिखा था, ‘मैं मरते दम तक अपनी भूलें नहीं दोहराऊंगा।’ किन्तु दुर्भाग्य, हरिलाल पांडिचेरी से निकलने के बाद ज्यादा देर तक अपना वचन नहीं निभा पाए, फिर गांधी जी के विरोध में उन्होंने हर वह काम किया, जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। खैर, गांधी जी ने स्वयं माना है, वे बेटों व परिवार के प्रति निष्ठुर रहे हैं।
अफसोस, श्री अरविन्द के मामले में भी गांधी जी निष्ठुर थे। गांधी जी ने श्री अरविन्द के विचारों का कभी सम्मान नहीं किया। जब उन्होंने गांधी जी के पास अपना दूत भेजकर नाजियों व हिटलर के खिलाफ अंगे्रजों का साथ देने की अपील की, तो गांधी जी ने सलाह स्वीकार करनेे से भी इनकार करते हुए कहा, ‘अरविन्द कौन हैं? वे तो राजनीति छोड़ चुके हैं।’ यह सवाल पैदा होता है कि क्या देश के किसी आध्यात्मिक गुरु या संत या विचारक को यह अधिकार नहीं है कि वह देश के एक बड़े नेता को कोई सलाह दे सके? क्या किसी संत के विचार को केवल इसलिए खारिज कर देना चाहिए, क्योंकि वह राजनीति में नहीं है? क्या राजनीति केवल राजनीतिज्ञों की बपौती है, क्या उसमें जनभागीदारी नहीं होनी चाहिए?
यहां गांधी जी ने शायद श्री अरविन्द की ही टिप्पणी को सही साबित किया कि गांधी जी तार्किक नहीं हैं। यह बहस या यह वृतांत इतना रोचक है कि हजारों पन्ने रंगे जा सकते हैं। फिर कभी...

1 comment:

SUPERMAN ATIMANAV said...

भाई,
बहुत eco pened यह दस्तावेज है.मैं भी अक्सर इन दिनों सोचता था कि आप मुझे क्यों अंदर तक छू लेते हैं.यह आलेख पढकर प्रमाण मिला.अब मेरा यह सुझाव भी सुने कि पत्रिका की तरफ से श्रीअरविंद के अतिमानव की'' next क्रमिक विकास'' पर एक अंक निकाले.साहित्य पर तो काम होता ही रहता है पर as a next being... आपकी समझ यह भी एक ड्यूटी बनती है.मेरा पूरा सहयोग आपको मिलेगा.गुलाब जी से भी बात करनी हो तो अवश्य करें..

कृपया मेरा ब्लॉग भी पढ़े, इसमें मैंने अपने सूरत गढ़ प्रवास के अध्यात्मिक अनुभवों को लिखा है.हो सकता है कि आपको विश्वास न हो पर मैंने एक समय श्रीअरविंद के अतिमानस पर बहुत काम किया है और आज भी बदस्तूर जारी है..प्रमाण !!...आपसे मित्रता ही है.
भाई
रविदत्त मोहता