Sunday, 31 August 2008

क्यों सैर करें खामोश रहें?



देश में पांच सौ से ज्यादा ऐसे संगठन हैं, जो या तो हिंसक हैं या फिर अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा का सहारा ले सकते हैं। ऐसे संगठनों में युवाओं को आगे रखा जाता है और घाघ लोग परदे के पीछे रहकर मजा लेते हैं। उन्हें युवाओं का जीवन संवारने की कोई चिंता नहीं होती। उनके लिए तो गरीब, मध्यवर्गीय युवा महज हथियार हैं, जिनके इस्तेमाल से खूब ताकत, पैसा और रसूख पैदा किया जा सकता है। भारतीय युवाओं को गौर करना चाहिए, ज्यादातर डॉन, माफिया, आतंकी सरगना विदेश में आरामदेह जगहों पर रहते हुए भारत में युवाओं को हिंसा की आग में झोंकना चाहते हैं। भारत में बढ़ती युवा आबादी देश को वर्ष 2050 तक तरक्की के शिखर पर ले जा सकती है, लेकिन अगर युवा भटके, तो देश ठहर जाएगा और जवानी हमारे हाथ से निकल जाएगी, अत: यह संभलने का वक्त है


`गर्म आंसू और ठंडी आहें मन में क्या-क्या मौसम है,´ लेकिन सत्ता में बैठे बादशाह हमसे यही चाहेंगे कि `इस बगिया में भेद न खोलो, सैर करो, खामोश रहो।´ लेकिन खामोश रहने वालों को देश माफ नहीं करेगा। यह ऐसा समय है, जब युवाओं को भटकने से बचाकर देश को भटकने से बचाना होगा, वरना चंद भटके हुए युवा देश को गमों में डुबो देंगे। सिमी में भी युवा हैं, बजरंग दल और खालिस्तान, उल्फा, लश्कर, पीपुल्स वार गु्रप, सबमें युवा हैं, क्योंकि उनके बिना काम नहीं चल सकता, लेकिन इन युवाओं के मन में देश की छवि इतनी अलग-अलग बना दी गई है कि उन सबका सामूहिक देश नजरअंदाज हो गया है। निष्पक्ष, संतुलित सोच के विद्वान दुर्लभ होते जा रहे हैं। पत्रकारिता में ही बड़े-बड़े नाम हैं, जिनकी एकमुखी विचारधारा को समझना कठिन नहीं है। अगर कोई वामपंथी कलमकार है, तो वह अद्धसत्य दिखाते हुए दक्षिणपंथियों को धूल चटाने में जुटा है, वह अपने पापों पर बात करना नहीं चाहता। अगर कोई भगवा समर्थक है, तो वह बजरंगियों का पुरजोर बचाव करता है और वामपंथियों, कांग्रेसियों की निंदा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। विचारधारा के इस दोगलेपन ने देश को बड़ी क्षति पहुंचाई है। समाज वास्तविकता जानने से वंचित है, जिसकी वजह से जगह-जगह समस्याएं पैदा हो रही हैं। कुछ ऐसे कथित समाजवादी चिंतक, लेखक, विश्लेषक भी हैं, जो चुनाव दर चुनाव अमीर होते जाते हैं। पत्रकारों की जमात में भी घोर हिन्दू और घोर मुस्लिम मिल जाते हैं। बुद्धिजीवियों में एक जमात वह भी है, जो मौकापरस्त और लिजलिजी है, जो विचारों की जलेबी बनाने का काम करती है। ज्यादातर बुद्धिजीवी, होते कुछ हैं, दिखते कुछ हैं, लिखते कुछ हैं, करते कुछ हैं। कुछ तो सुरापान उपरांत राष्ट्र चिंतन करते हैं। सरकार भी लोगों को भ्रमित करती है। एक तरफ, सरकार सिमी पर प्रतिबंध लगवाती है और दूसरी ओर, उसके मंत्री रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव सिमी को प्रतिबंध मुक्त करने की बात करते हैं। पासवान तो वाजपेयी सरकार के समय भी मंत्री रहे थे, तब उन्होंने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्यों नहीं की थी? लादेन के हमशक्ल के साथ उन्होंने प्रचार किया था, लेकिन उन्हें शर्म नहीं आती। जाहिर है, ऐसे नेता मुस्लिमों को बरगलाते हैं। ये ऐसे नेता हैं, जिन्होंने मुस्लिमों के विकास के लिए एक ढेला भी नहीं सरकाया है, लेकिन उन्हें बरगलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। जब देश का एक मंत्री लादेन को रोल मॉडल मानेगा, तो नागौरी जैसे लोगों को भारतीय होने पर शर्म भी महसूस होगी, वे छोटे-मोटे लादेन बन जाने की कोशिश करेंगे और कीमत चुकाएगा देश। देश में मुस्लिमों को अविश्वसनीय बनाने में जितना योगदान आतंकी संगठनों का है, उससे ज्यादा योगदान पासवान जैसे नेताओं का है। इन्होंने मिलकर देश में ऐसा असुरक्षा का माहौल बनाया है कि शबाना आजमी को मुंबई में घर खरीदने में परेशानी होती है और कश्मीर में कोई हिन्दू घर खरीदने की हिम्मत नहीं करता। हम ऐसे हालात में नियमों की अनदेखी और वोट की राजनीति की वजह से पहुंचे हैं। नियमों, कानूनों का कड़ाई से पालन करके सऊदी अरब व अमेरिका जैसे देश खुशहाल हो जाते हैं और नियमों-कानूनों से खिलवाड़ करके पाकिस्तान व भारत जैसे देश बदहाल रहते हैं। किसी भी व्यक्ति, समाज या देश की स्थायी सफलता नियमों-कानूनों के पालन पर ही निर्भर है। दुर्भाग्य से हममें से ज्यादातर लोग छोटे-छोटे नियमों का भी पालन करने को तैयार नहीं हैं, तो बताइए, क्या हमारा समाज असुरक्षित नहीं होगा? हमें सुधार करना ही होगा, वरना हमारी युवा आबादी वरदान बनने की बजाय अभिशाप बन जाएगी।


-----युवा सत्य------


- भारत में 70 प्रतिशत लोग 35 से कम उम्र के हैं


- 2250 लाख भारतीय 10 से 19 वर्ष के हैं-


- 71।3 प्रतिशत भारतीय 15 से 24 उम्र के-


- भारत की औसत उम्र करीब 27 साल है-


- चीन की औसत आयु 33 साल है


-भारत वर्ष 2050 तक जवानों का देश कहलाएगा


- करीब 18 प्रतिशत युवा देश से बाहर जाना चाहते हैं


Tuesday, 26 August 2008

खेल के लिए

हमारे देश के खेल में पिछड़ने के कई मूलभूत कारण हैं, लेकिन कुछ आधुनिक कारण भी हैं, जिनके बारे में हम भारतीय बहुत कम जानते हैं, कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर हमे खूब काम करना होगा, जैसे
एक्ससाइज फीजियोलॉजी
खिलाडि़यों को ऐसे व्यायाम और उपाय सुझाने संबंधी विज्ञान जिससे उनकी प्रदर्शन क्षमता में अधितकम विकास होता है। व्यायाम हर खेल के हिसाब से बदलता है। हर खेल की अपनी एक खास फीजियोलॉजी होती है। हमारे ज्यादातर खिलाडि़यों को फीजियोलॉजी का जरूरी ज्ञान नहीं है।
स्पोट्र्स न्यूटि्रशन
खेल व खिलाड़ी के आकार-प्रकार के हिसाब से भोजन तय होता है। कई खेल हैं, जिनमें प्रदर्शन सुधारने के साथ ही अपना वजन भी नियंत्रित रखना होता है। खिलाडि़यों को उचित पोषण देने का काम स्पोट्र्स न्यूटि्रशन के तहत आता है। भारत अभी इस मामले में शुरुआती स्तर पर है।
एंथ्रोपोमेट्री
एंथ्रोपोमेट्री में मानव के आकार या शारीरिक ढांचे का अध्ययन किया जाता है और अधिकतम या बेहतर प्रदर्शन के लिए आवश्यक सुधार किया जाता है। यथोचित पोषण, जीवन शैली और अन्य साधनों के दम पर शरीर के जरूरी हिस्सों को पुष्ट करने के उपाय आजमाए जाते हैं।
स्पोर्ट्स बायोकेमिस्ट्री
अभ्यास या व्यायाम के दौरान खिलाडि़यों के शरीर में निश्चित रूप से बायोकैमिकल या जैव-रसायन संबंधी बदलाव देखे जाते हैं और इन बदलावों को समझने, सुधारने या खेल अनुकूल बनाने का विज्ञान स्पोर्ट्स बायोकेमिस्ट्री कहलाता है। भारत में यह विज्ञान भी शैशव अवस्था में है।
स्पोर्ट्स मेडिसिन
खिलाडि़यों को विशेष प्रकार की दवाइयों की जरूरत होती है। सामान्य शब्दों में कहें, तो उन्हें ऐसी दवाओं की जरूरत पड़ती है, जिसमें दारू की मात्रा न हो। उन्हें दवा चाहिए, दारू नहीं, वरना वे डोपिंग के दोषी बन जाते हैं। भारत में स्पोर्ट्स मेडिसिन पॉपुलर नहीं हो सका है।

अब झुके तो टूट जाएंगे

नुक्लेअर सप्लायर ग्रुप -एनएसजी- के 45 सदस्य देशों में से 20 देश भारत को परमाणु व्यापार की मंजूरी तो देना चाहते हैं, लेकिन शर्तों के साथ। एक पक्ष यह है कि भारत अमेरिका असैन्य परमाणु करार पर ऐतराज करने वाले देश परमाणु अप्रसार के तगड़े पक्षधर रहे हैं और दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर देश भारत को उभरती ताकत के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनके मन में भारत की वह छवि अंकित है, जो दुनिया में पाकिस्तान और चीन जैसे देशों की कृपा से बनी है।

एनएसजी के 20 करार विरोधी देशों को तीन बिंदुओं पर ऐतराज है। पहली बात, वे चाहते हैं, भारत सीटीबीटी और एनपीटी पर हस्ताक्षर करे। दूसरी बात, वे करार मसौदे में हाइड एक्ट का स्पष्ट उल्लेख करना चाहते हैं। तीसरी बात, वे परमाणु संवर्धन और पुनर्सस्करण तकनीक भारत को देने के खिलाफ हैं। कुल मिलाकर, वे लिखित आश्वासन चाहते हैं कि भारत न तो परमाणु परीक्षण करेगा, न परमाणु हथियार बनाएगा, न परमाणु सामग्री का व्यापार करेगा।

वियेना में पहले दौर की वार्ता से निराश सरकार बोल तो यही रही है कि वह नई शर्ते स्वीकार नहीं करेगी, लेकिन भारतीय विदेश सचिव शिवशंकर मेनन का न्यूयॉर्क जाना और वहां अमेरिकी उपविदेश मंत्री विलियम बन्र्स के साथ मसौदे की पुनर्रचना का प्रस्ताव चिंतित करता है। पहली नजर में यही लगता है कि सरकार मसौदे की पुनर्रचना के पक्ष में है और वह केवल इतना चाहती है कि मसौदे में कोई आदेशात्मक शर्त शामिल न की जाए। असली खतरा यही है। न केवल मसौदे की भाषा बदल सकती है, बल्कि उसमें चुपचाप कुछ शर्तें भी शामिल की जा सकती हैं। अगर केवल हाइड एक्ट को ही मसौदे में शामिल कर लिया गया, तो एनएसजी में आपत्ति करने वाले देशों की जीत हो जाएगी और साथ ही, करार को अमेरिकी कांग्रेस में पारित करवाना भी जॉर्ज बुश के लिए आसान हो जाएगा, लेकिन यह भारत के लिए एक बड़ी हार होगी। जिस परमाणु करार को हम अच्छा मान रहे हैं, वह हमारे लिए बुरा हो जाएगा। भारत सवा अरब लोगों का महान देश है। वह आस्ट्रिया , न्यूजीलैंड, आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देशों जैसा नहीं है। भारत की चुनौतियां ऐसे दस देशों की चुनौतियों से भी ज्यादा हैं। हम अपनी गिनती दुनिया के 45 देशों में नहीं, बल्कि खास 6-8 देशों में करवाना चाहते हैं। भारत सरकार अगर नई शर्तें स्वीकार करेगी, तो यह भारत के उज्ज्वल सपनों के साथ समझौता होगा। परमाणु करार के मसले पर अगर हम और झुकेंगे, तो टूट जाएंगे।

Tuesday, 19 August 2008

एक स्वर्ण पदक की कीमत



ओलंपिक स्वर्ण का भावनात्मक मूल्य अतुलनीय है, लेकिन किसी के भी हृदय में यह सवाल पैदा हो सकता है कि एक स्वर्ण पदक की लागत कितनी होती है। तो बता देन कि पदक का वजन औसतन 250 ग्राम होता है। लेकिन सोने का पदक पूरे सोने का नहीं होता है, उसपर मात्र आधा तोला यानी छह ग्राम सोने की परत होती है और अंदर पदक चांदी का होता है। अर्थात सोने के पदक में 244 ग्राम चांदी होती है। आज के बाज़ार मूल्य के हिसाब से एक स्वर्ण पदक के निर्माण में 12,000 रुपये का खर्च आता है। पदक की लागत सोने और चांदी की कीमत के हिसाब से बदलती रहती है, लेकिन अगर कोई स्वर्ण पदक विजेता अपना पदक बेचना या नीलाम करना चाहे, तो वह 30 लाख रुपये भी ज्यादा कमा सकता है।


पोलैंड कि एक पदक विजेता तैराक ने एक अस्पताल में बच्चों की मदद के लिए अपना पदक करीब ३३ लाख रूपये में नीलाम किया था, इस महिला तैराक ने अथेन्स ओलम्पिक २००४ में स्वर्ण पदक जीता था

जो थे तगड़े दावेदार

मिल्खा का मलाल
पाकिस्तान के लायलपुर में 8 अक्टूबर 1935 को जन्मे फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह भारत के उन गिने चुने एथलीटों में रहे, जिन पर दुनिया की निगाह टिकी थी। मिल्खा रोम में 1960 में आयोजित ओलंपिक में बस एक सेकंड से कांस्य पदक जीतने से चूक गए थे। 400 मीटर की फाइनल दौड़ में वे सबसे आगे दौड़ रहे थे, साफ लग रहा था, वह जीत जाएंगे, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि वह बहुत ज्यादा तेज दौड़ रहे हैं, उन्होंने एक-दो पल के लिए थोड़ा धीरे दौड़ने और बाद के लिए ऊर्जा बचाने की भूल की थी, बस उतने में ही पदक उनके हाथों से फिसल गया। बाद में उन्होंने पूरा जोर लगा दिया, लेकिन स्वर्ण पदक की बात तो दूर, वे कांस्य पदक से भी मात्र एक सेकंड से चूक गए। कांस्य जीतने वाले दक्षिण अफ्रीकी एथलीट मेल स्पेंस ने दौड़ 45।5 सेकंड में पूरी की थी और मिल्खा 45।6 सेकंड का समय निकाल पाए थे। मिल्खा को वह कमाल किए 48 साल हो गए, लेकिन आज तक उन जैसा कोई पुरुष एथलीट भारत में नहीं उभरा। मिल्खा उस जमाने के एथलीट थे, जब खिलाडि़यों को रोजगार सुरक्षा भी नसीब नहीं थी। मिल्खा के पदक न जीत पाने का मलाल आज भी बहुतों को है। मिल्खा आज भी अपने स्वतंत्र विचारों के लिए जाने जाते हैं। उनके पुत्र विश्व प्रसिद्ध गोल्फर हैं। ----

महाराजा निशानेबाज
इक्कीस अप्रैल 1924 को जन्मे बीकानेर के 23वें महाराजा कणीü सिंह अपने समय में बहुत अच्छे निशानेबाज थे। उड़ती हुई चीजों को निशाना बनाने में वे माहिर थे। वे इंटरनेशनल स्कीट शूटर चैंपियन भी रहे थे। उन्होंने पांच बार ओलंपिक में हिस्सा लिया था और उन्हें पदक का प्रबल दावेदार माना जाता था। रोम से लेकर मास्को तक वे ओलंपिक में भारत की ओर से भाग लेने गए थे। महाराजा कणीü सिंह 17 साल तक क्ले पिजन ट्रैप एंड स्कीट निशानेबाजी की राष्ट्रीय स्पर्धा में विजयी रहे थे। वे देश के पहले ऐसे शूटर थे, जिन्हें 1961-62 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे 1952 से 1977 तक सांसद भी रहे थे। निशानेबाजी एक ऐसी स्पर्धा है, जिसमें केवल आपकी योग्यता ही आपको पदक नहीं दिलाती, इसके लिए आपका भाग्य भी प्रबल होना चाहिए। 4 सितंबर 1988 में उनका निधन हो गया, लेकिन आज भी उन्हें एक दिग्गज निशानेबाज की रूप में याद किया जाता है। वे राजस्थान के गौरव और आदर्श निशानेबाज माने जाते हैं।----

टोक्यो, मोंत्रिअल में मात
छह जून 1939 को अमृतसर जिले के नांग्ली गांव में जन्मे गुरबचन सिंह रंधावा 1964 टोक्यो ओलंपिक में 110 मीटर बाधा दौड़ में पदक के दावेदार माने जा रहे थे, लेकिन उन्हें पांचवें स्थान से ही संतोष करना पड़ा। वे अपने समय में देश के सबसे नामी एथलीट थे।बड़नगर राजस्थान में 14 नवंबर 1948 को जन्मे धावक श्रीराम सिंह ने 1976 मांटि्रयल ओलंपिक में पदक जीतने का विश्वास पैदा किया था। वह फाइनल में 400 मीटर दौड़ में आधी दौड़ तक सबसे आगे थे, लेकिन बाद में धीमे पड़ते हुए सातवें स्थान पर रहे थे। दौड़ जीतने वाले क्यूबा के धावक ने अपनी जीत का श्रेय श्रीराम सिंह को दिया था। सेना में काम करने वाले श्रीराम सिंह आगे चलकर बहुत अच्छे प्रशिक्षक साबित हुए। ठीक इसी तरह इसी ओलंपिक में मैराथन धावक शिवनाथ सिंह भी तगड़े दावेदार थे, लेकिन उन्हें ग्यारहवें स्थान से संतोष करना पड़ा। मांटि्रयल मांटि्रयल से भारतीय ओलंपिक दल खाली हाथ लौटा था। भारत में और लगभग छह ऐसे खिलाड़ी हुए, जिन्होंने ओलंपिक में पदक जीत का विश्वास पैदा किया, लेकिन वक्त उनके साथ नहीं था।---

आशा भरी उषा
उड़न परी और पय्योली एक्सप्रेस के नाम से मशहूर पिलावुल्लकंडी थेक्केपरंबिल उषा यानी पी। टी। उषा का जन्म 27 जून 1964 को केरल में हुआ। वह कोझकोड जिले के पय्योली गांव में जन्मीं और एक समय पूरे एशिया में उनके उड़ते कदमों की तूती बोलती थी। 1984 में लॉस एंजेलिस में आयोजित ओलंपिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में उषा को पदक का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, लेकिन वह भी मिल्खा सिंह की तरह बहुत मामूली अंतर से चूक गई। एक सेकंड के मात्र सौवें हिस्से से वह पिछड़ गई थीं, वरना उनके हाथ कांस्य पदक तो जरूर लगता। पदक न जीत पाने पर उषा के साथ-साथ पूरा देश निराश हुआ था। बताया जाता है, उषा दौड़ने में तो किसी से कम नहीं थीं, लेकिन दौड़ के समापन करते हुए वे कुछ पिछड़ जाती थीं। उषा ही नहीं, बल्कि देश को भी उस हार का आज भी मलाल है। वह पहली भारतीय महिला हैं, जिन्होंने ओलंपिक में किसी स्पर्धा के फाइनल में जगह बनाई थी। उन्होंने अपने जीवन में 100 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय पदक जीते। उनके बाद भारत आज तक ओलंपिक में दौड़ से जुड़ी किसी स्पर्धा में उम्मीद नहीं जगा पाया है।

अभिनव से पहले ओलंपिक में भारतीय पदक विजेता



अखाडे से आगाज : खाशाबा दादासाहेब जाधव


अगर हम ओलंपिक में भारतीयों के पदक जीतने की बात करें, तो 15 जनवरी 1926 को जन्मे खाशाबा दादासाहेब जाधव अर्थात के डी जाधव ने एकल स्पर्धा में पहली बार भारत को पदक दिलाया था। जब देश आजाद हुआ था, तब उन्होंने लंदन ओलंपिक में भाग लिया था, फ्लाइवेट केटगरी के तहत मुकाबलों में वे छठे स्थान पर रहे थे। पांच साल बाद हेलसिंकी ओलंपिक 1952 में जाधव बहुत आशा के साथ गए थे। उनकी प्रतिभा शुरुआती मुकाबलों में ही साबित हो गई थी। चूंकि इस बार उनका वजन कुछ बढ़ गया था, इसलिए उन्हें बेंटमवेट केटगरी की कुश्ती में भाग लेने दिया गया। सेमीफाइनल में उन्हें न जाने क्या हो गया, वे कुछ कमजोर पड़ते दिखे, लेकिन उन्होंने अपने अगले मुकाबले में वापसी करते हुए कांस्य पदक जीत ही लिया। यह भारत के लिए हॉकी से अलग एक बहुत बड़ी शुरुआत थी, लेकिन देश ने जाधव को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। वे पुलिस की नौकरी करते रहे और अंतत: 14 अगस्त 1884 को सड़क दुर्घटना के कारण उनका निधन हो गया। बड़ी उपलçब्ध के बावजूद जाधव का जीवन गरीबी में बीता। जाधव की जिस तरह उपेक्षा हुई, उससे साफ हो गया कि नवजात भारत सरकार आगे भी खेलों के प्रति लापरवाह रहने वाली है। आज खेल संगठन भी जाधव को ढंग से याद नहीं करते। कथित गामा पहलवान, दारा सिंह और ग्रेट खली जैसे जो पहलवान ओलंपिक में देश का सम्मान रत्ती भर भी नहीं बढ़ा पाए, उन्हें भी जाधव से ज्यादा धन-सम्मान नसीब हुआ। जाधव के बाद भारत के पास आज भी कोई पहलवान नहीं है, जो ओलंपिक में पदक की दावेदारी कर सकता हो।


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एक अंग्रेज भारतीय : नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिचर्ड


कोलकाता में 23 जून 1877 को जन्मे नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिचर्ड ने वर्ष 1900 में पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों में भारत की ओर से हिस्सा लिया था और 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण और 200 मीटर बाधा दौड़ में रजत जीता था। नॉर्मन प्रिचर्ड 1905 में इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में भी मन नहीं लगा, तो हॉलीवुड चले गए और उन्होंने वहां न केवल नाटकों बल्कि कुछ मूक फिल्मों में नॉर्मन ट्रेवर के नाम से अभिनय भी किया। 31 अक्टूबर 1929 में लॉस एंजेल्स में उनका निधन हो गया। नॉर्मन भारत की ओर से पदक जीतने वाले न केवल पहले एथलीट थे, बल्कि वे ओलंपिक पदक जीतने वाले पहले एशियाई भी थे। हालांकि उनकी नागरिकता पर भी कम विवाद नहीं है। भारत से उन्हें विधिवत ओलंपिक में भाग लेने के लिए नहीं भेजा गया था, वे स्वयं भाग लेने गए थे। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक फेडरेशन के अनुसार प्रिचर्ड भारत की ओर से नहीं, बल्कि ग्रेट ब्रिटेन की ओर से खेले थे। खेल इतिहासकार दावा करते हैं कि जब वे ब्रिटिश खेलों में भाग लेने स्वदेश गए थे, तभी उन्हें ग्रेट ब्रिटेन की ओर से ओलंपिक में खेलने के लिए अधिकृत कर दिया गया था। बहरहाल, इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी अभी भी प्रिचर्ड को भारत के हिस्से में मानती है, क्योंकि प्रिचर्ड ने ओलंपिक में भारत की ओर से अपना नाम लिखवाया था।


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सूखे में एक बूंद : लियेंडर पेस


सतरह जून 1973 को जन्मे लियेंडर पेस ने वर्ष 1996 में अटलांटा में लॉन टेनिस स्पर्धा में कांस्य पदक जीतकर एकल स्पर्धा में पदकों के सूखे को कुछ दूर किया। 1997 में देश के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से पुरस्कृत पेस वल्र्ड जूनियर चैंपियन रह चुके थे, अत: ओलंपिक में स्वाभाविक ही उनसे काफी उम्मीदें थीं, जिन्हें कांस्य जीतकर पेस ने पूरा किया। पेस इतने जबरदस्त फॉर्म में चल रहे थे कि अगर वे स्वर्ण जीत जाते, तो भी किसी को आश्चर्य नहीं होता। ओलंपिक में कई पेशेवर लॉन टेनिस खिलाडि़यों ने हिस्सा नहीं लिया था। अब तक युगल स्पर्धाओं में सात ग्रेंड स्लैम खिताब जीत चुके पेस अपने उस प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाए। खैर, ओलंपिक में एकल स्पर्धा में भारत को पदक दिलवाने वाले वे दूसरे भारतीय हैं। उन्होंने जो भी किया है, अपने दम पर किया है। उनकी तरक्की में सरकार की भूमिका न के बराबर है।


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बढ़ा देश का वजन : मल्लेश्वरी


एक जून 1975 को श्रीकाकुलम आंध्रप्रदेश में जन्मी भारोत्तलक कर्णम मल्लेश्वरी ओलंपिक में पदक पाने वाली पहली और अकेली भारतीय महिला हैं। न उनके पहले किसी भारतीय महिला ने ओलंपिक में पदक जीता और न उनके बाद। वर्ष 1996 में सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित कर्णम मल्लेश्वरी को वर्ष 2000 में सिडनी ओलंपिक के लिए भारतीय दल में शामिल करने को लेकर विवाद हुआ था, जब कुंजरानी देवी की बजाय मल्लेश्वरी को वरीयता दी गई थी, मल्लेश्वरी के लिए यह महत्वपूर्ण मौका था, उन्होंने आलोचनाओं की चुनौती को स्वीकार किया और पदक जीतने के लिए जी-जान लगा दिया। जब 69 किलोग्राम वर्ग में उन्हें कांस्य पदक मिला, तो देश में खुशी की लहर दौड़ गई। देश की लड़कियों और महिलाओं के लिए भी यह गर्व की बात है कि वे पुरुषों से ज्यादा पीछे नहीं हैं। वे कहती हैं, `लोग मुझसे पूछते रहते हैं, भारत ज्यादा पदक क्यों नहीं जीतता है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर इस बारे में बात करना आसान है, लेकिन पदक जीतना आसान नहीं है।´


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लग ही गया निशाना : राज्यवर्धन सिंह राठौर


उन्तीस जनवरी 1970 को जैसलमेर (राजस्थान) में जन्मे राज्यवर्धन सिंह राठौर ने ओलंपिक में वह कर दिखाया, जो अपने राज्य राजस्थान के बीकानेर महाराज कणी सिंह नहीं कर पाए थे। भारतीय सेना में कार्यरत ले.क. राज्यवर्धन सिंह राठौर ने डबल ट्रैप निशानेबाजी में कई कमाल किए हैं, लेकिन सबसे बड़ा कमाल था, एथेंस ओलंपिक में रजत पदक जीतना। एकल स्पद्धाü में पहली बार एक भारतीय ने रजक पदक जीता। एथेंस में क्लालिफिकेशन राउंड में राठौर पांचवे स्थान पर थे, लेकिन फाइनल में उन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया और दूसरे स्थान पर रहे। यह भारत के लिए अचानक आई बड़ी सफलता थी। पूरे देश ने राठौर का लोहा माना। बीजिंग में भी उनसे स्वाभाविक ही उम्मीद बंधी थी, लेकिन उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और वे 15वें स्थान पर रहे। फिर भी राठौर को इस बात का श्रेय जाएगा कि उन्होंने भारतीय निशानेबाजों का सम्मान बढ़ाया। उनसे पहले भारत में एक से बढ़कर एक निशानेबाज हुए थे, लेकिन किसी ने देश को ओलंपिक में पदक नहीं दिलाया था।

Monday, 11 August 2008

सबको सोना मुबारक हो


देश ओलंपिक में जीते गए स्वर्ण की अभिनव आभा से चमक रहा है। चमक इतनी तीव्र है कि आंखें चौंधिया रही हैं। जो आज तक न हो सका था, वह हो गया। अभिनव बिंद्रा ने 10 मीटर एयर रायफल शूटिंग में वह पदक जीता है, जिसका इंतजार करते न केवल देशवासियों की पलकें थक गई थीं, बल्कि असंख्य देशवासियों ने स्वर्ण का इंतजार करना भी छोड़ दिया था। तो लीजिए, हाजिर है देश की झोली में एक नायाब स्वर्ण पदक, जिसने भारतीय खेल इतिहास में अपना अलग अध्याय बना लिया है। बेशक, देश की आजादी के बाद खेलों की दुनिया में यह भारत की सबसे बड़ी सफलता मानी जाएगी। अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित भारत के खेल रत्न 25 वर्षीय अभिनव बिंद्रा लगभग सवा अरब देशवासियों की चोटिल उम्मीदों पर भी खरे उतरे हैं, उन्होंने निराशा को न केवल दूर किया है, बल्कि उम्मीदों को नई जमीन दी है। यह मानना चाहिए कि पिछले ओलंपिक में राज्यवद्धन सिंह राठौर ने रजत पदक जीतकर संकेत दे दिया था कि भारत के निशानेबाज स्वर्ण की दहलीज तक पहुंच गए हैं। पिछली बार हम रजत जीते और अब स्वर्ण हमारे साथ है, दरअसल खेल विरोधी किसी देश में सफलता की लड़ी ऐसे ही तैयार होती है। अभिनव अपनी योग्यता तो वर्ष 2000 में ही साबित कर चुके थे, लेकिन इस बार वक्त उन पर मेहरबान था, साथ ही, पूरे देश की आकांक्षा उनके साथ थी। यादगार कमाल हो गया। अभिनव की पहली प्रतिक्रिया थी, `आज मेरा दिन था।´

अभिनव की टिप्पणी में हम जोड़ सकते हैं, यह भारत का दिन था। अभिनव एक सहज खिलाड़ी हैं, बड़बोले तो बिल्कुल नहीं। शायद इसीलिए उनसे उम्मीद लगाने वालों की संख्या ज्यादा नहीं थी, लेकिन शायद इसीलिए अभिनव पर किसी तरह का दबाव नहीं था। निशानेबाजी एक मुश्किल खेल है। जिसमें बाल की खाल बराबर गलती भी आपको पदक की दौड़ में पछाड़ सकती है। गगन नारंग 600 में से 595 अंक लेने के बावजूद फायनल राउंड के योग्य नहीं बन पाए, जबकि 600 में 596 अंक लेकर अभिनव ने फायनल राउंड में भाग लेने की योग्यता हासिल की और योग्यता हासिल करने वालों में चौथे स्थान पर थे, सोचिए कि स्पद्धियों में कितना मामूली अंतर था। फाइनल में आखिरी शॉट बाकी था। अभिनव दूसरे स्थान पर थे। फिनलैंड के हेनरी पहले स्थान पर, लेकिन जहां आखिरी शॉट में अभिनव सबसे अव्वल रहे, वहीं हेनरी का आखिरी शॉट बिगड़ गया और वे कांस्य पदक पर आ गए। अभिनव का स्कोर 700.5, रजत विजेता चीन के जे किनान का स्कोर 699.7, कांस्य विजेता फिनलैंड के हेनरी का स्कोर 699.4 रहा। क्यों है न बाल की खाल बराबर अंतर? और इसीलिए खुशी जरूरत से ज्यादा है। अभिनव के पिता सातवें आसमान पर हैं, उन्होंने अपने बेटे के लिए उद्घोष किया, `सिंह इज किंग।´ अभिनव बिंद्रा अब देश के सबसे अमीर खिलाडि़यों में शुमार हो जाएंगे, क्योंकि अभी तक वे केवल रत्न थे, लेकिन अब रत्नेश हो गए हैं। वे युवा हैं, उनकी आंखों में भारत के भविष्य की चमक है। उम्मीदों से लबरेज होकर कहना चाहिए, यह भारत की शुरुआत है। शुरुआत मिल्खा सिंह के समय हो सकती थी, पी.टी. उषा के समय हो सकती थी, लेकिन अभिनव के समय हुई है। लोग 28 साल बाद स्वर्ण पाने की बात कर रहे हैं, लेकिन लगभग 112 सालों से हम ओलंपिक में भाग ले रहे थे, एकल स्वर्ण एक नहीं आया था। अब गर्व से दर्ज कीजिए, 11 अगस्त 2008 को हमारी आजादी के 61वें जश्न से महज चार दिन पहले देश ओलंपिक की स्वर्णिम अभिनव आभा से आल्हादित हुआ था। स्वागतम्, सु-स्वागतम्...

Tuesday, 5 August 2008

भीड़ की भक्ति से भड़के भगवान?

हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध धर्मस्थल नैना देवी मंदिर के बाहर रविवार ३ अगस्त को मची भीषण भगदड़ में लगभग डेढ़ सौ लोगों की मौत भक्ति की बढ़ती भेड़चाल को मुंह चिढ़ा रही है। दुर्घटना दुखद और शर्मनाक है। जरूरत से ज्यादा भीड़ बनाकर किसी मंदिर या धर्मस्थल पर भक्ति के लिए जुटना अब हमारी आदत में शुमार हो चुका है। प्रशासन और सरकारों को तो जितना कोसिए कम है। जैसे ही अत्यधिक भीड़ जुटती है, इंतजामों का रायता फैल जाता है। सबकुछ भगवान भरोसे होता है। भीड़ वाली जगहों के लिए विशेष नीति या इंतजाम की जरूरत है, लेकिन धर्म-धर्म चीखने वाली भाजपा की सरकारों ने भी कभी इस दिशा में प्रयास नहीं किया है।


माफ कीजिएगा यह भक्ति नहीं है? भक्ति एक शांत और एकल भावना है, यह भीड़ में संभव नहीं हो सकती। भीड़ का व्याकरण असभ्यता और अभद्रता का व्याकरण है। अभी आप किसी भी धर्मस्थल पर चले जाए, श्रावण का महीना चल रहा है, हरिद्वार से लेकर रामेश्वरम तक सभी धर्मस्थल ठसाठस मिलेंगे? कथित भक्ति की रेलमपेल मची है। भीड़ बनकर देह से देह रगड़ते हुए पूजा में न जाने कितना रस मिलता है? ऐसी पूजा से न जाने कितना फल मिलता है? भगदड़ की घटनाओं के बहाने कोई भी नास्तिक भीड़ वाली भक्ति पर सवालिया निशान लगा सकता है और लगाना भी चाहिए। छोटे-छोटे बच्चों को टांगे हुए लोग मंदिरों में आखिर क्यों धक्के खाने पहुंच जाते हैं? भगवान कोई वीआईपी अफसर या मंत्री नहीं हैं कि सप्ताह में एकाध दफा दर्शन दें, वे तो सदा और सर्वत्र उपलब्ध हैं, क्या उन्हें घर बैठे याद नहीं किया जा सकता? प्रसिद्ध धर्मस्थलों के दर्शन आराम से बिना भीड़ लगाए भी संभव है। दरअसल, भीड़ की भक्ति को बाजार ने बढ़ावा दिया है।


आप किसी भी धर्मस्थल पर चले जाइए, वहां विराजमान धंधेबाज आपको ठगने के लिए अजगर की तरह चीभ लपलपाते दिखेंगे? वाराणसी के घाट से लेकर ख्वाजा के दरबार अजमेर तक आप भक्ति करने जाते हैं और वहां के पंडे, खादिम आपका मूड खराब करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। आपका ध्यान दर्शन पर होता है और पंडों का ध्यान आपकी जेब पर। आप धर्मस्थलों पर बार-बार ठगे जाते हैं। यही नहीं, धर्मस्थलों के आसपास मिलावटी सामान या प्रसाद खूब मिलता है और कीमत भी नाजायज वसूली जाती है। धर्मस्थलों के आसपास पाप और ठगी का ऐसा जाल बुन चुका है कि जिसमें सीधे-सादे श्रद्धालु फंसी मछली की तरह तड़पते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं पाते। क्या ऐसी जगहों पर भगवान वाकई रहते होंगे? क्या भगवान को ठगों और अपवित्र दुष्ट लोगों के बीच रहना अच्छा लगता होगा? भीड़, दिखावा, भेड़चाल, झूठ, ठगी, अभद्रता और गंदे मिलावटी प्रसादों-भोगों से भड़क कर भगवान न जाने कितने कथित विख्यात धर्मस्थलों को छोड़ चुके होंगे।


कहा जाता है, सब भगवान की मर्जी है, क्या भगदड़ भी भगवान की मर्जी है? क्या जहाँ पाप होता है वहां विनाश होता है?

Saturday, 2 August 2008

आज कुछ उदास लाल सलाम


कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत का हमारी दुनिया से विदा होना न केवल भारतीय वामपंथ, बल्कि वैश्विक वामपंथी विचारधारा के लिए एक बड़ी क्षति है। एक विरल वामपंथी के रूप में पगघारी सरदार कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत भारतीय वाम का सच्चा चेहरा थे। एक ऐसा भारतीय, जो राष्ट्रवाद की आंच में तपने के बाद वाम धरा पर चट्टानी मजबूती के साथ स्थापित हुआ था। भारतीय परिवेश में वामपंथी होना कितना कठिन है, यह बात सुरजीत बहुत अच्छी तरह जानते थे। सच्चा वामपंथ अवसरवाद के अवसर नहीं देता, वह तो संपूर्ण संमर्पण मांगता है और कॉमरेड सुरजीत वाम विचारधारा की कसौटी पर सोलह आना खरे उतरे। सुरजीत के कॉमरेड होने की बात करने से पहले उनके सच्चे राष्ट्रवादी होने की बात करना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि अपने देश पर चीन ने जब 1962 में हमला किया था, तब विचारधारा के स्तर पर चीन के समर्थन में नजर आने वाले कॉमरेड सुरजीत की राष्ट्र निष्ठा पर सवाल उठाए गए थे और वामधारा की समझ के अभाव में हमेशा उठाए जाते रहेंगे। अंग्रेजों के समय किशोर सुरजीत सबसे पहले भगत सिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर नौजवान भारत सभा में शामिल हो गए थे। इतना ही नहीं, युवा वय में होशियारपुर कोर्ट पर भारतीय ध्वज को फहराने के जुनून में उन्होंने पुलिस फायरिंग को भी अनदेखा कर दिया था और कोर्ट में अपना नाम `लंदन तोड़ सिंह´ बताया था। कॉमरेड सुरजीत का इतिहास लिखते हुए `लंदन तोड़ सिंह´ को नजरअंदाज करना अक्षम्य अपराध होगा। जो `लंदन तोड़ सिंह´ को नहीं जानता, वह कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत को कैसे समझ सकता है? कॉमरेड सुरजीत को सामने रखकर आप बेहिचक बोल सकते हैं, आजादी की लड़ाई में वामपंथियों ने भी भाग लिया था। कॉमरेड सुरजीत की भावधारा का निर्माण पढ़े-लिखे सोवियत संघ-मुखी बुद्धिजीवियों की बैठकों में गरमागरम बहस करते हुए नहीं हुआ था। वे केवल किताब पढ़कर कॉमरेड नहीं हो गए थे, वे पंजाब में किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ते हुए कॉमरेड हुए थे। हां उनसे गलती हुई, उन्होंने भारत की आजादी को एक झटके में स्वीकार नहीं किया। हालांकि इसके पीछे भी एक दमदार वजह है। एक नेता के रूप में उनकी निगाह महज गरीबों और शोषितों पर टिकी थी, वे रोटी का स्वप्न देख रहे थे, आजाद देश की सत्ता में भागीदारी का स्वप्न नहीं देख पा रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंने अन्य अनेक वामपंथियों की तरह भारत की आजादी को झूठी आजादी ठहराया था। ईमानदारी से देखिए, तो आज भी भारत में गरीबों और शोषितों का एक विशाल हुजूम है, जो आजादी के ककहरे से महरूम हैं। वे विरल वामपंथी थे। सिख थे, तो अंत तक सिख रहे, खालिस्तान आंदोलन का विरोध किया। स्टालिन को आदर्श मानते थे, लेकिन बैलेट बॉक्स की राजनीति से कभी परहेज नहीं किया। वे चुनाव लड़ने वाले वामपंथी नहीं थे, वे तो 1980 का दशक आते-आते वाम विचारधारा को दिल्ली में आधार देने वाले राजनीतिज्ञ में तब्दील हो चुके थे। दिल्ली जैसी खतरनाक सत्ता-प्रेमी जगह पर वामपंथी होना वाकई मुश्किल काम है, लेकिन वहां उन्होंने एक संयोजक, समन्वयक बनकर सांप्रदायिकता से लोहा लिया। माकपा महासचिव नंबूदरीपाद के समय वामपंथी कुछ समय के लिए भाजपा के साथ दिखे थे, लेकिन कॉमरेड सुरजीत के महासचिव रहते कभी ऐसा नहीं हुआ। भाजपा को सत्ता से अलग रखने के लिए उन्होंने अनेक मोर्चों , समीकरणों की रचना की। अफसोस अब जब कोई तीसरा मोर्चा बनेगा, तो छोटे-छोटे दलों के नेताओं को साथ लेकर एक साथ हाथ ऊपर उठाए हुए कॉमरेड सुरजीत नजर नहीं आएंगे। पता नहीं, उनके बिना इस देश में कोई तीसरा मोर्चा बन भी पाएगा या नहीं। केवल वामधारा ने ही नहीं, भारतीय राजनीति ने अपना एक महत्वपूर्ण महारथी गंवा दिया है। वाकई, आज उदास है लाल सलाम।